तितली मटर की खेेेेती, चराहगाह विकास हेतु एक उत्तम विकल्प

तितली मटर (क्लाइटोरिया टेर्नेटा एल.) एक बहुउद्देशीय दलहनी कुल का पौधा है इसका चारा पशु पोषण के हिसाब से अन्य दलहनी कुल के पौधों की अपेक्षा बहुत अधिक पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं पाचनशील होता है।

जिस कारण सभी प्रकार के पशुओं इसके चारे को बड़े चाव से खाते है। तितली मटर का तना बहुत पतला एवं मुलायम होता है, एवं इसमें पत्तियाँ चौड़ी एवं अधिक संख्या में होती है जिस कारण इसका चारा “हे” एवं “साइलेज” बनाने के लिए उपयुक्त माना गया है।

अन्य दलहनी फसलों की तुलना में इसमें कटाई या चराई के बाद कम अवधि के भीतर ही पुनर्वृद्धि शुरू हों जाती है एवं इसमें चारा पैदावार की क्षमता अन्य दलहनी फसलों की तुलना में अधिक होती है।

तितली मटर की खेती के लिए कम उपजाऊ भूमिया सबसे उपयुक्त मानी जाती है, जिस कारण इसे कम उत्पादक चरागाहों एवं बंजर भूमियों के विकास के लिए घास + दलहनी फसल मिश्रण के रूप में उगाते है।

दलहनी कुल का पौधा होने के कारण यह मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाता है एवं इसका पौधा जमीन पर बेल की तरह फैलता है जिससे यह मृदा संरक्षण का काम करता है। अतः यह उतम अपरदन अवरोधी फसल भी है। इसके अलावा तितली मटर को सजावटी पौधे के रूप में उद्यानों में हैज पंक्ति के रूप में भी लगाया जाता है।

तितली मटर के पौधे का आकारिकी वर्णनः

वनस्पति-विज्ञान के अनुसार तितली मटर (क्लाइटोरिया टेर्नेटा एल.) दलहनी कुल के उप कुल पैपिलिओनेसी से है। यह प्रतिकूल जलवायु में लंबे समय तक जीवित रहने वाला बहुवर्षीय पौधा है। इसका जड़ तंत्र क्षैतिज प्रकार का होता है तथा जड़ मोटी होती है एवं भूमि में 2 मीटर से अधिक दूरी तक फैल जाती है।

जड़ के आधार पर एक या एक से अधिक हल्के बैंगनी, हल्के हरे नीले रंग के तार के जैसे लंबे तने निकलते है। इसका तना बारीक, मजबूत एवं अर्ध सीधा होता है एवं तने से बहुत सी शाखायें निकलती है।

इसके तने की लम्बाई 0.5-3 मीटर तक होती है। पत्तियाँ तने से निकलने वाली शाखाओं पर डंडियो के रूप में दोनों ओर संयुक्त रूप से निकलती है जिनकी संख्या 5-7 होती है,एवं पत्तियाँ दीर्घ वृत्ताकार या भालाकार आकार की होती है, जिनकी लंबाई 3-5 सेमी तक होती है, एवं पत्तियों के नीचे वाला भाग रोमिल होता है।

फूल अक्षतंतु, एकल या युगल गहरे नीले से हल्के नीले मौवे या पूर्ण सफेद रंग के होते हैं एवं बहुत छोटे पेडिकेलेट युक्त 4-5 सेमी लंबा ओर अंडाकार त्रिकोणीय होते है।

फली चपटी, रैखिक, चोंच वाली, 6-12 सेमी लंबी और 0.7-1.2 सेमी चैड़ी एवं थोड़ी सी रोयेंदार होती है जिसमे 8-11 तक बीज पाये जाते है एवं परिपक्व होने पर पीले भूरे या जैतून भूरे रंग की हो जाती है।

इसका बीज 4.5-7 मिमी लंबा और 3-4 मिमी चैड़ा जैतून भूरे या काले रंग के होते हैं एवं 1000 बीजो का औसत भार लगभग 44 ग्राम होता है।

उत्पत्ति और वितरणः

तितली मटर का उत्पत्ति स्थान एशिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र एवं अफ्रीका को माना जाता है, परन्तु दुनिया भर में इसके व्यापक प्राकृतिककरण के कारण इसकी उत्पत्ति अस्पष्ट है। हालांकि तितली मटर संसार के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों में व्यापक रूप से फैला हुआ है। परन्तु इसकी व्यापक रूप से खेती दक्षिण और मध्य अमेरिका, पूर्व और पश्चिम इंडीज, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, चीन और भारत में की जाती है।

चारा उत्पादन क्षमता एवं चारे का पोषक मानः

अनुकूल परिस्थितियों में तितली मटर से लगभग 10 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष तक सुखा चारा मिल जाता है, एवं वैज्ञानिक अध्ययन एवं विश्लेषण से यह पता लगा है, की इसका चारा पशु पोषण के हिसाब से बहुत ही उपयुक्त माना गया है।

इसके चारे में सभी पोषक तत्व पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं एवं इसका चारा बहुत ही स्वादिष्ट एवं पाचनशील होता है, जिस कारण सभी प्रकार के पशु इसके चारे को बड़े चाव से खाते है।

इसके चारे में पोषक मान प्रोटीन (19-23 %), क्रूड फाइबर(29-38 %), ईथर एक्सट्रेक्ट (3.4-4.4%), एनडीएफ (42-54 %), एडीएफ (38-47 %), फाइबर (21-29%), लिगनिन (14-16%) एवं पाचन शक्ति 60-75% होता है ।

तितली मटर की उन्नत खेतीः

तितली मटर एक बहुउद्देशीय बहुवर्षीय दलहनी कुल का पौधा है। यह प्रतिकूल जलवायु जैसे सूखा, गर्मी एवं सर्दी के प्रति सहिष्णु है, एवं यह विभिन्न प्रकार की मिट्टीया जैसे रेतीली मिट्टी से लेकर गहरी जलोढ़ दोमट एवं भारी काली मिट्टी जिनका पी एच मान 4.7 से 8.5 के मध्य रहता है, के लिए अनुकूलित है एवं यह मध्यम खारी मिट्टीयों के प्रति सहिष्णु है।

यह संसार के 400 से 1500 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा वाले उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रो में समुद्र तल से 1600 मीटर की ऊँचाई तक उगाया जाता है। तितली मटर का पौधा जल जलमग्न की स्थिति के प्रति अतिसंवेदनशीलहोता है,

अतः इसकी खेती के लिए उपयुक्त जलनिकास वाली मिट्टी चाहिए। तितली मटर की वृद्धि 15 डिग्री सेल्सियस से 45 डिग्री सेल्सियस तापमान तक नहीं रुकती, पर इसकी वृद्धि के लिए 32 डिग्री सेल्सियस तापमान अनुकूलतम माना जाता है। 

तितली मटर की खेती के लिए उन्नत सस्य क्रियाएँ

फसल चक्र एवं फसल मिश्रण    

फसल चक्र एवं फसल मिश्रण का मुख्य उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखते हुए कम लागत पर प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक पैदावार प्राप्त करना है, जिसके लिए तितली मटर एक उपयुक्त फसल है।

क्योंकि इसमें नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता होती है एवं इसका पौधा बेल की तरह भूमि पर वृद्धि करता है, जिससे इसके साथ उगाई जाने वाली फसल के साथ यह सूर्य की रोशनी एवं जगह के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं करता है। इन गुणों के कारण यह फसल चक्र एवं घास+दलहनी फसल मिश्रण के लिए उतम सहजीव फसल का काम करता है।

तितली मटर की खेती के लिए प्रमुख फसल चक्र निम्न हैः- तितली मटर (हरी खाद/ चारा) - सरसों/ अलसी/ गेंहूँ/ जौं/ जई।

तितली मटर की खेती के लिए प्रमुख फसल मिश्रण निम्न हैः- तितली मटर/ ज्वार/ बाजरा/ मक्का, तितली मटर, नेपियर घास/ दीनानाथ घास/ अंजन घास/ धामन घास/ ब्लू पेनिक घास/ गुनिया घास।

तितली मटर की खेती के लिए प्रमुख कृषि वानिकी प्रणाली निम्न हैः- तितली मटर/  बेर/ अरडु/ सहजना/ नीम/ खेजरी

उन्नत किस्में:

CAZRI-466, CAZRI-752, CAZRI-1433, IGFRI-23-1, IGFRI-12-1, IGFRI-40-1, ILCT-249 and ILCT-278   

बीज की मात्राः-

20 से 25 किलो बीज प्रति हेक्टेयर (शुद्ध फसल) 10 से 15 किलो बीज प्रति हेक्टेयर (मिश्रित फसल) 4 से 5 किलो बीज प्रति हेक्टेयर (स्थायी चारागाह) एवं 8 से 10 किलो बीज प्रति हेक्टेयर (अल्पावधि चरण चारागाह) की बुआई के लिए पर्याप्त है।

बुआई की विधिः-

सामान्यतः कतार में बुआई करे, जिसमे कतार से कतार की दूरी 20-25 सेन्टीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सेन्टीमीटर रखनी चाहिए। बीज की गहराई 2.5 से 3 सेन्टीमीटर रखनी चाहिए।

बीजोपचारः-

बीजोपचार के लिए बीज को बुआई से पूर्व कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) 1-2 ग्राम अथवा थायरम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करके। इसके बाद राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक:

तितली मटर के चारे की अच्छी पैदावार के लिए पहले साल 10-15 किग्रा नाइट्रोजन, 40-50 किग्रा फास्फोरस प्रति हेक्टेयर देना चाहिए इसके बाद 30 किग्रा फास्फोरस प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष देना चाहिए।

चारे की उपज  

वर्षा आधारित स्थिति में पहले साल लगभग 1.1 से 3.3 टन प्रति हेक्टेयर सुखा चारा मिल जाता है जबकि सिंचित स्थिति में लगभग 8-10 टन प्रति हेक्टेयर सुखा चारा मिल जाता है।

बीज उत्पादन

वर्षा आधारित स्थिति में पहले साल लगभग 100 से 150 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज मिल जाता है जबकि सिंचित स्थिति में लगभग 500 से 600 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज मिल जाता है।

कटाई प्रबंधन-

पहले साल इससे केवल एक कटाई लेना चाहिए ताकि इसके पौधे की जड़ें अच्छी तरह विकसित हों जाये। इसके बाद सस्य प्रबंधन एवं वर्षा की मात्रा के आधार पर साल भर में दो या दो अधिक कटाई ली जा सकती है।

चराई प्रबंधनः-

इसका चारा अन्य चारे वाली फसलोंकी अपेक्षा बहुत अधिक स्वादिष्ट होता है जिस कारण चरागाहों में पशुओं दुसरे चारों से पहले इसके चारे को खाते है, जिसे धीरे धीरे चरागाहों में इसकी की पौध संख्या कम होने लगती है। अतः चरागाहों में तितली मटर की पौध संख्या उचित अनुपात में रखने के लिए चरागाहों में नियंत्रित चराई करनी चाहिए।

चरागाह विकास में महत्त्वः

भारतीय कृषकों का जीवनयापन मूल रूप से कृषि एवं पशुपालन पर आधारित है। पशुधन की संख्या में भारत विश्व में अग्रणी देश है। परन्तु प्रति पशु उत्पादकता में हम विश्व के अन्य देशों से काफी पीछे हैं। यहाँ के पशुओं की प्रति पशु औसत उत्पादकता विश्व की औसत उत्पादकता का लगभग 21 प्रतिशत ही है, जो विश्व की तुलना में काफी कम है।

इस कम उत्पादकता का प्रमुख कारण पशुओं के लिए पर्याप्त एवं पौष्टिक चारे का अभाव है। चारा आपूर्ति में कमी के कारण इनकी उत्पादकता का पूरा दोहन नहीं हो पा रहा है। पशुपालन में होने वाले कुल खर्च का 60-70 प्रतिशत खर्च केवल पशु पोषण पर होता है। अतः कम लागत पर पशु पोषण के लिए पर्याप्त मात्र में पौष्टिक चारा उपलब्ध करवा कर पशुपालन को किसानों के लिए मुनाफे का व्यवसाय बनाया जा सकता है।

बढ़ती जनसंख्या की भोजन की मांग को पूरा करने के लिए उपजाऊ भूमियों का उपयोग खाद्य एवं नकदी वाली फसलों को उगने में हों रहा है। जिस कारण पौष्टिक चारा उत्पादन के लिए उपजाऊ भूमि उपलब्ध होने की संभावना दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। इन परिस्थितियों में पशु पोषण के लिए पर्याप्त मात्र में पौष्टिक चारा उपलब्ध करवाने के लिए अनुपयुक्त बंजर भूमियों एवं अनुत्पादक चरागाहों का नवीनीकरण करना एक बहतर विकल्प है।

जिससे पशुओं को पौष्टिक चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकता है। बंजर भूमियों एवं अनुत्पादक चरागाहों का नवीनीकरण में तितली मटर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। क्योंकि इसकी पत्तियों में लगभग 3.0 से 4.0 प्रतिशत नाइट्रोजन एवं सम्पूर्ण पौधे में लगभग 1.5 से 2.0 प्रतिशत नाइट्रोजन पाया जाता है जिस कारण इसे चरागाहों का प्रोटीन बैंक भी कहा जाता है, एवं इसका चारा पौष्टिक, स्वादिष्ट एवं पाचनशील होता है।

जिस कारण सभी प्रकार के पशुओं इसके चारे को बड़े चाव से खाते है। दलहनी कुल का पौधा होने के कारण यह मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाता है एवं इसका पौधा जमीन पर बेल की तरह फेलता है जिससे यह मृदा संरक्षण का काम करता है। साथ ही यह सुखा एवं गर्मी के प्रति सहिष्णु है।

इसके अलवा इसके पौधे में पुनर्जनन, पुनः विकास एवं बढवार दूसरे दलहनी पौधों की अपेक्षा बहुत अधिक होती है। अतः इन खूबियों के कारण तितली मटर अनुपयुक्त बंजर भूमियों एवं अनुत्पादक चरागाहों के लिएके लिए एक बेहतर विकल्प है।

अनुपयुक्त बंजर भूमियों एवं अनुत्पादक चरागाहों में इसके बीज को उन्नत किस्म की घासों के बीज के साथ मिलाकर बुवाई करके, इस प्रकार के चरागाहों की उत्पादकता बढ़ा सकते है। जिससे किसानों को वर्ष भर पशुओं के लिए पौष्टिक चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकता है एवं बेकार पड़ी बंजर भूमि का सदुपयोग किया जा सकता है।

तितली मटर एक उतम अपरदन अवरोधी फसल होने के कारण भू-क्षरण की रोकथाम करता है एवं बंजर भूमियों में नाइट्रोजन एवं कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाता है जिससे मिट्टी की जल धारण क्षमता व उर्वरता बढ़ती है। कुछ वर्ष बाद ही बंजर भूमि कृषि योग्य उपजाऊ हो जाती है।

इसका चारा अन्य चारों की अपेक्षा बहुत अधिक स्वादिष्ट होता है जिस कारण चरागाहों में पशुओं दुसरे चारों से पहले इसके चारे को खाते है इस कारण धीरे धीरे चरागाहों में तितली मटर की पौध संख्या कम होने लगती है।

अतः चरागाहों में तितली मटर की पौध संख्या उचित अनुपात में रखने के लिए चरागाहों में नियंत्रित चराई करनी चाहिए साथ ही उचित सस्य क्रियाएँ अपनाकर चरागाहों की उत्पादकता बनाये रखनी चाहिए ताकि पशुओं को वर्ष भर पौष्टिक चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके।


लेखक

रंगलाल मीणा1, सरोबना सरकार1, बनवारी लाल1, एल.आर. गुर्जर1, राजकुमार1

वैज्ञानिक, भा.कृ.अनु.प--केंद्रीय भेड़ और ऊन अनुसंधान संस्थान, अविकानगर, राजस्थान

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