Scientificcultivation of Mustard crop 

सरसों एवं राई की गिनती भारत की प्रमुख तीन तिलहनी फसलों (सोयाबीन, मूंगफली एवं सरसो) में होती है । राजस्थान में प्रमुख रूप से भरतपुर सवाई माधोपुर, अलवर करौली, कोटा, जयपुर आदि जिलो में सरसों की खेती की जाती है। सरसों में कम लागत लगाकर अधिक आय प्राप्त की जा सकती है।

इसके हरे पौधों का प्रयोग जानवरों के हरे चारे के रूप में लिया जा सकता है।  साथ ही पषु आहार के रूप में बीज, तेल, एंव खली को काम में ले सकतें हैं क्यो कि इनका प्रभाव षीतल होता है जिससे यें कई रोगो की रोकथाम में सहायक सिध्द होते है इसकी खली में लगभग 4 से 9 प्रतिषत नत्रजन 2.5 प्रतिषत फॉस्फोरस एवं 1.5 प्रतिषत पोटाष होता है। अत: कई देशों में इसका उपयोग खाद की तरह किया जाता ह किन्तु हमारे देष में यह केवल पशुओ को खिलाई जाती है।

इसके सूखे तनों को ईधन के रूप में उपयोग लिया जाता है। सरसों के बीज में तेल की मात्रा 30से 48 प्रतिषत तक पायी जाती है। सरसों राजस्थान की प्रमुख तिलहनी फसल है जिससे तेल प्राप्त होता है। सरसोें का तेल बनाने मालिष करने, साबुन ,ग्रीस बनाने तथा फल एंव सब्जियों के परीरंक्षण में का आता है।

जलवायु तथा मृदा : 

भारत में सरसों की खेती षरद ऋतु में की जाती है। इस फसल को 18 से 25 सेल्सियस तापमान की आवष्यकता होती है। सरसों की फसल के लिए फूल आते समय वर्षा, अधिक आर्द्रता एवं वायुमण्ड़ल में बादल छायें रहना अच्छा नही रहता है। अगर इसस प्रकार का मोसम होता हें तो फसल पर माहू या चैपा के आने का अधिक प्रकोप हो जाता हैं।

सरसों की खेती रेतीली से लेकर भारी मटियार मृदाओ में की जा सकती है। लेकिन बलुई दोमट मृदा सर्वाधिक उपयुक्त होती है। यह फसल हल्की क्षारीयता को सहन कर सकती है। लेकिन मृदा अम्लीय नही होनी चाहिए।

सरसों की उन्नत किस्में:

आर एच 30 : सिंचित व असिचित दोनो ही स्थितीयों में गेहूु चना एवं जौ े साथ खेती के लिए उपयुक्त इसस किस्म के पौधों 196 सेन्टीमीटर ऊचे, एवं 5से6 प्राथमिक ष्षाखाओं वाले होते है। यह किस्म देर से बुवाई के लिए भी उपयुक्त है। इसमें 45से50 दिन में फूल आने लगते है। और फसल 130से135 दिन में पक जाती है। एवं इसके दाने मोटे होते है। यदि 15से20 अटुम्बर तक इसकी बुवाई कर दी जाये तो मोयले के प्रकोप से बचा जा सकता है।

टी 59 (वरूणा) : मध्यम कद वाली इस किस्म की पकाव अवधि 125 से 140 दिन फलिया चौडी  छोटी एवं दाने मोटे काले रंग के होते है। इसकी उपज असिचित 15से18 दिन हेक्टर होती है। इसमें तेल की मात्रा 36 प्रतिषत होती है।

पूसा बोल्ड : मध्यम कद वाली इस किसम की षाखाओं फलियों से हुई व फलियों मोटी होती है। यह 130से140 दिन में पककर 20से25 क्विंटल हैक्टर उपज देती है। इसमें तेल की मात्रा 37से38 प्रतिषत तक पायी जाती है।

बायो 902 (पूसा जयकिसान)  : 160से180 से. मी. ऊँची इस किस्म में सफेद रोली ,मुरझान व तुलासितस रोगो का प्रकोप अन्य किस्मों की अपेक्षा कम होता है। इसकी फलिया पकने पर दाने झड़ते नही एवं इसका दाना कालापन लिए भूरे रंग का होता है।ै इसकी उपज 18से20 क्विं. हेक्टर, पकाव अवधि 130से140 दिन एवं तेल की मात्रा 38से40 प्रतिषत होती है। इसके तेल में असंतृप्प्त वसीय अल कम होते है, इसलिए इसका तेल खाने के लिए उपयुक्त होता है।

वसुन्धरा (आर.एच. 9304) : समय पर एवं सिंचित क्षेत्र में बोई जाने वाली इस किस् का पपौधा 180से 190 से. मी. ऊँचा होता है। 130से 135 दिन में पकने वाली इस किस्म की पैदावार 25से27 क्विं.। हेक्टर तक होती है। यह किस्म आड़ी गिरने तथा फली चटखने से प्रतिरोध है तथा सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

अरावली (आर.एन.393) : 135 से 138 दिन में पपकने वाली इस किस्म की ऊँर्चा मध्यम होती है। तेल की मात्रा 42 प्रतिषत एवं 55से 60 दिन में फूल आने वाली इस किस्म की औसत ैदावार 22से25 क्विं. हेक्टर तक होती है। यह सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

जगन्नाय (बी. एस. एल.5) : यह किस् समय से बुवाई के लिए सिचित क्षैत्र के लिए उपयुक्त है। यह मध्यम ऊँचाई वाली (165 से 170 से.मी.) 125 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है बीज स्लेटी से काले रंग का मध्यम मोटा होता है । तल की मात्रा 39से40 प्रतिषत तथा औसत पैदावार 20से22 क्विं. हैक्टर होतर है। यह किस्म पत्ती धब्बा रोग तथा सफेद रोली के मध्य प्रतिरोधी है आड़ी गिरने व फली चटखने से पप्रतिरोधी होती है।

लक्ष्मी (आर .एच. 8812) : समय से बंवाई एवं सिचिंत क्ष्ैत्र के लिए उपयोगी किस् अधिक ऊचाई वाली (160 से 180 से. मी. ) यह किस्म 140 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पत्तियॉ छोटी एव पतली लेकिन फली आने पर भार के कारण आड़ी पडने की सम्भावना होती है फलियॉ मोटी एवं पकने पर चटखती नी है। दाना काला तथा मोटा होता है। तेल की मात्रा 401 प्रतिषत होती है। तथा औसत पैदावार 22से 25 क्विं. हैक्टयर होती है यह किस्म पत्ती धब्बा रोग एवं सफेद रोली से मध्यम प्रतिरोधी है।

स्वर्ण ज्योति (आर. एच. 9820) : देर से बाुेई जाने एवं सिंचित क्ष्ैत्र के लिए उपयुक्त। पौधा मध्यम ऊँचाई का (135 से 140) दिन में फूल आने वाली यह किस्म 135से 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है तेल की मात्रा 39 से 42 प्रतिषत होती है। यह किस्म 15 नवम्बर तक बोई जाने पर भी अच्छी पैदावार देती है इसकी औसत पैदावार 13से15 क्वि. हैक्टयर होती है। यह आड़ी गिरने एवं फली छिटकने से प्रतिराधी, पाले के लिए मध्यम सहनषील एवं सफेद रोली से मध्य प्रतिरोधी है।

आषीर्वाद (आर. के. 01से03) : यह किस्म देरी से बुवाई के लिए (25 अक्टुबर से 15 नवम्बर तक) उपयुक्त पायी गई है। इसका पौधा 130से140 से. मी. ऊँचा होता है। तेल की मात्रा 39से42 प्रतिषत होती है। यह किस्म आड़ी गिरने एवं फली छिटकने से प्रतिरोधी पाले से मध्यम प्रतिरोधी 120से130 दिन में पककर 13से15 क्विं. हैक्टयर उपज देती है

खेत की तैयारी :

सरसों के लिए भुरभुरी मृदा की आवष्यकता होती है। इसे लिए खरीफ की कटाई के बाद एक गहरी जुताई करनी चाहिए तथा इसके बाद तीन चार बाार देषी हल से जुताई करना लाभप्रद होता है। जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को तेयार करना खहिए असिंचित क्षैत्रों में वर्षा के पहले जुताई करके खरीफ मौसम में खेत पड़ती छोडना चाहिए जिससे वर्षा का पानी का संरक्षण हो सके । जिसके बाद हल्की जुताइयॉ करके खेत तैयार करना चाहिए । यदि खेत में दीमक एवं अन्य कीटो का प्रकोप अधिक हो तो, नियंत्रण हेतु अन्तिम जुताई के समय क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिषत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टयर की दर ससे देना चाहिए। साथ ही, उत्पादन बढ़ाने हेतु 2से3 किलरग्राम एजोटोबेक्टा एवं पी.ए.बी कल्चर की 50 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मीकल्चर में मिलाकर अंतिम जुर्ता से पुर्ण खेत में ड़ालना चाहिए।

सरसों की बुवाई :

सरसों की बुवाई के लियें उपयुक्त तापमान 25 से 26 सैल्सियस तक रहता है। बारानी में सरसों की बुवाई 15 सितम्बर से 15 अक्टुबंर तक कर देनी चाहिए। सिंचित क्षैत्रो में अक्टूबर के अन्त तक बंवाई की जा ससकती हैं सरसों की बुवाई कतारो में करनी चाहिए। कतार से कतार की दूरी 30 सें. मी. तथा पौधों से पौधें की दूरी 10 सें. मी. रखनी चाहिए। सिंचित क्षैत्र में बीज की गहराई 5 से. मी. तक रखी जाती है। असिचित क्षैत्र में गहराइ्र नमी के अनुसार रखनी चाहिए।

बुंवाई के लिए शुष्‍क क्षैत्र में 4 से 5 कि.ग्रा तथा सिंचित क्षैत्र में 2.5 कि. ग्रा बीज प्रति हैक्टर पर्याप्त रहता है।  बुवाइे से पहले बीज को 2.5 ग्राम मैन्कोजेब प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।

खाद व उर्वरक प्रबन्धन :

सिंचित फसल के लिए 8से10 टन सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टर की दर से बुवाई के 3से 4 सप्ताह पुर्व खेत मे डालकर खेत की तैयारी करें एवं बारानी क्षत्र में वर्षा े पुर्व 4से5 टन सडी खाद प्रति हैक्टर खेत में डाल देवें।

एक दो वर्षा के बाद खेत में समान रूप से फैलाकर जुताई करे। सिंचित क्षैत्रों में 80 कि.ग्रा. नत्रजन 30से40 किग्रा फॉस्फोरस एवं 375 किग्रा. जिप्सम या 60 किग्रा गन्धक पुर्ण प्रति हैक्टर की दर से डालें। नत्रजनकी आधी व फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय देवे,षेष आधी मात्रा प्रथम सिचाई के समय देवे।

सिंचाई :

सरसों की फसल में सही समय पर सिंचाई देने पर पैदावार में बढोत्तरी होती है। यदि वर्षा अधिक होती है। तो फससल को सिचाई की आवष्यकता नही होती है। परन्तु यदि वर्षा समय पर न होतो 2 सिंचाई आवष्यक है प्रथम सिंचाई बांई के 30 से 40 कदन बाद एवं दितीय सिचाइ 70 सें 80 दिन की अवथा में करे । यदि जल की कमी हो तो एक सिचाई 40से50 दिन की फसल में करें।

निराई गुडाई एवं खरपतवार नियन्त्रण :

पौधों की संख्या अधिक होतो बुवाई के 20 से 25 दिन बाद निराई के साथ छटाई कर पौधें निकालने चाहिए तथा पौधों के बीच 8 से 10 सेन्टी मीटर की दूर रखनी चाहिए। सिचाई के बाद गुडाई करने से खरपतवार अच्छी होगी।

प्याजी की रोकथाम के लियें फ्लूम्लोरेलिन एक लीटर सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर भूमि में मिलावें। जहा पलेना करके बुवाई की जानी हो वहों सूखी बुवाई की स्थिति में पहलें फसल की बुवाई करे इसकें बाद फ्लूम्लोरेलिन का छिड़काव कर सिचाई करनी चाहिए।

फसल की कटाई :

सरसों की फल 120से150 दिन में पककर तैयार हो जाती है इस फसल में उचित समय पर कटाई करना अत्यन्त आवष्यक है क्यो कि यदि समय पर कटाई नहीं की जाती है। तो फलि‍याँ चटकने लगती है। एवं उपज में 5 से 10 प्रतिषत की कमी आ जाती है।

र्जैसे ही पौधे की पत्तियों एवं फलियों का र्रंग पीला पड़ने लगें कटाई क लेनी चाहिए। कटाई के समय इस बात का विषष ध्यान रखे की सत्यानाषी खरपतवार का बीज, फल के साथ न मिलने पाये नही तों इस फसल के दूषित तेल से मनुष्य में ड्रोपसी  नामक बीमारी हो जायेगी।

सरसों  केवल टहनियों को काटकर बंडलों में बाधकर खलियान में पहुॅचा देवें एवं कुछ दिन तक फसल को सुखानें के बाद उचित नमी की अवस्था ें आने पर दाने बोरियों में भरकर भण्डार ग्रह में पहुँचा देना चाहिए।


Authors:

S.L. Yadav
Ph.D. Schlor (Agronomy)
MPUAT- Udaipur, Rajasthan

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