विलक्षण गुण सम्पन्न दलहनी फसल अरहर की खेती 

अरहर की दाल को तुवर भी कहा जाता है। जो खरीफ की फसल के साथ बोई जाती है।इसकी हरी पत्तियां पशुओं के चारे के रूप में खिलाई जाती है तथा फसल के पकने पर इसकी लकड़ी ईधन के रूप में काम आती है। इसमें खनिज, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम आदि पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। इसके दानों के ऊपर का छिलका पशुओं के खिलाने के काम आता है।

दलहन प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत है जिसको आम जनता भी खाने में प्रयोग कर सकती है, लेकिन भारत में इसका उत्पादन आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। यदि प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ानी है तो दलहनों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इसके लिए उन्नतशील प्रजातियां और उनकी उन्नतशील कृषि विधियों का विकास करना होगा। अरहर एक विलक्षण गुण सम्पन्न फसल है।

इसकी फसल से भूमि में उर्वरा शक्ति की वृद्धि होती है।इसका उपयोग अन्य दलहनी फसलों की तुलना में दाल के रूप में सर्वाधिक किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसकी हरी फलियां सब्जी के लिये, खली चूरी पशुओं के लिए रातव, हरी पत्ती चारा के लिये तथा तना ईंधन, झोपड़ी और टोकरी बनाने के काम लाया जाता है। इसके पौधों पर लाख के कीट का पालन करके लाख भी बनाई जाती है।

मांस की तुलना में इसमें प्रोटीन भी अधिक पाई जाती है।अरहर पहली फसल है जो जीनोम अनुक्रमित की गई है। अनुक्रमण पहली बार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के 31 भारतीय वैज्ञानिकों के एक समूह द्वारा पूरा किया गया था। यह पहली बार है कि एक भारतीय अनुसंधान केंद्र जैसे कि आई.सी.आर.आई.एस.एटी.एटी ने खाद्य फसल के जीनोम अनुक्रम का नेतृत्व किया।

अरहर की फसल को फलने फूलने के लिए गर्म तथा नम जलवायु की आवश्कता होती है। इसकी फसल 70 सेमी से 100 सेमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है। इसकी फसल में फूल आने पर शुष्क और गर्म वातावरण की आवश्यकता होती हैं अधिक वर्षा इस फसल के लिए हानिकारक होती है। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश देश के प्रमुख अरहर उत्पादक राज्य हैं।

अरहर की उन्नतशील प्रजातियॉं

i. प्रभात- यह अरहर की जल्दी पकने वाली जाति है यह 110 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है इसके उपज लगभग 15 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है।

ii. आई. सी. पी. एल-151-यह जाति भी जल्दीjighuपकने वाली है यह 130 से 135 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं इसकी उपज लगभग 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

iii.  पूसा-84 - इस जाति को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है। इसके दाने भूरे रंग के होते हैं। यह 145 से 150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसके दाने की उपज 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

iv. पन्त A-120) - यह शीघ्र पकने वाली जाति है जिसकी फसल 120 से 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है इसके दाने के उपज 18 से 20 कुंतल प्रति हैक्टेयर होती है।

 

शीघ्र पकने वाली प्रजातियॉं  उपास 120, पूसा 855, पूसा 33, पूसा अगेती, आजाद (के 91-25) जाग्रति (आईसीपीएल 151) , दुर्गा (आईसीपीएल-84031)ए प्रगति।
मध्यम समय में पकने वाली प्रजातियॉं टाइप 21, जवाहर अरहर 4, आईसीपीएल 87119(आशा) ए वीएसीएमआर 583
देर से पकने वाली प्रजातियॉं बहार, बीएमएएल 13, पूसा-9
हाईब्रिड प्रजातियॉं पीपीएच-4, आईसीपीएच 8
रबी बुवाई के लिए उपयुक्त प्रजातियॉं बहार, शरद (डीए 11) पूसा 9, डब्लूबी 20

अरहर की बुआई का समय

शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के प्रथम पखवाड़े तथा विधि में तथा मध्यम देर से पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के द्वितीय पखवाड़े में करना चाहिए। बुआई सीडडिरल या हल के पीछे चोंगा बॉंधकर पंक्तियों में हों।

अंतवर्तीयफसलन केवल संसाधनों के कुशल उपयोग की सुविधा प्रदान करता है, बल्कि अक्सर भूमि क्षेत्र की प्रति इकाई की अधिक उत्पादकता की ओर जाता है।

अरहर की भूमि का चुनाव

अरहर की फसल के लिए दोमट तथा बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती हैं ।वैसे इसकी फसल कंकरीली भूमि में भी की जाती है। इसके लिए ढालू भूमि अच्छी रहती है जिसमें जल निकास की अच्छी व्यवस्था होती है।

अरहर केे खेत की तैयारी

खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से लगभग 15 सेमी गहरी करनी चाहिए। फिर दो से तीन जुताई देसी हल तथा कल्टीवेटर से करनी चाहिए।जमीन भुरभुरी हो जाए उसके बाद खेत में पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।

बुवाई की विधि-

अरहर की बुवाई हाल के पीछे कूंडों में करनी चाहिए। कम समय में पकने वाली जातियों की पंक्तियों में लगभग 60 सेमी तथा देर से पकने वाली जातियों की पंक्तियों में लगभग 120 सेमी का अंतर होना चाहिए। तथा फसल बोने के बाद पौधों की छंटाई करके कम समय में पकने वाली फसल के पौधों के बीच 20 सेमी तथा अधिक समय में पकने वाली फसल के पौधों के बीच 30 सेमी का अंतर रखना चाहिए।

उर्वरक

मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीज की सतह से 2 से0मी0 गहराई व 5 से0मी0 साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। प्रति हैक्टर 15-20 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन , 50 कि0ग्रा0 फास्फोरस, 20 कि0ग्रा0 पोटाश व 20 कि0ग्रा0 गंधक की आवश्यकता होती है।

जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहॉं पर 15-20 कि0ग्रा0 जिन्क सल्फेट प्रयोग करें। नाइट्रोजन  एवं फासफोरस की समस्त भूमियों में आवश्यकता होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मृदा पीरक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। नत्रजन एवं फासफोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0डाइ अमोनियम फासफेट एवं गंधक की पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0 जिप्सम प्रति हे0 का प्रयोग करने पर अधिक उपज प्राप्त होती है।

बीजशोधन

मृदाजनित रोगों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम थीरम व 1 ग्राम कार्वेन्डाजिम प्रति कि0ग्राम अथवा 3 ग्राम थीरम प्रति कि0ग्राम की दर से शोधित करके बुआई करें। बीजशोधन बीजोपचार से 2-3 दिन पूर्व करें।

बीजोपचार तथा बुआई

10 कि0ग्रा0 अरहर के बीज के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट पर्याप्त होता है। 50 ग्रा0 गुड़ या चीनी को 1/2 ली0 पानी में घोलकर उबाल लें। घोल के ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर मिला दें। इस कल्चर में 10 कि0ग्रा0 बीज डाल कर अच्छी प्रकार मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जायें।

उपचारित बीजों को छाया में सुखा कर, दूसरे दिन बोया जा सकता है। उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें, व बीज उपचार दोपहर के बाद करें।

पंक्ति से पंक्ति की दूरी

45-60 से0मी0 तथा (शीघ्र पकने वाली)

60-75 से0मी0 (मध्यम व देर से पकने वाली)

पौध से पौध की दूरी

10-15 से0मी0 (शीघ्र पकने वाली)

15-20 से0मी0 (मध्यम व देर से पकने वाली)

बीज दर

कम समय में पकने वाली जातियां 14 से 15 किग्रा प्रति हेक्टेयर।अधिक समय में पकने वाली जातियां 10 से 12 किग्रा प्रति हेक्टेयर।

सिंचाई एवं जल निकास

चूँकि फसल असिंचित दशा में बोई जाती है अतः लम्बे समय तक वर्षा न होने पर एवं पूर्व पुष्पीकरण अवस्था तथा दाना बनते समय फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। उच्च अरहर उत्पादन के लिए खेत में उचित जलनिकास का होना प्रथम शर्त है अतः निचले एवं अधो जल निकास की समस्या वाले क्षेत्रों में मेड़ो पर बुआई करना उत्तम रहता है।

खरपतवार नियंत्रण

प्रथम 60 दिनों में खेत में खरपतवार की मौजूदगी अत्यन्त नुकसानदायक होती है। हैन्ड हों या खुरपी से दो निकाईयॉं करने पर प्रथम बोआई के 25-30 दिन बाद एवं द्वितीय 45-60 दिन बाद खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के साथ मृदा वायु-संचार में वृद्धि होने से फसल एवं सह जीवाणुओं की वृद्धि हेतु अनुकूल वातावरण तैयार होता है।

किन्तु यदि पिछले वर्षों में खेत में खरपतवारों की गम्भीर समस्या रही हो तो अन्तिम जुताई के समय खेत में वैसालिन की एक कि0ग्रा0 सक्रिय मात्रा को 800-1000 ली0 पानी में घोलकर या लासो की 3 कि0ग्रा0 मात्रा को बीज अंकुरण से पूर्व छिड़कने से खरपतवारों पर प्रभावी नियन्त्रण पाया जा सकता है।

फसल सुरक्षा के तरीके

कीट नियन्त्रण

  • फलीमक्खी /फली छेदक क्यूनाल फासया इन्डोसल्फान 35 ई0 सी0, 20 एम0 एल0 / क्यूनाल फास 25 ई0 सी0 15 एम0 एल0 / मोनोक्रोटोफास 30 डबलू0 एस0 सी0 11 एम0 एल0 प्रति 10 ली0 पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए तथा एक हैक्टेयर में 1000 लीटर घोल का प्रयोग कर ना चाहिए।

  • पत्ती लपेटक - इन्डोसल्फान 35 ई0 सी0 20 एम0 एल0 अथवा मोनोक्रोटोफास 36 डबलू0 एस0 सी0

  • एम0 एल0 प्रति 10 ली0 पानी में घोल कर छिड़काव करें।

रोग नियन्त्रण

  • फाइटा्रेप्थोराब्लाइट - बीजकोरोडोमिल 2 ग्रा0/किग्रा0 बीजसेउपचारितकरनेबोयें।रोगरोधीप्रजातियॉंजैसेआशा, मारूथिबी0एस0एम0आर0-175 तथावी0एस0एम0आर0-736 काचयनकरनाचाहिए।

  • बिल्ट - प्रतिरोधीप्रजातियोंकाउपयोगकरें, बीजशोधितकरकेबोयें।मृदाकासौर्यीकरणकरें।

  • बन्ध्यमोजेक - प्रतिरोधीप्रजातियॉंजैसेशरद, बहारआशा, एम0ए0-3, मालवीयअरहर-1 आदिबोयें।रोगीपौधोंकोजलादें।वाहककीटकेनियन्त्रणहेतुमेटासिस्टाककाछिड़कावकरें।

प्रमुख कीट

फलीमक्‍खी

यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्‍ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं खाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्‍य विकास रूक जाता है।मादा छोटे व  काले रंग की होती है जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडो से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है ओर दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

फली छेदक इल्‍ली

छोटी इल्लियॉ फलियों के हरे उत्‍तकों को खाती है व बडे होने पर कलियों , फूलों फलियों व बीजों पर नुकसान करती है। इल्लियॉ फलियों पर टेढे – मेढे छेद बनाती है।

इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियॉ पीली, हरी, काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्‍की गहरी पटिटयॉ होती है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

फल्‍ली का मत्‍कुण

मादा प्राय: फलियों पर गुच्‍छों में अंडे देती है। अंडे कत्‍थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु वयस्‍क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते है, जिससे फली आडी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्‍ताह में पूरा करते है।

प्‍लूमाथ

इस कीट की इल्‍ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विश्‍टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दानो के आसपास लाल रंग की फफूंद आ जाती है।

ब्रिस्‍टलब्रिटल

ये भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है जिससे उत्‍पादन में काफी कमी आती है। यक कीट अरहर मूंग, उड़द, तथा अन्‍य दलहनी फसलों पर भी नुकसान पहुंचाता है। भृंग को पकडकर नष्‍ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।

कीटो का प्रभावी नियंत्रण

1.कृषि के समय

  • गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें
  • शुद्ध अरहर न बोयें
  • फसल चक्र अपनाये
  • क्षेत्र में एक ही समय बोनी करना चाहिए
  • रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें।
  • अरहर में अन्‍तरवर्तीय फसले जैसे ज्‍वार, मक्‍का, या मूंगफली को लेना चाहिए।

2. यांत्रिक विधि द्धारा

  • फसल प्रपंच लगाना चाहिए

  • फेरामेन प्रपंच लगाये

  • पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्‍ट करें

  • खेत में चिडियाओं के बैठने की व्‍यवस्‍था करे।

3. जैविक नियंत्रण द्वारा

  • एन.पी.वी 5000 एल.ई / हे. + यू.वी. रिटारडेन्‍ट1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशतमिश्रणकोशामकेसमयखेतमेंछिडकावकरें।
  • बेसिलसथूरेंजियन्‍सीस 1 किलोग्रामप्रतिहेक्‍टर + टिनोपाल1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशतकाछिड़कावकरे।

4 जैव – पौध पदार्थ के छिड़काव द्वारा : -

  • निंबोलीशत 5 प्रतिशत का छिड़काव करे।
  • नीम तेल या करंज तेल 10 -15 मी.ली. + 1 मी.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्‍डो विटटिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

  • निम्‍बेसिडिन2 प्रतिशत या अचूक 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें।

5. रासायनिक नियंत्रण द्वारा

  • आवश्‍यकता पड़ने पर ही कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करें।

  • फली मक्‍खी नियंत्रण हेतु संर्वागीण कीट नाशक दवाओं का छिडकाव करे जैसे डायमिथोएट 30 ई. सी0 3 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 0.04 प्रतिशत आदि।

6. फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण के लिए

  • फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण या क्‍लीनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण या इन्‍डोसल्‍फान 4 प्रतिशत चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम / हे. के दर से भुरकाव करें या इन्‍डोसलफॉन 35 ईसी. 0.7 प्रतिशत या क्‍वीनालफास 25 ई.सी 0.05 प्रतिशत या क्‍लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी .0.6 प्रतिशत या फेन्‍वेलरेट 20 ई.सी 0.02 प्रतिशत या एसीफेट 75 डब्‍लू पी 0.0075 प्रतिशत या ऐलेनिकाब 30 ई.सी 500 ग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हे.या प्राफेनोफॉस 50 ई.सी एक लीटर प्रति हे. का छिड़काव करें।
  • दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिडकाव सर्वागीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्‍पर्श या सर्वागीण कीटनाशक दवाई का छिड़काव करें। कीटनाशक का तीन छिड़काव या भुरकाव पहला फूल बनने पर दूसरा 50 प्रतिशत फुल बनने पर और तीसरा फली बनने बनने की अवस्‍था पर करना चाहिए।

कटाई एवं मड़ाई

  • 80 प्रतिशत फलियों के पक जाने पर फसल की कटाई गड़ासे या हॅंसिया से 10 से0मी0 की उॅंचाई पर करना चाहिए। तत्पश्चात फसल को सूखने के लिए बण्डल बनाकर फसल को खलिहान में ले आते हैं। फिर चार से पॉच दिन सुखाने के पश्चात पुलमैन थ्रेशर द्वारा या लकड़ी के लठ्‌ठे पर पिटाई करके दानो को भूसे से अलग कर लेते हैं।
  • उपज
  • उन्नत विधि से खेती करने पर 15-20 कुन्तल प्रति हे0 दाना एवं 50-60 कुन्तल लकड़ी प्राप्त होती है।
  • भण्डारण
  • भण्डारण हेतु नमी का प्रतिशत 10-11 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। भण्डारण में कीटों से सुरक्षा हेतु अल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोली प्रति टन प्रयोग करे।
  • आइसोपाम सुविधा

तिलहन, दलहन, आयलपाम तथा मक्का पर एकीकृत योजना के अन्तर्गत देश में अरहर उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु उपलब्ध सुविधायें-

  • बीज मिनी किट कार्यक्रम के अन्तर्गत खण्ड (ब्लाक) के प्रसार कार्यकर्ताओं द्वारा चयनित कृषकों को आधा एकड़ खेत हेतु नवीन एवं उन्नत प्रजाति का सीड मिनीकिट (4 कि0 ग्रा0 / मिनी किट) राइजोवियम कल्चर एवं उत्पादन की उन्नत विधि पर पम्पलेट सहित निःशुल्क उपलब्ध कराया जाता है।

  • 'बीज ग्राम योजना' अन्तर्गत चयनित कृषकों को विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण एवं रू0 375/- प्रति क्विंटल की आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।

  • फली बेधक के नियन्त्रण के लिए एन.पी.वी. के प्रयोग को प्रोत्साहन देने हेतु रू0 250/ है0/ किसान की सहायता उपलब्ध है।

  • कृषकों को सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति सुनिश्चित करने हेतु लागत का 50 प्रतिशत (अधिकतम रू0 200/-की आर्थिक मदद उपलब्ध है )

  • सहकारी एवं क्षेत्रीय ग्रामीणबैंकों द्वारा नाबार्ड के निर्देशानुसार दलहन उत्पादक कृषकों को विशेष ऋण सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।


Authors:

विपिन कुमार पांडेय

पीएच.डी. शोध छात्र, अनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग,

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालयरायपुर,‎छत्तीसगढ़।

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