Leaf Curl Virus disease of ChilliLeaf curl disease in chilli and its control

पर्ण कुंचन या मुरड़ा, मिर्च पौध की भारत में एक विनाशकारी बीमारी। यह बीमारी विषाणु से होता है और सफ़ेद मक्खी द्वारा फैलता है। उत्तर और मध्य भारत में यह बीमारी ज्यादा विनाशकारी थी परन्तु अब यह दक्षिण भारत में भी दर्ज की जाने लगी है।

एक बार पर्ण कुंचन बीमारी लगने के बाद मि‍र्च के पोधे की पत्तियां मुड़ने लगती है और पौधों में फल लगना बंद हो जाते है। अगर फल बनते भी है तो विकृत होते है। बहुत छोटी अवस्था में बीमारी लगने पर पौधों का विकास रुक जाता है और एक भी फल नहीं बनते है।

यह बीमारी मानसून या खरीफ में लगायी गयी फसलों पर ज्यादा आती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि खरीफ में उच्च तापमान के साथ उच्च आर्द्रता होता है जिसमे सफ़ेद मक्खी की संख्या बहुत बढ़ जाती है।

सफ़ेद मक्खी ही विषाणु फैलाती है जो इस बीमारी का कारण है।

इस बीमारी से बचने के लिए कई उपाय सुझाये गए है जो की इस प्रकार है:

नर्सरी मे स्‍वस्‍थ पौद तैयार करें:

जिस पौधशाला में पौधों की तैैयारी की जाती है उसे नायलॉन नेट (४०० मेष साइज) से ढक देना चाहिए। इससे पौधों को सफ़ेद मक्खी के प्रकोप से बचाया जा सकता। पौधों का संरक्षण अति आवश्यक है क्योकि वे ही आने वाली फसल का आधार है। पौधें अगर स्वस्थ है तो फसल भी अच्छी होगी। पौधशाला में येलो स्टिकी ट्रैप की स्थापना नियमित अंतराल पर कर सकते है। यह भी सफ़ेद मक्खी के नियत्रण में काफी प्रभावी है।

जो पौधें बीमारी से ग्रसित हो जाते है उन्हें उखाड़ के खेतों से दूर एक गड्ढे में गाड़ देना या जला चाहिए। येह पौधें अन्य पौधों के लिए बीमारी का स्रोत है।

रोपाई से पहले खेतों के चारों तरफ मक्के या जवार की २-३ पक्तियां लगा लेनी चाहिए। ये फसल सफ़ेद मक्खी के प्रकोप को रोकती है।

फसल चक्र का पालन करें:

एक साल अगर किसी खेत में टमाटर वर्गीय सब्जियों की खेती करें तो अगले वर्ष किसी और परिवार की सब्जियां लगाएं या अन्य अनाज जैसे की गेहूं, धान, मक्का आदि लगाइये। इससे जो बीमारियां टमाटर वर्गीय सब्जियों में आती है उन पर नियंत्रण पाया जा सकता है। एक ही फसल की खेती साल दर साल, उस फसल की उपज कम करती है तथा कई बिमारियों को भी निमंत्रण देती है।
उच्च गुडवत्ता वाले बीज का चुनाव करें जिसमें कोई बीमारी न हो।

खरपतवार नियंत्रण:

खरपतवार कई तरह के विषाणु का घर होता है जो विभिन्न कीटों द्वारा फैलाये जाते है। इन कीटों में सफ़ेद मक्खी सबसे महत्वपूर्ण रोगवाहक है। ये सफ़ेद मक्खी इन जंगली घास पर बैठती है और उनका रस चूसती है जिसमे कई तरह के विषाणु होते है। इस दौरान ये मक्खी विषाणु को अधिकृत कर और मिर्च के पौधों पर स्नानंतरण करती है। खरपतवार नियंत्रण इसलिए काफी जरूरी हो जाता है। किसान भाइयों को यह परामर्श है की वे अपने खेतों को बिलकुल साफ़ सुथरा रखे और खरपतवार नियंत्रण नियमित अंतराल पर करते रहना चाहिए।

रासायनिक दवाइयों का प्रयोग:

कीटनाशकों के छिड़काव से विषाणु से होने वाले बीमारियों को नियंत्रित किया जा सकता है। रस चूसने वाले कीट जैसे की सफ़ेद मक्खी, माहु, थ्रिप्स, जसिड़स आदि कई तरह के विषाणु फैलाते है।
बीज जनित विषाणु के नियंत्रण के लिए बीजों को त्रिसोडियम ओर्थोफोस्फेटे (१५० ग्राम प्रति लीटर पानी में) के घोल में ३० मिनट भिगों के रखना चाहिए। बुवाई से पहले बीजों को ताजे पानी से धो कर सूखा लें।
रोपाई से पहले खेतो में कार्बोफुरान 3G (४-५ कि‍.ग्राम प्रति एकर) मिला लें। इससे रस चूसने वाले कीटों का खात्मा हो जायेगा।
पौधशाला में पौधों पर नीम के तेल (५ मि.ली./ लीटर) का छिड़काव करें और उसके पश्चात ही खेतों में रोपाई करें।
रोपाई के २०-२५ दिनों बाद फिर प्रणालीगत कीटनाशक जैसे की डिमेथोएट (२ मि.ली./ लीटर), डाइफेनथियरों (०.५ - ०.८ ग्राम/ ली), मोनोक्रोटोफॉस (१.५ मि.ली./ लीटर), एसीफेट (१ ग्राम/लीटर) या फ्लॉनिकामिड़ (०.५ ग्राम/ लीटर) का छिड़काव १०-१५ दिनों के अंतराल पर करें। इन दवाइयों के साथ नीम का तेल (५ मि.ली. /लीटर) भी मिला सकते है। यह ध्यान रहे की एक ही दवाई का छिड़काव लगातार न करें।

पर्ण कुंचन रोग प्रतिरोधक किस्में प्रयोग करें:

किसान भाई ऐसी किस्मों का चुनाव करें जिनमें पर्ण कुंचन रोग के लिए प्रतिरोधक क्षमता हो। बाजार में कुछ संकर किस्में उपलब्ध है जिसमें यह बीमारी नहीं लगती। रोग प्रतिरोधक किस्मों की खेती सबसे किफायती विकल्प है।

जैविक तरीके से पर्ण कुंचन रोग नियंत्रण:

जैविक तरीके से रोग नियंत्रण में किसी भी तरह के रासायनिक का प्रयोग वर्जित है। जिस पौधशाला में पौधों की तयारी की जाती है उसे नायलॉन नेट (४०० मेष साइज) से ढक दे। पौधशाला में येलो स्टिकी ट्रैप का प्रयोग करें।

खेतों के चारों तरफ मक्के या जवार की २-३ पक्तियां लगाएं तथा फसल चक्र का पालन करें। नीम के तेल का छिड़काव सफ़ेद मक्खी और उसके अंडो को नियंत्रित करती है। पौधशाला में २ मिली/ लीटर और खेतों में ५ मि. ली/ लीटर के दर से छिड़काव करें।


Authors:

अर्पिता श्रीवास्तव

शाकीय विज्ञान विभाग

भारतीय कृषि अनुसंधान केंद्र, पूसा, नई दिल्ली

Email: asrivastava45@gmail। com

New articles

Now online

We have 86 guests and no members online