Thrips and their integrated pest management

थ्रिप्स सूक्ष्म, पतले और मुलायम शरीर वाले कीड़े होते हैं, जो विभिन्न प्रकार के पौधों और जानवरों की कोशिकाओं को बेध कर रस को अंतर्ग्रहण करते हैं । कुछ थ्रिप्स प्रजातियां ऐसी होती हैं जो अन्य दूसरी थ्रिप्स प्रजातियों, घुन (माइट), मांहू (अफिड्स) जैसे कीड़ों पर अपना भोजन करती हैं । थ्रिप्स का लाभकारी पहलु यह है कि वे फूलों के परागण में सहायता करते हैं ।

अधिकतर, थ्रिप्स प्रजातियां कृषि कीट के रूप में पहचानी जा चुकी हैं, जो की कई महत्वपूर्ण फसलों को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाती हैं। अब तक थ्रिप्स की लगभग 7,700 प्रजातियां दर्ज की गई हैं, जिसमें 1 प्रतिशत से भी कम कृषि फसलों के कीट माने जाते हैं। पादप भक्षी (फाइटो फेगस) नामक थ्रिप्स कोशिकाओं को बेध कर उन्हें आत्मसात करते हैं, व पौधों के फूलों, पत्तियों तथा फलों को भारी नुकसान पहुँचते हैं (Ghosh et al., 2017)।

महत्वपूर्ण कीट होने के आलावा, थ्रिप्स घातक वायरस के वाहक के रूप में भी कार्य करते हैं । यह वायरस टोस्पोविरिडे परिवार से सम्बंधित जीनस ऑर्थोटोस्पोवायरस के टोस्पोवायरस की श्रेणी में आता है । दुनियाभर में इस वायरस के प्रकोप से होने वाली हानि का अनुमान लगभग 1 बिलियन डॉलर से भी अधिक है (Pappu et al., 2009)।

सोयाबीन वेन नेक्रोसिस मोज़ेक वायरस के अलावा टोस्पोवायरस बीज द्वारा प्रसारित नहीं होते (Grover et al., 16), इसलिए थ्रिप्स टोस्पोवायरस के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

थ्रिप्स की सोलह ऐसी प्रजातियां हैं जो टोस्पोवायरस के वाहक के रूप में कार्य करती हैं तथा दुनियाभर में अभी तक लगभग 29 टोस्पोवायरस की पहचान को दर्ज किया गया है (Turina et al., 2016)। टोस्पोवायरस थ्रिप्स में प्रतिकृति कर अपनी संख्या में वृद्धि करते हैं और थ्रिप्स को संक्रमित करते हैं। टोस्पोवायरस द्वारा संक्रमित थ्रिप्स किफायती महत्वपूर्ण फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं।

भारत में थ्रिप्स की विभिन्न प्रजातियों का अध्ययन आजादी से पहले ही शुरू हो गया था, लेकिन टोस्पोवायरस पर शोध की शुरूवात 1960 के दशक के दौरान की गई । विभिन्न थ्रिप्स की प्रजातियों तथा टोस्पोवायरस के बीच के सम्बन्ध को समझने के लिए तब से कई अध्ययन किये गए हैं।

सामान्य रूप एवं जीवन चक्र:

थ्रिप्स अधिकतर पीले, नारंगी, काले या सफेद-पीले रंग के होते हैंI वयस्क थ्रिप्स की औसतन लम्बाई 1-2 मिलीमीटर होती है तथा ये आकार में पतले होते हैं । थ्रिप्स का सिर चौकोर तथा आँखें योगिक आँखें (compound eyes) होती हैं, जिनके मध्य में तीन नेत्रक होते हैं । फिल्लिफोरम एन्टेना, 6-9 खंडो में खंडित होता है।

थ्रिप्स के पंख झिल्लीदार होते हैंI वे आमतौर पर छोटी उड़ाने लेते हैं, हालाँकि लम्बी दूरी का प्रवास हवा के माध्यम से होता हैंI उदर लम्बा, पतला एवं 11 खंडो में खंडित होता हैंI सामान्यत: वयस्क मादा का आकार वयस्क नर से बड़ा होता हैं।

थ्रिप्स अपने जीवन चक्र में विभिन्न चरणों से गुजरता है जैसे की अंडा, पहला, दूसरा इन्स्टार लार्वा, प्री-प्यूपा, प्यूपा और वयस्क। अंडे ज्यादातर अपारदर्शी होते है जो परिपक्व होने पर पीले-नारंगी रंग में बदल जाते हैंI अंडे से निकलने के बाद नवरचित लार्वा वयस्क जैसा ही दिखता है लेकिन उसमें एंटीने के खंडो की संख्या कम होती है अथवा विंग्स पैड नहीं होते ।

पहला इन्स्टार लार्वा एक दिन के भीतर दूसरे चरण में विकसित हो जाता है । दूसरा इन्स्टार लार्वा पहले इन्स्टार लार्वा से आकार में बड़ा होता है । दूसरे इन्स्टार लार्वा को प्री-प्यूपा में विकसित होने के लिए 4 से 5 दिन लग जाते हैं (Lowry et al., 1992) ।

प्यूपा अवस्था में थ्रिप्स में विंग्स पैड होते हैं तथा वे इस अवस्था में निष्क्रिय रहते हैं। इस अवस्था में थ्रिप्स खाते नहीं हैं और वो मिट्टी में रहते हैं I वयस्क मादा की आयु 4 से 5 सप्ताह तक की होती है। एक वयस्क मादा अपने जीवन में 50 अंडे देती है (Reitz, 2008)।

थ्रिप्स के जीवनकाल के विभिन्न चरणों की अवधि आमतौर पर तापमान पर भी निर्भर करती है I थ्रिप्स का प्रजनन हैप्लोडीप्लॉइड (haplodiploid) होता है तथा वे अनिषेकजनन (parthenogenesis) द्वारा प्रजनन करने में सक्षम होते हैं । कुछ प्रजातियों में अनिशेषित अंडा नर में तथा कुछ में मादा में विकसित होते हैं। लिंगानुपात और प्रजनन दर तापमान तथा जैविक कारको पर निर्भर करते हैं।

थ्रिप्स के मुखपात्र विशिष्ट होते हैं जो की कोशिकाओं को बेध कर रस निकालकर पीने में सक्षम होते हैI प्रधान फिडिंग संरचनाये क्लिपस (clypus), लैब्रम (labrum) तथा लेबियम (labium) द्वारा गठित शंकु में समाहित होती हैं । थ्रिप्स के मुखपात्र की संरचना असमान होती है । थ्रिप्स का दाहिना जबड़ा अवशिस्ट या पूरी तरह से अनुपस्थित होता हैI मुखपात्रों में एक लम्बी ह्य्पोफारिनीक्स, दो मैक्सिलरी स्टाइल और एक मेंडिब्यूलर स्टाइल जो की सीबारियल तथा लार पंप द्वारा समर्थित होते हैं।

थ्रिप्स प्रजातियों द्वारा टोस्पोवायरस का प्रसारण एक जटिल प्रक्रिया है (Ghosh et al., 2021)I टोस्पोवायरस के प्रसार के लिए थ्रिप्स वायरस का अधिग्रहण करके उनका आंतरिक करण करते हैं तत्पश्चात अतिसंवेदनशील पौधों को टोस्पोवायरस से संक्रमित करते हैं I टोस्पोवायरस का अधिग्रहण केवल पहला इन्स्टार लार्वा ही कर सकता है (Sakimura, 1963 )।

थ्रिप्स में टोस्पोवायरस अपनी प्रतिकृति करके संख्या में वृद्धि करता है तथा लार्वा, प्यूपा एवं वयस्क अवस्था तक थ्रिप्स में ही रहता है I कई संवेदनशील पौधों की प्रजातियां वयस्क के साथ-साथ दूसरे इनस्टार लार्वा से भी संक्रमित हो जाती है (Wijkamp and Peters, 1993 )।

थ्रिप्स की अगली पीढ़ी टोस्पोवायरस के संक्रमण से मुक्त होती है अतः टोस्पोवायरस के प्रसार के लिए पुनः पहले इन्स्टार लार्वों को वायरस का अधिग्रहण करना होता है ।
थ्रिप्स वेक्टर प्रजातियां

1) थ्रिप्स पाल्मी (Thrips palmi):

यह प्रजाति 50 से अधिक पौधों की प्रजातियों को हानि पहुँचाती है। यह मुख्य रूप से टमाटर वर्गीय (सॉलेनेसियस) तथा कद्दू वर्गीय सब्जियों का कीट हैं (Ghosh et al., 2017)I ये बैंगन, आलू, शिमला मिर्च, खीरा, कद्दू, तरबूज़, तोरी, लोबिया, सोयाबीन, कपास, मूंगफली, तिल, पालक आदि फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। यह प्रजाति विभिन्न खरपतवार प्रजातियों जैसे सेरोस्टियम ग्लोमेरेटम विसिया, सैरीवा और कैप्सेला बर्सा-पास्टोरिस पर भी हमला करते हैंI यह प्रजाति ग्राउन्डनट बड नेक्रोसिस वायरस के वाहक के रूप में कार्य करती है।

2) थ्रिप्स टबासि (Thrips tabaci):

इस प्रजाति को प्याज थ्रिप्स के नाम से भी जाना जाता है I यह प्रजाति 25 से अधिक पौधों की प्रजातियों को हानि पहुँचाती है जिनमें घास व चौड़ी पत्ति वाले पौधे भी शामिल हैं। यह मुख्य रूप से प्याज़ की फसल का कीट है I प्याज के आलावा लहसुन, ब्रोकोली, बन्दगोभी, फूलगोभी, गाजर, सेम, टमाटर, ककड़ी, पपीता, अनानास, गुलाब, तरबूज आदि पर भी हमला करते हैं I यह प्रजाति आइरिस येलो स्पॉट वायरस, टोमेटो स्पोटिड विल्ट वायरस के वाहन के रूप में कार्य करती है।

3) सक्रीटो थ्रिप्स डोरसैलिस (Scirtothrips dorsalis):

यह थ्रिप्स प्रजाति मुख्यतः सब्जी, फल, व सजावटी फसलों का कीट है I यह 100 से भी अधिक पौधों की प्रजातियों में दर्ज किया गया है। यह प्रजाति मिर्च, मूंगफली, कसावा, तारो, सोयाबीन, तरबूज, खट्टे फल, काजू, चाय, कपास, सूरजमुखी, अनार, अंगूर, नाशपत्ती में दर्ज की गई है। मिर्च की फसल में इस प्रजाति के कारण लगभग 90 प्रतिशत उत्पादन में कमी दर्ज की गई है । यह प्रजाति कई टोस्पोवाइरस के वाहक के रूप में भी कार्य करती है जैसे की टोबैको स्ट्रीक वायरस, ग्राउन्डनट बड नेक्रोसिस वायरस, पीनट क्लोरोटिक फन स्पॉट वायरस, पीनट येलो स्पॉट वायरस ।

4) फ्रैंक्लिनिएला सुलजी (Frankliniella schultzei):

इस कीट प्रजाति के दो रंग होते हैं, एक गहरे भूरे रंग के होते है जबकि दूसरे पीले रंग में भूरे रंग के धब्बों के साथ होते हैं। भारत में यह दोनों प्रजातियां देखी गई हैं I यह कीट 83 से भी अधिक पौधों की प्रजातियों में दर्ज किया गया है । यह प्रजाति मुख्य रूप से कपास, सेम, मूंगफली और अरहर को नुकसान पहुंचाते हैंI इनके आलावा अन्य फसलों जैसे की अनानास, स्ट्रॉबेरी, तरबूज़, तम्बाकू, चावल, लौंग, पालक, आम, कद्दू, लोभिया में भी इसे दर्ज किया गया है । यह लोभिया तथा सूर्य गांजा में ग्राउन्डनट बड नेक्रोसिस वायरस के संचरण से जुड़ा पाया गया है।

5) फ्रैंक्लिनिएला आक्सिडेण्टैलीस (Frankliniella occidentalis):

यह प्रजाति कृषि के महत्वपूर्ण कीटों में से एक है, जिसे आमतौर पर पश्चिमी फूल थ्रिप्स( वेस्टर्न फ्लावर थ्रिप्स) के नाम से जाना जाता है। यह मूल रूप से दक्षिणी पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में पाया जाता है तथा वहां से वह दक्षिणी अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया में फ़ैल गया। इस प्रजाति के तापमान के आधार पर अलग-अलग रंग रूप होते है, जैसे बसंत में काला, गर्मियों में पीला ।

रंग रूप अलग होने की वजह से लोग इन्हें गलती से विभिन्न प्रजातियों के नाम देते है। यह 18 से भी अधिक नामों से जाना जाता है । यह प्रजाति बसंत 50 विभिन्न पौधों की 500 से भी ज्यादा प्रजातियों में दर्ज किया गया है। यह प्रजाति शिमला मिर्च, खीरा, बीन्स, बैंगन, प्याज, तरबूज, टमाटर इत्यादि में पायी जाता है । भारत में यह प्रजाति टमाटर की फसल से एकत्रित की गई है । यह प्रजाति महत्वपूर्ण फसलों की उपज को आर्थिक रूप से नुकसान पहुँचाती हैं ।

इसके अलावा ये प्रजाति टोस्पोवायरस के संचरण में मदद करती है। जिसकी वजह से दुनियाभर में प्रतिवर्ष लगभग 1 बिलियन डॉलर से भी अधिक अनुमानित उपज नुकसान होता है । यह थ्रिप्स प्रजाति कई टोस्पोवायरस जैसे गुलदाउदी स्टेम नेक्रोसिस वायरस, मुंगफली रिंग स्पॉट वायरस, इम्पेशन्स नेक्रोटिक स्पॉट वायरस, टोमैटो क्लोरोटिक स्पॉट वायरस और टोमैटो स्पॉटेड विल्ट ऑरथोटोस्पोवायरस का संचरण करता है।

थ्रिप्स का प्रबंधन:

१. थ्रिप्स की आबादी पर नियंत्रण रखने के लिए पीले अथवा नीले चिपचिपे जाल (स्टीकी ट्रैप) का प्रयोग करें । व्यस्क थ्रिप्स नए पत्ते और फूलों की तरफ अधिक आकर्षित होते है इसलिए जाल को पौधों के ऊपर की तरफ रखना चाहिए। जाल का साप्ताहिक रूप से निरक्षण करें और २ से ४ सप्ताह बाद बदलें ।

२. संक्रमण के स्त्रोतों को पहचाने जैसे की चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नियंत्रित करे तथा अन्य पौधे जो थ्रिप्स से प्रभावित होते है उन्हें आस पास की जगह पर न लगाए ऐसा करने से उनका जीवन चक्र बाधित होता है ।

३. अत्याधिक संक्रमित अवशेषों को हटा दें और नष्ट कर दें क्योंकि यह आगे संक्रमण का स्त्रोत बनते है । संक्रमित सामग्री को बैग में रखकर जमीन में दफना देना चाहिए । रोगग्रस्त पौधों को खुला छोड़ने से दुबारा से संक्रमण को बढ़ावा मिलता है ।

४. फसलों को सुरक्षित रखने के लिये यू वी अवशोषित प्रणाली के तहत एक परत का प्रयोग किया जाता है रखा जाता है । जिसकी वजह से थ्रिप्स एवं वायरस का संक्रमण भी कम हो जाता है।

५. व्यापक दर के अवशिष्ट रसायनों से बचें जो परजीवी और परभक्षी की मृत्यु दरों में वृद्धि का कारण बनते है।

कीटनाशकों द्वारा थ्रिप्स का प्रबंधन

कई थ्रिप्स प्रजातियां पौधों के सुरक्षित भाग, फूलों के अंदर, बढ़ती हुई शाखाओं के ऊपरी भाग और लीफ कर्ल गाल्स में निवास करती है। इस कारण संपर्क (कॉन्टैक्ट) कीटनाशक केवल उन प्रजातियों पर ज्यादा प्रभाव डालते है जो पत्तों की सतह पर रहते है। थ्रिप्स की कुछ प्रजातियों की आबादी में कीटनाशक के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न हो सकता है जैसे की वेस्टर्न फ्लावर थ्रिप्स, प्याज थ्रिप्स और तरबूज थ्रिप्स।

इस वजह से जिन कीटनाशकों की कार्यवाई विधि अलग होती है उन्हें हर बार बदल-बदल कर प्रयोग करना चाहिए । कुछ थ्रिप्स की प्रजातियां केवल पराग पर भोजन करती है जो की पौधों को बहुत कम नुकसान पहुँचाती है । इसलिए उन थ्रिप्स की प्रजातियों की पहचान आवश्यक है जो फसलों के लिए हानिकारक होती है।

थ्रिप्स के विरुद्ध पंजीकृत अधिकांश कीटनाशक जैसे की ओर्गनोफॉस्फेट (1 बी), सिंथेटिक पाइरेथ्रोइड्स (3 A) या नियोनिकोटिनॉइड्स (4 A), इसके प्राकृतिक शत्रुओं पर उच्च दर से नकरात्मक प्रभाव डालते हैं । इन उत्पादकों का प्रयोग तब तक नहीं करना चाहिए जब तक कोई और विकल्प उपलब्ध न हो ।

थ्रिप्स का जैविक नियंत्रण:

कई प्राकृतिक परभक्षी है जो थ्रिप्स को नियंत्रण में रखते हैं । तीन ऐसे परभक्षी उपलब्ध हैं जो की पत्तों पर निवास करने वाले थ्रिप्स को खाते है । यह तीन परभक्षी हैं; घुन ट्रान्सियस मोंटडोरेंसिस (Transeius montdorensis), नियोसेयुलस कुकुमेरिस (Neoseiulus cucumeris) और पाइरेट बग (ओरियस टैन्टिलस ;Orius tantillus) है । ओरियस मुख्य रूप से वह उपलब्ध परभक्षी हैं जो थ्रिप्स के जीवन चक्र के चारो चरणों पर फीड करता हैं।
हाइपोऐस्पिस (घुन), रोव बीटल और ऐनटोमोपैथोजेनिक नेमाटोड मिट्टी में पाए जाने वाले परभक्षी हैं जो प्यूपा चरण के थ्रिप्स को खाते हैं।

कई प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले और भी परभक्षी हैं जिनको नर्सरी में सही परिस्थितियां प्रदान कर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है । इनमें प्रमुख है लेसबिंग बग, लेडी बर्ड बीटल, परभक्षी मक्खियाँ, परभक्षी थ्रिप्स, घुन और कीड़ें।
इनके आलावा परजीवी ततैया की एक श्रेणी होती है जो थ्रिप्स को खाते है। इन सभी प्रजातियों के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए और कीटनाशकों के प्रयोग को सीमित करना चाहिए क्यूंकि इनके अवशेष लम्बे समय तक पर्यावरण में रहते हैं।

References:

  1. Ghosh A, Dey D, Basavaraj T, Mandal B, Jain RK (2017). Thrips as the vectors of tospoviruses in Indian agriculture. In: Mandal B., Rao G.P., Baranwal V.K., Jain R.K., editors. A Century of Plant Virology in India. Springer; Singapore: 2017, pp. 537–556.
  2. Ghosh A, Priti, Mandal B, Dietzgen RG (2021). Progression of Watermelon Bud Necrosis Virus Infection in Its Vector, Thrips palmi. Cells, 10(2): 392.
    Lowry VK, Smith JW, Mitchell FL (1992). Life-fertility tables for Frankliniella fusca (Hinds) and F. occidentalis (Pergande) (Thysanoptera: Thripidae). Annals of entomological society of America, 85:744–754.
  3. Pappu HR, Jones RAC, Jain RK (2009). Global status of tospovirus epidemics in diverse cropping systems: successes achieved and challenges ahead. Virus Research, 141:219–236.
    Reitz SR (2008). Comparative bionomics of Frankliniella occidentalis and Frankliniella tritici. Florida Entomologist, 91:474–476.
  4. Turina M, Kormelink R, Resende RO (2016). Resistance to tospoviruses in vegetable crops: epidemiological and molecular aspects. Annual Review of Phytopathology, 54:347–371.
    Wijkamp I, Peters D (1993). Determination of the median latent period of two tospoviruses in Frankliniella occidentalis, using a novel leaf disk assay. Phytopathology, 83:986–991.

Authors

प्रीति1, सुमित जांगड़ा1, दीपक कुमार महंत1, अमलेंदु घोष1, अमृता दास1, श्याम सुन्दर दे2 व रीता भाटिया3

1पादप रोग विज्ञान संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली-110012

2सब्जी विज्ञान संभाग, भा॰ कृ॰ अनु॰ प॰- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली-110012

3पुष्प एवं भूदृश्य निर्माण संभाग, भा॰ कृ॰ अनु॰ प॰- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली-110012

संवादी लेखक, ई मेल: This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

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