Integrated crop disease and pest management in Papaya 

पपीता एक प्रमुख उष्ण एवं उपोष्ण कटिबंधीय फल है। पपीते की  खेती गर्म एवं नम जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है। पपीता की अच्छी वृद्धि के लिए 22-26 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त पाया गया है। पपीता पकने के समय शुष्क एवं गर्म मौसम होने से फलों की मिठास बढ़ जाती है।

पपीता का उपयोग कच्चे एवं पके फल के रूप में किया जाता है। कच्चे फल का उपयोग पेठा, बर्फी, खीर, रायता, सब्जी आदि बनाने के लिए किया जाता है, जबकि पके फलो से जैम, जैली, नेक्टर एवं कैंडी इत्यादि बनाये जाते हैं ।

क्षेत्रफल की दृष्टि से पपीता हमारे देश का पाँचवा लोकप्रिय फल है। इसके फलों में विटामिन ए, सी एवं अन्य खनिज लवण भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं ।  

पपीते की खेती की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है । यह सरलता एवं शीघ्रता से पैदा होने के कारण गृहवाटिका एवं व्यवसायिक फसल के रूप में लोकप्रिय होता जा रहा है।

पपीते की प्रजातियाँ:

पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा, पूसा जायन्ट, पूसा डेलिसियस, पूसा मजेस्टी, पुणे सेलेक्सन 1 एवं पुणे सेलेक्सन 3 आदि।

पौधशाला में पपीता की तैयार पौध भूमि चयन एवं पौधशाला प्रबन्धन:

पपीता की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली उँची एवं उपजाऊ भूमि होनी चाहिए । साथ ही पौधशाला मे उँची बनाई हुई क्यारियों पर बीजों की बुआई करें तथा वर्षा या तेज धूप से बचाने के लिए खर या पुआल से ढक दिया जाए।

सर्वप्रथम बीज को कार्वेन्डाजिम + थीरम (1:1) या कॉपर आक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति किग्रा से उपचारित करें।   

प्रति 1000 वर्ग मी0 क्षेत्रफल में पपीते की फसल के लिए 3 मी0 लम्बी व  1 मी0 चौड़ी क्यारी की पौधशाला बना लें एवं क्यारी 15 से0मी0 उँची उठी हुई होनी चाहिये ।

बीज को क्यारी में कतार में लगाना चाहिए एवं कतार से कतार की दूरी 10 से0मी0 होनी चाहिए व 1 से0मी0 गहरा बोना चाहिए। इस प्रकार प्रति 200 वर्ग मी0 क्षेत्रफल  के लिये 5.0 ग्राम बीज का प्रयोग करें।

पौधशाला में पौध गलन रोग दिखाई पड़ने पर मैंकोजेब या मेटालेक्सिल (8%) +  मैंकोजेब (64%) नामक फफूँदीनाशक 2.0 ग्राम प्रति ली0 की पानी की दर से तुरंत छिड़काव करें।

पौधों को तैयार करने हेतु पौधशाला विधि की अपेक्षा पॉलिथीन की थैलियों में उगाने की विधि भी सरल है। इसके लिए 150-200 गेज की 25 सेमी0 लम्बी तथा 20 सेमी0 चौड़ी थैलियों का प्रयोग करें।

थैलों में बालू, कम्पोस्ट तथा भुरभुरी मिट्टी (1:1:1) भरकर 3-4 बीजों को एक से0मी0 की गहराई में बुआई करें तथा मिट्टी में प्रर्याप्त नमी बनायें रखें। पौध डालने का कार्य मुख्यतः अगस्त के महीने में करें।

लगभग 10-15 दिन में पपीते के बीज जमकर बाहर दिखाई देने लगते हैं। जब पौधे 35-40 दिन के (15-20 से0मी0 ऊचे) हो जाये तब थैलियों को नीचे से ब्लेड द्वारा सावधानी पूर्वक काटकर पहले से तैयार किये गड्ढे में लगायें।

रोपाई:

गर्मी के दिनों  में खेत को 2-3 बार अच्छी तरह जोतकर समतल बनायें तथा रोपाई हेतु 60×60×60 सेमी0 आकार के गड्ढे तैयार करके 15-20 दिनों के लिए खुला छोड़ दिया जाए तथा वर्षा शुरू होने से पहले गड्ढे में भुरभुरी मिट्टी, 15 कि0ग्रा0 कम्पोस्ट, 500 ग्राम नीम की खली  मिश्रित उर्वरक (डी. ए. पी., एम. ओ. पी., यूरिया 2:3:1 के अनुपात में) 500 ग्राम प्रति गड्ढे उपयोग करें । कार्बोफ्यूरान 5.0 ग्राम प्रति गड्ढे की दर से रोपाई के 10 दिन पूर्व गड्ढ़े में भर दिया जाए।

पौधशाला में पौधे की लंबाई 15-20 से0मी0 हो अथवा 35-40 दिन के पौधे की ही रोपाई करें। पौधे से पौधे की दूरी 1.8×1.8  मी0 रखें एवं नर एवं मादा पौधों का उचित अनुपात (1:10) बनाये रखने के लिए एक गड्ढे में तीन पौधों की रोपाई करें।

पपीते की खेती के लि‍ए खाद एवं उर्वरक:

संस्तुति के अनुसार पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए डी. ए. पी. 750 ग्राम, यूरिया 100 ग्राम, पोटाश 150 ग्राम, सल्फर 50 ग्राम, बोरान 5 ग्राम तथा वर्मीकम्पोस्ट 2.5 किग्रा प्रति पौधे कि दर से प्रयोग करें। 

पपीते में सिचाईः

पपीते के सफल उत्पादन हेतु बगीचे में आवश्यक जल प्रबंधन होनी चाहिए। जब तक पौधा फलन में नही आता, तब तक हल्की सिचाई करनी चाहिए। गर्मी के दिनों में एक सप्ताह तथा जाड़े कि दिनों में 15 दिनों के अंतराल पर सिचाई करनी चाहिए।

फलन:

पपीता में छः माह पर वास्तविक रूप से अधिक फल लगते हैं जिनसे अधिक लाभ प्राप्त होता है। फल का वजन 500 ग्राम-1.5 कि0ग्रा0 तक होता है एवं प्रति पौधा 45-50 कि0ग्रा0 फलन होता है ।

पपीते की फसल मे पादप सुरक्षा:

पपीते की फसल के रोग

आर्द्रगलन रोगः

यह बीमारी पौधशाला में पीथियम एफैनिडरमेटन नामक कवक के कारण होती है। इसका प्रभाव नये अंकुरित पौधे पर होता है तथा पौधे का तना जमीन के पास से सड़ जाता है और पौधे मुरझाकर गिर जाता है।

इसके बचाव के लिए नर्सरी की मिट्टी को बोने से पहले फारमेल्डिहाइड को 2.5 प्रतिशत घोल से उपचारित कर पालिथीन से 48 घंटो के लिए ढक देना चाहिए तथा बीज को थीरम या कैप्टान (2.0 ग्राम प्रति कि0ग्रा0 बीज) नामक दवाओं से उपचारित कर बोना चाहिए।

पौधशाला में इस रोग से बचाव के लिए मेटालेक्सिल (8%) +  मैंकोजेब (64%) (रिडोमिल) या मैंकोजेब (2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव 3-4 बार एक सप्ताह के अन्तराल पर करना चाहिए।

पपीते मे तनें एवं जड़ का सड़ना रोगजड़ एवं तनों का सड़ना:

यह रोग पीथियम एफैनिडरमेटम एवं फाइटोफथोरा पामीवोरा नामक कवक के कारण होता है। इस रोग में जड़ तथा तना सड़ने से पौधे सूख जाता है।

इसका तने पर प्रथम लक्षण जलीय धब्बे के रूप में होता है। जो बाद में बढ़कर चारो तरफ फैल जाता है। पौधे के उपर की पत्तियाँ मुरझाकर पीली पड़ जाती है तथा पौधे सूखकर गिर जाते है।  जड़ सड़न रोग से सुरक्षा हेतु समेकित प्रबन्धन करें।

पौधों के पास खर एवं पुआल से मल्चिगं करें तथा पौधों के तने के पास मिट्टी भी चढ़ाना चाहिये जिससे जड़ो के पास पानी नहीं रुकता है।

समय समय पर मेटालेक्सिल (8%) +  मैंकोजेब (64%) 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से पौधों की जड़ के पास अच्छी तरह से डालकर तर कर देना चाहिये जिससे जड़ सड़न रोग से सम्पूर्ण सुरक्षा  मिलती है।

फलों का सड़ना (एन्थ्रेक्नोंज):

यह पपीता के फल की प्रमुख बीमारी है। यह कोलिटोट्राईकम ग्लियोस्पोराडस नामक कवक के द्वारा होती है। इस रोग में फलों के उपर छोटा जलीय धब्बा बन जाता है जो बाद में बढ़कर पीले या काले रंग का हो जाता है।

यह रोग फल लगने से लेकर पकने तक लगता है जिसके कारण फल पकने के पूर्व ही गिर जाते  हैं । इसकी रोकथाम के लिए मैकोजेब 2.0 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।

चूर्णित फफूँद :

यह रोग ओडियम यूडिकम एवं ओडियम कैरिकी नामक कवक से होता है । इससे प्रभावित पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसा जमाव हो जाता है जो बाद में सूख जाती है। 

इस रोग की रोकथाम के लिए सल्फेक्स (3.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए।

पपीते के विषाणु जनित रोग

पर्ण कुंचन रोग:

यह पपीते का एक गंभीर विषाणु रोग है  इस रोग के कारण शुरू में पौधों का विकास रूक जाता है और पत्तियाँ गुच्छा नुमा हो जाती हैं  तथा पत्तियों का आकार छोटा हो जाता है। पत्तियों का उपरी सिरा अन्दर की ओर मुड़ जाता है ।

प्रभावित पौधे में फूल एवं फल नहीं लगते हैं।

पपीता का रिंग स्पॉट रोग:

पर्ण कुंचन की तरह यह भी एक गंभीर विषाणु रोग हैं इस रोग में पपीते की पत्तियाँ कटी - फटी हो जाती है तथा हर गाँठ पर कटे - फटे पत्ते निकलने लगते हैं ।

पत्तियाँ के तने एवं फलों पर छोटे गोलाकार धब्बे पड़ जाते हैं। प्रभावित फल छोटे आकार के एवं फलन बहुत कम हो जाता है।

उपरोक्त दोनों विषाणु रोग का पूरी तरह रोकथाम संभव नहीं है।

विषाणु रोग वर्षा के दिनों में काफी तेजी से फैलता है। अतः वर्षा के समाप्त होने पर खेत में पपीता लगाने से विषाणु रोगों का प्रभाव कम होता है।

यह विषाणु रोग कीटों जैसे सफेद मक्खी और माहू से फैलते हैं। अतः इनकी रोकथाम  हेतु मैलाथियान (1 मि0 ली0 प्रति लीटर पानी में) या डाइमेथोएट (2 मि0ली0 प्रति लीटर पानी में) का छिड़काव करना चाहिए।

प्रयोगों द्वारा ऐसा देखा गया है कि नीम की खली या संस्तुत  कम्पोस्ट खाद के उपयोग करने पर विषाणु रोग का प्रकोप कम होता है। इस रोग से प्रभावित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। प्रभावित पौधों से रोपण हेतु बीज नही लेना चाहिए।

पपीते की फसल मे कीट प्रबंधन 

पपीते में कीट बहुत कम लगते हैं। इससे मुख्य रूप से माहू है जो पत्तियों के निचले भाग में छेद कर रस चूसता है तथा विषाणु रोगों के फैलाने में वाहक के रूप में कार्य करता है। इसके नियंत्रण के लिए डाइमेथोएट 2.0 मि0ली0 प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए।

पपीते के विकृत फल पपीते में फल विकृत:

यह विकृति फलन की प्रांरभिक अवस्था में ही शुरू हो जाती है,  लेकिन इनका विकराल स्वरूप पकने की अवस्था और पेड़ की वयस्क अवस्था में एकाएक बढ़ जाती है।

यह प्रायः सर्दियों में जब तापमान न्यूनतम होता है तब अधिक प्रकोप दिखायी देता है। विकृत फल विकार से निजात पाने हेतु 5 ग्राम बोरेक्स/पौधा पुष्पन एवं फलन के प्रारंभ होने पर देना अधिक लाभदायक है।

शुरूआती दिनों में बोरॉन नहीं दे पाने पर फल विकास के समय 2.5 ग्राम/ली0 पानी में मिलाकर पत्तियों पर छिड़काव करना चाहिए।

पपीते में अंतः फसली खेती:

पौधों के बीच की दूरी को 30 सेमी0 बढाकर धनियाँ की फसल को लगाया जा सकता हैं। धनियाँ की फसल कटाई के उपरान्त उस भूमि में खरबूजे, तरबूजे की फसल को ले सकते हैं इसमें किसी भी अतिरिक्त खाद-उर्वरक की जरूरत भी नहीं पड़ती है और लागत भी कम आती है।

इस तरह एक वर्ष में पपीते की फसल के साथ धनियाँ एवं तरबूजे की अंतः फसल लेकर 40,000-45,000/- रूपये की अतिरिक्त आय प्राप्त कर सकते है।


Authors:

आशीष कुमार गुप्ता, रविश चौधरी, बिनोद कुमार एवं चन्द्रभान सिंह

 आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान क्षेत्रीय केंद्र, पूसा बिहार- 848 125  

This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

 

New articles

Now online

We have 170 guests and no members online