Maintenance of Soil Health through Agronomical activities for healthy crops

शस्य क्रियाओं द्वारा मृदा स्वास्थ्य का रख-रखाव ही निश्चित कृषि विकास की ओर सही कदम है। स्वस्थ मृदा ही स्वस्थ पौधों को जन्म देने की क्षमता रखती है। जिस प्रकार स्वस्थ मॉ स्वस्थ बच्चों को जन्म देती है ठीक उसी प्रकार स्वस्थ मृदा पर उगी हुई फसल अच्छी पैदावार देगी और हम धरती से अधिक उत्पादन लेकर देश संबल बनाने में सहयोगी हो सकेंगे।

हमारी नैतिक जिम्मेदारी भी है कि हम मृदा को स्वस्थ रखें जिससे यह पीढ़ी दर पीढ़ी उत्पादन देती रहें। मृदा स्वास्थ्य के लिये जिम्मेदार शस्य क्रियाएं निम्न प्रकार हैः-

1) गर्मी की गहरी जुताई। 2) कार्बनिक खादों का उपयोग। 3) फसल चक्र अपनाना। 4) जैविक या जीवाणु खादों का प्रयोग। 5) हरी खाद का प्रयोग। 6) निराई-गुडाई। 7) सिंचाई एवं जल निकास। 8) खेतों में नमी का संरक्षण। 9) एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन इत्यादि।

1. गर्मी की जुताई-

गर्मी की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी करना चाहिए जिससे मृदा को कई फायदे होते हैं जैसे-

  1. मृदा की जल-धारण क्षमता का बढ़ाना
  2. सूर्य की गर्मी से मिट्टी तपने से हानिकारक कीडों का खत्म होना।
  3. मिट्टी का भुरभुरा होना।
  4. वर्षा के साथ वायु मंडलीय नत्रजन का खेत में समावेश होना, क्योंकि गहरी जुताई से प्रथम वर्षा का पानी खेत में ही रह जाता है तथा बाहर बहकर नहीं जा पाता है। यह नी संरक्षण का भी बेहतरीन तरीका है।

2. कार्बनिक खादों का प्रयोग-

कार्बनिक खादों में गोबर का खाद, कम्पोस्ट, सीवेज स्लरी व गर्मी कम्पोस्ट आदि है इनके प्रयोग से खेत की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। मृदा में जैविक क्रियाएं सही तरीके से होती है क्योंकि मृदा में वायु का आदान-प्रदान उचित मात्रा में होता है। मृदा की जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है। पोषक तत्व भी संतुलित मात्रा में उपलब्ध होते है तथा भूमि में पर्याप्त पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है। मृदा पी एच भी उचित रहता है जिससे मृदा में क्षारीयता या लवणीयता नहीं बढती है। कार्बनिक खाद भूमि में तीन वर्ष के बाद अवश्य ही डालना चाहिए।

3. फसल चक्र अपनाना-

एक ही खेत में एक निश्चित समय में फसलों को हेर-फेर करवाने को फसल चक्र कहते है। फसल चक्र अपनाने से मृदा की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। इसके कुछ निश्चित सिध्दांत है जैसे- उथली जड़ों वाली फसलों के बाद गहरी जडों वाली फसलें बोना, ज्यादा सिंचाई व उर्वरक चाहने वाली फसलों के बाद कम सिंचाई व कम उर्वरक चाहने वाली फसलें बोना आदि।

धान फसलों के बाद दलहनों का फसल-चक्र अपनाने से कीडे व बिमारियों का प्रकोप भी बहुत कम होता है क्योंकि उनके आश्रित पौधे बदलते रहते है। कीडे व बिमारियों को नियंत्रित करने के लिए डालें गये रसायन भी स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालते है।

4. जैविक या जीवाणु खादों का प्रयोग-

प्राकृतिक रूप से मृदा में कुछ ऐसे जीवाणु पाए जाते हैं जो वायुमंडलीय नत्रजन को अमोनिया में और मृदा में स्थिर फॉस्फोरस को धुलनशील अवस्था में बदल देते है। जीवाणु खाद, मृदा में पाए जाने वाले जीवाणुओं का भोजन है जिससे मृदा में जीवाणुओं की संख्या व सक्रियता बढती है।

जीवाणु खाद मृदा स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी है। बाजार में मिलने वाले जीवाणु खाद निम्न प्रकार के हैः-

1) राइजोबियम कल्चर, 2) एजोटोबेक्टर, 3) पी.एस.बी. कल्चर (फॉस्फोरिका), 4) एजोस्पाइरिलम, 5) बी.जी.ए. (निल हरित शैवाल), 6) अजोला इत्यादि।

राइजोबियम कल्चर –

यह केवल दलहनी फसलों में ही प्रयोग किया जा सकता है। विभिन्न फसलों के लिए विभिन्न प्रकार का राइजोबियम कल्चर मिलता है। जिसके हर एक ग्राम में दस करोड से अधिक जीवाणु होते है। राइजोबियम कल्चर का प्रयोग निम्नलिखित फसलों पर किया जाता है। फसल के अनुसार अलग-अलग पैकेट आते है।

सोयाबीन, मूंगफली, मूंग, उडद, अरहर, लोबिया, चना, मसूर, बरसीम, मौठ, रिजका एवं सभी प्रकार के बीन्स पर इसका प्रयोग करना लाभप्रद होता है।

प्रयोग की विधिः

आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड को गरम करके घोल बना लें। फिर इस घोल को ठंडा करके राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट (200-250 ग्राम) डालकर लकड़ी से हिलाकर घोल तैयार कर लें। फिर 10-12 कि.ग्रा. बीज पक्के फर्श या लकडी के तख्ते पर फैलाकर तैयार किए गए घोल को बीज के ऊपर सामान रूप से छिडकर हाथ से मिला दें।

इस प्रकार प्रत्येक बीज पर पतली पर्त चढ़ जाएगी, फिर इसे छाया में सुखाकर बुवाई कर दें। बीज अंकुरण पर ये जीवाणु जड मूल रोग के सहारे पौधों की जडों में प्रवेश कर पौधों की जडों पर ग्रन्थियों (नोड्यूल्स) का निर्माण करते है, ये ग्रन्थियॉं ही नत्रजन स्थिरीकरण करती है जिससे 10-30 कि.ग्रा. रासायनिक नत्रजन की प्रति हेक्टर बचत होती है तथा 20-30 प्रतिशत तक पैदावार भी बढ जाती है।

मृदा स्वास्थय के लिहाज से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ जाती है जो कि उसके बाद बोई जाने वाली फसल के लिए लाभकारी होती है।

पी.एस.बी. कल्चर (फॉस्फोरिका) :-

यह स्वतंत्र जीवी जीवाणु का एक नम चूर्ण उत्पादन है। इसके एक ग्राम में दस करोड जीवाणु होते हैं। इसके प्रयोग से भूमि में अधुलनशील फॉस्फोरस धुलनशील अवस्था में बदल जाता है। जडों में वृध्दि एवं पौधों के उचित विकास से 10-20 प्रतिशत तक पैदावार वृध्दि एवं पौधों के उचित विकास से 10-20 प्रतिशत तक पैदावार वृध्दि होती है तथा रासायनिक फॉस्फोट् उर्वरक की 30-40 प्रतिशत तक बचत होती है।

बी.जी.ए. (निलहरित शैवाल) व अजोला :-

बी.जी.ए. व अजोला का प्रयोग धान की खेती में होता है। इनके प्रयोग से नत्रजन की बचत 30 प्रतिशत तक होती है तथा औसत पैदावार भी 20-25 प्रतिशत तक अधिक होती है। मृदा में जैविक क्रियाएं सुचारू रूप से होने से मृदा स्वास्थ्य पर अनुकूल असर पडता है।

धान के खेत में जो अक्सर मिट्टी कडी हो जाती है वह उनके प्रयोग से कडी नहीं होती है एवं मृदा भुरभुरी हो जाती है। मृदा में कार्बनिक पदार्थ भी बढ जाता है।

5. हरी खाद का प्रयोग :-

हरी खाद के लिए ढेंचा या सनई का प्रयोग करना चाहिए। हरी खाद की फसल को 25-35 दिन की होने पर अवश्य ही मिट्टी पलटने वाले हल से मिला देना चाहिए। यदि यह ज्यादा दिन पुरानी हो जाएगी तो मृदा स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पडेगा। इसका प्रयोग करने से 5-10 टन गोबर के खाद के बराबर प्रति हेक्टर कार्बनिक पदार्थ मृदा को मिल जाता है। जिससे मृदा की भौतिक दशा में सुधार आता है।

6. निराई-गुडाई :-

खेत की निराई-गुडाई करने से मृदा में नमी का संरक्षण होता है जिससे असिंचित क्षेत्रों में भी फसल की पैदावार अच्छी होती है। निराई-गुडाई कुल्फा चलाकर या खुरपी-कुदाली की सहायता से फसल बुवाई के 30-60 दिन बाद करना चाहिए जिससे खरपतवार नियंत्रण भी हो जाता है तथा फसल बढवार अच्छी होती है।

7. सिंचाई एवं जल निकास :-

यदि फसल में अधिक पानी दिया गया तो मृदा की भौतिक संरचना खराब हो कर फसल बढवार में बाधक होगी। इसलिए सिंचाई उचित समय पर व सही मात्रा में करनी चाहिए। सिंचाई सही मात्रा में करने के लिए पट्टी का 80 प्रतिशत भाग पानी भर जाने पर पानी दुसरी पट्टी में मोड देना चाहिए तथा बचा हुआ 20 प्रतिशत भाग पानी के बहाव वेग से भर जायेगा।

खरीफ की फसलों में जल निकास का विशेष ध्यान रखना चाहिए तथा तीन दिन से ज्यादा पानी खेत में नहीं ठहरना चाहिए। खेत के ढलान की ओर नाली बनाकर पानी निकालना चाहिए।

8. खेत में नमी का संरक्षण :-

असिंचित क्षेत्रों में नमी संरक्षण का विशेष महत्व है। खेत के चारों ओर मेंढ बनाकर वर्षा ऋतु में खेत का पानी खेत में ही रखने की व्यवस्था करनी चाहिए। इस इन सीटू नमी संरक्षण के नाम से जाना जाता है। यह संरक्षित नमी असिंचित क्षेत्रों में फसल को बहुत फायदा पहुंचाती है।

गर्मी की गहरी जुताई भी मृदा नमी संरक्षण में काफी सहायक होती है। निराई-गुडाई या मल्चिंग से भी नमी को संरक्षित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में मृदा वाष्पीकरण को कम किया जाता है। फसल बढवार के समय मृदा में उचित नमी होने से पैदावार अच्छी होती है।

9. एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन :-

एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन से मृदा स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पडता है तथा उपज पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पडता क्योंकि इस प्रक्रिया में रासायनिक उर्वरकों के साथ कार्बनिक खाद दिया जाता है, जिससे मृदा की भौतिक दशा में सुधार आता है।

नत्रजन आधारित कार्बनिक खाद कुल उपयोग का 25-50 प्रतित देना चाहिए, जिससे निश्चित समय में निश्चित उत्पादन लिया जा सके तथा मृदा की भौतिक दशा भी सुधार सकें।


Authors:

डिप्रोशन, ममता देवांदन एवं डॉ. संजय कुमार द्विवेदी

शस्य विज्ञान विभाग, ई.गा.कृ.वि.वि., रायपुर (छ.ग.)

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