Organic farming - the need of the day
हम आजादी के समय खाने के लिए अनाज विदेशो से लाते थे, खेतों में बहुत कम पैदा होता था क्योंकि किसानो के खेतो की उर्वरा शक्ति बहुत कमजोर थी। फिर साठ सत्तर के दशक में हरित क्रांति का दौर आया। हरित क्रांति कें समय विभिन्न फसलों के नए-नए संकर बीज आए, बहुत सारे रसायनिक उर्वरक आए, विभिन्न प्रकार के कीडों व बीमारियों को रोकने के लिए नई-नई दवाईयाँ आई। भरपूर अनाज पैदा होना लगा।
देश में आज गोदाम गेंहू, चावल, बाजरे इत्यादि से भरे पडे़ है, लेकिन यह दौर कई बुराईयाँ भी साथ लाया। इस दषक में हमारा फसलों का उत्पादन तो बढा पर साथ मे फसलों में नए-नए कीड़े व रोग भी आए। आज जमीन का स्वास्थ्य एवं उर्वरकता खराब हो रही है। खेतों में विकारों की मात्रा बढ़ रही है।भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी आ रही है।
मनुष्यों में विभिन्न प्रकार के कीटनाशकों से कैंसर, चर्म रोग जैसी भयानक बिमारी बहुत ज्यादा होने लगी है। साथ ही अनाज का स्वाद भी पहले जैसा नहीं रहा। यह सब बिना सोेच-विचार किए एवं बिना अनुभव के रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक रसायनों के अत्यादिक उपयोग करने के कारण हुआ। हम अपने देशी तरीकों को भूल रहे है।
वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुये गोबर की खाद, हरी खाद, कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट एवं नीम को किसानो भाईयों को फिर से याद करने की जरूरत है। देशी तौर तरीकों का वैज्ञानिक तरीकों से समन्वय करना है। यह जैविक खेती में ही संभव है। इससे भूमि के स्वास्थ्य, अनाज के स्वाद और मृदा उर्वरता की शक्ति कायम रखी जा सकती है, जिससे किसानो भाईयों को फसल उपज एवं जैविक कृषि उत्पादों की कीमत बाजार में अच्छी एवं ज्यादा मिल सके ।
क्या है जैविक खेती?
जैविक खेती, देशी खेती का उन्नत तरीका है। इसमें रसायनिक उर्वरक, कीटनाशक, वृद्धि नियंत्रकों का उपयोग नहीं करके खेतों में गोबर की खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, जीवाणु खाद, फसल चक्र एवं प्रकृति में उपलब्ध खनिज जैसे राॅक फास्फेट, जिप्सम आदि द्वारा पौधो को पोषक तत्व दिए जाते है। फसल को प्रकृति में उपलब्ध कीड़ों, जीवाणुओं एवं जैविक कीटनाशकों द्वारा हानिकारक कीड़ों एवं बीमारियों से बचाया जा सकता है।
जैविक खेती की आवश्यकता क्यों है
- कृषि उत्पादन में टिकाऊपन लाने के लिए।
- मृदा में जैविक गुणवत्ता बढाने के लिए।
- प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए।
- वातावरण प्रदुषण को रोकने के लिए।
- मानव स्वास्थ्य की रक्षा हेतु।
- उत्पादन लागत को कम करने के लिए।
ऐसे अपनाऐं जैविक खेती
जैविक खेती को समझने एवं फसल की उत्पादकता बनाए रखने के लिए इसे मुख्य रूप से दो घटकोें में बाँट सकते है। पहला, पौधों के लिए खुराक अर्थात् समन्वित पोषक तत्व प्रबंध तथा दूसरा, कीड़ों से रक्षा अर्थात् समेकित नाशीजीव प्रबंध करना। सफल जैविक खेती के लिए इन दोनों को विस्तार से जानना बहुत आवश्यक है।
जैविक विधि से पोषक तत्व प्रबंधन
पौधों को अपना जीवन चक्र पूरा करने के लिए 16 प्रकार के पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। इनमें कार्बन, हाइड्रोजन व आॅक्सीजन पौधों को पानी व हवा से मुक्त में मिल जाते है। जबकि जस्ता, मैगनीज, लौहा, तांबा, बोरोन, मोलिब्डेनम, एवं कैल्शियम (7 तत्व) की बहुत कम मात्रा में आवश्यकता होती है।
मिट्टी में कैल्शियम एवं मैग्निशियम की प्रायः कमी नहीं पाई जाती है। इन तत्वों का बहुत छोटा भाग दोनों में संग्रहित होता है। अतः यदि फसल अवशेष, कम्पोस्ट, गोबर की खाद का नियमित उपयोग किया जाए तो पौधों के लिए इन तत्वों के साथ पोटाश की भी कमी नहीं रहती है, क्योंकि मनुष्य के लिए उपयोगी दोनों में पोटाश बहुत कम मात्रा में पाई जाती है।
पौधों के लिए शेष तीन महत्त्वपूर्ण पोषक तत्वों मेें गंधक की पूर्ति जिप्सम का उपयोग करकंे की जा सकती है। इसी प्रकार प्रकृति में उपलब्ध राॅक फास्फेट खनिज एवं पी.सी.बी. व पी.एस.एम. खादों द्वारा फाॅस्फोरस की व्यवस्था की जा सकती है। इसके लिए राॅक फास्फेट को खेत में डालें। बीज को बोने से पहले पी.एस.बी./पी.एस.एम. जीवाणु खाद से उपचारित करें।
सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व नत्रजन की पौधों के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता सुनिश्चित करना जैविक खेती का सबसे कठिन कार्य है। क्योंकि इस तत्व का जमीन में संचय नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिकों के अनुसार नत्रजन की मात्रा जमीन के जैविक कार्बन पर निर्भर करती है।
जमींन में जैविक कार्बन की मात्रा तापमान पर निर्भर करती है। जिन क्षेत्रों मे औसत तापमान अधिक रहता है वहां जमींन का कार्बन जलकर कार्बन डाई आक्साईड गैस बनकर हवा में उड़ जाता है तथा जमींन में कार्बन की कमी बनी रहती है।
पौधों की नत्रजन की आवश्यकता की पूर्ति निम्नलिखित तरीकों से की जानी चाहिए-
- किसान भाई खेतों में एक ही प्रकार की फसल हर साल नहीं उगाऐ। साल में एक बार दाल वाली फसल आवश्य बोनी चाहिए। बाजरा, मक्का, ज्वार, तिल के बाद सर्दी में चना बोएं। दाल वाली फसल की जड़ों में राईजोबियम की गांठें यूरिया की छोटी-छोटी फैक्ट्रियों का काम करती है।
- फसलों के अवशेष में आधा प्रतिशत की मात्रा में नत्रजन होता है, इसलिए इसका कम्पोस्ट बनाकर उपयोग करें। इससे पोषक तत्वों के साथ भूमि में कार्बन की मात्रा भी बढ़ती है, जो जमीन में नत्रजन को रोकने के लिए सहायक है।
- पशुओं के पेशाब में गोबर से भी अधिक मात्रा में नत्रजन होता है। इसका समुचित उपयोग करने के लिए पशु के बैठने के स्थान पर राॅक फास्फेट की थोड़ी-सी मात्रा डालनी चाहिए। पशु के पेशाब में मिले हुए राॅक फास्फेट को सुपर कम्पोस्ट बनाने के काम लेना चाहिए, इससे कम्पोस्ट में नत्रजन की मात्रा में काफी बढ़ोतरी हो जाती है।
- उपलब्ध गोबर व कचरे से केंचुआ खाद (वर्मी कम्पोस्ट) तैयार करनी चाहिए। वर्मी कम्पोस्ट में पोषक तत्वों की मात्रा सामान्य कम्पोस्ट के मुकाबले ज्यादा होते है।
- दलहनी फसलों के बीजों को राईजोबियम जीवाणु खाद से उपचारित करके बुवाई करें। जड़ों में उपस्थित रहकर यह जीवाणु वातावरण की नत्रजन को सीधे पौधों में उपलब्ध कराता है, साथ ही अगले मौसम में उगाए जाने वाली फसल के लिए भी जमीन में नत्रजन की उपलब्धता बढ़ाता है।
- बाजरा, ज्वार, मक्का, सरसों, गेहूँ व जौ के बीजों को एजोटोबेक्टर जीवाणु खाद से उपचारित करके बुवाई करनी चाहिए। यह जमीन में स्वतन्त्र रूप से रहकर हवा की नत्रजन को खाता रहता है तथा बढ़ता रहता है। कुछ समय बाद यह जीवाणु मर जाता है और इसके शरीर से नत्रजन कुछ समय बाद पौधों को मिल जाती है। इसी प्रकार धान की फसल में एजोला का उपयोग कर हवा की नत्रजन का प्रयोग संभव है।
- ग्वार, ढ़ेंचा, सनई, चंवला की हरी खाद से जमीन में नत्रजन व कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है।
- नीम, अरण्डी, करंज की कलियों का उपयोग भी नत्रजन की आपूर्ति के लिए किया जाता है। बुवाई के एक माह पहले 1.0-1.2 टन खली को एक हैक्टेयर खैत में मिलाए।
- ऊन की खाद, मुर्गी की खाद, भेड़-बकरियों की मेंगनी, खून की खाद, हड्डी की खाद आदि का उपयोग जमीन में पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाता है, अतः इनका उपयोग भी फायदेमंद रहता है।
उपरोक्त सभी उपायों को समन्वित रूप से अपनाकर नत्रजन की आपूर्ति बनाए रखी जा सकती है।
जैविक विधि से फसलों की सुरक्षाः
पौधों के हानिकारक कीड़े, बीमारियाँ एवं खरपतवार नाशीजीव की श्रेणी में आते है। इनका प्रकोप फसल को चोपट कर सकता है। अतः नाशीजीव की अवस्था पर प्रभावी प्राकृतिक तरीकों का उपयोग कर इनके प्रकोप का स्तर न्यूनतम रखना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधनः
खरपतवार फसल के छुपे दुश्मन है। ये फसल के हिस्से की खुराक-पानी एवं हवा खा जाते है। इन पर कीड़े व रोग भी पलते है। इससे फसल की उपज बहुत कम हो जाती है। अतः ऐसे प्रयास करें कि खेत में खरपतवार नहीं उगें। इसके लिए साफ बीज की बुवाई करें। खेत में अच्छी तरह सड़ी हुई कम्पोस्ट या गोबर की खाद डालें।
खरपतवारों कों बीज बनने से पहले ही उखाड़कर नष्ट कर दें। इससे अगले साल कम खरपतवार उगेगें।
खड़ी फसलों में खरपतवारों की मार शुरू के 20-30 दिन में ज्यादा पड़ती है। इसलिए खरपतवारों में उगते ही निराई-गुडा़ई करनी चाहिए।
जैविक कीट प्रबंधनः
फसलों को हानि पहुँचाने वाले कीट मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते है। पहले प्रकार के कीट पौधों का रस चूसकर एवं वायरस का संक्रमण फैलाकर नुकसान पहुँचाते है। इनमें मोयला या चेंपा, हरा तेला, थ्रिप्स, लाल मकडी, सुन्दर झंगा (पेन्टड बग) आदि प्रमुख कीडे है। इन हानिकारक कीडों के प्रकृति में अनेक दुश्मन मौजूद है, जैसे लेडीबर्ड बीटल, क्राईसोपला व मकडी। क्राईसोपला अब प्रयोगशाला में तैयार किए जाने लगे है।
दूसरे प्रकार के कीड़ों में सुण्डियाँ(लट) प्रमुख हैं, जो फसलों को काटकर एवं कुतरकर हानि पहुंचाती है। प्रकृति में इन कीड़ों के दुश्मन भी मौजूद है, ट्राईकोग्रामा के द्वारा लटों को अण्डों से निकलने से पहले नष्ट किया जा सकता है। अतः फसल के अनुसार इनका प्रयोग किया जा सकता है।
तीसरे प्रकार के कीड़े भूमि में रहते है। ये फसल की जडों को काटकर खाते है। इनमें दीमक व सफेद लट प्रमुख है। कच्चा देशी खाद व फसल के बिना सड़े अवशेष खेत में डालने से दीमक का प्रकोप बढ़ता है। अतः अच्छी तरह सड़ी-गली कम्पोस्ट खेत में बुवाई से एक माह पहले मिला देवें। दीमक नमी से दूर भागती है, अतः खेत में नमी की भी कमी नहीं रहनें देवें। दीमक के बिल को खोदकर रानी को नष्ट कर देवें।
चौमासे की पहली भारी वर्षा के समय सफेद लट के प्रौढ़(भृंग) जमीन से निकलते है। रात में कीड़े नीम, बेर, खेजड़ी को खाते है। साथ ही प्रकाश पर भी आते है। पेड़ों को खाते भृंग को दुसरे दिन इकट्ठा कर मार दें। इसके अलावा प्रकाश पाश के द्वारा भी भृंगों को पकड़ कर मार दें।
लट से बचने के लिए एक हेक्टेयर भूमि में 10-12 टन नीम की खली मिलाएँ। इससे सभी प्रकार के कीड़ों से फसल बची रहती है।
खेत मे दोनो प्र्कार यानि दुश्मन कीट एवं मित्र कीट मौजूद है, तो फसलों में किसी भी प्रकार की दवाओं के छिडकाव की जरूरत नहीं होती है। लेकिन मित्र कीटों की उपस्थिति के बावजूद भी कभी-कभी कीड़ों का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर से अधिक हो सकता है। ऐसी स्थिति में सुण्डियों के नियंत्रण के लिए बी.टी., एन.पी.वी. आदि का उपयोग प्रभावी होता है।
नीम की पत्तियों का रस, नीम का तेल, नीम की खली एवं नीम के तेल में उपस्थित अजाडिरेक्टिन बहुत प्रभावी कीटनाशक का काम करता है। इनके अतिरिक्त फेरोमोन ट्रेप, प्रकाशपाश द्वारा भी प्रौढ़ कीटों को पकडकर नष्ट किया जा सकता है।
बीमारियों का जैविक प्रबंधन
जैविक तरीकों से बीमारियों की रोकथाम कीड़ों के बजाय कठिन होती है। अतः रोगों से बचने के लिए शुरू से सावधान रहना आवश्यक है।
भूमि के हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए गर्मियों में गहरी जुताई करनी चाहिए। इससे जमीन में छुपे जीवाणु नष्ट हो सकते है।
किसानों को फसल चक्र अपनाना चाहियें जिससे मृदा एवं बीज जनित बीमारियों से बचाया जा सके।
रोग प्रभावित पौधों को खेतो से उखाड कर जला देना चाहियें ।
फसलों के बीजों को जैविक उत्पादों (ट्राईकोडर्मा, नीम उत्पाद) से उपचारित करके बोना चाहियें।
Authors
1डाॅ. बी. एल. मीणा , 2डाॅ. एस.एस. यादव, 3श्री.एम.के. मीणा,, एवं 4डाॅ. एम. एल. मीणा
1 असिस्टेंट प्रोफेसर (शस्य विज्ञान),
2प्रोफेसर (शस्य विज्ञान) एवं अधिष्टाता,
3असिस्टेंट प्रोफेसर (पादप प्रजनन एव आनुवांशिकी) ,
4एसो. प्रोफेसर (पादप रोगव्याधिकी)
कृषि महाविद्यालय, लालसोट, दौसा (राज.)
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