India's self-reliance in edible oils: need and measures

भारतीय रसोई में खाद्य तेल अपरिहार्य है जिसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता। परंतु आश्चर्य की बात ये है की अन्य कृषि उत्पादों की तुलना में जो की स्थानीय स्तर पर उत्पादित होते हैं, भारत अपने द्वारा खपत किए जाने वाले अधिकांश तेलों का आयात अन्य देशों से करता है।

विविध कृषि-जलवायु परिस्थितियों, प्रचुर भूमि और कृषि पर निर्भर आबादी के बड़े हिस्से के होने के बावजूद भी , भारत को खाद्य तेलों का आयात क्यों करना पड़ता है? सरकार के खजाने पर खाद्य तेलों के आयात का कितना बोझ है? खाद्य तेलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इन सभी सवालों के उपयुक्त हल से ही हम खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता सुनिश्चित कर सकते हैं|

खाद्य तेल की वस्तुस्थिति एवं वित्तीय स्थिति विवरण

नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, प्रत्येक भारतीय के पीछे औसतन हर साल 19.5 किलोग्राम खाद्य तेल की खपत होती है जो की पिछले दशक में औसतन 15.8 किलोग्राम थी। यह प्रति वर्ष लगभग 26 मिलियन टन खाद्य तेलों की कुल मांग के बराबर है।

तेल की खपत में वृद्धि के स्वास्थ्य प्रभावों और जीवन शैली की बीमारियों के प्रसार पर इसकी भूमिका को परे रख अगर भारत में खाद्य तेलों की मांग-आपूर्ति की स्थिति की जांच करें तो पायेंगे की इन दोनों के बीच का अंतर निरंतर बढता ही जा रहा है।

भारत ने वर्ष 2018-19 के दौरान 25 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर तिलहन की खेती कर 32 मिलियन टन तिलहन का उत्पादन किया, जिसमें सोयाबीन, रेपसीड, सरसों और मूंगफली को मिला दिया जाये तो इनका तिलहन के क्षेत्र में करीब 90% का हिस्सा था।

देश भर में 28% तेल रिकवरी के औसत दर को अगर माने तो 32 मिलियन टन तिलहन से लगभग 8.4 मिलियन टन खाद्य तेल प्राप्त होगा जिससे खाद्य तेलों की कुल घरेलू मांग का केवल 30% के आस पास ही पूरा कर सकता है और यही वजह है कि हमें इसके आयात की आवश्यकता होती है।

भारत ने वर्ष 2019 में लगभग 7,300 करोड़ रुपये के मूल्य का करीब 5 मिलियन टन खाद्य तेलों का आयात किया जो कि कृषि आयात बिल का 40 % और देश के कुल आयात बिल का 3% था। खाद्य तेलों के कुल आयात में ताड़ के तेल की प्रमुख हिस्सेदारी (62%) है, इसके बाद सोया तेल और सूरजमुखी तेल क्रमशः 21% और 16% के साथ दूसरे और तीसरे स्थान पर है। 

विगत वर्षों में आयात की जाने वाली वस्तुओं की श्रेणी में सोया और सूरजमुखी तेल की हिस्सेदारी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। पाम तेल मुख्य रूप से इंडोनेशिया और मलेशिया से आयात किया जाता है जबकि सोया तेल अर्जेंटीना और ब्राजील से। यूक्रेन और अर्जेंटीना भारत को सूरजमुखी के तेल के प्रमुख आपूर्तिकर्ता हैं।

खाद्य तेलों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार पर निर्भरता उपभोक्ताओं और उत्पादकों दोनों को प्रभावित करने वाली कीमतों में अस्थिरता के साथ-साथ सरकार के खजाने पर एक महत्वपूर्ण बोझ का कारण बनती है।

उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया और मलेशिया के पाम तेल बागानों में श्रमिकों की कमी, अर्जेंटीना में पड़े सूखे की वजह से सोयाबीन का और यूक्रेन में सूरजमुखी की फसलों का कम उत्पादन तथा चीन द्वारा खाद्य तेलों की अत्यधिक खरीद से खाद्य तेलों की कीमतें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में काफी प्रभावित हुई।

कोरोना महामारी वर्ष के बाद सरकार को खाद्य तेल के घरेलू कीमतों को कम करने के लिए पाम तेल के आयात शुल्क में 10% की कमी करनी पड़ी। 

इस संदर्भ में, यह उल्लेखनीय है कि भारत में तिलहन के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने हेतु इसके उत्पादकता एवम् क्षेत्रफल में वृद्धि करने की अपार क्षमता है जिससे आयात पर निर्भरता को कम किया जा सकता है जो किसानों के लिये भी लाभप्रद हो सकता है। भारत सरकार भी खाद्य तेल बीजों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए कई उपाय कर रही है।

उदाहरण के लिए, तिलहन पर प्रौद्योगिकी मिशन और अन्य नीतिगत फैसलों ने भारत में तिलहन के पैदावार को 1986 में मिलने वाले 9 मिलियन टन से बढ़ाकर 2018-19 में 32 मिलियन टन करने में मदद की है, परंतु फिर भी घरेलू मांग को पूरा करने के लिए वर्तमान उपज पर्याप्त नहीं है।

इन जरूरतों के मद्देनज़र घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु कई अन्य पहल, जैसे राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत ऑयल पाम क्षेत्र का विस्तार, तिलहन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि, तिलहन के लिए बफर स्टॉक का निर्माण, तिलहन फसलों का क्लस्टर प्रदर्शन आदि को सरकार द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है जो कि आगे चलकर किसानों और उपभोक्ताओं के लिये हितकर साबित हो सकता है।

उत्पादन व उत्पादकता को बढ़ाकर

एक मोटे अनुमान के आधार पर 1.5 टन प्रति हेक्टेयर वास्तविक उपज के साथ 3.6 मिलियन टन अतिरिक्त तेल का उत्पादन कर उपज एवं खपत के अंतर को मिटाया जा सकता है। इसके लिए उन्नत कृषि प्रौद्योगिकियों के साथ उच्च गुणवत्ता वाले बीज, कृषि- रसायनों का उचित उपयोग और बेहतर फसल प्रबंधन को व्यापक पैमाने पर अपनाने की जरूरत होगी।

किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाले नई तिलहन की किस्मों के बीजों के बारे में जागरूक करने और उनतक उसकी पहुंच प्रदान करने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतर्गत आने वाले तिलहन के प्रमुख संस्थान, जैसे की भारतीय तिलहन अनुसंधान संस्थान, भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान, सरसों अनुसंधान निदेशालय, एवं मूंगफली अनुसंधान निदेशालय, के माध्यम से बिभिन्न तिलहनी फसलों के उन्नत एवं क्षेत्र-विशेष बीजों के साथ साथ अन्य तकनीकी सहायता भी प्राप्त की जा सकती है|

इसके साथ ही इन संस्थानों द्वारा चलायी जा रही तिलहनी फसलों का क्लस्टर प्रदर्शन और अन्य विस्तार गतिविधियों को और बढ़ावा दिया जा सकता है।

तिलहन क्षेत्र का विस्तार कर

फसल कटाई के उपरांत पड़े परती भूमि का उपयोग तिलहन फसलों के लिए उपयोग में लाकर इसके कुल क्षेत्र में विस्तार किया जा सकता है। भारत में लगभग 11.7 लाख हेक्टेयर चावल की कुल परती भूमि बच जाती है जिसका उपयोग कुसुम और सरसों की फसलों की खेती के लिए किया जा सकता है, जिन्हें अधिक पानी की आवश्यकता भी नहीं होती है।

खाद्य तेल के अन्य विकल्पों को अपनाकर

चावल की भूसी का तेल जैसे विकल्प शहरी उपभोक्ताओं के बीच लोकप्रियता प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि यह हृदय रोगों और मधुमेह प्रकार-2 के जोखिम को कम करने के लिए जाना जाता है। 

भारत में चावल की भूसी, चावल के कुल उत्पादन का लगभग 8.5% होता है जिसमें लगभग 15% तेल की मात्रा होती है। उपलब्ध चावल की भूसी का उपयोग करके लगभग 2 मिलियन टन खाद्य तेल का उत्पादन किया जा सकता है।

इस दिशा में कपास का बीज भी वनस्पति तेल का एक आशाजनक स्रोत है जिसे उपयोग में लाने की जरूरत है। कपास के बीजों से लगभग 1.4 मिलियन टन तेल संवर्धित किया जा सकता है।

खाद्य तेल का एक और आशाजनक गैर-पारंपरिक स्रोत 'ऑयल पाम्स' है । अन्य पारंपरिक तिलहनों की लगभग 1 टन उपज की तुलना में पाम ऑयल प्रति हेक्टेयर 4 से 5 टन खाद्य तेल का उत्पादन करता है।

अध्ययनों के अनुसार, भारत में पाम ऑयल के तहत 1.9 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र का विस्तार करने की क्षमता है, जो लगभग 7.6 मिलियन टन अतिरिक्त खाद्य तेल (कृषि मंत्रालय, 2018) का उत्पादन कर सकता है। हालांकि, ताड़ के तेल को प्राप्त करने में एक लंबी अवधि लगती है, फसल की कटाई भी चुनौती पूर्ण होती है, और इसे अधिक पानी की आवश्यकता होती है।

इस फसल के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार हेतु पूर्वोत्तर के राज्यों को अनुकूल पाया गया है और ऑइल मिशन के तहत इसे कार्यान्वित भी की जा रही है|

भारत ने हाल के दिनों में आयात को विनियमित करने और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए मांग-आपूर्ति की स्थिति और घरेलू कीमतों के आधार पर टैरिफ दरों में बहुत बदलाव किये है। हालाँकि, यह एक अदूरदर्शी रणनीति है और लंबे समय के लिये, भारत को एक स्थिर व मजबूत आयात-निर्यात नीति को अपनाने की जरूरत होगी।

एक स्थिर टैरिफ संरचना के होने से उचित मूल्य सुनिश्चित करने में भी सहायक सिद्ध होगा जिसके कारण खाद्य तिलहनों के घरेलू उत्पादन में बढ़ावा मिलेगा। स्पष्ट दिशा के साथ एक स्थिर और न्यायसंगत व्यापार नीति विभिन्न बाजार हितधारकों के लिए स्पष्ट मूल्य संकेत प्रदान करेगी और तिलहन फसलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देगी।


Authors:

डॉ. नवीन चंद्रा गुप्ता

वरिष्ठ वैज्ञानिक

भा. कृ. अनु. प. – राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, नई दिल्ली

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