लहसुन की उत्पादन तकनीकी
लहसुन एक दक्षिण यूरोप में उगाई जाने वाली प्रसिद्ध फसल है। लहसुन एक कन्द वाली मसाला फसल है। इसमें एलसिन नामक तत्व पाया जाता है जिसके कारण इसकी एक खास गंध एवं तीखा स्वाद होता है। लहसुन की एक गांठ में कई कलियाँ पाई जाती है जिन्हे अलग करके एवं छीलकर कच्चा एवं पकाकर स्वाद एवं औषधीय तथा मसाला प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है।
इसका इस्तेमाल गले तथा पेट सम्बन्धी बीमारियों में होता है। इसमें पाये जाने वाले सल्फर के यौगिक ही इसके तीखेस्वाद और गंध के लिए उत्तरदायी होते हैं। जैसे ऐलसन ए ऐजोइन इत्यादि। इस कहावत के रूप में बहुत आम है "एक सेब एक दिन डॉक्टर को दूर करता है" इसी तरह एक लहसुन की कली एक दिन डॉक्टर को दूर करता है।
यह एक नकदी फसल है। इसमें प्रोटीन, फासफोरस और पोटाशियम जैसे स्त्रोत पाए जाते हैं तथा इसमें कुछ अन्य प्रमुख पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं। इसका उपयोग आचार, चटनी, मसाले तथा सब्जियों में किया जाता है। लहसुन का उपयोग इसकी सुगन्ध तथा स्वाद के कारण लगभग हर प्रकार की सब्जियों एवं माँस के विभिन्न व्यंजनों में किया जाता है ।
इसका उपयोग हाई ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करने, पेट के विकारों, पाचन विकृतियों, फेफड़े के लिये, कैंसर व गठिया की बीमारी, नपुंसकता तथा खून की बीमारी के लिए होता है। इसमें एन्टी-बैक्टीरिया तथा एन्टी-कैंसर गुणों के कारण बीमारियों में प्रयोग में लाया जाता है।
यह विदेशी मुद्रा अर्जित करने में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बड़े स्तर पर लहसुन की खेती मध्य प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, महांराष्ट्र, पंजाब और हरियाणा में की जाती है। राजस्थान मे इसकी खेती बांरा, बूंदी, झालावाड़ व कोटा जिलों मे की जाती है।
जलवायु
लहसुन को ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है वैसे लहसुन के लिये गर्मी और सर्दी दोनों ही कुछ कम रहे तो उत्तम रहता है अधिक गर्मी और लम्बे दिन इसके कंद निर्माण के लिये उत्तम नहीं रहते है। छोटे दिन इसके कंद निर्माण के लिये अच्छे होते है। इसकी सफल खेती के लिये 29.35 डिग्री सेल्सियस तापमान 10 घंटे का दिन और 70% आद्रता उपयुक्त होती है।
मृदा
इसके लिये उचित जल निकास वाली दोमट भूमि अच्छी होती है। भारी भूमि में इसके कंदों का भूमि विकास नहीं हो पाता है। नर्म और रेतली ज़मीनें इसके लिए अच्छी नहीं होती क्योंकि इसमें बनी गांठे जल्दी खराब हो जाती हैं। मृदा का पी. एच. मान 6 से 7 उपयुक्त रहता है। दो - तीन जुताइयां करके खेत को अच्छी प्रकार समतल बनाकर क्यारियां एवं सिंचाई की नालियां बना लेनी चाहिये।
किस्में
क्र.सं. | किस्म | किस्म के लक्षण | अवधि (दिन) | उपज (क्विं/है.) |
1. | यमुना सफेद 1 (जी-1) | इसकी बाह्य त्वचा चांदी की तरह सफेद व कली क्रीम रंग की होती है। प्रत्येक गांठ में 28 से 30 पुत्तियां होती हैं। यह किस्म परपल ब्लाच रोग से अवरोधी है। | 150-160 | 150-175 |
2. | यमुना सफेद 2(जी-50) | इसकी त्वचा सफेद व कली क्रीम रंग की होती है। यह किस्म बैंगनी धब्बा और झुलसा रोग के प्रति सहनशील होती है। प्रत्येक गांठ में 18 से 20 पुत्तियां होती हैं। | 160-170 | 135-140 |
3. | यमुना सफेद 3 (जी-282) | क्लोब का रंग सफेद तथा कली क्रीम रंग की होती है। इस किस्म में शल्क कंद सफेद और बड़े आकार के होते हैं। प्रत्येक गांठ में 15 से 18 पुत्तियां होती हैं। | 140-150 | 175-200 |
4. | यमुना सफेद 4 (जी-323) | क्लोब का रंग सफेद तथा कली क्रीम रंग | 165-175 | 200-250 |
5. | एग्रोफाउण्ड सफेद | इस किस्मका रंग उजला होता है तथा प्रति गांठ 20 से 25 पुत्तियां होती हैं। यह किस्म परपल ब्लॉच से अवरोधी है। | 160-165 | 130-140 |
6. | टाइप 56–4 | इसमें लहसुन की गांठे छोटी होती हैं और सफेद होती हैं। प्रत्येक गांठ में 25 से 34 पुत्तियां होती हैं | 150-160 | 80-100 |
7. | एग्रोफाउण्ड पार्वती | इसके गांठ (बल्व) बड़े आकार तथा क्रिमी उजला रंग का होता है। इसके प्रति गांठ 10 से 16 पुत्तियां होती हैं। | 160-165 | 175-225 |
बुवाई का समय
लहसुन की बुवाई के लिए उपयुक्त समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर होता है।
बीजदर
लहसुन की बुवाई हेतु स्वस्थ एवं बडे़ आकार की शल्क कंदो (कलियों) का उपयोग किया जाता है। बीज 5-6 क्विंटल / हेक्टेयर की आवश्यक्ता होती है। शल्ककंद के मध्य में स्थित सीधी कलियों का उपयोग बुआई के लिए नही करना चाहिए।
बीज उपचार
बुआई से पूर्व कलियों को मैकोजेब+कार्बेंडिज़म 3 ग्राम दवा के सममिश्रण के घोल से उपचारित करना चाहिए।
बुवाई की विधि
लहसुन की बुआई कूड़ों में, छिड़काव या डिबलिंग विधि से की जाती है। कलियों को 5-7 से.मी. की गहराई में गाड़कर उपर से हल्की मिट्टी से ढक देना चाहिए। बोते समय कलियों के पतले हिस्से को उपर ही रखते है। बोते समय कलियों से कलियों की दूरी 8 से.मी. व कतारों की दूरी 15 से.मी. रखना उपयुक्त होता है। बड़े क्षेत्रफल में फसल को बोने के लिए गार्लिक प्लान्टर का भी उपयोग किया जा सकता है।
खेत की तैयारी
प्याज के सफल उत्पादन में भूमि की तैयारी का विशेष महत्व हैं। खेत की प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करना चाहिए। इसके उपरान्त 2 से 3 जुताई कल्टीवेटर या हैरा से करें, प्रत्येक जुताई के पश्चात् पाटा अवश्य लगाऐं जिससे नमी सुरक्षित रहें तथा साथ ही मिट्टी भुर-भुरी हो जाऐ।
पहली जुताई के समय 25 टन गोबर या कम्पोस्ट की खाद को खेत की मिट्टी में मिला देना चाहिए। अन्तिम जुताई के समय यूरिया 100 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 300 किलोग्राम, म्यूरेट ऑफ पोटाश 100 किलोग्राम व बेंटोलाइट सल्फर 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाकर खेत को समतल करके, बाद में खेत में क्यारियाँ बना लेना चाहिए।
खाद एंव उर्वरक
प्याज की फसल को अधिक मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। अत: 20 से 25 टन गोबर या कम्पोस्ट की खाद को खेत की पहली जुताई के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए। साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति की अनुसार नाइट्रोजन 80-100 किलोग्राम, फास्फोरस 50-60 किलोग्राम, पोटाश 80-100 किलोग्राम व सल्फर 50-60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।
नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा व फास्फोरस, पोटाश एंव सल्फर की पूरी मात्रा को रोपाई के पहले खेत की तैयारी के समय देना चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो बराबर भागों में बांटकर रोपाई के 30-40 दिन व 60-70 दिनों बाद फसल में छिड़क कर देना चाहिए। सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा का उपयोग करने से उपज मे वृद्धि मिलती है।
25 कि.ग्रा. जिन्क सल्फेट प्रति हेक्टेयर 3 साल में एक बार उपयोग करना चाहिए । बूंद बूंद सिंचाई एवं फर्टिगेशन का प्रयोग करने से उपज में वृद्धि होती है जल घुलनशील उर्वरकों का प्रयोग बूंद बूंद सिंचाई के माध्यम से करें ।
सिंचाई एवं जल निकास
बुआई के तत्काल बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। शेष समय में वानस्पतिक वृद्धि के समय 7-8 दिन के अंतराल पर तथा फसल परिपक्वता के समय 10-15 दिन के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए। सिंचाई हमेशा हल्की करनी चाहिए एवं खेत में पानी भरने नही देना चाहिए। अधिक अंतराल पर सिंचाई करने से कलियां बिखर जाती हैं ।
खरपतवार प्रबंधन
रोपाई के 25 से 30 दिनों बाद पहली निराई गुड़ाई करें।
रोपाई के करीब 60 से 65 दिनों बाद फसल में दूसरी निराई गुड़ाई करें।
रोपाई के ठीक पूर्व या 3 दिनों के अंदर पेंडिमेथालीन (स्टाम्प 30 ई.सी.) @ 3 लीटर या गोल 23.5 ई.सी. @ 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। इसके प्रयोग से चौड़ी पत्ती एवं सकरी पत्ती के खरपतवारों को निकलने से पहले ही नष्ट किया जा सकता है।
रोपाई के 20 से 25 दिनों के बाद यदि खरपतवारों की समस्या हो रही है तो गोल 23.5 ई.सी. @ 2 मिलीलीटर या टरगा सुपर (क्विजालोफोप एथिल 5% ई.सी.) @ 1.5 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करने से खरपतवार पर नियंत्रण मिलता है।
खड़ी फसल में खाद देना (टोपड्रेसिंग)
रोपाई के 30-40 दिन बाद खेत में सिंचाई कर यूरिया 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करे तथा यूरिया डालने के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करे।
रोपाई के 60-70 दिन बाद खेत में सिंचाई कर यूरिया 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करे तथा यूरिया डालने के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करे।
अच्छी उपज हेतु घुलनशील उर्वरकों का पर्णीय छिडकाव
यदि वानस्पतिक वृद्धी कम हो तो एन.पी.के. 19:19:19 @ 5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोलकर बनाकर रोपाई के 15, 30 एवं 45 दिन बाद छिडकाव करें।
इसके बाद एन.पी.के.13:0:45 @ 5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोलकर बनाकर रोपाई के 60, 75 एवं 90 दिन बाद छिडकाव करें।
अच्छी उपज व गुणवत्ता के लिए सूक्ष्म पोषक तत्वों का मिश्रण @ 1 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोलकर बनाकर रोपाई के 45 और 60 दिन बाद छिडकाव करें।
खुदाई एवं लहसुन का सुखाना
लहसुन 50% गर्दन गिरावट के स्तर पर काटा जाना चाहिए। जिस समय पौधौं की पत्तियाँ पीली पड़ जायें और सूखने लग जाये सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए । इसके बाद गाँठो को 3-4 दिनों तक छाया में सुखा लेते हैं। फिर 2 से 2.25 से.मी. छोड़कर पत्तियों को कन्दों से अलग कर लेते हैं । कन्दो को साधारण भण्डारण में पतली तह में रखते हैं। ध्यान रखें कि फर्श पर नमी न हो । लहसुन पत्तियों के साथ जुड़े बांधकर भण्डारण किया जाता है।
छटाई
लहसुन को बाजार या भण्डारण में रखने के लिए उनकी अच्छी प्रकार छटाई रखने से अधिक से अधिक लाभ मिलता है तथा भण्डारण में हानि काम होती है इससे कटे फटे, बीमारी तथा कीड़ों से प्रभावित लहसुन छांटकर अलग कर लेते हैं।
उपज
लहसुन की उपज उसकी किस्म, भूमि और फसल की देखरेख पर निर्भर करती है | लहसुन की फसल से प्रति हेक्टेयर 150 से 200 क्विंटल उपज मिल जाती है |
भण्डारण
अच्छी प्रक्रिया से सुखाये गये लहसनु को उनकी छटाई कर के साधारण हवादार घरो में रख सकते हैं। 5 से 6 महीने भण्डारण से 15 से 20 प्रतिशत तक का नुकसान मुख्य रूप से सूखने से होता है। पत्तियों के सहित बण्डल बनाकर रखने से कम हानि होती है।
पौध संरक्षण
1. थ्रिप्स:-
प्याज की फसल का थ्रिप्स सबसे हानिकारक कीट है। यह पत्तियों का रस चूसता है जिसके फलस्वरूप पत्तियाँ चितकबरी हो जाती है। पत्तियों के शीर्ष भूरे होकर मुरझाने लगते है और सुख जाते है।
रोकथाम:-
इस कीट की रोकथाम के लिए फिप्रोनिल 5% ई.सी. @ 1.5 मिलीलीटर या प्रोपेनोफोस 50% ई.सी. @ 2 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करे।
2. शीर्ष छेदक कीट-
इस कीट के मैगट या लार्वा पत्तियों के आधार को खाते हुये शल्क कंद के अंदर प्रवेश कर सड़न पैदा कर फसल को नुकसान पहुँचाती है ।
रोकथाम:-
इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. @ 0.5 मिलीलीटर या थाइमेथाक्जाम 25% डब्ल्यू. जी. 0.25 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करे।
2. बैंगनी धब्बा रोग:-
इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में पत्तियों तथा ऊर्ध्वस्तम्भ पर अंदर की तरफ सफ़ेद बैंगनी रंग के चकते बन जाते है। जू बाद में बड़े बैंगनी धब्बों में बदल जाते है, रोग संक्रमण के स्थान पर पत्ती एंव तना कमजोर होकर गिर जाते है। इस बीमारी का प्रकोप फरवरी-अप्रेल के महीनों में अधिक होता है।
रोकथाम:-
इस रोग के रोकथाम के लिए मेंकोजेब 75 डब्ल्यू.पी. @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करे।
3. झुलसा रोग:-
इस रोग प्रकोप की स्थिति में पत्तियों के शीर्ष भाग झुलस जाता है एंव भूरी धारिया बन जाती है।
रोकथाम:-
इस रोग के रोकथाम के लिए मेंकोजेब 75 डब्ल्यू.पी. @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करे।
4. गले का गलन:
इसके प्रकोप होने पर शल्क गलकर गिरने लगते हैं।
रोकथाम:-
इसकी रोकथाम के लिए फसल को कीड़े और नमी से बचावें।
Authors
महेन्द्र कुमार सारण और डॉ हरि दयाल चौधरी
चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार
कृषि विज्ञान केंद्र, गुड़ामालानी, कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर
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