12 Major diseases of Chickpea & their Management

चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग उखेड़ा, रतुआ, एस्कोकाइटा ब्लाईट, तना गलन, सूखा जड़ गलन, आद्र जड़ गलन, ग्रे मोल्ड, अल्टरनेरिया ब्लाईट, एन्थ्रेक्नोज, स्टेमफाइलियम पत्ता धब्बा रोग, फोमा पत्ता ब्लाईट व स्टंट रोग हैं। इस लेख में इन सभी रोगों के नैदानिक लक्षण व नियंत्रण का वर्णन किया गया है।

चना सबसे अधिक खेती की जाने वाली दाल की फसलों में तीसरे स्थान पर है। यह एक वार्षिक फसल है और प्रोटीन का समृद्ध स्त्रोत है। इसका वैज्ञानिक नाम सिसर एरीटिनम है। भारत चने के उत्पादन में प्रथम स्थान पर है तथा कुल उत्पादन का 65 प्रतिशत (9 मिलियन टन) भारत में उत्पादित किया जाता है।

चने का सेवन करने से दिल, कैंसर व मधुमेह का जोखिम कम हो जाता है। इस फसल को बहुत से रोग प्रभावित करते हैं जिससे उत्पाद की मात्रा व गुणवत्ता भी घट जाती है। रोगों का उचित प्रबधंन निम्न प्रकार करें।

1. उखेड़ा

रोगाणु: फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम

नैदानिक लक्षणः

उखेड़ा रोग फफूंद के कारण होता है जोकि मृदा तथा बीज जनित है। आमतौर पर यह रोग अंकुरित पौधों व फूल खिलने की अवस्था में पौधों को प्रभावित करता है। बिजाई के 3 हफ्तों बाद इसके लक्षण अंकुरित पौधों पर देखे जा सकते है। पत्ते पीले पड़ जाते है और सूख जाते हैं। पौधों के मुरझाने के साथ-साथ पत्ते भी गिर जाते हैं।

परिपक्व पौधों में पहले ऊपर के पत्ते गिर जाते है व जल्दी ही पूरे पौधे के पत्ते गिर जाते हैं। तने व जड़ के हिस्सों में भूरा रंग का भाग देखा जा सकता है जो इस रोग के सक्रंमण को दर्शाता है।

संक्रमण के प्रारंभिक चरण में पौधों में बाहरी सड़न, सूखापन और बदरंग जड़ों के लक्षण नही दिखाई देते। अंदर के हिस्से मंे भूरा व काला रंग का हिस्सा जब पौधे को चीर कर देखते हैं तो दिखाई पड़ता है।

रोग प्रबधंनः

  • रोगप्रतिरोधककिस्में जैसे- एच.सी. 1, एच.सी. 3, एच.सी. 5, एच.के. 1, एच.के. 2, सी.214, उदय, अवरोधी, बी.जी. 244, पूसा- 362, जे जी- 315, फूले जी- 5, डब्ल्यू आर - 315, आदि उगायें।
  • बीजोपचार के लिए कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या कार्बेंडाजिम 1 ग्राम $ थीरम 1 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से प्रयोग करें।
  • 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी प्रति किलोग्राम या स्यूडोमोनास फलोरेसेंस 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें।
  • बीजोपचार के लिए 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी $ विटावैक्स 1 ग्राम का 5 मिली लीटर पानी में लेप बनाकर प्रति किलोगाम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • खेत में अधिक मात्रा में हरी व जैविक खाद डालें।
  • जिन खेतों में उखेडा की ज्यादा समस्या है वहां चने की बिजाई 3 से 4 साल तक बंद कर देनी चाहिए।
  • चने की गहरी बुवाई (8 से 10 सेंटीमीटर गहरी) खेत में उखेड़ा की समस्या को कम कर देती है।

2. रतुआ रोग

रोगाणुः यूरोमाइसेस सिसेरी एरीत्नि

नैदानिक लक्षण:

रतुआ रोग के प्राथमिक लक्षण चने के पत्तों पर छोटे, गोलाकार, भूरे व चूर्णित धब्बों के रूप में देखें जा सकते है जो कि बाद में मिल जाते है। कुछ मामलों में बड़े धब्बों के चारों ओर छोटे धब्बों के घेरे देखे जाते है, जोकि पत्तों की दोनो सतहों पर मिल सकते हैं, लेकिन ज्यादातर पत्तियों के निचले हिस्से पर मिलते हैं।

रतुआ रोग के धब्बे (पस्तुलस) पत्तों के अलावा तने व संक्रमित पौधे की फलियों पर भी मिलते है। बाद में ये गहरे रंग के टेलियोस्पोर्स के रूप में देखे जा सकते हैं।

रोग प्रबधंनः

  • सिफारिश की हुई प्रतिरोधी किस्में जैसे कि गौरव उगायें।
  • खेत में यह रोग दिखाई देने पर कार्बंेडाजिम (1 प्रतिशत) या प्रोपिकानाजोल (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव कर देना चाहिए।
  • खेत को खरपतवार मुक्त रखें।

3. एस्कोकाइटा ब्लाईट

रोगाणुः एस्कोकाइटा राबिए

नैदानिक लक्षणः

यह रोग बीज जनित फफूंद की वजह से होता है। आमतौर पर यह रोग फूल खिलने व फली बनने की अवस्था में पौधों पर दिखाई देते है। इस रोग के विशिष्ट लक्षण गोलाकार व लम्बे धब्बों के रूप में देखे जा सकते है। ये अनियमित धब्बे भूरे रंग के व लाल रंग के किनारों से घिरे होते हैं।

इस तरह के विशिष्ट लक्षणों में तने व फलियों पर पाइक्नीडिया भी देखे जा सकते है। अधिक संक्रमण होने की अवस्था में पौधे का प्रभावित हिस्सा मर जाता है और ये धब्बे तने को घेर लेते है।

रोग प्रबधंनः

  • रोग प्रतिरोधक किस्में जैसे कि सी-235, एच सी-3 या हिमाचल चना-1 उगायें।
  • केवल प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें।
  • बीजोपचार के लिए थीरम 2 ग्राम या कार्बेंडाजिम 2 ग्राम या थीरम और कार्बेंडाजिम (1ः1 अनुपात में) 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • कार्बंडाजिम (1 प्रतिशत) या क्लोरोथेलोनिल (0.15 प्रतिशत) का छिड़काव करें। और यदि आवश्यकता हो तो 15 दिन के अंतराल पर पुनः छिड़काव करें।
  • बीजोपचार के लिए बाविस्टिन 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • संक्रमित पौधों व उनके अवशेषों को नष्ट करे दें।
  • 3 से 4 साल का चने की खेती के लिए फसल चक्र अपनायें।

4. कॉलर रॉट / गलन

रोगाणुःस्क्लेरोशियम रॉल्फसाई

नैदानिक लक्षणः

यह रोग फफूंद से होता है और आमतौर पर फसल बोने के 6 सप्ताह के बाद प्रभावित करता है। इस रोग के विशिष्ट लक्षणों में पौधों का पीला पड़ जाना व सूख जाना शामिल है। अंकुरित पौधे बदरंग हो जाते है और तने व जड़ का जोड़ नरम हो जाता है, थोड़ा सिकुड़ता है और सड़ने लग जाता है। जब फसल बड़ी हो जाती है तब संक्रमित भाग भूरे रंग का हो जाता है और स्क्लोरेशिया (सरसों के दाने जैसे) भी देखे जा सकते है।

रोग प्रबधंनः

  • ग्रीष्म ऋतु में खेत की गहरी जुताई करें।
  • अपघटित अवशेषों व जैविक पदार्थों को खेत तैयार करने से पहले ही हटा देना चाहिए।
  • बीजोपचार के लिए कार्बेंडाजिम व थीरम (1ः1 अनुपात में) 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • ट्राइकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम प्रति किलोग्राम या बेसिलस सबटिलिस 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।
  • गर्मियों में मृदा सौरकरण का पालन करें।
  • बुवाई व अंकुरण के समय खेत में अधिक नमी नही होनी चाहिए।

5. सूखा जड़ गलन

रोगाणुः राइजोक्टोनिया बटाटिकोला

नैदानिक लक्षणः

सूखा जड़ गलन बीज व मिट्टी जनित रोग है। यह रोग फसल में फूल खिलने व फली बनने की अवस्था में प्रभावित करता है। संक्रमित पौधों की पत्तियां व तने धूसर रंग की हो जाती हैं और पत्तियां झड़ जाती हैं। जब पौधों को उखाड़ते है तो जड़ें मिट्टी में रह जाती है। रोग को पाश्र्व जड़ों की अनुपस्थिति के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है। गंभीर संक्रमण के कारण छोटे-गहरे रंग के स्क्लेरोशिया बन जाते है जो कि पौधों की जड़ों में देखे जा सकते है।

रोग प्रबधंनः

  • रोग प्रतिरोधक किस्में जैसे कि सी एस जे 515, एच सी 3, एच सी 5, एच के 1 या एच के 2 उगायें।
  • जिस खेत में जड़ गलन की अधिक समस्या हो वहाँ चने की खेती नहीं करनी चाहिएं।
  • फसल के अवशेषों को खेत में गहरा जोत देना चाहिए।
  • बीजोपचार के लिए थीरम या बेनोमिल 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपयोग करें।
  • गेहूँ और जई के साथ फसल चक्र अपनायें।
  • पक्तियों में चने की बुवाई दूरी पर करें।

6. आर्द्र जड़ गलन

रोगाणुः राइजोक्टोनिया सोलानी

नैदानिक लक्षणः

यह रोग फफूंद के कारण होता है जो कि अकुंरण के समय पर पौधों को प्रभावित करती है। पौधे के डंठल लटक जाते है तथा पत्ते पीले पड़ जाते हैं। तने के उपर के हिस्से में धंसा हुआ भूरा धब्बा भी दिखाई देता है। पौधे के तने व जड़ पर गुलाबी रंग की फफूंद भी दिखाई देती है।

रोग प्रबधंनः

  • खेत में अधिक नमी नहीं होनी चाहिए।
  • खेत में जल निकासी की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
  • बीजोपचार के लिए केप्टान या थीरम या बेनोमिल 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।

7. बोट्रायटिस ग्रे मोल्ड

रोगाणुः बोट्रायटिस सिनेरिया

नैदानिक लक्षणः

यह बीज जनित रोग है। यह फूल खिलने की अवस्था में फसल को प्रभावित करता है। फलियां न बनना इस रोग का प्रथम नैदानिक लक्षण है। तने, पत्तों, फूलों व फलियों पर गहरे भूरे व धूसर रंग के फफूंद के धब्बे दिखाई देते है। जहाँ से इस रोग का संक्रमण शुरू होता है वहाँ की शाखाँए टूट जाती है। जलायुक्त और अनियमित भूरे व सफेद धब्बे फलियों व संक्रमित बीजों पर देखे जा सकते है।

रोग प्रबधंनः

  • फसल में पौधों के बीच व्यापक दूरी अपनाएं।
  • अलसी के साथ अंतर फसल लेनी चाहिए।
  • फसल की आत्यधिक वनस्पतिक वृद्धि न होने दें।
  • खेत में अत्याधिक पानी न दें।
  • बीजोपचार के लिए कार्बेंडाजिम व थीरम 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • फसल में कार्बेंडाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें व आवश्यकता हो तो 15 दिन के अंतराल पर फिर से दोहरायें।

8. अल्टरनेरिया ब्लाईट

रोगाणुः अल्टरनेरिया अल्टरनेटा

नैदानिक लक्षणः

यह रोग बीज व मिट्टी जनित है और इसके लक्षण फूल खिलने व फली बनने के समय पर देखे जा सकते है। इस रोग में विरल फली बनना व पत्तियों का झड़ना सामान्य है। शुरू में जलयुक्त बैंगनी रंग के धब्बे जो कि बदरंग व अनिश्चित आकार के होते है। पत्तियों को घेर लेते हंै।  बाद में ये धब्बे गहरे भूरे रंग के हो जाते है और आपस में जुड़ कर पूरे पत्ते पर फैल जाते हैं। फलियों पर गोलाकार, धंसे हुए व अनियमित रूप से बिखरे हुए धब्बे दिखाई देते है।

रोग प्रबधंनः

  • खेत को साफ सुथरा व रोग ग्रस्त पौधों से मुक्त रखें।
  • पौधों के बीच की दूरी को अधिक रखें।
  • फसल की अधिक वानस्पतिक वृद्धि न होने दें।
  • अंतर फसल के लिए अलसी का प्रयोग करें।
  • खेत में अधिक पानी न दें।
  • रोग प्रतिरोधक किस्में उगायें।
  • फसल में मेनकोजेब (3 ग्राम प्रति लीटर) या कार्बेंडाजिम (5 ग्राम प्रति लीटर) का छिड़काव करें व 15 दिन के अंतराल पर फिर से दोहरायें।

9. एन्थ्रेक्नोज

रोगाणुः कोलेटोट्रिकम डीमैटियम

नैदानिक लक्षणः

यह फफूंद से होने वाला बीज व मिट्टी जनित रोग है। यह रोग पौधों को किसी भी अवस्था में प्रभावित कर सकता है। अंकुरित बीज पर दो तरह के लक्षण देखे जा सकते हैं।

  • लम्बे, धंसे हुए, गहरे भूरे रंग के धब्बे तने के नीचे के हिस्से से जड़ की तरफ बढ़ते दिखाई देते है।
  • धब्बे पौधे के सभी भागों पर दिखाई देते है। पत्तों व फलियों पर गोलाकार व लंबे, बीच से धंसे हुए पीले रंग के किनारे वाले धब्बे दिखाई देते है। पौधे सूख जाते हैं और उखेड़ा जैसे लक्षण दिखते हैं। परिपक्व पौधों पर ये धब्बे किसी भी भाग पर देखे जा सकते हंै। रोग के अग्रिम चरणों में संक्रमित पौधे में फफूंद के एसरवुली देखे जा सकते हंै।

रोग प्रबधंनः

  • फसल की देरी से बुवाई करें।
  • उचित फसल चक्र अपनायें।
  • रोग मुक्त बीजों का प्रयोग करें।
  • बीजोपचार के लिए कार्बेंडाजिम का 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपयोग करें।
  • फसल में छिड़काव के लिए क्लोरोथेलोनिल का 2 ग्राम प्रति लीटर की दर से प्रयोग करें और यदि आवश्यकता हो तो 15 दिनों के अंतराल पर पुनः छिड़काव करें।

10. स्टेमफाइलियम लीफ ब्लाईट

रोगाणुः स्टेमफाइलियम बोट्रीयोेसम

नैदानिक लक्षणः

यह रोग आमतौर पर फसल को फूल खिलने के समय या फूल खिलने के बाद प्रभावित करता है। इसके मुख्य लक्षणों में निचली शाखाओं के पत्ते गिरना शामिल है। पत्तों पर शुरू में यह रोग जलयुक्त धब्बों के रूप में प्रकट होता है जो कि बाद में भूरे व काले रंग के हो जाते हैं। इन धब्बों का केन्द्र गहरे भूरे रंग का तथा बाहर धूसर रंग से घिरे होते है। कभी-कभी छोटे, गहरे भूरे व लम्बे धब्बे भी तने पर देखे जा सकते है।

रोग प्रबधंनः

  • प्रमाणित व स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें।
  • उचित फसल चक्र अपनायें।
  • रोग प्रतिरोधक किस्में उगायें।
  • फसल में क्लोरोथेलोनिल का 2 ग्राम प्रति लीटर या मेनकोजेब का 5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें और यदि आवश्यकता हो तो 15 दिन के अंतराल पर पुनः छिड़काव करें।

11. फोमा लीफ ब्लाईट

रोगाणुः फोमा मेडिकागिनिस

नैदानिक लक्षणः

यह फफूंद जनित रोग है और पौधों को प्रजनन के दौरान प्रभावित करता है। खेत में कहीं-कहीं (पैच में) सूखे पौधे दिखाई देना इस रोग का प्रमुख लक्षण है। अनियमित और हल्के भूरे रंग के धब्बे पत्रों व तने पर देखे जा सकते हैं। प्रभावित उत्तक में  गहरे रंग के छोटे पिक्निडिया अनियमित रूप से बिखरे हुए दिखाई देते है। इस रोग से प्रभावित पौधों में बदरंग व सिकुड़े हुए बीज बनते है।

रोग प्रबधंनः

  • प्रमाणित बीज का उपयोग करें।
  • उचित फसल चक्र अपनायें।
  • रोग प्रतिरोधक किस्में उगायें।
  • फसल में क्लोरोथेलोनिल का 5 ग्राम प्रति लीटर पानी या मेनकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें और आवश्यकतानुसार 15 दिनो बाद पुनः छिड़काव करें।

12. चने का स्टंट रोग

रोगाणु: चिकपी क्लोरोटिक ड्वार्फ विषाणु, बीन येलो ड्वार्फ विषाणु, बीन लीफ रोल विषाणु

नैदानिक लक्षणः 

यह रोग या तो एकल विषाणु से या बहुत से विषाणुओं के संयोजन से होता है। प्रारंभिक संक्रमणों में, बौनापन विशिष्ट लक्षण है। प्रभावित पौधा सामान्य पौधों से छोटा रह जाता है। संक्रमित पौधे का तना व पत्ते सख्त व मोटे हो जाते है।

इस रोग के प्रमुख लक्षण बदरंग पत्तों, पीले रंग के पत्तों, पौधे के बौनेपन, पत्तों के मुड़ने व मोटे होने तथा फूल व फल न बनने के रूप में देखे जा सकते है। बाद में संक्रमित पौधे बौनेपन के अलावा बदरंग व उत्तक के भूरे पड़ने जैसे लक्षण प्रदर्शित करते हैं। इस विषाणु को एक पौधे से दूसरे पौधे पर चेपा (एफिड) फैलाता है।

रोग प्रबधंनः

  • रोग प्रतिरोधक किस्में उगायें जैसे कि जी जी 4।
  • फसल के बुवाई के समय में बदलाव करें।
  • नीम के तेल का 3 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करें।
  • बीजोपचार के लिए थियोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू एस का 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • फसल में 250 लीटर पानी मेें 750 मि.ली. आॅक्सीडेमेटोन मिथाइल 23 ई.सी. या 625 मि.ली. डाइमेथेएट 30 ई.सी. का छिड़काव करें।

Authors

प्रोमिल कपूरएवं लोकेश यादव

*सहायक वैज्ञानिक (पादप रोग विभाग),

पादप रोग विभाग,

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार

Corresponding Author – This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.