Major seed borne diseases of cereal crops and their prevention

बीज-जनित रोगजनक खेत में फसल अंकुर स्थापना के लिए एक गंभीर खतरा है।इसलिए फसल की विफलता में संभावित कारक के रूप में योगदान कर सकते हैं।बीज न केवल इन रोगजनकों के दीर्घकालिक अस्तित्व को सुरक्षित बनाते हैं, बल्कि नए क्षेत्रों में उनके आगमन और उनके व्यापक प्रसार के लिए वाहन के रूप में भी कार्य कर सकते हैं।

बीज-जनित, फफूंद, जीवाणु, विषाणु, सूत्रकृमि आदि रोगजनक अनाज वाली फसलों में विनाशकारी नुकसान का कारण बन सकते हैं और इसलिए सीधे खाद्य सुरक्षा को प्रभावितकरते हैं। पौधों के संक्रमित वायवीय भागों के विपरीत, संक्रमित बीज लक्षण-रहित हो सकते हैं, जिससे उनकी पहचान असंभव हो जाती है।

अनाज वाली फसलों के अन्तर्गत गेहूँ, धान, जौं, जई, बाजरा, ज्वार आदि की फसलें आती हैं। इन फसलों मेंअनेक प्रकार के रोगजनक बीज जनित बीमारियां उत्पन्न करते हैं (तालिका 1)। इन बीमारियों में कुछ प्रमुख बीज जनित रोग और उनकी रोकथाम इस प्रकार है-

1. गेहूँ का अनावृत कंड (लूज स्मट) रोग:

रोग लक्षणः

यह रोग अंत: बीज जनित रोग है। इसका रोग कारक अस्टीलैगो सेगेटम प्रजाति ट्रिटीसीकवक है। इस रोग के लक्षण केवल बालियां निकलने पर दृष्टिगत होते हैं। इस रोग में पूरा पुष्पक्रम (रैचिस को छोडकर) स्मट बीजाणुओं के काले चूर्णी समूह में परिवर्तित हो जाता है।

यह चूर्णी समूह प्रारम्भ में पतली कोमल धूसर झिल्ली से ढका होता हैजो शीघ्र ही फट जाती है और बडी संख्या में बीजाणु वातावरण में फैल जाते हैं। यें काले बीजाणु हवा द्वारा दूर स्वस्थ पौंधों तक पहुंच जाते हैं जहाँ ये अपना नया संक्रमण कर सकते हैं।

रोग का विकास एवं फैलाव:

अनावृत कंड के रोगजनक के टीलियो बीजाणुओं को हवा द्वारा खुले पुष्पों पास उडाकर पहुंचाया जाता है और ये अंडाशय को स्टिग्मा या सीधे अंडाशय की दीवार के माध्यम से संक्रमित करते हैं। एक खुले पुष्पक (फ्लोरेट) में पहुंचने के बाद, टीलियो बीजाणु बेसिडियो बीजाणु को जन्म देते हैं। बेसिडियो बीजाणु वही अंकुरण करते हैं। दो संगत बेसिडियो बीजाणु के हाइपे फिर एक द्विकेंद्रकीय चरण को स्थापित करने के लिए संलयन (फ्यूज) करते हैं। अंडाशय के अंदर अंकुरण के बाद, कवक जाल बीज में विकासशील भ्रूण पर आक्रमण करता है।

कवक बीज में अगले बुवाई मौसम तक जीवित रहता है।बुवाई के बाद जैसे-जैसे नया पौधा बढ़ता है, इसके साथ कवक बढ़ता है। एक बार जब फूलों के बनने का समय होता है, तो फूलों के स्थान पर टीलियो बीजाणु उत्पन्न होते हैं और विकसित होते हैं जहाँ कि बीज अथवा दानों को बनना था।

रोगी पौधे गेहूँ के स्वस्थ पौधों की तुलना में लंबे होते हैं और उनमें पहले बालियां निकल आती हैं। इससे संक्रमित पौधों को यह फायदा होता है कि असंक्रमित पौधों के फूल संक्रमण के लिए शारीरिक और रूपात्मक रूप से अति संवेदनशील होते हैं। हवा और मध्यम बारिश, साथ ही साथ ठंडे तापमान (16–22 डिग्री सेल्सियस) बीजाणुओं के फैलाव के लिए आदर्श होते हैं। रोगी बालियों से टीलियो बीजाणु स्वस्थ पौधों के खुले पुष्पों पर पहुंचता है और इस प्रकार रोग विकास चलता रहता है।

रोग की रोकथाम:

  • स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज ही बोने चाहिए।
  • बुवाई पूर्व बीज को0-2.5 ग्राम की दरसे कार्बोक्सीन (75%) या कार्बोक्सीन (37.5%) + थीरम (37.5%) या कार्बेन्डाजिम50% घुलनशील पॉवडर से उपचारित कर ले।
  • मई-जून माह में बीज को पानी में 4 घंटे भिगोने के बाद कड़ी धूपमें अच्छी तरह सुखाकर सुरक्षित भंडार किया जा सकता है। पानी मेंभिगोने से बीज मेंपड़ा रोगजनकसक्रिय हो जाताहै, जो कड़ी धूप में सुखाने पर मर जाता है। ऐसेबीज को अगले मौसम में बोने से रोग नहींपनपता है।
  • यदि फसल बीज हेतूबोई गई है, तो बालीनिकलते समय उसका निरीक्षण करते रहनाचाहिए। यदि कंडुआ ग्रस्त बालियां दिखाईदें, तो उन्हें किसी कागज की थैली से ढक कर पौधेको उखाड़ कर जला दें या मिट्टी में दबादें।

2. गेहूँ का करनाल बंट (अधूरा बंट):

यह रोग अपेक्षाकृत उपज में कम हानि करता है परन्तु अनेक देशों की संगरोध सूची में शामिल होने के कारण यह अति महत्वपूर्ण है। 

रोग लक्षणः

करनाल बन्ट प्रायः कुछ दानें प्रति बाली तक ही संक्रमण करता है। इसलिये इस रोग की फसल की कटाई से पहले पहचान करना आसान नही है। फसल की कटाई के पश्चात रोग को आसानी से दृष्टि परीक्षण द्वारा पहचाना जा सकता है। काले रंग के टीलियोबीजाणु बीज के कुछ भाग का स्थान ले लेते है। इसमें बाहरी परत फट जाती है अथवा यह जुड़ी हुई भी रह सकती है। रोगी दानों को कुचलने पर येसड़ी हुई मछली की दुर्गन्ध देते हैं।

रोग का विकास एवं फैलाव:

यह रोग मुख्य रूप से दूषित बीज या खेत उपकरण के माध्यम से फैलता है, हालांकि इसे हवा द्वारा कम दूरी पर भी ले जाया जा सकता है। कवक बीजाणु कई वर्षों तक जीवित रह सकते हैं।अनुकूल मौसम में इनका अंकुरण होता है। एक बार बीजाणु अंकुरित होने के बाद, वे गेहूं के फूलों को संक्रमित करते हैं और कर्नल के भ्रूण के छोर पर बीजाणुओं के बड़े समूह को विकसित करते हैं (संपूर्ण कर्नेल कभी-कभी ही प्रभावित होता है)।

आपेक्षिक आर्द्रता 70% से अधिक होना टीलियोबीजाणुओं के विकास के अनुकूल है। इसके अलावा, दिन का तापमान 18–24 डिग्री सेल्सियस और मिट्टी के तापमान का 17–21 डिग्री सेल्सियस की सीमा में होना करनाल बंट की गंभीरता बढाता है।

रोग की रोकथाम:

  • स्वस्थ एवं रोगमुक्त बीजकी बुवाई करनी चाहिए ।
  • फसल चक्र को अपनाएं ।
  • खेत के आस-पास खरपतवारों एवं कोलेट्रल पोषक पौधों को नही उगने देना चाहिए ।
  • क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोगप्रतिरोधीकिस्मोंकीबुवाईकरें ।
  • पुष्पनकेसमय 01% प्रोपिकॉनाजोल 25% ई. सी.काछिड़कावकरें।

3. गेहूँ का ध्वज कंड (फ्लैग स्मट) रोग:

रोग लक्षणः

यह रोग यूरोसिसटिस एग्रोपाइरी नामक कवक से होता है।इस रोग में पत्तियों पर चादीं के रंग के धब्बें बीजाणुधानी पुंजों के रूप में दिखाई पडते हैं, जो कवक के गहरे भूरे रंग के बीजाणुधानियों से भरे होते हैं। पत्तियों पर लम्बी काली धारियां शिराओं के समानान्तर बनती हैं। पत्तियां ऐंठ जाती हैं और ध्वज कंड ग्रसित पत्ती काली होकर सूख जाती हैं। प्रायः रोगग्रस्त पौधों की बालियों में दानें विकसित नही होते और वें समय से पहले ही मर जाते हैं।

रोग का विकास एवं फैलाव:

रोगजनकटीलियोबीजाणु उत्पन्न करता है, जो हवा, कृषि यंत्रों या पशुओं के द्वारा मिट्टी से वितरित किया जा सकता है। मृदा मेंएक द्विकेंद्रकीय टीलियोबीजाणुचार बेसिडियोबीजाणुओं को उत्पन्न करता है।बेसिडियोबीजाणुनये पौधोंके ऊपर पर अंकुरण करता हैऔर प्रत्येक कवकतंतु एक संगत कवकतंतु के साथ कोशिकाद्रव्य लयन (प्लास्मोगैमी) करके कवक के द्विकेंद्रकीय (डाइकैरियोटिक) स्थिति को फिर से स्थापित करता है।

कवक तंतु एप्रेसोरिया बनाता है जो एपिडर्मल ऊतक के माध्यम से उगते हुए बीज के अंकुर के कोइलोप्टाइल में प्रवेश करता है, फिर पत्तियों के संवहनी बंडलों के बीच कवक तंतु बढ़ता है। कुछ कवक तंतु कोशिकाएँ कंड सोरई को जन्म देती हैं, जिसमें टीलियोस्पोर्स होते हैं, जो हवा द्वारा पत्ती ऊतक से बाहर निकलते हैं। टीलियोस्पोर मिट्टी में विश्राम करने के लिए आते हैं, और जब स्थिति सही होती है, तो वे अधिक बेसिडियोस्पोर को जन्म देते हैं, जिससे संक्रमण फैलता है।

वैकल्पिक रूप से, टेलियोबीजाणु बीज में तब बन सकते हैं जब माइसेलिया पूरे पौधे में उगता है, उस स्थिति में वे बीज के भीतर अंकुरित होकर फिर से बेसिडियोस्पोर उत्पन्न करके नए संक्रमण को जन्म देते हैं।टेलियोस्पोर्स मिट्टी में,मृत पौधे के ऊतकों और बीज में उत्तरजीवी होते हैं। ये बीजाणु 3-7 वर्षों तक अंकुरण जीवटता बनाए रखते हैं।

रोग की रोकथाम:

  • देरी से बिजाई न करें।गैर-पोषक फसलों के साथ फसल चक्र अपनाएं।
  • बीज कोकार्बोक्सीन (75% डब्ल्यू.पी.) या कार्बोक्सीन (5%) + थीरम (37.5%) या थीरम75% घुलनशील पॉवडरसे2.0-2.5ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करें।
  • रोगग्रस्त पौधों को खेत से सावधानीपूर्वक उखाड कर नष्ट कर दें।
  • क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोगरोधी किस्मों की बुवाई करें।

4. गेहूँ का फ्यूजेरियम हेड स्कैब रोग:

रोग लक्षण: 

प्रारंभिक लक्षणों में छोटे, जलासिक्त धब्बे बालियों के आधार पर या स्पाईकस के बीच में या फ्लोरट पर बनते हैं और धीरे-धीरे पूरी बाली पर फैल जाते हैं, जिसे समय से पहले बालियों को ‘सफेद’ या ‘विरंजन’ के रूप में देखा जा सकता है।

गर्म और नम हालत में रोगज़नकों के गुलाबी स्पोर्स को स्पाईक्स के बीच में या आधार पर देखा जा सकता है। बीमारी की प्रगति पर, दाने सूखे, सिकुड़े हुए, खुरदरी सतह के, फीके सफेद से हल्के-भूरे रंग के बनते हैं। ऐसे हल्के वजन के संक्रमित कर्नेल को आमतौर पर ‘टॉम्बस्टोन’ कहा जाता है।

रोग विकास एवं फैलाव:

गर्म और नम जलवायु बीमारी के अनुकूल है, यद्यपि वर्तमान में यह रोग भारत में मामूली महत्व का है और पंजाब और हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में पाया जाता है।

रोग की रोकथाम:

  • खेत स्वच्छता के सिद्धांत का पालन करें।पूर्व की फसल के अवशेषों को खेत से निकाल कर नष्ट कर दें।
  • फसल बुवाई के लिए प्रमाणित और बीमारी मुक्त बीज का प्रयोग करें।
  • क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत की गई रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।
  • बीजों को कार्बोक्सीन या कार्बेन्डाजिम के साथ 2.5 ग्राम/किग्रा. या टेबूकोनाजोल 1.25 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।

5. धान का बकानी रोग/ पद गलन रोगः

रोगलक्षणः

यह बासमती धान में लगने वाला प्रमुख रोग है जो फ्यूजेरियम फ्यूजीकुरई (पर्याय-फ्यूजेरियम मोनीलिफॉर्मी ) कवक से होता है। संक्रमित पौधें पतले, असामान्य रूप से लम्बें (सामान्य पौधों से कई इन्च लम्बे) एवं पीले-हरे होते हैं। इस रोग में गांठों का लम्बापन एवं भूमि के ऊपर की गांठ में अपस्थानिक जड़ों का बनना भी देखा गया है।

देर से संक्रमण होने पर पौधों में कल्ले कम फूटते है और पत्तियां सूख जाती है। जीवित संक्रमित पौधों में आंशिक रूप से भरे हुये दाने बनते है। बंध्य अथवा खाली दानें भी परिपक्व होने के समय बन सकते है। रोग से संक्रमित पौधों में जड़े काली पड़ जाती है एवं उन पर विक्षत बनते है जो बाद में भूरे रंग के हो जाते है। गंभीर रोगी पौधें नर्सरी में अथवा रोपाई के बाद मर जाते हैं।

रोग विकास एवं फैलावः

यह रोगबीज एवं मृदा जनित है एवं पुष्पन की अवस्था में संक्रमण होता है। रोग कारक गैर-मौसम में मृदा, भूसे अथवा पुआल के ठूंठ पर उत्तरजीवी रह सकता है। उच्च तापमान पर रोग सबसे अधिक गंभीर होता है एवं अधिकतम रोग घटना 35 सेल्सियस पर होती है। मृदा नमी रोगकारक के उत्तरजीवन एवं फैलाव को प्रभावित करती है।

रोग की रोकथाम:

  • रोग रहित बीज का बुवाई के लिये प्रयोग करना चाहिये।
  • नमक का घोल बनाकर हल्के एवं संक्रमित दानों को स्वस्थ बीजों से अलग करना चाहिये। इस घोल से बीज को निकालकर 2-3 बार साफ पानी से धोना चाहिये।
  • नत्रजन उर्वरकों के अधिक प्रयोग से बचना चाहिये क्योंकि यह रोग के विकास के लिये अनुकूल होता है।
  • बीज को थीरम 75% या कार्बेन्डाजिम 50% घुलनशील चूर्ण 20 ग्राम से 8-10 किग्रा बीज का 10 लीटर पानी में 10-15 घण्टे तक भिगोकर उपचार करना चाहिये।
  • पौध को खडे पानी में सावधानी पूर्वक उखाड़ना चाहिये जिससे जड़ो पर घाव न हो सके।
  • कार्बेन्डाजिम 50% घुलनशील चूर्ण कवकनाशी से 5 ग्राम/ लीटर जल का पर्णीय छिड़काव भी रोग की रोकथाम में सहायता करता है।
  • स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंसनामक जैव नियंत्रक को 1.0 किलोग्रामप्रति एकड की दर से रोपाई के 8-10 दिन बाद प्रयोग करने से रोपाई के बाद होने वाले रोग संक्रमण को रोकने मे सहायता करता है।

6. धान का भूरा पत्ती धब्बा (ब्राउन स्पॉट) रोग:

रोग लक्षणः

यह रोग हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराइजीनामक कवक द्वारा होता है।इसरोगमेंसंक्रमित पौधों के प्रांकुर-चोल (कॉलियोप्टाइल्स), पत्ती का फलक (लीफ ब्लेड) पत्ती आवरण (लीफ शीथ) व तुष (ग्लूम्स) पर महीन छोटे, गोल या अण्डाकार, भूरे विक्षत या धब्बें बनते है परन्तु सबसे अधिक धब्बें लीफ ब्लेड और ग्लूम्स पर बनते है।

इन धब्बों के केन्द्र हल्के भूरे रंग से धूसर रंग के वकिनारे लाल भूरे होते है। गंभीर रोग संक्रमणमें यें विक्षत मिलकर प्रभावित पत्तियों के बडे भाग को मार देते हैं। संक्रमित पौधें बौने रह जाते है और मर जाते है। रोगग्रस्त नर्सरी प्रायः दूर से ही भूरे जले हुए आभास के साथ पहचानी जा सकती है। पुरानी पत्तियों पर असंख्य, छोटे-गोल, गहरे भूरे अथवा बैंगनी भूरेयानीललोहित भूरे रंग के नये अथवा कम विकसित धब्बें दिखाई देते है। संक्रमित दानों में भूरा या काला विवर्णन दिखाई देता है।

रोग विकास एवं फैलावः

इस रोग का रोग कारक बीज में 4 वर्ष से भी अधिक समय तक उत्तरजीवी रह सकता है। संक्रमित बीज, धान के स्वयंसेवी पौधें, संक्रमित धान के अवशेष एवं अनेक खरपतवार खेत मे निवेश द्रव्य के प्रमुख स्रोत हैं। कवक पौधें से पौधें एवं एक खेत से दूसरे खेत वायु जनित बीजाणु (कोनिडिया) द्वारा फैल सकता है।

पोषक तत्वों की कमी वाली मृदा एवं उचित प्रकार से सिंचित न होने वाली मृदा में यह रोग सामान्यतः होता है। उच्च आपेक्षिक आर्द्रता (86-100%) एवं 16 - 36 सेल्सियस तापमान रोग लिए अनुकूलतम होता है।

रोग की रोकथाम:

  • गर्म पानी में 53-54 सेल्सियस तापमान पर 10-12 मिनट तक बीज का उपचार प्रभावशाली रहता है। बीज उपचार करने से पहले बीज को 8 घण्टे तक ठण्डे पानी में डुबोने से इस उपचार का प्रभाव बढ़ जाता है।
  • थीरम अथवा कार्बेन्डाजिम से 5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीज का उपचार करने पर पौधों के संक्रमण में काफी कमी पायी गयी है।
  • नत्रजन उर्वरको का तीन भागों में प्रयोग एवं भूमि की पोटाश, मैंगनीज और जिंक की कमी को दूर करने से रोग का प्रसार कम होता है।
  • पोषक खरपतवारों एवं संक्रमित पौधों के अवशेषों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिये।
  • रोग के लक्षण दिखाई देने पर इडिफेन्फॉस 50% ई.सी. या मैंकोजेब 75% घुलनशील चूर्णयाजिनेब 75% घुलनशील चूर्ण अथवा कार्बेन्डाजिम का 5 ग्राम प्रति लीटर की दर से 10-12 दिन के अन्तराल पर तुरन्त छिड़काव करना चाहिये।

7. धान का झौंका या बदरा (राइस ब्लास्ट) रोग:

रोग लक्षणः

यह रोग पाइरिकुलेरिया ओराइजी  ( पूर्णावस्था - मैग्नाफोर्थे ओरायज़े ) कवक के द्वारा होता है। यह धान का एक प्रमुख रोग है जो नये अंकुर, पत्तियों, पुष्पगुच्छों (पेनिकल्स), पोरियों, पोरियों की गांठ (कल्म नॉड्स) और पुष्पगुच्छों की गर्दन (पेनिकलनैक नॉड) को ग्रसित करता है। यह रोग गर्दन तोड़ या गर्दन सड़न के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग के लक्षणों में पत्तियों पर पिन के सिर के आकार के भूरे विक्षत बनते है जो भूरे पत्ती धब्बा रोग के लक्षण सेभ्रमित हो सकते है।

इन विक्षतों के किनारें भूरे होते है तथा केन्द्र राख जैसे रंग के होते है। ये नुकीले सिरे वाले होते है। पुराने विक्षत अथवा धब्बें दीर्घवृत्तक (इलीप्टिकल) अर्थात मध्य में चौड़े और दोनों सिरों की ओर नुकीले होते है यें आंख जैसी आकृति  वाले प्रतीत होते है। गंभीर संक्रमण में यें धब्बें बढ़कर मिल जाते हैं और सम्पूर्ण पत्तियों को मार देते है।

इस रोग में कल्म के इन्टर नॉडल संक्रमण एक के बाद एक 3 सेमी काले उत्तकक्षयी कल्म एवं 3 सेमी स्वस्थ उत्तक के साथ पट्टे के शैली में आता है। नॉडल संक्रमण में नॉड्स काली हो जाती है और कल्म संक्रमित नॉड पर टूट जाती है। जब गर्दन संक्रमित हो जाती अथवा गल जाती है तब कुछ दानें बनते है या पेनिकल्स खाली रह जाते है। पुष्पगुच्छ (पेनिकल्स) भी कमजोर स्थान से टूट जाते है और इस प्रकार भारी क्षति होती है।

रोग विकास एवं फैलावः

ब्लास्ट रोग का रोग कारक गैर-मौसम में बीज अथवा ठूंठ (पुआल / भूसे) पर उत्तरजीवी रह सकता है। वायुजनित बीजाणु (कोनिडिया) कवक के संचरण का सबसे महत्वपूर्ण साधन है। फसल की संवेदनशील अवस्था पर निम्नतम तापमान 22-26 सेल्सियस एवं 90 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता का सुबह के समय 2-4 दिन या अधिक समय तक साथ-साथ होने पर ब्लास्ट रोग के विकास एवं फैलाव को बढाता है। बूंदा-बांदी वाली वर्षा का अधिक समय, वर्षा के अधिक दिन, ओस जमाव की लम्बी अवधि और उच्च उर्वरता दशाएं गंभीर ब्लास्ट प्रकोप में सहायता करते हैं।

रोग की रोकथाम:

  • रोपाई व बुवाई के समय में बदलाव, रोग के विस्तार को कम करने के लिये पछेती फसल की तुलना में वर्षा ऋतु के आगमन पर बीज की अगेती बुवाई अधिक सुझायी जाती है।
  • उर्वरकों का अत्याधिक प्रयोग न करें क्योंकि इससे धान के झौंका रोग की घटना बढती है। नत्रजन को थोडी थोडी किस्तों में देना चाहिये।
  • वर्षा आधारित क्षेत्रों में जल प्रबन्धन क्रियायें जल की कमी में तनाव के आने की संभावना को कम करती है जो कि झौंका के रोग प्रबन्धन में सहायक है।
  • बीज को थीरम 75% घुलनशील चूर्ण 5 ग्राम प्रति किग्रा बीज अथवा ट्राईसाइक्लाजॉल 75% घुलनशील चूर्ण का 1.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचार करना चाहिये।
  • रोग दिखाई देने पर फसल पर 2 प्रतिशतइडिफेन्फॉस याहेक्साकोनाजॉल याकार्बेन्डाजिम 50% डब्ल्यू. पी., याकैसुगामाइसिन 3% एस.एल.यामैंकोजेब 75% डब्ल्यू. पी. का छिडकाव करें।रोग की रोकथाम में 0.1% पिकोक्सीस्ट्राबिन22.52% एस.सी, याटेबूकोनाजॉल 25% डब्ल्यू. जी.अथवा पिकोक्सीस्ट्राबिन6.78% + ट्राईसाइक्लाजॉल 20.33% का छिड़काव भी उपयोगी हैं। रोग के सम्पूर्ण नियन्त्रण के लिये 10-15 दिनों के अन्तराल पर 3-4 छिड़काव आवश्यक हो सकते है।

8. धान का आभासी कण्डवा (फाल्स स्मट) रोग:

रोग लक्षणः

यह रोग अस्टिलैजिनॉइडिया वाइरेन्स  कवक से होता है। इसरोग के लक्षण पुष्पन के पश्चात ही स्पष्ट दिखाई देते है। इसमें कवक धान के रोगी दानें को पीले-हरे मखमली बीजाणु के झुण्ड या गेंद (स्मट बॉल्स) में परिवर्तित कर देता है। प्रारम्भ में ये स्मट बॉल्स छोटी होती है और तुष (ग्लूम्स) के बीच में ही सीमित रहती है।

यें धीरे-धीरे बढती जाती है और पुष्प भाग को घेर लेती है। परिपक्व बीजाणु नारंगी रंग के होते है जो बाद की अवस्था में पीले हरे अथवा काले हरे रंग में बदल जाते है। स्मट बॉल्स एक झिल्ली से ढके होते है जो बाद में कवक वृद्धि के परिणामस्वरूप फट जाती है और बीजाणु हवा में तैर जाते है। प्रायः एक पुष्पगुच्छ (पेनिकल) में कुछ दानें ही सामान्यतः संक्रमित होते है और बाकी दानें स्वस्थ रहते है। 

रोग विकास एवं फैलावः

आभासी रोग का संक्रमण पुष्पन की अवस्था में होता है और बाद में स्कलेरोशिया बनती है जो या तो फसल कटाई के समय दानों मे मिल जाती है या भूमि पर गिर जाती है। भूमि पर गिरे हुए स्कलेरोशिया अगले फसल मौसम में निवेश द्रव्य का कार्य करती हैं। उच्च आपेक्षिक आर्द्रता (90% या अधिक) कम निम्नतम और अधिकतम तापमान और पुष्पन की अवस्था में बूंदा-बांदी के साथ बादल वाले अधिक दिन रोग के विकास के लिए अनुकूल दशाएं हैं।

रोग की रोकथाम:

  • रोग रहित क्षेत्र से रोग मुक्त चयनित पौधों से बीज लेकर प्रयोग करना चाहिये।
  • अगेती बुवाई/रोपाई रोग के भारी संक्रमण से बचाव करने में सहायक होती है।
  • रोगी दानों एवं संक्रमित फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिये। इससे रोग का विस्तार कम होता है।
  • कल्ले फूटने/दौजी निकलने की अवस्था (टिलरिंग) पुष्पन पूर्व अवस्था पर कार्बेन्डाजिम 50% घुलनशील पाउडर अथवा ताम्रयुक्त कवकनाशी जैसे कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50%घुलनशील पाउडर का 0-3.0 ग्राम प्रति लीटर पानी व ट्राइफ्लोक्सीस्ट्रोबीन 50% +टेबूकोनाजोल 25% डब्ल्यू.जी. का 1.0-1.25 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव रोग के प्रसार को कम करता है।
  • बीज बनने से पूर्व प्रोपिकोनाजॉल25% ई.सी. का 200 मिलीलीटर या हेक्साकोनाजोल 5% एस. सी. का 500 मिलीलीटर प्रति एकड दर से छिडकाव भी रोग प्रसार को कम करता है।

9. धान का जीवाणुज पत्ती झुलसा (बैक्टेरियल लीफ ब्लाइट) रोग:

रोग लक्षणः

यह जैन्थोमोनास ओरायजी  पैथोवार ओरायजी नामक जीवाणु से होने वाला एक महत्वपूर्ण रोग है। इस रोग के लक्षण दो अवस्थाओं में आते है जैसे अंकुर झुलसा अथवा क्रेसेक फेज एवं पत्ती झुलसा अवस्था।

पौध म्लानि अथवा क्रेसैक फेजः

यह अवस्था प्रायः कम आती है परन्तु अधिक नुकसान करने वाली है। क्रेसैक फेजरोपाई के 1-3 सप्ताह बाद देखी जाती है। इस अवस्था में पत्तियों में म्लानि आ जाती है और वे ऊपर की ओर ऐंठ जाती है। ऐसी पत्तियां धूसर हरी से पीली हो जाती है। बाद में पूरा पौधा पूरी तरह सूख जाता है।क्रेसैक संक्रमित कल्लें तना छेदक की हानि से भ्रमित कर सकता है परन्तु तना छेदक की वजहसेकल्ले आसानी से बाहर खींचे जा सकते है जबकि क्रेसैक संक्रमित कल्लें मेंऐसा नही होता है।

पत्ती झुलसा अवस्थाः

रोग के लक्षण पत्ती के फलक (लीफ ब्लेड) परअथवा पत्ती के चोटी पर जलासिक्त विक्षत से पीली धारियों के बनने से शुरू होते है। बाद में यें विक्षत बढ़कर पीले से तिनके जैसे भूरे रंग कीधारियों व लहरदार किनारों के साथ बड़ा आकार बना लेते है।ये विक्षत या धारियां पत्तियों के एक अथवा दोनों किनारों पर मध्य शिरा के साथ-साथ बनती है।

सुबह के समय नये विक्षतों पर जीवाणुज निपंक (बैक्टीरियल ऊज) की दूध जैसी अथवा धूंधली बूंद दिखाई देती है। रोग के बढ़ने पर ये विक्षत पीले से सफेद रंग में बदल जाते है। गंभीर रूप से ग्रसित पौधों की पत्तियां जल्दी सूखने लगती है। विक्षत बाद में अनेक वैकल्पिक मृतोपजीवी कवकों की वृद्धि के कारण धूसर हो जाते है।

रोग विकास एवं फैलावः

जीवाणुजपत्तीझुलसारोगकारोगकारकगैर-मौसममेंधानकेपौधअवशेषों, मृदाएवंखरपतवारपोषकपौधोंपरउत्तरजीवीरहताहै। यह रोगबीज जनित है। उर्वरकों का अंधाधूंध प्रयोग रोग के विकास के लिए उपयुक्त कारक हैं।वर्षा की छींटों,वर्षा युक्त आंधी, तेज हवाओं एवं कृषि क्रियाओं द्वारा धान की पत्तियों में किये गये घाव रोग के विकास एवं प्रसार में सहायक होते हैं। जीवाणुजझुलसाकेलिएगर्ममौसम (28-35 सेल्सियस) एवं उच्च आपेक्षिक आर्द्रता (90% से अधिक) अनुकूलहोताहै।

रोग की रोकथाम:

  • बीज को कार्बेन्डाजिम 50% घुलनशील चूर्ण (20 ग्राम) + स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (1 ग्राम) से 8-10 किग्रा बीज का 10 लीटर पानी में 10-15 घण्टे तक भिगोकर उपचार करना चाहिये।
  • खेत की स्वच्छता अपनाना जैसे खरपतवार पोषक पौंधों, धान के भूसे, पूर्व की फसल पौंधे, और स्वयं उगे अंकुर को नष्ट करना इस बीमारी से होने वाले संक्रमण से बचने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • धान की नर्सरी में उथले पानी को बनाए रखनाव समुचित जल निकासीअच्छी नर्सरी प्रबंधन की क्रियायें हैं।
  • बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट के प्रबंधन के लिए उर्वरक, विशेष रूप से नाइट्रोजन उर्वरकों का संतुलित प्रयोग पौधे से पौधे की उचित दूरी अनुप्रयोग की सिफारिश की जाती है।
  • क्षेत्र विशेष हेतूसंस्तुत प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग सबसे प्रभावी और सबसे आम रोग प्रबंधन पद्धति है।
  • फसल पर कॉपरआक्सीक्लोराइड (500 ग्राम)+स्ट्रेप्टोमाइसिन अथवा एग्रीमाइसिन (10-12 ग्राम) के मिश्रण 200 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिये। रोग दबाव यदि ज्यादा संभावित हो तो इस छिड़काव को 2-3 बार 15 दिनों के अन्तराल पर दोहराना चाहिये।

10. धान का शीथ गलन (शीथ रोट) रोग:

रोग लक्षणः

यह एक कवक जनित रोग है जो सैरोक्लैडियम ओराइजी द्वारा होता है। इस रोग में संक्रमण सबसे ऊपरी लीफ शीथ पर होता है। यह लीफ शीथ देर से बूटिंग पर नये पुष्पगुच्छ (पेनिकल) को घेरे रहता है। इस रोग की शुरुआतमें लम्बें गोल कुछ अनियमित से धब्बें अथवा विक्षत बनते हैं। यें धब्बें 0.5-1.5 सेमी लम्बें, गहरे लाल भूरे किनारों वाले एवं धूसर केन्द्र के होते है। शीथ पर विक्षत के द्वारा हल्का लाल भूरा विवर्णन भी बन सकता है। यें विक्षत बढकर प्रायः मिल जाते है और पूरी पत्ती-आवरण (लीफ शीथ) को ढ़क लेते है।

गंभीर संक्रमण में पूरा पुष्पगुच्छ (पेनिकल) अथवा उसका कुछ भाग शीथ में ही रह जाता है। बाहर न निकले हुये पेनिकल्स गलने लगते है और पुष्पक (फ्लोरेट्स) लाल भूरे से गहरे भूरे रंग में बदल जाते है। संक्रमित शीथ और नये पेनिकल्स में स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाले सफेद चूर्णी वृद्धि दिखाई देती है।

यदि रोगजनक पुष्पगुच्छ (पेनिकल) निकलने के बाद आक्रमण करता है तो संक्रमित पेनिकल रंगहीन, नपुंसक (बंध्य), झुर्री पडे हुये अथवा आंशिक रूप से भरे हुये दानों के साथ होते है।

रोग विकास एवं फैलावः

इस रोग का रोग कारक धान के अवशेषों पर उत्तरजीवी रह सकता है। यह रोग उच्च नत्रजन के प्रयोगसे तीव्रता से फैलता है। धान की फसल में कीट द्वारा पहुंचायी गयी क्षति रोग बढाने में सहायक होती है।उच्च आपेक्षिक आर्द्रता एवं उच्च फसल घनत्व इस रोग केअनुकूल होते हैं। धान में बालियां निकलने से फसल परिपक्वता की अवस्थापर 20 से 28 डिग्री सेल्सियस तक तापमान कवक सबसे अधिक वृद्धि करता है।

रोग की रोकथाम:

  • पौधे से पौधे की इष्टतम दूरी रखना व कटाई के बाद रोगी फसल अवशेषों को हटाना रोग को कम करते हैं।
  • टिलरिंग स्टेज पर पोटाश उर्वरक के अनुप्रयोग की भी सिफारिश की जाती है। शीथ रोट को नियंत्रित करने के लिए कैल्शियम सल्फेट और जिंक सल्फेट का पर्णीय छिडकाव उपयोगी पाया गया।
  • कार्बेन्डाजिम 50%घुलनशीलचूर्ण, एडिफेन्फॉस या मैन्कोज़ेब 75%घुलनशील चूर्ण का 5ग्रामप्रति किग्रा की दर से बीज उपचार शीथ की सड़न को कम करने के लिए प्रभावी पाया गया।
  • बूटिंग अवस्था पर कार्बेन्डाजिम, कॉपर ऑक्सीक्लोराइडअथवा मैन्कोजेब का पर्णीय छिडकाव शीथ रोट को कम करता है।
  • प्रोपिकोनाजॉल 25%ई सी1 प्रतिशतऔर हेक्जाकोनाजोल 75% डब्ल्यू. जी. 0.2 प्रतिशतका छिडकाव शीथ रोट के विरूद्ध अच्छे परिणाम देता है।

11. धान का बंट रोग या कर्नल स्मट रोग:

रोग लक्षणः

यह एक कवक जनित रोग है जो टिलेशिया बार्केलियाना (पर्याय निवोसिया बार्केलियाना) नामक कवक से होता है।आमतौर पर पेनिकल्स में केवल कुछ दानें आंशिक या पूर्ण रूप से संक्रमित होते हैं। लक्षण प्रारम्भ में फसल परिपक्वन के समय ग्लूम्स के माध्यम से फटने वाली छोटी काली धारियों के रूप में दिखाई देते हैं।

संक्रमित दाने को उंगलियों के बीच कुचलनेपर बीजाणुओं का काला पाउडर जैसा समूह निकलता है।बीजाणु संक्रमित दाने से झडकर खेत में और पत्तियों पर गिरकर एक विशेष काला आवरण बना लेता है।कभी-कभार आंशिक रूप से स्मट होने के कारण अप्रभावित कर्नेल का एक हिस्सा मुड जाता है। यदि बीज बहुत अधिक क्षतिग्रस्त नहीं होते हैं, तोवे अंकुरित हो सकते हैं, लेकिन उनसे उत्पन्न अंकुर कमजोर और बौने होते हैं। 

रोग का विकास एवं फैलाव:

रोग मृदा जनित और बाह्य रूप से बीज जनित है। फफूंद के टीलियोबीजाणु (टेलूटोस्पोर्स) मिट्टी पर गिर जाते हैं और उसमें उत्तरजीवी रहते हैं, या वे बीजों के तुष अथवा और आंशिक रूप से संक्रमित अनाज पर मिल सकते हैं। टीलियोबीजाणु दो या अधिक वर्षों के लिए जीवित रह सकतेहैं।बाली निकलने के समय 25-30 डिग्री सेल्सियस की एक तापमान सीमा और उच्च आपेक्षिक आर्द्रता 85% या रुक-रुक कर हल्की वर्षा संक्रमण के लिए अनुकूल होती है।

मिट्टी में टीलियो बीजाणु पर बने स्पोरिडिया बाली में पुष्पन (एंथेसिस) के समय फूलों के खुलने पर हवा से उडाकर पहुंचाया जाता है। इस प्रकार रोग का प्राथमिक संक्रमण होता है।नाइट्रोजन उर्वरकों की उच्च खुराक, विशेष रूप से विकास के देर के चरण में, पौधे को रोग के आक्रमण के लिए अतिसंवेदनशील बनाती है। धान की जल्दी पकने वाली किस्मेंइस रोग के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं।

रोग की रोकथाम:

  • इस बीमारी की रोकथाम के लिए के लिए उपाय खेत स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए।
  • रोगजनक के निवेशद्रव्य को नष्ट करने में फसल चक्र सहायक होता है।
  • बुवाई हेतू संस्तुत रोग प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग किया जाना चाहिए।
  • फसल पर 0.1 % प्रोपिकोनाजॉल 25% ई.सी. या 0.3% कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 50% डब्ल्यू. पी. का पर्णीय छिडकाव रोग को आगे फैलने से रोकने में सहायक होता है।

12. बाजरे का अर्गट रोग:

यह रोग क्लेवीसेप्सपर प्यूरिया नामक कवकसेहोताहै।

रोग लक्षणः

यह रोग बालियों के केवल कुछ ही दानों पर दिखाई देता है। सबसे पहले अर्गट का रोग जनक कवक पुष्पक (फ्लोरेट्स) को संक्रमित करता है और अंडाशय में विकसित हो जाता है। यह रोग जनक शुरू में प्रचुर क्रीमी,  गुलाबी या लाल रंग का मीठा चिपचिपा शहद - जैसे तरल पदार्थ (हनीड्यू) का उत्पादन करता है। इसके बाद काले रंग की कठोर संरचनाएं, स्केलेरोशिया संक्रमित पुष्पक से विकसित होते हैं,  पहले यें गहरे रंग की होती है और बाद में पूरी तरह से काली हो जाती है।   

              

रोग का विकास एवं फैलाव:

पुष्पन के समय यह रोगजनक ठण्डे एवं नम वातावरण की उपस्थित में पर्याप्त बढवार करता है जिससे रोग अधिक व्यापक रुप धारण कर लेता है। बीज में अर्गट स्कलेरोशिया का मिश्रण रोग को बढावा देता है।

रोग की रोकथाम:

  • उपलब्ध प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।
  • संक्रमित पुष्प गुच्छों से बीज ना ले। 20 प्रतिशत नमक के घोल (ब्राइन सॉलूशन) में बीज में से स्केलेरोशिया अलग कर देना चाहिये। इसके बाद बीज को 4-5 बार साफ पानी से धोकर सुखाने के बाद ही बीज की बुवाई करनी चाहिए।
  • रोगी पुष्प गुच्छों को निकालकर नष्ट कर देना चाहियें। गहरी जुताई करनी चाहिये।
  • कम से कम तीन-वर्षीय फसल चक्र अपनाए। गैर-अनाज के साथ प्रमुखतः दालों के साथ फसल चक्र अपनाएं।
  • पुष्पन से पूर्व 1 प्रतिशत प्रोपिकॉनाजोल या टेबूकॉनाजोल का छिड़काव करने से रोग प्रसार में कमी आती है।

13. बाजरे की मृदुरोमिल आसिता या हरित बाली रोगः

रोग लक्षणः

दोनों सर्वांगी और स्थानीय संक्रमण होते हैं। मिट्टी जनित बीजाणु युवा पौध में सर्वांगी संक्रमण करते है। रोग के विशिष्ट लक्षण पत्तियों पर पीलापन, हरिमा हीनता, और आधार से सिरे तक चौड़ी धारियाँ बनना हैं।  संक्रमित हरिमाहीन पत्ती क्षेत्रों की निचली सतह पर प्रचुर मात्रा में एक भूरी-सफेद कोमल कवक वृद्धि विकसित होती है जिससे अलैंगिक बीजाणु जनन होता हैं। इसमें विकसित बीजाणु धानीधर आगे स्थानीय संक्रमण उत्पन्न कर सकते है।

गम्भीर संक्रमण में इन्टरनोड्स एवं और टिलर के जरूरत से ज्यादा छोटा रह जाने की वजह से रोग ग्रस्त पौधें बौने रह जाते हैं और वें पुष्प गुच्छों का उत्पादन नहीं करते।  हरे पुष्प भागों के पूर्णतः या आंशिक रूप से पत्तीदार संरचनाओं में परिवर्तन के परिणाम स्वरूप हरित बाली लक्षण बनते हैं।              

                     

रोग का विकास एवं फैलाव:

यह मृदा जनित व बाह्य बीज जनित रोगहै। इसका रोग कारक स्क्लेरोस्पोरा ग्रैमिनिकॉला नामक कवक है। ओस वाली रातों तथा 20o सेल्सियस के आस-पास तापमान इस कवक के चल बीजाणुओं के बनने एवं बाहर निकलने के लिए अनुकूल होते हैं। निषिक्तांड अंकुरण के लिए कम नमी तथा 20o सेल्सियस तापमान अनुकूल होता है। संक्रमण के लिए शुष्क मृदा एवं 20o सेल्सियस तापक्रम अनुकूल वातावरण बनाते हैं।

रोग की रोकथाम:

  • प्रमाणित और स्वस्थ बीज बोना चाहिये।
  • रोग प्रतिरोधी किस्मों को बोना चाहिये।
  • रोगी पौधों को नष्ट कर देना चाहिये और फसल चक्र का प्रयोग करना चाहिये।
  • मैटालैक्सिल या कैप्टान (2.0 ग्राम प्रति किग्रा बीज) के साथ बीज उपचार करें और बूट पत्ती चरण में जिनेब 75% या कार्बेन्डाजिम अथवा मैन्कोजेब 64% + मैटालैक्सिल-एम 4% युक्त कवकनाशी का 2 - 2.5 ग्राम प्रति लीटर जल की दर से फसल पर छिड़काव करें।

तालिका 1: अनाज वाली फसलों की प्रमुख बीज जनित बीमारियां एवंउनके विभिन्न रोगजनक

क्रम संख्या धान्य फसल रोग का नाम रोग जनक
1.        गेहूँ (ट्रिटिकमऐस्टिवम) आल्टर्नेरिआ लीफ झुलसा आल्टर्नेरिआ ट्रिटिसिना
अर्गट क्लैविसेप्स परप्युरिया
जड सडन, अंकुर झुलसा, स्पॉट ब्लॉच बाइपोलैरिस सोरोकिनियाना
हेड ब्लाइट, स्कैब फ्यूजेरियम ग्रैमिनिएरम
ग्लूम ब्लॉच, पत्ती धब्बा स्टैग्नोस्पोरा नोडोरम
पीला पत्ती धब्बा ड्रेसलैरा ट्रिटीसी रेपेंटिस
करनाल बंट टिलेसिया इंडिका
पहाडी बंट (हिल बंट) टिलेसिया ट्रिटीसी, टिलेसिया लैविस
ड्वार्फ बंट टिलेसिया कोंट्रोवर्सा
अनावृत कंड (लूज स्मट)  अस्टीलैगो सेगेटम प्रजाति ट्रिटीसी
ध्वज कंड (फ्लैग स्मट) यूरोसिसटिस एग्रोपाइरी
टुंडु, पीत बाली सडन रैथायी बैक्टर ट्रिटिसी
ब्लैक चैफ जैंथोमोनास ट्रांसलुसेंस पैथोवारट्रांसलुसेंस
ईयर कॉकल एंगुइना ट्रिटीसी
2.        धान (ओराइजा सेटाइवा) पत्ती धब्बा, गुलाबी कर्नल, स्टैक बर्न आल्टर्नेरिआ पैडविकी
काला शीथ रॉट, अंकुर झुलसा बाइपोलैरिस ऑराइजी
काला दाना (ब्लैक कर्नल) कर्वुलैरिया प्रजाति
बकानी रोग, पद गलन फ्यूजेरियम मोनिलिफोर्मी
झौंका या बदरा, गर्दन सडन पाइरीकुलेरिया ग्रैसिया
धान का बंट (कर्नल स्मट) टिलैशिया बर्केलियाना
शीथ गलन (शीथ रॉट) सैरोक्लोडियम ओराइजी
हल्दी गांठ (फाल्स स्मट)  अस्टीलैगिनओइडा वाइरेंस
जीवाणुज दाना सडन बुर्कहोल्डेरिआ ग्लूमी
जीवाणुज पत्ती झुलसा जैंथोमोनास ओराइजी पैथोवारओराइजी
जीवाणुज पत्ती धारी रोग जैंथोमोनास ओराइजीपैथोवारओराइजीकॉला
सफेद चोटी (व्हाइट टिप) अफेलेंकोइड्स बेसेयी
3.        जौं (होर्डियमवल्गेअर अर्गट क्लेविसेप्स परप्यूरिया
अंकुर झुलसा, जड सडन बाइपोलैरिस सोरोकिनिआना
स्कैब, अंकुर झुलसा फ्यूजेरियम ग्रैमिनेरियम
ग्लूम ब्लॉच स्टैगनोस्पोरा नोडोरम
आवृत कंड अस्टिलैगो होर्डाई
अनावृत कंड अस्टिलैगो सेगेटम प्रजाति नुडा
कर्नल झुलसा स्यूडोमोनास सिरिंजिऐ पैथोवार सिरिंजिऐ
पत्ती झुलसा जैंथोमोनास ट्रांसलुसेंस पैथोवारट्रांसलुसेंस
4.        जई (एविना सैटाइवा) पाद गलन, पद झुलसा बाइपोलैरिस सोरोकिनियाना
पर्ण झुलसा बाइपोलैरिस विक्टोरिआई
स्कैब फ्यूजेरियमग्रैमिनिएरम
कर्नल झुलसा, पत्ती ब्लॉच स्टैग्नोस्पॉरा ऐविनी
पर्ण धब्बा ड्रेस्लैरा ऐविनी
अनावृत कंड (लूज स्मट) अस्टिलैगो सेगेटम प्रजाति ऐविनी
5.        बाजरा (पेनिसेटम ग्लाउकम) अर्गट क्लैविसेप्स फ्यूजिफॉर्मिस
डाउनी मिल्ड्यु, हरित बाली रोग स्कैरोलोस्पॉरा ग्रैमिनिकॉला
कंड (स्मट) टोलिपो स्पोरियम पेनिसिलैरीआई
6.        ज्वार (सोर्घमबाइकलर पत्ती धब्बा कर्वुलेरिया ल्युनाटा
लाल पत्ती, तना सडन कोलेटो ट्राइकम ग्रैमिनिकॉला
बीज सडन, तना सडन फ्यूजेरियम मोनिलीफोर्मी
मृदुरोमिल आसिता पेरोनोस्क्लेरोस्पॉरा सोर्घाई
अर्गट क्लैवीसेप्स सोर्घाई
अनावृत कंड (लूज स्मट) स्पोरीसोरियम क्रुएन्टम
शीर्ष कंड (हेड स्मट) स्फैसेलोथेका रेइलियाना
दाना कंड (ग्रेन स्मट) स्पोरीसोरियम सोर्घाई
लम्बा कंड (लोंग स्मट) टोलिपोस्पोरियम इहरेन्बर्गई

उच्च गुणवत्ता वाला स्वस्थ रोगरहित बीज प्राथमिक स्तर केरोग प्रबंधन के लिए अतिआवश्यक है ।अच्छे फसल उत्पादन मेंसबसे महत्वपूर्ण व सबसे पहली शर्त  गुणवत्ता युक्त रोग रहित बीज की उपलब्धता है ।बीज जनित रोग तीन प्रकार के होते हैं:अंत: बीज जनित रोग, बाह्य बीज जनित रोग एवं अपमिश्रण; और रोग प्रबंधन की रणनीति रोगजनक के निवेश द्रव्य की बीज पर उपस्थिति के स्थान के ऊपर निर्भर करती है ।

बीज जनित रोगों के द्वारा किए गये प्रत्यक्ष नुकसान उपज में कमी, अंकुरण क्षति, ओज में कमी और पादप रोगों की स्थापना, बीज के सिकुडने, बदरंग होने एवं बीज के अंदर जैव-रासायनिक परिवर्तनके रूप में नापा जा सकता है ।

इन बीज जनित रोगों ने विशेषत: अनाज वाली फसलों में अलग-अलग समय अन्तरालों के अन्दर अनेको महामारी के रूप में समाज को प्रभावित किया है। परन्तु साथ ही साथ आधुनिक कृषि में नई तकनीकों के अंगीकरण व रोग प्रबंधन के नये नये बेहतर विकल्पों के उपलब्ध होने के कारण इन फसल महामारियों की घटना में काफी कमी आई है ।


Authors:

रविन्द्र कुमार1, चरण सिंह1,उमेश काम्बले1, चन्द्र नाथ मिश्र1, वैभव कुमार सिंह2एवंश्वेता श्रीवास्तव3

1भाकृअनुप-भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल-132001, हरियाणा

2पादप रोग विज्ञान संभाग, भाकृअनुप-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली-110012

3स्कूल ऑफ एग्रीकल्चर, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, फगवाडा-144 411, पंजाब

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