Major Diseases of Fodder Crops And Their Management
भारत विश्व में सबसे अधिक पशु जनसंख्या वाले देशों में से एक है। दुधारू पशुओं के अधिक दुध उत्पादन के लिए हरे चारे वाली फसलों की भूमिका सर्वविदित है। इन फसलों में अनेक प्रकार के रोग आक्रमण करते है जो चारे की उपज एवं गुणवत्ता में ह्रास करते है एवं हमारे पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक सिद्ध होते हैं। अतः इन रोगों का प्रबन्धन अति आवश्यक है। चारे की फसलों में प्रमुख रोग एवं उनका प्रबन्धन इस प्रकार हैः
बाजरे की मॄदुरोमिल आसिता या हरित बाली रोगः
रोगजनक: यह एक मृदोढ रोग है। इसका रोगकारक स्क्लेरोस्पोरा ग्रैमिनिकॉला नामक कवक है।
मॄदुरोमिल आसिता या हरित बाली रोग केे लक्षणः
दोनों सर्वांगी और स्थानीय संक्रमण होते हैं। मिट्टी जनित बीजाणु युवा पौध में सर्वांगी संक्रमण करते है। रोग के विशिष्ट लक्षण पत्तियों पर पीलापन, हरिमाहीनता, और आधार से सिरे तक चौड़ी धारियाँ बनना हैं।
संक्रमित हरिमाहीन पत्ती क्षेत्रों की निचली सतह पर प्रचुर मात्रा में एक भूरी-सफेद कोमल कवक वृद्धि विकसित होती है जिससे अलैंगिक बीजाणुजनन होता हैं। इसमें विकसित बीजाणुधानीधर आगे स्थानीय संक्रमण उत्पन्न कर सकते है।
इन्टरनोड्स एवं और टिलर के जरूरत से ज्यादा छोटा रह जाने की वजह से रोगग्रस्त पौधें बौने रह जाते हैं। गंभीर रूप से संक्रमित पौधें आम तौर पर बौने हो जाते हैं और पुष्पगुच्छों का उत्पादन नहीं करते। हरे पुष्प भागों के पूर्णतः या आंशिक रूप से पत्तीदार संरचनाओं में परिवर्तन के परिणामस्वरूप हरित बाली लक्षण बनते हैं।
रोग प्रबन्धनः
- रोग प्रतिरोधी किस्मों को बोना चाहिये।
- पीड़ित पौधों का उन्मूलन करके और उन्हें नष्ट कर देना चाहिये।
- फसल चक्र का प्रयोग करना चाहिये।
- प्रमाणित और स्वस्थ बीज बोना चाहिये।
- मैटालैक्सिल या कैप्टान (2.0 ग्राम प्रति किग्रा बीज) के साथ बीज उपचार करें और बूट पत्ती चरण में 0.2% डाइथेन जेड–78 अथवा 0.2% कार्बेन्डाजिम अथवा 0.25% रिडोमिल का फसल पर छिड़काव करें।
बाजरे का अर्गट रोग
रोगजनक: यह रोग क्लेवीसेप्स परप्यूरिया नामक कवक से होता है।
लक्षणः
अर्गट का रोगजनक कवक फ्लोरेट्स को संक्रमित करता है और अंडाशय में विकसित हो जाता है। यह रोगजनक शुरू में प्रचुर क्रीमी, गुलाबी या लाल रंग का मीठा चिपचिपा शहद-जैसे तरल पदार्थ (हनीड्यू) का उत्पादन करता है। अक्सर पराग और परागपिटक थैलियां इस तरल पदार्थ पर चिपक जाती हैं। इसके बाद काले रंग का कठोर संरचनाएं, स्केलेरोशिया संक्रमित पुष्पक से विकसित होते हैं, पहले यें गहरे रंग की होती है और बाद में पूरी तरह से काली हो जाती है।
- उपलब्ध प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।
- संक्रमित/प्रभावित पुष्पगुच्छों को निकालकर नष्ट कर देना चाहियें।
- संक्रमित पुष्पगुच्छों से बीज ना ले। 20 प्रतिशत नमक के घोल (ब्राइन सॉलूशन) में बीज में से स्केलेरोशिया अलग कर देना चाहिये।
- खेत की सफाई रखें। गहरी जुताई करनी चाहिये।
- गैर-अनाज के साथ प्रमुखतः दालों के साथ फसल चक्र अपनाएं।
- पुष्पन से पूर्व 0.2 प्रतिशत बेनोमाइल अथवा 0.1 प्रतिशत प्रोपिकॉनाजोल (टिल्ट) अथवा टेबूकॉनाजोल (फोलिकर) का छिड़काव करने से रोग प्रसार में कमी आती है।
बाजरे का कंड या कंडवा रोग
रोगजनकः यह एक मृदोढ रोग है। यह रोग टोलीपोस्पोरियम पेनीसिलेरी नामक कवक के द्वारा होता है।
रोग के लक्षण बाली या सिट्टों के दानों में कही कही बिखरे दिखाई देते हैं, परन्तु अधिकांश दाने रोगी होने से बच जाते हैं। इस रोग में कुछ दाने समूह में अथवा अकेले सोरस में बदल जाते हैं। यह सोरस अंडाकार अथवा नाशपाती के आकार की होती है तथा तुषनिपत्र से बाहर निकली रहती है। सामान्यतः स्वस्थ दानों की अपेक्षा सोरस का व्यास दुगना होता है यह 3–4 मिमी लम्बी तथा सिरे की ओर 2–3 मिमी चौडी होती है।
आरम्भ में सोरस का रंग चमकीला हरा अथवा कत्थई भूरा होता है परन्तु इसके परिपक्व होने पर यह गहरा काला हो जाता है। सोरस में कंड बीजाणु समूह में भरे होते हैं। सोरस की भित्ति परपोषी ऊत्तकों से बनती है तथा दॄढ होती है।
रोग नियन्त्रणः
- खेत की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई करनी चाहिये।
- फसल चक्र को अपनाना चाहिये।
- खेत की सफाई रखें। रोगी सिट्टों को नष्ट कर देना चाहिये।
- रोग रहित स्वस्थ बीजों का प्रयोग करना चाहि्ये।
- रोग की रोकथाम के लिए सिट्टों के बाहर निकलने के समय 0.1% टिल्ट अथवा 0.2% कार्बेन्डाजिम का छिडकाव करना चाहिये। दूसरा छिड़काव इसके 10–15 दिन बाद करना चाहिये।
ज्वार की मॄदुरोमिल आसिता
रोगजनक: यह रोग पेरोनोस्केलेरोस्पोरा सोर्घाई नामक कवक से होता है।
लक्षणः
इस रोग में दोनों सर्वांगी और स्थानीय संक्रमण होते हैं। मिट्टी जनित बीजाणु युवा पौध में सर्वांगी संक्रमण करते है। ये सर्वांगी संक्रमित पौधें बाली या सिट्टे का उत्पादन नहीं करते। प्रभावित पत्तियां अक्सर सामान्य से अधिक संकीर्ण, खड़ी एवं कटी हुई हो जाती हैं। पौधे छोटे क़द और हरिमाहीन हो जाते है और कोई बीज नही बनता है। नये पौधों के सर्वांगी संक्रमण में अक्सर हल्के हरे-पीले रंग की लंबी धारियां बनती है जिनके विपरीत पत्ती की निचली सतह पर कई छोटे बीजाणुओं से मिलकर एक भूरी-सफेद कोमल कवक वृद्धि दिखाई पडती है। यें बीजाणु आगे स्थानीय संक्रमण पैदा कर सकते हैं।
रोग प्रबन्धनः
- उपलब्ध प्रतिरोधी संकर किस्मों का प्रयोग करें।
- मैटालैक्सिल या कैप्टान (2.0 ग्राम प्रति किग्रा बीज) के साथ बीज उपचार करें।
- रोग कम करने के लिए गेहूं-सोयाबीन के साथ लंबी अवधि का फसल चक्र अपनाएं।
- जहां रोग प्रायः आता है वहां मक्का-चारा फसल चक्र से बचें।
- रोग लक्षणों के दिखाई देने पर 0.2% डाइथेन जेड–78 अथवा 0.2% कार्बेन्डाजिम अथवा 0.25% रिडोमिल का फसल पर छिड़काव करें।
ज्वार का दाना कंड या कंडवा रोग
रोगजनकः ज्वार का दाना कंड एक बाह्य बीजोढ रोग है। यह रोग स्फैसिलिथिका सॉर्घाई नामक कवक के द्वारा होता है।
रोग लक्षणः
रोग के लक्षण बाली या सिट्टों पर ही दिखाई देते हैं। रोगी सिट्टे के अधिकांश अथवा कुछ दाने बीजाणुपुट अथवा सोरस में बदल जाते है। यह सोरस आकॄति मे अंडाकार अथवा बेलनाकार मटियाले भूरे रंग की 5–15 मिमी लम्बी और 3–15 मिमी चौडी होती है। कभी–कभी सोरस सिरे पर शंक्वाकार हो जाती है और इसके आधार को तुषनिपत्र घेरे रहते हैं। प्रत्येक सोरस में काले से गहरे भूरे कंडबीजाणु समूह में भरे रहते हैं। सोरस की भित्ति परपोषी ऊत्तकों से बनती है तथा दॄढ होती है।
रोग नियन्त्रणः
- बीज का चयन ऐसे खेत से करना चाहिये जहां पहले रोग उत्पन्न नही हुआ हो। सदैव रोग रहित स्वस्थ प्रमाणित बीजों का प्रयोग करना चाहि्ये।
- खेत की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई करना चाहिये।
- फसल चक्र को अपनाना चाहिये।
- खेत की सफाई रखें। रोगी सिट्टों को नष्ट कर देना चाहिये।
- रोग की रोकथाम के लिए सिट्टों के बाहर निकलने के समय 0.1% टिल्ट अथवा 0.2% कार्बेन्डाजिम का छिडकाव करना चाहिये। दूसरा छिड़काव इसके 10–15 दिन बाद करना चाहिये।
Authors
रविन्द्र कुमार, अनुजा गुप्ता एवं वी० के० महेश्वरी
भा० कृ० अनु० प० – भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, क्षेत्रीय स्टेशन, करनाल–132 001
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