Integrated Pest Management practices in Potato crop
आलू की खेती सम्पूर्ण भारत में प्रमुख फसल के रूप में ली जाती है, लेकिन भारत में आलू की उत्पादकता 22 टन/हैक्टेयर है जो विश्व के कई देशो के मुकाबले कम है। इसका प्रमुख कारण खेतों तथा भंडारगृह में लगने वाले रोग, कीट व सूत्रकृमि है। जिससे फसल को 60-70 प्रतिशत नुकसान उठाना पड़ रहा है। अतः इस तरह के नुकसान से बचने के लिए आलू के प्रमुख कीटों व रोगों की पहचान करने तथा उनके उचित प्रबन्धन की जानकारी आवश्यक है।
आलू के प्रमुख कीट:
1. आलू कंद स्तम्भ (पोटेटो टयूबर मोथ):
यह कीट आलू को खेतों तथा भंडारगृह दोनों जगह नुकसान पहुँचाता है। इस कीट की मादा, पत्तियों की निचली सतह, खुले हुये आलू कंद तथा गोदामों में आलूओं की आँखो में, सफेद रंग के अण्डे देती है।
अण्डो से सफेद रंग एवं काले सिर वाली सूडियाँ निकलने के पश्चात् ही यथास्थान जैसे पत्तियों, टहनियों अथवा आलू कंदो में छेद करके सुरंग बनाना शुरू कर देती है।
सूंडी से ग्रसित आलूओं की सतह पर काले रंग की विष्ठा लगी रहती है तथा उनमें घाव हो जाने के कारण जीवाणु तथा कवक का भी आक्रमण हो जाता है। जिसके कारण आलू सड़कर बदबू मारने लगते है। इस कीट के द्वारा लगभग 30 से 70 प्रतिशत आलू क्षतिग्रस्त कर दिये जाते है।
2. कटवार्म या कटुवा:
सूखे मौसम एवं जब पौधों के तने नए होते है तब इस कीट का प्रकोप अधिक होता है। इस कीट की मादा पत्तियों के निम्न तल पर या पौधों की जड़ों के पास ढेलों में गोल, हल्के पीले रंग के अंडे देती है। अण्डे के बाहरी सतह पर धारियाँ पाई जाती है।
हल्के स्लेटी रंग की सूंडी रात्रि के समय निकलकर नए पौधों की डंठली, तनों और शाखाओं से अपना भोजन ग्रहण करती है। बाद में कंदों में छेदकर खाते हुए नुकसान पहुँचाते है। जिससे उपज में भारी कमी का सामना करना पड़ता है। इस कीट के द्वारा लगभग 12-40 प्रतिशत फसल को नुकसान पहुँचाता है।
3. सफेद लट:
सफेद लट का प्रकोप देर से खोदी गई फसल एवं पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक होता है। इसके कारण प्रभावित फसल को 10 से 80 प्रतिशत नुकसान होता है। गहरे भूरे रंग के सिर वाली लट तथा भूरे रंग के प्रौढ़ दोनों ही अवस्था फसल को हानि पहुँचाती है। लट आरम्भ में जैविक पदार्थो को खाती है। परन्तु बाद में ये पौधों की जड़ों एवं आलू कंदों में सुराग बनाते हुए अपना भोजन करते है।
यह कीट पौधों के मुलायम भागो पर स्थाई रूप से चिपके रहते है इस कीट के शिशु व वयस्क पौधों की पत्तियों तथा कोमल शाखाओं से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं, जिससे पत्तियाँ पीली पड़कर मुड़ जाती हैं।
ये कीट मधु स्त्राव करते हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को बाधित करते है। पौधों पर काले कवक की व हो जाती है जो व्याधियों को फैलाने मे सहायक होता है।
5. सफेद मक्खी:
वयस्क का रंग सफेद से हल्का पीलापन लिए होता है। इस कीट के अण्डाकार शिशु पत्तियों पर चिपके रहते है।
शिशु व वयस्क पत्तियों की निचली सतह से रस चूसकर पौधों को कमजोर कर देते हैं जिससे पत्तियाँ मुड़कर पीली पड़ जाती हैं तथा पूर्व विकसित होने से पहले ही गिर जाती है।
ये शहद जैसे चिपचिपे पदार्थ का स्त्राव करते है। जिससे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया प्रभावित होकर पौधो मे भोजन बनाने की क्षमता कम हो जाती है।
6. जैसिड (हरा तेला):
मादा पीले रंग के अण्डे पत्तियों की नीचे की तरफ शिराओं पर देती है। अण्डों से शिशु निकलकर पत्तियो से रस चूसते रहते हैं। यह हरे रगं के कीट हमेशा पत्तियों के निचली सतह पर बैठे देखे जा सकते हैं। इस कीट से ग्रसित पौधे में बौनापन और पत्तियां किनारों से मुड़ कर भूरी पड जाती है।व सूख जाती है।
7.जड़ गांठ (सूत्र कृमि):
सूत्रकृमि के द्वारा प्रभावित पौधों की जड़ों में गाँठे बन जाती है। खेत में फसल एक समान ऊँचाई की नहीं रहकर कहीं पर बड़ी एवं कहीं पर छोटी रह जाती है। 1 से 2 माह पूरानी फसल में हरिमाहीनता हो जाती है। सूत्रकृमि से ग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है। आलूओ पर गाँठे पड जाती है।
8. आलू पुट्टी सूत्रकृमि (ग्लोबोडेरा स्पि.):-
यह सोलेनेसी कुल का मुख्य परजीवी है। इसकी पुट्टी सुनहरी पीले रंग की होती है जिसमें लगभग 200-350 अण्डे पाये जाते हैं। यह अपना जीवन चक्र 5-7 सप्ताह में पूर्ण कर लेता हैं। यह सूत्रकृमि आलू में मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों रुप से क्षति पहुँचाता है। इस सूत्रकृमि द्वारा 53-66 प्रतिशत क्षति पहुँचायी जाती है।
आलू के प्रमुख रोग:
1.अगेती अंगमारी:
बुवाई के 3 से 4 सप्ताह बाद रोग के लक्षण प्रकट होने लगते है। रोग का आरम्भ नीचे की पत्तियों पर हल्के भूरें रंग के छोटे-छोटे पूरी तरह बिखरे हुए धब्बों पर गहरे नीली हरे रंग की मखमली रचना दिखाई देती है। धब्बों को सूर्य की रोषनी की ओर देखने पर इन धब्बों पर उनमें संकेन्द्री कटक स्पष्ट दिखाई देते है।
जिसकी तुलना मेंढक की आँख से की जाती है। उस अवस्था में पत्तियाँ मुरझाकर गिर जाती है। तना, शाखाएँ व फूल भी रोगग्रस्त हो जाती है एवं उन पर भी संकेन्द्री कटक युक्त धब्बे बनते है। जिससे फल सड़ जाते है।
2.पछेती अंगमारी:
इस रोग के लक्षण फसल के पुष्पन अवस्था में होने पर दिखाई देते है। इस रोग में सबसे पहले पौधों की नीचे की पत्तियों पर हल्के रंग के धब्बे प्रकट होते है। जो जल्द ही भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते है।
यह धब्बे अनियमित आकार के बनते है जो अनुकूल मौसम पाकर बड़ी तीव्रता से फेलते है और पत्तियों को नष्ट कर देते है। रोग के विषेश लक्षण पत्तियों के किनारे और चोटी भाग का भूरा होकर झुलस जाता है। इस रोग के लक्षण कंदों पर भी दिखाई देतें है। जिससे कंद सड़ने लगते है।
3. भूरा विगलन रोग एवं जीवाणु ग्लानी रोग:
रोग आलू के कंदों को विगलन कर पौधों को मुरझाकर सूखा देने में सक्षम है। अगर इन पौधों में कंद बनता है तो काटने पर एक भूरा घेरा देखा जा सकता है। इन कंदों की आँख काली पड़ जाती है। रोग प्रकोप की पहचान पौधों के एकाएक मुरझा जाने से की जा सकती है।
आलू फसल में समेकित नाशीजीव प्रबंधन:
- ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई की जानी चाहिए।
- प्रमाणित बीज एवं स्वस्थ कंदों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
- बुवाई के पूर्व खेत के अवशेष,खरपतवार एवं रोगी कंदों को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।
- बोने से पहले बीज/कंदों/आलूओं को कुछ देर धूप में सूखा लेना चाहिए।
- प्रतिरोधक जातियों का प्रयोग करें।
- खेतो में सदैव गोबर की अच्छी तरह से सड़ी गली खाद ही डाले।
- आलू कंद शलभ के नियंत्रण हेतु आलू की बुवाई 10 सेन्टीमीटर गहराई तक करें।
- खेतों में नियमित रूप से सिंचाई करते रहें जिससे खेतों में दरार न आने पाये।
- खेतों में समय से कंदों पर मिट्टी चढ़ाना चाहिए ताकि कोई भी कंद जमीन से बाहर न रहे।
- क्षतिग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें।
- आलू कंदों को एगेलाल 1 प्रतिशत घोल में 2 मिनट तक डुबोकर उपचारित करके बोना चाहिए।
- आलू कंदों को बीज के लिए 3-4 भागों में काटकर प्रयोग किया जाता है। हर आलू काटने के बाद चाकू या छूरी को निर्जीमीकरण 1 प्रतिशत मरैक्यूरिक क्लोराइड घोल में एक मिनट तक डुबोकर करना चाहिए।
- भूरा विग़लन रोग दिखाई देने पर नाइट्रोजन उर्वरक अमोनिया सल्फेट के रूप में देना चाहिए।
- 500 ग्राम लहसून और 500 ग्राम तीखी चटपटी हरी मिर्च को बारीक पीसकर 200 लीटर पानी में घोलकर थोड़ा सा शैम्पू मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें।
- ट्राइकोडर्मा स्पीसीज 20-25 किलोग्राम गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई से पूर्व खेती की मिट्टी में मिला दे।
- बोर्डो मिश्रण 4: 4: 50 कापर आक्सीक्लोराइड का 3 प्रतिशत का छिड़काव 12-15 दिन के अंतराल पर तीन बार किया जाना चाहिए।
- कीट एवम् सूत्रकृमियों की अधिकता होने पर कार्बोफ्यूरान 3 जी एवं फोरेट 10 जी की 2 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व मात्रा प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग में लेनी चाहिए
- माँहु ग्रसित पौधों, विशेषकर खेतों के आस-पास पीले रंग के फूल वाले पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
- बेसिलस थूरिन्जिंएन्सिस या ग्रेन्डलोसिस वायरस के चूर्ण का 300 ग्राम/क्विंटल की दर से छिड़काव करें।
- खेतों में कंद शलभ को पकड़ने हेतु यौन गंध आधारित जल ट्रेप (20 ट्रेप/हैक्टयर) का प्रयोग प्रभावशाली रहता है।
- भंडारगृह में कंद शलभ को रोकने हेतु परजीवी अथवा सूक्ष्म जीवाणु, कवक, चीटियों, छिपकलियों आदि स्वाभाविक शत्रुओं की बढ़वार होने देना चाहिए।
- माँहु, सफेद मक्खी एवं जैसिड के नियंत्रण हेतु चिपचिपे पाश 8-10 प्रति हैक्टयर की दर से लगाए।
- शत्रुपक्षियों के आश्रय हेतु 20-25 ‘टी’ आकार के लकडी के अड़े लगाए।
- प्रकाश के प्रति आकर्षित होने वाले कीटों हेतु प्रकाश प्रपंच 4-5 प्रति हैक्टयर की दर से लगाए।
- आलू को गोदामों में रखने से पहले क्षतिग्रस्त आलूओं को छाँटकर नष्ट कर देना चाहिए।
- आलू खोदने के बाद खुले नहीं छोड़ने चाहिए उन्हें तुरन्त बोरियों आदि में बंद करके रखना चाहिए।
- भंडारितगृह का तापमान 7-100C से अधिक नहीं होना चाहिए।
Authors:
डॅा़॰ दिनेश कच्छावा, कविता कुमावत एवं शक्ति सिंह भाटी
राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर (राज.)
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