बकरियों में होने वाले 9 प्रमुख रोग और उनके नियंत्रण के उपाय
पालतुु पशुओं के रोगग्रस्त होने की पहचान के लिए उनका बारीकी से निरिक्षण करना चाहिए। बकरियों के हाव-भाव, चाल ढाल तथा व्यवहार मेे बदलाव जैसे लक्षण से रोगग्रस्त बकरी को पहचाना जा सकता है। बीीमार बकरी अकसर दूसरों से अलग हटकर खड़ी, बैठी या सोती पाई जाती है। इसके अलावा
- खाना कम कर देना या छोड़ देना, जुगाली न करना। थूथन पर पसीना नही रहना और सूख जाना।
- शरीर के तापमान सामान्य (102.5 डिग्री फारेनहाइट या1 डिग्री सेन्टीग्रेट) से ज्यादा या कम होना। नाड़ी तथा सास के गति में बदलाव आना।
- पैखाना और पेशाब के रूप रंग में बदलाव आना।
इनमें से कोई भी लक्षण दिखाई देने पर उसे अलग रखे तथा उसका इलाज कराये। सर्वप्रथम इसके बुखार की जाच करें और अन्य लक्षणों को नोट करें। अलग-अलग बीमारियों में अलग-अलग लक्षण होते है।
जीवाणु जनित रोग
1. आंत्रा विषाक्तता (इन्टेरोटोक्सीमिया)
बकरियों में यह रोग क्लास्ट्रीडियम परप्रिफजेन्स जीवाणु टाईप डी द्वारा आंतों में उत्पन्न किये गये जहर (टाक्सिन) के आंतों द्वारा अवशोषण से होता है। यह जीवाणु सामान्यतः आंत में रहता है।
पशु द्वारा आवश्यकता से अधिक दाना या चारा खा लेने या खान-पान में अचानक से परिवर्तन होने से इस जीवाणु की वृद्वि दर अचानक बढ़ जाती है जिसके फलस्वरूप टाक्सिन का अत्याध्कि उत्पादन होता है।
इस बीमारी का मुख्य लक्षण अचानक से पेट में तीव्र दर्द, जमीन पर गिरकर घिसटना या चक्कर लगाना, चाल में असमानता, लड़खड़ाहट, बैठने के तरीके में बदलाव, अफरा और अन्त में काले रंग की दस्त होती है। 5-24 घंटे में मृत्यु हो जाती है।
उपचार में बकरी को 2-5 ग्राम खाने का सोडा तथा टेट्रासाइकिलन पाउडर का घोल दिन में 2-3 बार पिलाये। इसके बचाव हेतु इन्टेरोटोक्सीमिया का वार्षिक टीकाकरण मुख्य उपाय है। साथ ही पशुओं को दिये जाने वाले दाने / चारे में अचानक कोई परिवर्तन न करे।
2. न्यूमोनिया
यह जीवाणु तथा माइकोप्लाजमा जनित, संक्रामक रोग है। इस रोग में बकरी को तेज बुखार के साथ आँख व नाक से पानी जैसा द्रव आता है तथा सांस लेने में कठिनाई होती है। रोगग्रस्त पशु द्वारा संक्रमित दाना-पानी व चारा खाने से यह स्वस्थ पशुओं में फैल जाती है।
यह रोग वातावरण में तेजी व अचानक से परिवर्तन होने से पनपता है। इस रोग के जीवाणु सामान्य अवस्था में सांस की नली में पाये जाते हैं और ठंड या किसी स्ट्रेस के कारण इसकी रोकथाम की शक्ति कम हो जाती है, तब यह जीवाणु प्रभावी होकर बिमारी पैदा करता है।
रोग ग्रस्त पशु को एन्टीबायोटिक्स की सुई आवश्यकतानुसार मात्रा में पशु चिकित्सक की सलाह से दे। साथ ही टिंकचर बेन्जोइन / तारपीन तेल गरम पानी में डालकर नाक से भाप दिन में कई बार दें। जीवाणु जनित न्यूमोनिया के बचाव के लिए टिकाकरण करवायें।
3. अतिसार (कोलीबैसिलोसिस)
यह जन्म से एक माह की आयु तक के बच्चों में होने वाली प्रमुख जीवाणु जनित रोग है जो ई0 कोलाई नाम जीवाणु द्वारा होता है। यह बीमारी बाड़े में अधिक बच्चा के रखने, माँ के अस्वच्छ थन से दूध पीने, ज्यादा दूध पिलाने तथा बाड़ा गन्दा रहने से ज्यादा फैलती है। इस रोग में बच्चों में बुखार, पीले या सफेद रंग की दस्त, खड़े होने में लड़खराहट, खाना पानी छोड़ देना, शरीर में पानी की कमी हो जाती है।
रोगग्रस्त बच्चें अलग कर ले। उनके शरीर में पानी की कमी को दूर करने के लिए इलेक्ट्रोल पाउडर पिलाये या डेक्स्ट्रोज सेलाइन चढ़ाये। फ्रयूराजोलिडोन या अन्य उचित एन्टीबायोटिक्स का सेवन कराये। इसके आलावा निम्नलिखित सावधनी बरते-
- बच्चों के पैदा होने के आधे घण्टे बाद दिन में 4-5 बार खीस उसके वजन के 10 प्रतिशत मात्रा में पिलाये। इससे बच्चों में रोग के जीवाणु से लड़ने की प्रतिरोधक शक्ति मिलती है।
- आवश्यता से अधिक दूध न पिलाये।
- बच्चे को दूध पिलाने से पहले बकरी के थन को पोटैशियम परमैगनेट के घोल से भिंगों कर साफ कपड़े से धे ले।
4. थनैला रोग
थनैला रोग मादा पशुओं के अयन में जीवाणु जनित भयानक छूत की बीमारी है। ये जीवाणु आसपास की गन्दगी युक्त वातावरण में रहती है तथा थनों के अन्दर प्रवेश कर उन्हें संक्रमित कर देते है। जब रोग की शुरूआत होती है तब एक या दोनों थनों पर सूजन आती है, थन का आकार बढ़ जाता है, छूने में गर्म तथा बकरी को दर्द का अहसास होता है।
बकरी को चलने में परेशानी होती है तथा शारीरिक तापक्रम 104-106 डिग्री फैरेनहाइट तक बढ़ जाता है। रोग की इस अवस्था तक उपचार नहीं होने पर इसकी अगली अवस्था (दीर्घकालिक थनैला) में रोग के ठीक होने की सम्भावना कम हो जाती है।
कभी-कभी विशेष कर दुधारू बकरियों के थनों में गैंग्रीन हो जाती है, थन गहरा नीला या काला हो जाता है व छूने में ठण्ड महसूस होता है तथा दबाने से दर्द भी नहीं होता। ग्रसित थन से दूध के जगह लाल रंग की पानी जैसा द्रव निकलता है।
इस रोग का उपचार प्रारम्भिक अवस्था में ही कर लेना चाहिए। दीर्घकालिक अवस्था आने पर इसका उपचार प्रभावी नहीं होता है। थनों में सूजन होने पर ठण्डे पानी या बर्फ से थनों की सिकाई करनी चाहिए। इसे गर्म पानी से सिकाई नहीं करनी चाहिए।
थनों के अन्दर दवा चढ़ाने के लिए इन्जेक्शन मेमीटाल, स्ट्रेपटोपेनिसिलीन, इत्यादि उपलब्ध है। दवा चढ़ाने से पहले थनों को निचोड़कर पूरा खाली कर लेना चाहिए तथा इसे पोटैशियम परमेगनेट के घोल तथा साफ कपड़े से अच्छी तरह पोछ लेनी चाहिए। अवशयकतानुसार उपयुक्त इन्टीबायोटिक दिन में एक या दो बार 3-5 दिनों तक लगातार देनी चाहिए।
विषाणु जनित रोग
5. मुंहपका व खुरपका रोग
यह एक संक्रामक विषाणु जनित रोग है जो फटे खुर वाले पशुओं में होती है। यह एक बकरी से दूसरी बकरी में हवा द्वारा, दूषित पानी पीने अथवा रोगी बकरी के साथ चारा खाने से फैलती है। इसमें मुंह की भीतरी सतह, जीभ, पैर, थन व अयन पर छाले पड़ जाते है।
बकरियों के बच्चों में हृदय की मांसपेशियों के खराब या नष्ट होने से उनकी मृत्यु हो जाती है। पशु में लंगड़ापन एवं मुंह में छाले पाये जाने पर इस रोग के होने की संभावना प्रकट की जाती है। इस रोग का कोई विशेष उपचार नहीं है।
रोगग्रस्त पशु में सहायक उपचार जैसे पशु को अलग रखे, नरम एवं सुपाच्य भोजन दे, जीवाणुनाशक एवं दर्द निवारक दवा की सुई लगवाये तथा घाव-छालों की एन्टीसैप्टिक दवाओं से धुलाई करें। इस रोग से बचाव के लिए प्रतिवर्ष 6 माह के अन्तराल पर मार्च-अप्रैल तथा सितम्बर-अक्टूबर में पशु को इसके टिके लगवायें।
6. बकरी प्लेग (पी0पी0आर0)
यह अत्यन्त संक्रामक विषाणु जनित रोग है जिसके होने से बाड़े की 90 प्रतिशत बकरियां ग्रसित हो जाती है तथा 80 प्रतिशत तक मृत्यु दर हो सकती है। ग्रसित बकरियों का तापमान 105 - 106 डिग्री फैरेनहाइट हो जाती है।
मुंह में छाले, काले रंग के दस्त, आँखों व नाक से पानी आती है सांस लेने में परेशानी होती है। मुंह के अन्दर के मसुड़े तथा जीभ लाल हो जाते है। 4-12 माह के मेमनों में यह रोग तीव्र रूप से होता है। इस रोग से बचाव हेतु सभी बकरी तथा बच्चे को 4 माह या उससे अधिक उम्र वाली बकरी को पी0पी0आर0 का टीका अवश्य लगवायें।
परजीवी जनित रोग
7. अतःपरजीवी
बकरियों के शरीर में गोलकृमि, यकृत कृमि एवं फीताकृमि वर्ग के कई अंतः परजीवी पाये जाते है। ये परजीवी गन्दे पानी व दूषित चारे के माध्यम से प्रवेश कर आंत की श्लेज्मा झिल्ली से चिपकर उस पर निर्भर रहते है, जिससे दिन-प्रतिदिन पशु कमजोर हो जाते है।
ग्रसित बकरी को बदबूदार दस्त होते है। शरीर में खून की कमी हो जाती है, वजन कम बढ़ता है। कभी-कभी निचले जबड़े के नीचे सूजन आ जाती है। इन परजीवियों से बचाव हेतु कृमिनाशक औषधिया वर्ष में कम से कम दो बार, बरसात के पहले तथा बरसात के बाद अवश्य देनी चाहिए। कुछ कृमिनाशक औषधियाँ और उनका डोज इस प्रकार है-
एलबेन्डाजोल: 7.5 मि0ग्रा0 / कि0ग्रा0 शारीरिक भार
फैन्बेन्डाजोल: 7.5 मि0ग्रा0 /कि0ग्रा0 शारीरिक भार
मोरन्टेल साइट्रिटः 10 मि0ग्रा0/कि0ग्रा0 शारीरिक भार
आइवरमेक्टिन: 1 मि0ली0 / 50 कि0ग्रा0 शारीरिक भार
एक ही कृमिनाशक दवा लगातार नहीं देकर बदल-बदल कर देना चाहिये।
8. बाह्य परजीवी
किलनी, जू आदि बाह्य परजीवी बकरियों के शरीर पर रह कर उनका रक्त चूस कर कमजोर कर देते हैं। इन बाह्य परजीवियों से बचाव हेतु बकरियों को ब्यूटाक्स, टीकटेक, एक्टोमन इत्यादि दवा के 0.2 प्रतिशत घोल से नहलाते हैं या आइवरमेक्टिन 1 मिली0 प्रति 50 कि0ग्रा0 शारीरिक भार से चमड़े में सूई लगाते है।
साथ ही पशु आवास में कीटनाशक दवा पानी मे मिलाकर छिड़काव करते है। दीवार पर दरार हो तो गोबर / सीमेन्ट की लैप से बंद कर दें। इन दरारों में किलनी तथा जूँ के अंडे और बच्चे छिपे रहते हैं।
9. काक्सीडिओसिस
यह रोग इमेरिया नामक परजीवी से होता है जो 1 माह से 6 माह तक के बढ़ते बच्चे को ज्यादा प्रभावित करता है। प्रभावित बच्चे में बदबूदार दस्त, कब्ज, पेट में दर्द, शरीर में खून की कमी, चमक रहित चमड़॓ व निरंतर वजन में कमी दिखाई देती है।
इसकी रोकथाम‚ एक स्थान पर अत्याधिक बच्चे न रखकर, बच्चों को व्यस्क बकरियों से अलग रखकर, बाड़ों की नियमित सफाई तथा चूने का छिड़काव करके तथा आवश्यकतानुसार दवा खिलाकर की जा सकती है। इसके लिए निम्नलिखित दवा का उपयोग किया जा सकता है-
- 2 ग्राम सल्फामिजैथिन प्रति किलो शरीर भार से 5 दिन तक
- घूलनशील एमप्रोलियम पाउडर 50 मि0ग्रा0 प्रति किलो वजन के हिसाब से 20 प्रतिशत का घोल 6 दिन तक।
रोग से बचाव के लिए महत्वपूर्ण प्रबन्धन-
- बाड़ों की प्रतिदिन नियमित रूप से सफाई करनी चाहिये तथा गन्दगी को बाड़ों से काफी दूर गड्ढ़ों में दबा देना चाहिए।
- सप्ताह में एक या दो दिन बकरियों तथा मेमनों को पोटेशियम परमेगनेट युक्त पानी पिलाये जिससे उनमें पेट की बीमारी कम हो।
- बाड़े के सभी बकरियों को एकसाथ एक ही दिन कृमिनाशक दवा पिलानी चाहिए।
- मेमनों को वयस्क बकरियों से अलग रखे ताकि उनकी मेगनी से संक्रमित दाना / पानी से मेमनों को काक्सीडिओसिस नामक बीमारी से बचाया जाय।
- बाड़े में नमी दूर रखने के लिए नियमित रूप से बुझा चूना सप्ताह में कम से कम एक बार अवश्य छिड़कना चाहिए।
- प्रतिमाह बाड़ों के अन्दर फर्श पर सूखा घास-फूस डालकर जला देने से उसके भीतर तथा बाहर पूर्ण विसंक्रमण हो जाता है तथा परजीवियों की सभी अवस्थायें नष्ट हो जाती है।
- प्रतिवर्ष बाड़ों की जमीन की मिट्टी कम से कम 1 इंच तक खोदकर निकाल दें तथा नई साफ मिट्टी भर देने से संक्रमण की सम्भावना कम हो जाती है।
- बकरियों को नमी युक्त चरागाहों, तालाबों, नदियों व बांधों के आसपास नहीं चरानी चाहिए तथा पीने के लिए स्वच्छ व ताजा कुएं या हैंड पम्प का पानी दें।
- बाड़े में समय – समय पर कीटनाशक दवा का छिड़काव करें।
- बकरियों को पौष्टिक तथा खनिज पूरित आहार दें।
- रोग्रस्त पशु को अलग रखकर उनका पशु चिकित्सक के निर्देशानुसार उपचार करें।
Authors
बिभा कुमारी१ एवंं रणवीर कुमार सिंहा२
1विशेषज्ञ (पशु चिकित्सा एवं पशुपालन) , कृषि विज्ञान केन्द्र, अरवल
2सहायक प्रध्यापक, औषधि विभाग , बिहार पशु चिकित्सा महाविद्यालय, पटना
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