9 Major diseases and parasites of goats

बकरियों में होने वाले विभिन्न रोग, उनके कारण, लक्षण, उपचार और रोकथाम के उपायों के बारे में व्यवहारिक ज्ञान होना अति आवश्यक है जिससे बकरी पालक रोगों द्वारा होने वाली हानि से बच सकता है।

बकरियों में होने वाली बीमारियों का संक्षेप में विवरण यहा दिया जा रहा है जिसको ध्यान में रखकर बकरी पालक अपने रेवड़ में आयी बीमारी की पहचान कर अपने निकटतम पशुचिकित्सक से सलाह लेकर उपचार करवा सकता है-

1. फड़किया (इन्ट्रोटॉक्सिमियां) :

बकरियों की यह एक प्रमुख बीमारी है जो अधिकतर वर्षा ऋतु में फेलती है। एक साथ रेवड़ में अधिक बकरियां रखने, आहार में अचानक परिवर्तन तथा अधिक प्रोटीनयुक्त हरा चारा खा लेने से यह रोग तीव्रता से बढ़ता है।

यह रोग क्लासट्रिडियम परफिजेंन्स नामक जीवाणु के विष के कारण पैदा होता है। साधारणत: इस बीमारी में अफारा हो जाता है। अधिक ध्यान से दिखने पर बकरी के अंगों में फड़कन (कम्पन्न) सी दिखाई देती है इसी कारण इसे फड़किया रोग के नाम से जाना जाता है।

इस रोग में पशु लक्षण प्रकट होने के 3-4 घण्टे में मर जाता है। पेट में दर्द के कारण बकरी पिछले पेंर मारती है तथा धीरे-धीर सुस्त होकर मर जाती है। यही इस रोग का प्रमुख लक्षण है।

वर्षा का मौसम शुरू होने से पहले 3 माह से उपर की सभी बकरियों को इसका रोग प्रतिरोधक टीका लगवा देना चाहिए।

पहली बार टीका लगे पशुओं को बुस्टर खुराक हेतु 15 दिन के अन्तर पर फिर टीका लगवा देना चाहिए। उत्ताम रख-रखाव तथा अचानक चारे में परिवर्तन न होने देना, इस बीमारी से बचने में सहायक होते है।

2. बकरी चेचक (माता) :-

यह एक विषाणुजनित रोग है जो रोगी बकरी के सम्पर्क में आने से फेलता है। इस रोग में शरीर के उपर दाने निकल आते है। बीमार बकरियों को बुखार हो जाता है साथ ही कान, नाक, थर्नो व शरीर के अन्य भागों पर गोल-गोंल लाल रंग के चकते हो जातें है जो फुोले का रूप लेकर अन्त में फूट कर घाव बन जाते हैं।

बकरी चारा खाना कम कर देती है तथा उसका उत्पादन कम हो जाता है। कहीं पर यदि पानी रखा हो तो जानवर अपना मुंह पानी में डालकर रखता है।

रोग के प्रकोप से बचने के लिए प्रतिवर्ष वर्षा से पहले रोग प्रतिरोधक टीके लगवाने चाहिए। बीमारी होने पर एंटीबायोटिक्स प्रयोग करना चाहिए। जिससे दूसरे प्रकार के कीटाणुओं के प्रकोप को रोका जा सकता है।

बीमार पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए तथा रोगी पशु के बिछोने तथा खाने से बची सामग्री और मृत पशु को जला या जमीन में गाड़ देना चाहिए।

3. खुर-मुंह पका रोग :-

यह बकरियों का एक संक्रामक रोग है। यह रोग वर्षा ऋतु के आने के बाद आरम्भ होता है। इस रोग में बकरियों के खुर व मुंह में छाले पड़ जाते है। तथा मुंह से लार टपकती रहती है और बकरी इससे चारा नहीं खा पाती है।

पैरों में जख्म हो जाने से बकरियां लंगड़ा कर चलने लगती है। चारा न खा पाने का कारण बकरियां कमजोर हो जाती है, जिससे मृत्युदर बढ़ जाती है तथा इनका शारीरिक भार व उत्पादन भी कम हो जाता है।

इस रोग के विषाणु रोगी पशुओं के सम्पर्क से संक्रमित आहार व जल के ग्रहण करने से स्वस्थ बकरियों में प्रवेश करते है। अत: रोगी पशुओं को एक एक दम दूसरे स्वस्थ पशुआें  से अलग कर देना चाहिए। इस रोग से प्रभावित बकरियों के अंगों को फिटकरी या लाल दवा के घोल से धोना चाहिए।

छालों पर मुख्य रूप से ग्लेसरिन लगाने पर लाभ रहता है वर्षा ऋतु से पहले ओर बसन्त के आरम्भ में बकरियों को पोलीवेलेन्ट टीका लगा देना चाहिए। रोगी बकरियों को दूसरे पशुओं से अलग कर उपचार करना चाहिए तथा उन्हें समूह से ठीक होने तक अलग रखना चाहिए।

4. निमोनिया :-

इसे फेफड़े का रोग भी कहते है। बकरियों में श्वास सम्बन्धित बीमारी या निमोनिया रोग प्राय: अधिक मात्रा में होता है। इस रोग में पशु के फेफड़ों व श्वसन तंत्र में सूजन आ जाती है। जिससे उनके श्वासव लेने में कठिनाई आती है। इस रोग के कारण बकरियों में तथा उनके बच्चों में मृत्युदर अधिक होती है।

यह रोग जीवाणु व विषाणु दोनों के प्रभाव से पनप सकता हैं लेकिन पश्चुरेला हीमालिटिका नामक जीवाणु इस रोग को फेलाने में काभी सक्रिय माना जाता है। ठंडा तथा प्रतिकूल मौसम के कारण यह रोग अति तीव्रता से फेलता है।

बकरी को तेज बुखार आता है तथा उसके मुंह, नाक से पानी जैसा द्रव्य निकलता है, खाना-पीना छोड़ देती है तथा सुस्त सी समूह से अलग खड़ी रहती है।

छोटे बच्चों को यह रोग विशेष रूप से प्रभावित करता है। निमोनिया एक श्वास रोग रोग होने के कारण इसके कारण रोगी पशु को सूंघने व छींकने से स्वस्थ पशु मे चले जाते हैं।

यदि बकरियों में जीवाणु द्वारा निमोनिया का जल्दी ही पता चल जाये तो एन्ईबायोटिक उपचार से इस रोग का निदान हो सकता है। वायरस जनित रोग में एन्टीबायोटिक देने से दूसरे सामान्य जीवाणुओं को बढ़ने से रोका जा सकता है।

पश्चुरेला से जनित निमोनिया को स्ट्रेप्टोपैंसलीन या एम्पसलीन 3-4 दिन देने से अधिक लाभ होता है। माइक्रोप्लाज्मा जनित निमोनिया में ऑक्सीटैट्रासाइक्लीक काफी उपयोगी है।

बकरियों के आवास व वातावरण का उचित प्रबन्ध तथा पूर्ण आहार देने से इस रोग की सम्भावना कम हो सकती है। बकरियों व खास कर बच्चें को अधिक ठंड व वर्षा से बचाने का उपाय करना चाहिए। बीमार बकरी को अलग रखकर उपचार करना चाहिए।

5. जोन्स रोग (पैराटयूबरकुलसता) :-

इस बीमारी का प्रमुख लक्षण बकरी का दिन प्रतिदिन अधिक दुर्बल होना और उसकी हड्डीयां दिखाई देना है। यह रोग रोगी बकरी के सम्पर्क में आने से फेलता है। इस बीमारी के लिए भी कोई ठीका उलब्ध नहीं है। तथा अन्त में बकरी मर जाती है। यह एक खतरनाक बीमार है जिन रेवड़ में यह फेल जाती है, धीरे-धीरे रेवड़ समाप्त कर देती है, इसलिए जैसे ही इस बीमारी से ग्रस्त पशु दिखाई दें उन्हें तुरन्त खत्म कर देना चाहिए। रेवड़ में अधिक भीड़ नहीं होने देनी चाहिए।

6. जीवाणुज गर्भपात :-

जो बकरी एक बार बच्चा गिरा देती है वह बकरी पालक के लिए अगले बच्चे तक भार बन जाती है जिससे बकरी पालक को आर्थिक हानि का सामना करना पड़ता है। गर्भपात एक संक्रमक रोग है जो ब्रुसलोसिसस, सालमोगेल्लोसिस, विबियोसिस, क्लेमाइडियोसिस आदि इस संक्रमक रोग के मुख्य कारक है।

रोगी बकरी से जीवाणु बच्चेदानी के स्राव, मूत्र, गोबर प्लेसेन्टा आदि द्वारा बाहर निकलते हैं तथा स्राव से सने हुए चारे खाने, पशु की योनि चाटने, सम्भोग से स्वस्थ पशु रोग ग्रसित होकर बार-बार बच्चा गिराता हैं।

रोगी बकरी के सम्पर्क द्वारा यह रोग बकरों की जननेन्द्रियों को प्रभावित करके उनको रोग ग्रसित कर देता है जो कि इस रोग के संवाहक बन जाते हैं।

रोग ग्रस्त बकरी में मुख्य लक्षण कुमसमय गर्भपात होना है। गर्भपात होने से पहले योनि में सूजन आ जाती है तथा बादामी रंग का स्राव पैदा होता हैं और थन सूजकर लाल हो जाते हैं।

इस बीमारी के ईलाज व बचाव के लिए रोगी पशु को एकदम अलग कर देना चाहिए। उनके बाड़े साफ रखने चाहिए। रोगी बकरी के पिछले भाग को कीटनाशक दवाईयों, जैसे लाल दवाई आदि से साफ करते रहना चाहिए तथा बच्चे दानी में भी फुरियाबोलस या हेबीटिन पैसरी आदि दवाइयां डालना चाहिए। उचित निदान के बाद रोग ग्रसित नर व मादा को समूह में नही रखना चाहिए तथा साथ ही इनका प्रजनन हेतु प्रयोग नही करना चाहिए।

7. खुर गलन रोग :-

बकरियों में वर्षा से सर्दियों तक रहने या होने वाला यह एक प्रमुख रोग है। यह रोग स्पिरोफोरस, नेक्रोफोरिस नामक जीवणु से पैदा होता है। मुख्य रूप से यह रोग गीली मिट्टी तथा वर्षा ऋतु में अधिकता से फेलता है।

इस रोग में बकरी एक या अधिक पैरों से लंगड़ा कर चलती है। जिससे वे ठीक से चर भी नहीं पाती व धीरे-धीरे कमजोर हो जाती है। इसमें खुरों के बीच का मांस व खाल सड़कर मुलायम पड़ जाती है तथा एक अजीब सी दुर्गन्ध पैदा होती है।

इस रोग से बचाव के लिए बाड़े के दरवाजे पर पैर-स्नान (फुटबाथ) बनाकर नीला थोथा आदि दवा के घोल में पशु को लगभग 5 मिनिट तक खड़ा कर के बाहर चरने भेजना चाहिए।

खुर के बीच के घाव को ठीक से साफ कर 10 प्रतिशत नीला थोथा या 5 प्रतिशत फार्मलीन से धोने पर आराम मिलता है तथा रोग का प्रकोप भी कम हो जाता है। इस रोग से बचाव के लिए पशुओं को गीले चरागाह में चरने के लिए नहीं भेजना चाहिए। खुरों के बढ़े हुए भाग को काटकर निकालते रहना चाहिए।

8. आफरा :-

यह बकरियों में मुख्य रूप से पाया जाने वाला रोग है, इसमें गैसों के बनने व इकट्ठा होने से पेट फूल जाता है। यह रोग अधिकतर बरसात में या बरसात के बाद भीगी हरी घास या जब पशु जरूरत से अधिक चारा खा लेते है या खड़ा फुूंद युक्त दाना या चारा खा लेते है जिससे अधिक गैस बनती हो, हो जाता है।

कई बार बुत सी बीमारियों की वजह से पशु बहुत समय तक एक ही करवट लेता रहता है तब उसकी पाचन क्रिया सही ढंग से नहीं हो पाती, जिससे पेट में गैस इकट्ठी होकर इस रोग का कारण बनती है।

पेट में बनी गैस शरीर से बाहर न निकलने पर अन्दर अन्य भागों पर दबाब डालती है, जिससे मुख्य रूप से फेफड़े प्रभावित होते हैं तथा पशु को सांस लेने में परेशानी होती है। पशु काफी बैचेन हो जाता है तथा पेट का बांयी ओर का भाग फूल जाता है, यदि पेट पर हल्के-हल्के हाथ मारे एक ढप-ढप् सी आवाज आती है।

पशु के मुंह से झाग आने लगते हैं तथा दर्द के कारण बैचेन होकर पेट पर आत (पैर) मारता है। समय पर उपचार न होने पर बकरी एक करवट गिर जाती है। तथा कुछ समय पश्चात उसकी मृत्यु हो जाती है।

अफारा की पहचान होने पर पशु चिकित्सक को बुलाकर ट्रोकर केनुला की सहायता से पेट की गैस निकाल दें। बकरी की आगे की टांगो ऊंचाई पर रख कर धीरे-धीरे पेट की मालिश करे जिससे गैस पेट से निकल जाती है तथा फेफड़ों पर दबाव कम पड़ता है।

पशु को तारपीन का तेल 10-15 ग्राम, हींग 2 ग्राम व अलसी का तेल 70 ग्राम मिलाकर पिलाने से लाभ मिलता है। पिलाते वक्त ध्यान रखें कि तेल फेफड़ों में न जाने पाये।

बकरियों को हरा तथा भीगा चारा अधिक मात्रा में अकेले नहीं खिलाना चाहिए। अफारा से बचने के लिए पशुओं को सड़-गला चारा व अधिक मात्रा में दाना नहीं खिलाना चाहिए।

9. कोलीबेसिलोता (दस्त) :-

यह रोग मुख्य रूप से बच्चों में 2-3 सप्ताह की उम्र में होता है। इस रोग का मुख्य कारण इकोलाई नामक जीवाणु होता है। बच्चों में इस रोग के कारण बुखार आ जाता है और उनकों तेज दस्त हो जाते है तथा खाना-पीना छोड़ देते है।

इस रोग से बचाव के लिए बच्चे को शुरू से दिन में 4-5 बार बच्चें की आवश्यकतानुसार खींस पिलाना चाहिए जिससे उनमें रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती हे। इस रोग में प्रतिजैविक दवाये जैसे डाइजीन के साथ नियोगायसिन सेप्ट्रोन इत्यादि लाभ दायक सिध्द हुई है।

परजीवी से फेलने वाले रोग

1. अन्त: परजीवी :-

वे परजीवी जो बकरियों में उनकी आहार नाल, रक्त या यकृत आदि में निवास करते हैं, जैसे फीताकृमि, गोलकृमि, हिमन्कस व काक्सिडिया आदि। ये मुख्य रूप से अपना पोषण बकरी के शरीर से प्राप्त करते हैं और उनमें अनेक रोग उत्पन्न करके पशु को कमजोर बना देते हैं, तथा कई बार उनकी मृत्यु का करण बनते है।

काक्सिडियता :-

इस रोग को अतिसार भी कहते हैं इससे अधिक दस्त आने के कारण बकरी कमजोर पड़ जाती है। ठंड के मौसम में यह अधिक फेलता है तथा इस रोग में बकरियाें को बदबूदार दस्त आते हैं तथा पाचन क्रिया प्रभावित होने से शरीर में खून की कमी हो जाती है।

बच्चों में यह मृत्युदर को भी बढ़ा देता है। इस रोग के फेलने का कारण प्रोटोजोआ परजीवी होता है। गंदे पानी व दूषित चारे के उपयोग से ये शरीर में प्रवेश करते है।

इस रोग में पशु को 0.2 ग्राम प्रति किग्रा शरीर भार के हिसाब से सल्फामैजाथीन देना लाभकारी होता है। एम्प्रोसाल 20 प्रतिशत घोल, 100 मिग्रा. प्रति किग्रा. शरीर भार पर 3-4 दिन तक लगातार पिलाना चाहिए। बाड़े की सफाई का ध्यान रखना चाहिए तथा पशुआें की संख्या को सीमित रखना आवश्यक है।

हिमन्कस (खूनी दस्त) :-

बकरियों में यह खूनी दस्त रोग हिमन्कस आदि परजीवी द्वारा फेलता है। इस बीमारी में पशुओं को खून के साथ दस्त आते है। खून की कमी के कारण बकरियों की आंखों की पुतलियां सफेद पड़ जाती है और शरीर कमजोर पड़ जाता है तथा हड्डियां नजर आने लगती है।

रोग की रोकथाम के लिए बाड़े एवं चरागाह की सफाई कीटाणुनाशक से करना आवश्यक है। रोग होने पर बकरियों की नीलवर्म 10-15 मिग्रा प्रति किग्रा. शरीर भार या पैनाकुर 4-5 प्रति किग्रा. शरीर भार के अनुसार देना लाभदायक होता है।

फीतकृमि :-   

ये परजीवी बकरियों में काफी प्रचलित है, रोगी बकरी का मांस सेवन से ये परजीवी मुनष्यों में भी प्रवेश कर रोग फेलाते हैं। रोगी बकरियों की मैंगनी के साथ फीता कृमिक टुकड़े बाहर आने लगते है तथा प्रभावित बकरियां कमजोर पड़ जाती है।

इस कृमि से बचने के लिए रोगी पशु को 10 ग्राम पैनाकुर प्रति किग्रा शरीर भार की दर से देना लाभकारी होती है। समय-समय पर बकरियों को कृमि हारी दवाई पिलानी चाहिए।

2. बाह्य परजीवी :-

ये परजीवी बकरी की त्वचा पर निवास करते हैं जिससे त्वचा रूखी-सूखी पड़ जाती है तथा उस स्थान से बाल गिरने लगते हैं। इससे प्रभावित पशु सुस्त पड़ जाते है, परजीवी के रक्त चूसने के करण बकरी कमजोर हो जाी है तथा एनीमिया हो जाता है और उनका उत्पादन घट जाता है।

बकरियों में ये परजीवी पूंछ या गुदा के आस-पास, जांघ के अन्दरूनी भाग की खाल से चिपके हुये पाये जाते है। ये बकरी का रक्त पीकर अपना जीवन पूरा करते हैं। त्वचा पर दाद, खाज व खुजली आदि के अतिरिक्त कुछ घातक रोग जैसे पीलिया (लाल पेशाब की बीमारी), थाइलेरियता, बेबसियता, एनप्लाज्मता आदि कीटाणुओं से पैदा होने वाले रोगों को फेलाने में भी सहायक है।

बकरियों में जुएं व किलनियां (चींचड़) आदि बाह्य परजीवी मुख्य है। बकरियों में खाज की आरम्भिक अवस्था में शरीर पर छोट-छोटे लाल दाने पड़ते है तथा खुजली होने के कारण पशु शरीर को खम्बे, दीवार व फेन्सिग आदि से रगड़ता है जिससे वह अपने शरीर को घायल कर देता है।

किलनियां नमीयुक्त अंधेरे स्थानों पर बाड़े में छिपी रहती है तथा हजारों की संख्या में जमीन पर अंडे देती है। अधिकतर ये पेट, दोनों जांघों के मध्य भाग, कान तथा पूंछ की नीचे चिपकी रहती है। किलनी, जूं की अपेक्षा अधिक हानिकारक होती है क्योंकि ये कुछ रोगी पशु से दूसरे स्वस्थ पशुओं तक पहुंचती है।

बकरियों को स्वस्थ रखने व विभिन्न रोगों से बचाने के लिए उनको दवा के पानी ने नहलाना (डिपिंग) ही एक सरल उपयोगी तरीका है। बकरियों को नहलाने के लिए डिपिंग टेंक में 0.2 प्रतिशत का सायथियाना या 0.2 प्रतिशत मैलाथियान का घोल बनाकर नहलाना चाहिए। बकरियों को दवा के पानी से नहलाने के समय निम्न बातों को ध्यान में रखना अति आवश्यक है-

सभी बकरियों को नहलाने से पहले पानी पिला देना चाहिए अन्यथा बकरी दवा का पानी पी सकती है जिससे पशु की मृत्यु हो सकती है। वर्षा या अधिक ठण्ड के दिनों में नहीं नहलाना चाहिए।नहलाने वाला दिन सूखा हो तथा नहलाने का कार्य सुबह ही कर लेना चाहिए। कमजोर व अस्वस्थ पशु को न नहलायें। नहलाने से पहले देख लेना चाहिये कि शरीर पर घाव आदि न हो।

कमजोर व बीमार तथा पानी की कमी वाले स्थान पर बकरियों को नहलाने की बजाय पोर-ऑन या दवा को पीठ पर डालना चाहिए। साइपरमेथन या पोरआम्न दवा को 1 मिली. लीटर प्रति पांचा किलो शरीर भार के अनुसार उपयोग में लानी चाहिए। दवा के उचित मात्रा को एक बीकर में लेकर की पीठ पर कन्धे से लेकर पीछे तक डाल देनी चाहिए।

बकरियों को वर्ष में 2-3 बार दवा के पानी से नहलाना उचित रहता है तथा बाड़ों की नियमित सफाई व उनको किटाणु रहित रखना चाहिए। वर्ष में कम से कम एक बार बाड़े की मिट्टी खुदवाकर बदल देना चाहिए और उसमें चूना मिला देना चाहिए व दीवारों पर पैराथियान आदि का बुरकाव तथा कभी-कभी नीम की पत्तिायों का धुंआ भी कर देना चाहिए।

कुछ समय तक पशुओं को इस तरह के बाड़े में नहीं रखना चाहिए ऐसा करने से बाड़े की मिट्टी में उपस्थित सभी कीटाणु पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेगें। एक सप्ताह बाद पशुओं को बाड़े में रख सकते है।


Authors:

ड़ॉ. रोहिताश कुमार डॉ टीकम गोयल ड़ॉ. देवी सिंह राजपूत

पशुचिकित्सा एवं पशुपालन प्रसार शिक्षा विभाग ;

पशुचिकित्सा एवं पशुविज्ञान महाविद्याालय , नवानियां, वल्लभनगर

(राजस्थान पशुचिकित्सा एवं पशुविज्ञान विश्वविद्याालय, बीकानेर)

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