Main components of natural farming and benefits of their use

प्राकृतिक खेती एक कृषि पद्धति है जो रसायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और जुताई के बिना खेती करने पर जोर देती है इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए स्वस्थ और प्राकृतिक उत्पाद उगाना है। यह पद्धति मासानोबू फुकुओका का द्वारा विकसित की गई थी जिसे फुकुओका विधि भी कहा जाता है। जिसमें केवल प्राकृतिक आदानों का उपयोग किया जाता है।

प्राकृतिक खेती फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है, जिससे कार्यात्मक जैव विविधता के इष्टतम उपयोग की सुविधा मिलती है। प्राकृतिक खेती मिट्टी की उर्वरता और पर्यावरणीय स्वास्थ्य की बहाली, और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का शमन या निम्नीकरण, प्रदान करते हुए किसानों की आय बढ़ाने का मजबूत आधार प्रदान करती है।

प्राकृतिक खेती प्राकृतिक या पारिस्थितिक प्रक्रियाओं, जो खेतों में या उसके आसपास मौजूद होती हैं, पर आधारित होती है। इसके साथ-साथ पशुओं जैसे गाय व भैंस के मल-मूत्र आदि के विघटन से विभिन्न प्रकार के जैविक खाद जैसे जीवामृत, घन जीवामृत, नीमास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि तैयार किए जाते हैं तथा साथ ही साथ बीजामृत जैसे बीजोपचार से बीजों का शोधन भी किया जाता है यह बहुत ही सस्ती व आधुनिक समय की एक बहुत ही महत्वपूर्ण जैविक खादों में से एक है।

प्राकृतिक खेती के सिद्धांत

1. पहला सिद्धांत है, खेतों में कोई जुताई नहीं करना। यानी न तो उनमें जुताई करना, और न ही मिट्टी पलटना। धरती अपनी जुताई स्वयं स्वाभाविक रूप से पौधों की जड़ों के प्रवेश तथा केंचुओं व छोटे प्राणियों, तथा सूक्ष्म जीवाणुओं के जरिए कर लेती है।

2. दूसरा सिद्धांत है कि किसी भी तरह की तैयार खाद या रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न किया जाए। इस पद्धति में हरी खाद और गोबर की खाद को ही उपयोग में लाया जाता है।

3. तीसरा सिद्धांत है, निंदाई-गुड़ाई न की जाए। न तो हलों से न शाकनाशियों के प्रयोग द्वारा। खरपतवार मिट्टी को उर्वर बनाने तथा जैव-बिरादरी में संतुलन स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। बुनियादी सिद्धांत यही है कि खरपतवार को पूरी तरह समाप्त करने की बजाए नियंत्रित किया जाना चाहिए।

4. चौथा सिद्धांत रसायनों पर बिल्कुल निर्भर न करना है। जोतने तथा उर्वरकों के उपयोग जैसी गलत प्रथाओं के कारण जब से कमजोर पौधे उगना शुरू हुए, तब से ही खेतों में बीमारियां लगने तथा कीट-असंतुलन की समस्याएं खड़ी होनी शुरू हुई। छेड़छाड़ न करने से प्रकृति-संतुलन बिल्कुल सही रहता है।

प्राकृतिक खेती की आवश्यकता

आजकल कृषि में रासायनिक खादों व कीटनाशकों का बहुतायत में उपयोग किया जा रहा है जिससे फसल उत्पादन तो अधिक प्राप्त हो जाता है परंतु इसके साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है तथा साथ ही साथ कृषि उपज के उपभोग से मानव स्वास्थ्य पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। कृषि उपज की गुणवत्ता, रसायनिक उर्वरकों व कीटनाशकों के प्रयोग से न केवल दिन पर दिन कम होती जा रही है वरन मनुष्य पर इसका हानिकारक प्रभाव जैसे बहुत ही भयंकर बीमारियां आदि उत्पन्न हो रही है। पिछले कई वर्षों से खेती में काफी नुकसान देखने को मिल रहा है। इसका मुख्य कारण हानिकारक रासायनिक खादों व कीटनाशकों का उपयोग है। इसमें लागत भी बढ़ रही है। किसानों की पैदावार का आधा हिस्सा उनके उर्वरक और कीटनाशक खरीदने में ही चला जाता है। यदि किसान खेती में अधिक मुनाफा या फायदा कमाना चाहता है तो उसे प्राकृतिक खेती की तरफ अग्रेसर होना चाहिए।

प्राकृतिक खेती के फायदे

 प्राकृतिक खेती के आदान साधारण किसान अपने घर या फार्म पर आसानी से तैयार कर सकता है तथा इसका फसलों पर प्रभाव बहुत ही स्थाई होता है, इसके प्रयोग से न केवल उत्पादन अधिक प्राप्त होता है बल्कि इसका भूमि पर भी कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है यह भूमि की उर्वराशक्ति को बढ़ाता है तथा यह बहुत ही सस्ती खाद होती है।

 कृषकों की दृष्टि से

  1. भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि हो जाती है।
  2. सिंचाई अंतराल में वृद्धि होती है।
  3. रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में कमी आती है।
  4. फसलों की उत्पादकता में वृद्धि।
  5. बाजार में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ने से किसानों की आय में भी वृद्धि होती है।

मृदा की दृष्टि से

  1. जैविक खाद के उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है।
  2. भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती है।
  3. भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम होगा।

पर्यावरण की दृष्टि से

  1. भूमि के जलस्तर में वृद्धि होती है।
  2. मिट्टी, खाद्य पदार्थ और जमीन में पानी के माध्यम से होने वाले प्रदूषण में कमी आती है।
  3. कचरे का उपयोग, खाद बनाने में, होने से बीमारियों में कमी आती है।
  4. फसल उत्पादन की लागत में कमी एवं आय में वृद्धि
  5. अंतरराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद की गुणवत्ता का खरा उतरना।

प्राकृतिक खेती के आदानों को बनाने की विधियां :-

बीजामृत (बीज अमृत) निर्माण की विधि

बुवाई करने से पहले बीजों का संस्कार अथवा संशोधन करना बहुत जरूरी है। इसके लिए बीजामृत बहुत ही उत्तम है। बीजामृत द्वारा शुद्ध हुए बीज जल्दी और ज्यादा मात्रा में उगते हैं। जड़ें तेजी से बढ़ती हैं। पौधे, भूमि द्वारा लगने वाली बीमारियों से बचे रहते है एवं अच्छी प्रकार से पलते-बढ़ते है। जीवामृत की भांति ही बीजामृत में भी वही चीजें डाली हैं जो हमारे पास बिना किसी कीमत के मौजूद है।

100 किलोग्राम बीज के लिए बीजामृत बनाने के लिए आवश्यक सामग्री:-

  1. देशी गाय का गोबर 5 कि.ग्रा 2. गोमूत्र 5 लीटर 3. चूना या कली 250 ग्राम  4. पानी 20 लीटर  5. खेत की मिट्टी मुट्ठी भर

इन सभी पदार्थों को पानी में घोलकर 24 घंटे तक रखें। दिन में दो बार लकड़ी से इसे हिलाना है। इसके बाद बीजों के ऊपर बीजामृत डालकर उन्हें संस्कार अथवा संशोधन करना है। उसके बाद छाया में सुखाकर फिर बुवाई करनी है।

जीवामृत के फायदे एवं जीवामृत बनाने की विधि:-

जीवामृत एक अत्यधिक प्रभावशाली जैविक खाद है जिसे गोबर के साथ पानी मे कई और पदार्थ जैसे गौमूत्र, बरगद या पीपल के नीचे की मिटटी, गुड़ और दाल का आटा मिलाकर तैयार किया जाता है. जीवामृत पौधों की वृद्धि और विकास के साथ साथ मिट्टी की संरचना सुधारने में काफी मदद करता है यह पौधों में अनेक रोगाणुओं से सुरक्षा करता है तथा पौधों की प्रतिरक्षा क्षमता को भी बढ़ाने का कार्य करता है, जिससे पौधे स्वस्थ बने रहते हैं तथा फसल से बहुत ही अच्छी पैदावार मिलती है.

जीवमृत बनाने की सामग्री

1.प्लास्टिक का एक ड्रम (लगभग 200 लीटर) 2.10 किलो देशी गाय का गोबर 3.10 लीटर पुराना गौमूत्र 4.1-2 किलो गुड

5.एक मुट्ठी बरगद या पीपल के पेड़ के नीचे की मिट्टी 6. 1-2 किलो दाल का आटा/बेसन 7. 1 ढकने का कपड़ा 8. 180 लीटर पानी

जीवामृत निर्माण की विधि

सबसे पहले एक प्लास्टिक बड़ा ड्रम लिया जाता है जिसे छायां में रखकर दिया जाता है इसके बाद 10 किलो देशी गाय का ताजा गोबर, 10 लीटर पुराना गोमूत्र, 1-2 किलोग्राम किसी भी दाल का आटा/बेसन (अरहर, चना, मूंग, उड़द आदि का आटा), 1-2 किलो पुराना सड़ा हुआ गुड़ तथा एक मुट्ठी बरगद या पीपल के पेड़ के नीचे की मिट्टी को 180 लीटर पानी में अच्छी तरह से लकड़ी की सहायता से मिलाया जाता है अच्छी तरह मिलाने के बाद इस ड्रम को कपड़े से इसका मुह ढक दें। इस घोल पर सीधी धूप नही पड़नी चाहिए, अगले दिन भी इस घोल को फिर से किसी लकड़ी की सहायता से दिन में दो या तीन  बार हिलाया जाता है. लगभग  5-6 दिनों तक प्रतिदिन इसी कार्य को करते रहना चाहिए। लगभग 6-7 दिन के बाद, जब घोल में बुलबुले उठने कम हो जाये तब समझ लेना चाहिए कि जीवामृत तैयार हो चुका है. जीवामृत का बनकर तैयार होना ताप पर भी निर्भर करता है अतः सर्दी में थोड़ा ज्यादा समय लगता है किन्तु गर्मी में 2 दिन पहले तैयार हो जाता हो जाता है।

जीवामृत का प्रयोग

फसल को दी जाने वाली प्रत्येक सिंचाई के साथ 200 लीटर जीवामृत का प्रयोग प्रति एकड़ की दर से उपयोग किया जा सकता है, अथवा इसे अच्छी तरह से छानकर बूंद-बूंद या स्पिं्रकलर सिंचाई के माध्यम से भी प्रयोग कर सकते है, जो कि एकड़ क्षेत्र के लिए पर्याप्त होता है, छिड़काव के लिए 10 से 20 लीटर तरल जीवामृत को 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव किया जा सकता है।

घन जीवामृत

घनजीवामृत एक अत्यन्त प्रभावशाली जीवाणुयुक्त सूखी खाद है जिसे देशी गाय के गोबर में कुछ अन्य चीजें मिलाकर बनाया जाता है। यह विधि भी बिल्कुल जीवामृत बनाने की तरह ही है इसमें जब जीवामृत तैयार हो जाता है तब इसे गाय के गोबर के साथ मिलाकर 48 से लेकर 72 घंटे तक छाया में विघटित होने के लिए रखा जाता है इसके बाद यह खेत में प्रयोग करने के लिए तैयार हो जाता है। अथवा इसे बनाने के लिये 100 किग्रा देसी गाय के गोबर को, 2 किग्रा गुड़, 2 किग्रा दाल का आटा और 1 किग्रा सजीव मिट्टी (पेड़ के नीचे की मिट्टी या जहां रासायनिक खाद न डाली गयी हो) डाल कर अच्छी तरह मिश्रण बना लें. इस मिश्रण में थोड़ा थोड़ा गोमूत्र डालकर अच्छी तरह गूंथ लें ताकि घन जीवामृत बन जाए।

जीवामृत और घन जीवामृत दोनों को ही खेत में बुवाई से पहले मिट्टी में अच्छी तरह से मिला दिया जाता है। इसके बाद खेत में लाभदायक केंचुए जो मिट्टी के अंदर रहते हैं वह मिट्टी के ऊपर आ जाते हैं जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाती है और इससे मिट्टी की उर्वराशक्ति में काफी हद तक सुधार होता है। इसके साथ-साथ उत्पादन व फसल उपज की गुणवत्ता भी इनके प्रयोग से काफी अच्छी हो जाती है।

नीमास्त्र

नीमास्त्र का उपयोग बीमारियों को रोकने या ठीक करने और उन कीड़ों या लार्वा को करने के लिए किया जाता है जो पौधे के पत्तों को खाते हैं अथवा पौधों का रस चूसते हैं इससे हानिकारक कीड़ों के प्रजनन को नियंत्रित करने में भी मदद मिलती है नीमास्त्र को तैयार करना बहुत सरल है और यह प्राकृतिक खेती के लिए एक प्रभावी कीट प्रतिरोधी और जैव कीटनाशक है।

नीमास्त्र बनाने की विधि

 सर्व प्रथम एक ड्रम में 200 लीटर पानी ले और उसमें 10 लीटर गोमूत्र डालें फिर इसमें 2 किलो देसी गाय का गोबर मिलाएं इसके बाद इसमें 10 किलो नीम की पत्तियां का बारीक पेस्ट या 10 किलो नीम के बीज का गुदा मिलाए। फिर इसमें एक लंबी छड़ी से दक्षिणावर्त घूमाएं और एक बोरी से ढक दें फिर इससे छाया में रखें क्योंकि यह धूप या बारिश के संपर्क में नहीं आना चाहिए घोल को रोज सुबह और शाम घड़ी की सुई की दिशा में हिलाएं।

 नीमास्त्र 48 घंटे के बाद यह प्रयोग के लिए तैयार हो जाता है इसे 6 महीने तक उपयोग के लिए भंडारित किया जा सकता है नीमास्त्र को पानी से पतला नहीं करें इस तैयार गोल को मलमल के कपड़े से छान कर और पते पर स्प्रे के माध्यम से सीधे फसल पर छिडकाव करे।

नियंत्रण:  नीमास्त्र  द्वारा सभी रस चूसने वाले कीट, एफिड,  जैसिड, सफेद मक्खी और छोटे कैटरपिलर को नियंत्रित किया जा सकता है।

ब्रह्मास्त्र

यह पत्तियों द्वारा तैयार किया गया एक प्राकृतिक कीटनाशक है। जिसमें कीटों को दूर रखने के लिए विशेष एल्केलॉइड होते हैं। यह फलियां और फूलों में मौजूद सभी रस चूसने वाले कीटों और छिपी हुई ईल्लियों को नियंत्रित करता है।

ब्रह्मास्त्र बनाने की विधि

सर्वप्रथम एक बर्तन में 20 लीटर गोमूत्र डालते हैं और इसमें 2 किलो नीम की पत्तियों का बारीक पेस्ट 2 किलो क्रंच की पत्तियों का पेस्ट 2 किलो सीताफल की पत्तियों का पेस्ट 2 किलो अरंडी की पत्तियों का पेस्ट और 2 किलो धतूरे की पत्तियों का पेस्ट को मिलाते हैं। इसमें एक या दो झाग (आति प्रवाह स्तर) तक धीमी आंच पर उबलते हैं इसके बाद घड़ी की सुई की दिशा में हिलाएं, फिर बर्तन को ढक्कन से ढक दें और इसे उबलते रहे। दूसरा झाग बनने के बाद, उबालना बंद कर दें और इसे 48 घंटे तक ठंडा होने के लिए रख दें ताकि पत्तियों में मौजूद अल्ककलॉइड मूत्र में मिल जाएं। दो दिन के बाद घोल को मलमल के कपड़े से छानकर रख लें इससे छाया में गमलों में (मिट्टी के बर्तन) या प्लास्टिक के ड्रम में रखना बेहतर होता है तैयार ब्रह्मास्त्र को 6 महीने तक उपयोग के लिए संग्रहित किया जा सकता है।

अनुप्रयोग:

ब्रह्मास्त्र की 6 से 8 लीटर मात्रा को 200 लीटर पानी में घोलकर, खड़ी फसल के पतों पर छिडकाव किया जा सकता है। कीट के हमले की गंभीरता के आधार पर इसका अनुपात निम्नानुसार बदला जा सकता है। 100 लीटर पानी में तीन लीटर ब्रह्मास्त्र, 15 लीटर पानी में आधा लीटर ब्रह्मास्त्र, 10 लीटर पानी में 300 मिलीलीटर ब्रह्मास्त्र

निष्कर्ष:-

अतः किसान भाइयों के लिए यह सभी जीवामृत, घन जीवामृत, बीजामृत, नीमास्त्र एवं ब्रह्मास्त्र बहुत ही लाभदायक सिद्ध हो रहा है जहां एक तरफ मिट्टी की उर्वराशक्ति में सुधार तथा फसल उपज की गुणवत्ता के साथ-साथ कीट प्रबंणन बहुत आसानी से हो जाता है तथा इनके बनाने में खर्च बिल्कुल नहीं आता है। किसानों को इस तरफ ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है तथा यही आधुनिक समय की मांग भी है।


 लेखक

श्री बजरंग लाल ओला1, डॉ‐ सुनील कुमार2, डॉ‐ सुशील कुमार शर्मा़3 ,डॉ‐ पी. के. राय4

1-सस्य विज्ञान विशेषज्ञ, 2- पौध संरक्षण विशेषज्ञ, 3-प्रधान वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष,

कृषि विज्ञान केन्द्र, गूंता, बानसूर, अलवर।।

4-निदेशक, सरसों अनुसंधान निदेशाालय, सेवर, भरतपुर