Transgenic Crops: Study in context of Pulses
दलहनी फसलें अति विशिष्ट होती हैं क्योंकि इनकी जड़ों में पाए जाने वाली ग्रंथिकाओं में वायुमंडलीय नत्रजन के स्थिरीकरण द्वारा मृदा उर्वरता को अक्षुण रखने की विलक्षण क्षमता होती है। दालों का मानव पोषण में, विशेषतौर पर विकासशील देशों में एक महत्वपूर्ण स्थान है।
भारत में शाकाहारी जनसंख्या के आहार में प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत दालें हैं। प्रोटीन के अतिरिक्त इनमें खनिज लवण तथा विटामिन्स भी पाये जाते हैं।
भारत दालों का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता तथा आयाताक देश है। भारत में दलहनी फसलों के अन्तर्गत वर्ष 2013-14 में कुल क्षेत्रफल 25.23 मिलियन हेक्टेयर तथा उत्पादकता 19.27 मिलियन टन थी। भारत कुल वैश्विक उत्पादन के 20 प्रतिशत तथा कुल क्षेत्रफल के एक तिहाई से अधिक क्षेत्र में हिस्सेदारी रखता है।
चना, अरहर, मूँग, उर्द , राजमा तथा मटर, भारत की प्रमुख दलहनी फसलें हैं। जैविक और अजैविक कारक चना और अरहर के उत्पादन को कम कर देते हैं। जैविक घटकों में कीट फसल उत्पादन को हानि पहुँचाने वाले प्रमुख कारक हैं। 200 से अधिक हानिकारक कीट जो कि 8 वंशों तथा 61 कुलों से सम्बन्धित है, अरहर की फसल को विभिन्न अवस्थाओं में हानि पहुँचातें हैं।
फली भेदक, हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा (लेपिडोप्टेरा: नॉक्ट्यूडी) तथा फली मक्खी, मिलेनोग्रोमाइजा आब्ट्यूसा (डिप्टेरा: एग्रोमाइजिडी) आदि भारत में अरहर के कीटों के रूप में जाने जाते हैं।
इसी तरह चने की फसल पर 11 प्रजातियों के कीट हमला करते हैं। इनमें से फली भेदक हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा और कटवर्म, एग्रोटिस इपसिलिआन प्रमुख विनाशकारी कीट हैं।
हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा अपनी उच्च पलायन क्षमता, प्रजनन क्षमता, कीटनाशक प्रतिरोधी प्रवृत्ति और बहुभक्षी प्रकृति के कारण राष्ट्रीय महत्व का कीट है। यह वर्ष भर एक फसल से दूसरी फसल पर पलायन करके जीवित रह सकता है ओैर इसी कारण यह फसल उत्पादन को भारी क्षति पहुँचाता है। इस हानिकारक कीट हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा के कारण भारत में दलहन उत्पादकता में दिन प्रतिदिन गिरावट आ रही है।
हाल के वर्षों में दालों की कीमतों में बढ़ोत्तरी होने के बावजूद किसान दलहन उत्पादन के प्रति उत्सुक नहीं हैं।
किसान बी.टी. कपास, मक्का और तिलहन (मुख्य रूप से सोयाबीन) जैसी नकदी फसलों की ओर आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि इन फसलों में जोखिम कम होता है तथा अधिक उत्पादन के साथ अच्छी आय की प्राप्ति हो जाती है।
बी.टी. यानि बैसिलस थुरिजिएन्सिस
परंपरागत रासायनिक कीटनाशकों का एक सर्वोत्कृष्ट विकल्प जैव कीटनाशक है जो कि वातावरण को बहुत कम अथवा बिल्कुल भी नुकसान नहीं पहुँचाता है। बैसिलस थुरिजिएन्सिस एक कीटनाशी ग्राम पॉजीटिव, बीजाणु बनाने वाला जीवाणु है जो कि अपनी स्थिर अवस्था में क्रिस्टेलाइन प्रोटीन उत्पन्न करता है जिसे डेल्टा एंडोटॉक्सिन कहते हैं।
बी.टी. की खोज मूल रूप से जापानी जीवविज्ञानी सिंगीटेन इशीवटारी ने सन् 1902 में रोग ग्रसित रेशम के कीड़े (बाँम्बेक्स मोराई) में की। परन्तु औपचारिक रूप इसे लक्षणित् सन् 1915 में अर्नस्ट बर्लिनर ने रोगग्रस्त फ्लोर मॉथ लार्वा में किया। उन्होने इसे बैसिलस थुरिजिएन्सिस नाम दिया। बी.टी. के जीवाणुओं में क्रिस्टल प्रोटीन पाया जाता है।
यह क्रिस्टल प्रोटीन का्रई जीन द्वारा कोडित रहती है। बीजाणु जनन के समय यह क्रिस्टल टॉक्सिन उत्पन्न करता है। इसी क्रिस्टलीय टॉक्सिन के कारण यह कीटनाशक होता है। क्रिस्टल प्रोटीन को डेल्टा एंडोटाक्सिन के नाम से भी जाना जाता है जो कि का्रई जीन द्वारा उत्पन्न होता है।
जब कीट इन बीजाणुओं को अर्न्तग्रहीत करता है तब उसके पेट में प्रोटीन के विदलन से डेल्टा एण्डोटॉक्सिन नामक विष उत्पन्न हो जाता हैं। यह विष आंत की दीवारों से जुड़कर उनमें छिद्र बना देता हैं जिसके परिणाम स्वरूप पाचन तंत्र लकवाग्रस्त हो जाता है तथा कुछ दिनों के प्श्चात् ही कीट की मृत्यु हो जाती है।
ट्रांसजेनिक फसल क्या है ?
ट्रांसजेनिक फसलें उन फसलों को कहा जाता है जिनमें स्वयं के आनुवंशिक पदार्थ (डी.एन.ए.) के अतिरिक्त अन्य जीवों के आनुवंशिक पदार्थों को जोड़ा जाता है अथवा उनमें बदलाव किया जाता है।
ट्रांसजेनिक फसल मुख्य रूप से जीन रूपान्तिरित फसल होती हैं। इनमें जीन का रूपान्तरण आनुवांशिक अभियांत्रिकी तकनीक द्वारा किया जाता है। निवेशित किया जाने वाला जीन दूसरी प्रजाति का अथवा दूसरे पौधे का हो सकता है।
ट्रांसजेनिक फसलें या तो सूक्ष्मजीवों (एग्रोबैक्टीरियम) का उपयोग करके अथवा विशेष भौतिक उपकरणों (उदाहरण - जीन गन) द्वारा विकसित की जाती है। प्रारम्भ में एग्रोबैक्टीरियम पद्धति द्वारा कुछ चुनिन्दा फसलों में ही यह तकनीक सफल हुई थी, परन्तु आधुनिक तकनीकों के विकास के बाद अब यह कई फसलों में जैसे - चावल, गेहूँ, मक्का तथा दलहन में भी संभव है।
गेहूँ, धान एवं दलहन हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसलें हैं। दलहन का प्रमुख कीट फली भेदक (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा) है। यह अरहर और चनें को 30-40 प्रतिशत तक क्षति पहुँचाता है। यह बहुभक्षी कीट है जो कि साल भर एक या एक से अधिक फसलों पर उपस्थित रहता है।
फली भेदक कीट के विरूद्ध प्रतिरोधकता विकसित करने कि लिये वैज्ञानिको ने आनुवंशिक अभियंत्रिकी तकनीक के द्वारा क्राई जीन को फसलों के जीनोम में रूपान्तरित किया। यह क्राई जीन ग्राम पॉजीटिव जीवाणु बैसिलस थुरिजिएन्सिस (बी.टी.) में पाया जाता है।
ट्रांसजेनिक फसलों के अन्तर्गत वैश्विक क्षेत्र वर्ष 1996 से वर्ष 2015 तक लगातार बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2014 में 181.5 लाख हेक्टेयर में ट्रांसजेनिक फसलों को लगाया गया। सोयाबीन, मक्का, कपास तथा सरसों प्रमुख शाक प्रतिरोधी सहिष्णु ट्रांसजेनिक फसलें हैं। इसके अतिरिक्त आलू, चावल, कपास तथा मक्का कीट प्रतिरोधी ट्रांसजेनिक फसलें हैं।
आनुवंशिक इंजीनियरिंग की मदद् से पौधे के अन्दर एक या एक से अधिक विशेषताओं या गुणों को समावेशित किया जाता है। ट्रांसजेनिक फसलें इन संयुक्त गुणों के साथ व्यावसायिक रूप से भी उपलब्ध हैं। इनमें कीट प्रति रोधी तथा शाकप्रतिरोधी सहिष्णु, मक्का और कपास की फसलें शामिल हैं।
ट्रांसजेनिक फसलों से फसल के उत्पादन तथा उत्पादकता में वृ़द्धी होती है। ऐसी फसलों में जीन परिवर्तन आनुवंशिक इंजीनियरिंग तकनीकियों की मदद से किया जाता है।
फली भेदक (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा) जो कि दलहनी फसलों का प्रमुख कीट है, के प्रबन्धन हेतु कृषि वैज्ञानिकों ने अरहर और चने में ट्रांसजेनिक फसल विकसित की है जो कि फली भेदक को मार कर उसके विरूद्ध प्रतिरोधी हो सकती है।
चित्र: अरहर और चने में फली भेदक का संक्रमण
भारतीय वैज्ञानिकों ने बैंगन, टमाटर, धान, कपास, गन्ना, तम्बाकू तथा दलहनों में ट्रांसजेनिक परीक्षण किये हैं। ट्रांसजेनिक फसलों की सफलता ने कृषि वैज्ञानिकों को ट्रांसजेनिक गेंहूं बनाने के लिये भी प्रेरित किया है। ट्रांसजेनिक गेंहूं विश्व खाद्य की कमी की समस्या के समाधान के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
विश्व एवं भारत में ट्रांसजेनिक की स्थिति
ट्रांसजेनिक फसलों का वैश्विक क्षेत्रफल लगातार 19 वर्षों से एक निश्चित (3-4 प्रतिशत) वृद्धि दर से बढ़ता जा रहा है। वर्ष 1996 में जहां इनका क्षेत्रफल 1.70 मिलियन हेक्टेयर था वहां वर्ष 2014 में बढ़कर 181.50 मिलियन हेक्टेयर हो गया है। इससे जैव प्रौद्यौगिकी का दायरा भी बढ़ा है।
पिछले 19 वर्षों में इन फसलों के उत्पादन क्षेत्रफल में 100 गुना तक वृद्धि हुई है। ट्रांसजेनिक फसलों का व्यावसायीकरण 1996 में शुरू हुआ। तब से आज तक इनमें अद्वितिय वृद्धि हुई है। अतः आधुनिक कृषि में सबसे तेज ग्रहण की जाने वाली फसल पद्धति ट्रांसजेनिक फसल ही है।
ट्रांसजेनिक फसलें उपज बढ़ाने के उद्देश्य से तैयार की जाती हैं इन फसलों की उपज साधारण फसलों की तुलना में अधिक होती है। शाकनाशी एवं कीटनाशी कपास व सोयाबीन इसके उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त क्राई जीन को आलू व मक्का मे निवेशित करके इसकी ट्रांसजेनिक प्रजातियों का विकास किया गया है।
आाज ट्रांसजेनिक फसलें पूरे विश्व में उगायी जा रही है। उदाहरण के लिये आलू और कपास। ट्रांसजेनिक फसलें देश के आर्किक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इनके प्रयेग से किसानों की आय में भी वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त ट्रांसजेनिक फसलें निम्न दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं-
- ट्रांसजेनिक फसलों का प्रयोग बहुत ही सुविधाजनक तथा लचीला होता है।
- ट्रांसजेनिक फसलें अत्यधिक उत्पादक तथा आर्थिक लाभ देने वाली होती हैं।
- ट्रांसजेनिक फसलों के उपयोग से भूमिगत तथा सतही जल की गुणवत्ता में सुधार आता है क्योंकि ये कीटनाशकों के प्रभाव को कम करती है।
- ट्रांसजेनिक फसलों के प्रयोग से केवल लक्षित कीट को ही हानि पहुंचती है्, उसके आस पास के वातावरण में उपस्थित लाभदायक कीटों, प्राकृतिक शत्रुओं तथा मानव स्वास्थ्य पर इनका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है।
- ट्रांसजेनिक फसलें अच्छी पर्यावरण मित्र होती है।
निष्कर्षः
दलहनी फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रति काफी संवेदनशील होती हैं। जिसके परिणामस्वरूप दलहनी फसलों में नई-नई बीमारियों एवं कीटों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। अनियमित जलवायु परिवर्तन, जैव तथा अजैव कारकों के कारण बहुत से कवकजनित एवं विषाणुजनित रोगों का प्रकोप फसल की प्रारम्भिक अवस्था में ही शुरू हो जाता है।
एक आँकलन के अनुसार लगभग 30-40 प्रतिशत नुकसान फली भेदक कीट (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा) द्वारा होता है। इस कारण लगभग 3 मिलियन टन दलहनी फसलों को नुकसान पहुंचाता है। परिणामस्वरूप किसान को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है।
अतः इस आर्थिक हानि से बचने के लिये वैज्ञानिकों को इस कीट के विरूद्ध कीटरोधी प्रजातियों का विकास करना पड़ेगा। वर्तमान समय में ऐसी ट्रांसजेनिक फसल उत्पन्न करने की दिशा मे कार्य किया जा रहा है जो कीट प्रतिरोधी होगी तथा इनमें किसी भी प्रकार के विष के अवशेष नहीं होंगे। ये मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित होगीं।
Authors
डॉ. आरती कटियार१ एवं डॉ. शिवाकान्त सिंह२
१सीनियर रिसर्च फैलो, २प्रधान वैज्ञानिक (कीट विज्ञान)
फसल सुरक्षा विभाग
आई. सी. ए. आर. - भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान कानपुर, उत्तर प्रदेश- २०८०२४
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