आधुनिक समय में बढ़ती हुयी जनसंख्या के खाद्यान्न पूर्ति हेतु किसान रासायनिकों जैसे-खाद, खरपतवारनाशी, रोगनाशी तथा कीटानाशकों को प्रयोग कर रहे है। सम्भवतः इनके प्रयोग से किसान प्रथम वर्ष अधिक उत्पादन तो प्राप्त कर लेते है, परन्तु धीरे-धीरे इनके प्रयोग से मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण होने लगती है और फसलों की उत्पादन क्षमता भी कम हो जाती है। इन रसायनों की अधिक कीमत होने के कारण खेती की लागत बढ़ जाती है।
क्षीण हुई मृदा उर्वरता के कारण इन रसायनों के प्रयोग से भी वे मुनाफा प्राप्त नहीं कर पाते है । यहीं नहीं इन रसायनों के प्रयोग से पर्यावरण में भी विपरीत प्रभाव पडता है।
रसायनिकों के प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावः-
- इनके प्रयोग से मृदा में कार्बनिक तत्वों में कमी आ जाती है जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है।
- इनके उपयोग से मृदा में पाये जाने वाले सुक्ष्मजीवों की संख्या एवं उनके जीवन मे दुष्प्रभाव पड़ता है। प्रायः शोध में यह पाया गया है कि केंचुआ जिसे किसानों का मित्र माना जाता है, अत्यधिक रसायनों के प्रयोग से इनकी संख्या में भारी कमी पायी गयी है।
- कीटनाशकों के लगातार प्रयोग से कीट अपने अन्दर प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते है। जिससे की इन कीटों को नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है। इनके साथ-साथ लाभदायक कीटों जैसे-लेडी बर्ड बीटल, मधुमक्खी आदि की संख्या पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
- यह रसायन धीेरे-धीरे घटित होते है जिसके कारण वे मृदा तथा जल को भी प्रदुषित करते है।
- खाद्यान्नों एवं बागवानी फसलों में प्रयोग होने वाले रसायन भोजन के माध्यम से मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर विभिन्न स्वास्थय सम्बन्धी समस्याओं को जन्म देते है।
समय की माँग को देखते हुए किसानों को जैविक कृषि की ओर अग्रसर होने की आवश्यकता है।
- जैविक खेती द्वारा मृदा की उर्वरा क्षमता को बनाये रखा जा सकता है।
- मृदा तथा जल प्रदूषण को रोका जा सकता है।
- मित्र एवं लाभकारी कीटों का संरक्षण किया जा सकता है।
- इसके साथ-रसायनों में खर्च होने वाली लागत को कम किया जा सकता है।
- किसान कम लागत में अधिकतम लाभ तथा गुणवत्ता प्राप्त कर सकते है।
- प्रायः जैविक उत्पादन द्वारा उत्पादित अनाज, फल और सब्जी का मूल्य रसायनिकों के द्वारा उत्पादित पदार्थो की तुलना में तिगुना होता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि किसान जैविक खेती कैसे करे? जैविक खेती करने के लिए कुछ बाते ध्यान रखनी चाहिए।
1. फसल के लिए बीजों या प्रर्वधन सामग्री का चुनाव-
बीजों एवं प्रर्वधन सामग्री खरीदने समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज एवं प्रर्वधन सामग्री स्वस्थ हो तथा बीमारी रहित हों। ये सामग्री हमेशा सुपरिक्षित स्थान से ही खरीदे। हमेशा उच्च गुणवत्ता वाली पौध सामग्री का प्रयोग करे। प्रतिवर्ष नयी सामग्री खरीदने से बेहतर है कि स्वंय स्वस्थ बीज एवं पौध सामग्री का उत्पादन करे। यदि किसी स्थान पर किसी कीट या रोग का प्रकोप अधिक हो तो उन स्थानों पर कीट प्रतिरोधी या रोगाणु प्रतिरोधी की उन्नत किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।
2. खेत को गर्मियों के समय खाली छोड़ना-
मई-जून के महीनो में खेत की 30-45 सेमी0 गहरी जुताई करके उन्हें कुछ समय के लिए खाली छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से खरपतवार के बीजों तथा मृदा में पाये जाने वाले कीटों को आसानी से सूर्य की गर्मी द्वारा नष्ट किया जा सकता है।
3. फसल चक्र-
यह एक महत्वपूर्ण सस्य क्रिया है। किसानों को प्रतिवर्ष एक ही फसल को एक स्थान पर बार-बार नही लगाना चाहिए। ऐसा करने से फसल की गुणवत्ता तथा उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। किसान दो या तीन वर्ष के अन्तराल में पुनः उसी फसल को लगा सकते है। यदि सही रूप से फसल चक्र अपनाया जाय तो एक फसल द्वारा अवशोषित पोषक तत्वों को आसानी से पुनः संचित किया जा सकता है। इसके साथ-साथ हर साल नयी फसल लगाने से मित्र कीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती है। फसल चक्र में दलहनी फसलों का भी प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि यह मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाती है।
4. सहयोगी फसल (ट्रेप फसले)-
यदि किसान टमाटर की खेती करना चाहते है तो सून्डी कीट के प्रकोप से फसल को बचाने के लिए वे गेन्दा की फसल को टमाटर की फसल के चारों ओर लगा सकता है। ऐसा करने से कीट गेन्दे को प्रभावित करेगें और अन्दर की फसल सुरक्षित हो जायेगी। जहाँ में निमेटोड की समस्या हो वहाँ पर भी गेन्दा को उगाना चाहिए।
5. खरपतवार नियन्त्रण-
यदि किसान छोटे क्षेत्रफल में खेती कर रहा है तो हाथ या मशीनों द्वारा आसानी से खरपतवार नियन्त्रित किया जा सकता है। खरपतवार नियन्त्रण दूसरा बहुत महत्वपूर्ण तरीका है आच्छादन करना या पलवार बिछाना।
आच्छादन करना या पलवार बिछाना-
आच्छादन विभिन्न चीजों जैसे- गोबर की खाद, पुआल, सूखी घास, प्लास्टिक की पॉलीथिन जो विभिन्न रंगों जैसे- लाल, काली, नीले, सिल्वर रंगों में उपलब्ध होती है से किया जा सकता है। कार्बनिक पदार्थो के प्रयोग द्वारा आच्छादन करने से मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ती है, क्योंकि ये धीरे-धीरे विघटित होते है तथा मृदा में पोषक तत्वों को बढ़ाते है।
आच्छादन करने के लाभ-
- फसल को कम सिचांई की आवश्यकता पड़ती है क्यांेकि वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी पुनः मृदा में पहुँच जाता है।
- जाड़ो में आच्छादन करने से मृदा तापमान को बढ़ाया जा सकता है जबकि गर्मियों में कार्बनिक पदार्थो के आच्छादन प्रयोग करने से मृदा तापमान को घटाया जा सकता है।
- आच्छादन करने से खरपतवार नियन्त्रित रहता है। शोधो द्वारा पाया गया है काली पॉलीथिन के नीचे खरपतवार नहीं उगता है।
- आच्छादन करने से फसल में लगने वाली मृदा सबन्धी बीमारियों की रोकथाम आसानी से किया जा सकता है।
- 5.मृदा, हवा तथा जल अपरदन नहीं होता है।
आच्छादन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।
- आच्छादन के लिए कभी-भी सूखी भूमि का चुनाव न करें। हमेशा नमी युक्त भूमि का चयन करें। यदि भूमि सूखी हो तो एक दिन पहले हल्की सिंचाई कर लें।
- बीजों को लगाने के लिए आच्छादन की परत 10 सेमी0 से कम होनी चाहिए।
- यदि आच्छादन का प्रयोग खरपतवार नियन्त्रण के लिए हो तो परत 10 सेमी0 से मोटी होनी चाहिए।
- यदि फसल एकवर्षीय हो तो 20-25 माइक्रोन वाली मोटी पॉलीथिन फिल्म का प्रयोग करना चाहिए। यदि फसल द्विवर्षीय हो तो 40-50 माइक्रोन वाली मोटी पॉलीथिन फिल्म का प्रयोग तथा फसल बहुवर्षीय हो तो 50-10 माइक्रोन मोटी पॉलीथिन का प्रयोग उत्तम माना जाता है।
6. खादों का प्रयोग-
जो भी किसान कृषि का व्यवसाय करते है, वे छोटे या बड़े स्तर पर पशुपालन भी करते है। पशुपालन के साथ-साथ वे आसानी से जैविक खाद का निर्माण कर सकते है। इनके प्रयोग से मृदा की उर्वरा तथा जल अवशोषण क्षमता बढ़ती है तथा मृदा अपरदन भी नियन्त्रित रहता है।
गोबर की खाद-
गाय एवं भैंस द्वारा उत्सर्जित गोबर तथा मूत्र को पराल के साथ एक गढढ़े में विघटित करके जो खाद बनायी जाती है। उसे गोबर की खाद कहते है। उसी प्रकार से किसान बकरी, भेड़, सुअर एवं मुर्गी की खाद भी आसानी से घर पर तैयार कर सकते है। इन खादों की गुणवत्ता और मात्रा जानवरों के खिलाये जाने वाले चारें तथा गोबर की खाद तैयार करने की विधि पर आधारित होती है। हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि खेत में कच्चा गोबर की खाद का प्रयोग न करें। यदि खेत में कच्चा गोबर प्रयोग होता है तो करमुला कीट का प्रकोप रहता है जिसके कारण फसल नष्ट हो जाती है। इसलिए अच्छी तरह से सड़ा गोबर ही इस्तेमाल करें।
कम्पोस्ट-
कम्पोस्ट बनाने के लिए सब्जियों, फलों, पत्तियों तथा पौधें के अवशेष तथा जानवरों द्वारा उत्पादित का प्रयोग किया जाता है। कम्पोस्ट बनाने के लिए एक ग्ढ्ढा तैयार करना पड़ता है। जिसमें वे ये पौधों द्वारा उत्पादित कूड़े कचरे को सूक्ष्मजीवों की सहायता से सड़ा सके।
केचुंआ खाद-
इस प्रकार की खाद को तैयार करने के लिए केंचुओं का प्रयोग किया जाता है। केंचुआ खाद की गुणवत्ता 3 चीजों में निर्भर करती है। केंचुआ की प्रजाति, पानी तथा सड़ी हुयी खाद। केंचुआ खाद बनाने के लिए आइसीनिया फाइटिडा और यूडरोलिस यूजिनिया केंचुओं का प्रयोग किया जाता है। ये केंचुए खाद को बहुमूल्य कम्पोस्ट में बदल देते है।
जैविक खादों में पोषक तत्वो की मात्रा-
खाद |
नाइट्रोजन (प्रतिशत) |
फॉस्फोरस (प्रतिशत) |
पौटेशियम (प्रतिशत) |
गोबर की खाद |
0.5 |
3.0 |
0.5 |
भेड़ एवं बकरी की खाद |
3.0 |
1.0 |
2.0 |
मुर्गी खाद |
3 |
2.5 |
1.5 |
बायोगैंस द्वारा निर्मित गोबर की स्लरी |
1.8 |
1.0 |
1.0
|
घोड़े की खाद |
2.5 |
1.5 |
1.5 |
सुअर की खाद |
3.0 |
2.5 |
2.0 |
केंचुआ खाद |
3.0 |
1.0 |
1.5 |
जैव उर्वरक-
यह मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव होते है जिनको प्रयोगशाला में कल्चर किया जाता है। एजोटोबैक्टर, नाइट्रोजन यौगिकीकरण, फॉस्फोरस घुलनशीलता और कार्बनिक पदार्थो के विघटन द्वारा पौधों की जड़ांे को पोषक तत्वों को आसानी से उपलब्ध कराते है। इसके साथ-साथ ये पादप वृद्धि नियामक हार्मोन्स तथा विटामिन्स आदि का निर्माण करते है। जैव उर्वरक पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ फसल की पैदावार को 10-25 प्रतिशत तक बढ़ा देते है।
पंचगव्य-
इसमें नौ उत्पाद होते है गोबर,गौ-मूत्र,दही,दूध,घी,गुड़,केला,नारियल और पानी। इसे बनाने के लिए गोबर तथा घी को अच्छी तरह से मिलाया जाता है और इस मिश्रण को तीन दिन के लिए रख दिया जाता है। जब लगे कि ये मिश्रण पूरी तरह से मिल गया है तो इसे पुनः 15 दिनों के लिए फिर से मिलाया जाता है।
इसके पश्चात अन्य साम्रगीयों को भी डाला जाता है और अगले 30 दिनों के लिए मिश्रण को छोड़ दिया जाता है। पचंगव्य को खुले स्थान पर मिट्टी के बर्तन या कंकरीट के टेंक जिनका मुह चौड़ा हो उसमें रखना चाहिए। पंचगव्य का प्रयोग जैविक कीटनाशी तथा पौधों के विकास के लिए अत्यधिक लाभदायक पाया गया है।
खाद एवं जैव उर्वरक बाजार में आसानी से उपलब्ध होते है ये सस्ते एवं पर्यावरण मित्रवत होने के साथ-साथ मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते है। वे पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाते है।
7. कीट एवं रोग नियन्त्रण-
- फसल की किस्मों का चुनाव करते समय रोग एवं कीट प्रतिरोधी उन्नत किस्मों का प्रयोग करे।
- रोग एवं कीटों को नियन्त्रित के लिए समय-समय पर खेत में भ्रमण करते रहना चाहिए। ताकि प्रारम्भिक अवस्था में ही उन्हे नियन्त्रित किया जा सके ।
- यदि किसान छोटे क्षेत्रफल में खेती कर रहा है तो हाथों द्वारा कीट के अण्डों, लार्वा तथा प्यूपा को इकट्ठा करके मार देना चाहिए। ताकि संक्रमण न फैलें।
- कुछ कीट प्रकाश की तरफ आकर्षित होते है। उनकी संख्या को लाईट ट्रैप लगवा कर नियन्त्रित किया जा सकता हैं।
- उसी प्रकार कुछ कीट रंगों की तरफ आकर्षित होते है। इन कीटों को नियन्त्रित करने के लिए रंगीन चिपचिपे ट्रैप का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- थ्रिप्स के लिए नीले रंग का तथा एफिड के लिए पीले रंग का ट्रैप प्रयोग किया जाता है। किसान इन्हे घर पर आसानी से तैयार कर सकते है। एक लकड़ी या कार्ड बोर्ड के गत्ते में पीले/नीले रंग का पेन्ट या र्चाट लगा/चिपका दें। उस चार्ट/पेन्ट के उपर पैट्रोलीयम जैली या वानस्पतिक तेल या चिपचिपे पदार्थ की एक परत लगा दे। और इस ट्रैप को खेत के एक मीटर के दायरे पर लगा देना चाहिए। ऐसा करने से कीट उसकी तरफ आकर्षित होके उस पर चिपकर मर जाते है। हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि ये ट्रैप खेतो की सीमा के पास नही लगाये।
- फिरोमोन ट्रैप का प्रयोग कीटों की आबादी को नियन्त्रित करने में बहुत सहायक होता है। इस ट्रैप से भिनी-भिनी सुगन्ध निकलती है। जो नर कीटों को भ्रमित करके अपनी ओर आकर्षित करती है जिसके कारण वे इस ट्रैप में प्रवेश कर जाते है और मर जाते है।
- इन सबके अतिरिक्त प्राकृतिक रूप से निर्मित कीटनाशकों जैसे- नीम,प्याज,मिर्च तथा लहसुन आदि के घोल द्वारा छिड़काव करना चाहिए। प्राकृतिक कीटनाशकों का प्रयोग आवश्यकता से अधिक नहीं करना चाहिये अर्थात उचित मात्रा में इनका छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव से पूर्व जैविक मानकों का अध्ययन अवश्य करें।
निष्कर्ष
जो किसान पहले से रसायनिक खेती कर रहे है। वे जैविक खेती अपना के एकीकृत प्रबन्धन कर सकते है। ऐसा करने से वे कम लागत में अधिक गुणवत्ता वाले खाद्यान्नों को उत्पादन कर सकते है। किसान इन तरीकों को अपना कर गुणवत्ता के साथ-साथ अधिकतम लाभ कमा सकते है। इसके साथ- साथ जैविक खेती द्वारा पारस्थितिकी तन्त्र को संरक्षण तथा संतुलन आसानी से बनाया जा सकता है।
Authors
डॉ0 ममता बोहरा
सहप्राध्यापक
वी. च. सिं. ग. उद्यान महाविद्यालय
भरसार, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखण्ड) 246123
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