Organic Farming in Jammu and Kashmir - Challenges and Prospects
आधुनिक फसल उत्पादन प्रणाली ने पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए कई समस्याएं पैदा की हैं। मिट्टी और पौधों पर कृषि-रासायनों के असंतुलित प्रयोग से न केवल मिट्टी के बैक्टीरिया, कवक, एक्टिनोमाइसेट्स आदि को नुकसान पहुंच रहा है, बल्कि कीट प्रतिरोध और कीट पुनरुत्थान जैसी घटनाओं को भी जन्म दिया है।
पर्यावरण, आर्थिक और सामाजिक पहलुओं पर आधुनिक कृषि के दुष्प्रभावों के कारण खेती के ऐसे वैकल्पिक तरीकों की तलाश शुरू हो गई है जो कृषि को अधिक टिकाऊ और उत्पादक बना दे। जैविक खेती एक विकल्प है जो सभी पारिस्थितिकीय पहलुओं को महत्व देता है। भारत में आज जैविक खेती के तहत 1.02 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र है, जो उपभोक्ता बाजार में 6000 करोड़ रुपये का है।
जैविक खेती
ऑर्गेनिक फार्मिंग का तात्पर्य एक ऐसी कृषि प्रणाली से है जिसमें भूमि पर फसलों को इस तरह से उगाया जाए ताकि जैविक सामग्री, जैविक कचरे व लाभकारी जीवाणुओं के उपयोग द्वारा मिट्टी को स्वस्थ रखा जा सके।
इंटरनेशनल फेडरेशन आफ आर्गेनिक एग्रिकल्चर मूवमेंट्स (आई. एफ. ओ. ए. एम.) के अनुसार जैविक खेती ऐसी उत्पादन प्रणाली है जो जमीन, पारिस्थितिकीय प्रणाली और लोगों के स्वास्थ्य को बनाए रखती है। यह पारिस्थितिकी प्रक्रियाओं, जैव विविधता और स्थानीय स्थितियों पर आधारित ऐसे चक्रों पर निर्भर है जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हैं और इसमें प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कृषि पदार्थों का उपयोग नहीं किया जाता।
यह कृषि उत्पादन प्रणाली मुख्य रूप से जैविक पदार्थों या खेत आधारित संसाधनों पर निर्भर है। इसमें खेतों से बाहर के कृत्रिम पदार्थों के उपयोग को हतोत्साहित किया जाता है ताकि मिट्टी, पानी और हवा को प्रदूषित किये बगैर लम्बी अवधि तक प्राकृतिक सन्तुलन को कायम रखा जा सके। इसमें कृषि के लिये स्थानीय विशिष्टता के लिए उपयुक्त फसल एवं वैज्ञानिक, जैविक और यांत्रिक विधियों का उपयोग किया जाता है ताकि संसाधनों का पुनर्चक्रण हो सके और कृषि पारिस्थितिकीय तंत्र पर आधारित स्वास्थ्य को बढ़ावा दिया जा सके।
जैविक कृषि का उद्देश्य
इस प्रकार की कृषि का मुख्य उद्देश्य रासायनों पर कृषि की निर्भरता कम करके इनके स्थान पर जैविक उत्पादों का उपयोग अधिक से अधिक करना है जिससे लंबी अवधि में अधिक उत्पादक व टिकाऊ कृषि प्रणाली विकसित कर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक स्थिरता हासिल की जा सके।
वर्तमान जरूरतों के मद्देनजर उत्पादन में अचानक कमी न हो, अत: रासायनिक उर्वरकों/ दवाइयों के प्रयोग को धीरे-धीरे चरणों में कम करते हुए जैविक उत्पादों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। जैविक कृषि का प्रारूप निम्नलिखित प्रमुख क्रियाओं के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
- जैविक (कार्बनिक एवं जीवाणु) खादों का प्रयोग।
- फसल अपशिष्टों का उचित उपयोग।
- जैविक तरीकों द्वारा कीट व रोग नियंत्रण।
- फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश।
- मृदा एवं जल संरक्षण क्रियाएं अपनाना।
जम्मू - कश्मीर में जैविक कृषि की जरूरत
जम्मू और कश्मीर एक पहाड़ी राज्य है जिस का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 2,22,236 वर्ग किलोमीटर है और इसकी जनसंख्या 1,25,48,926 है। राज्य में लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र खेती के अधीन है। कृषि राज्य की रीढ़ है और यह क्षेत्र राज्य की लगभग 70 प्रतिशत आबादी को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है जो कृषि पर राज्य की निर्भरता को दर्शाता है। राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगभग 20.51 प्रतिशत है।
जम्मू और कश्मीर राज्य की कृषि-जलवायु विविधता (जम्मू क्षेत्र में उपोष्णकटिबंधीय, कश्मीर क्षेत्र में शीतोष्ण और लद्दाख क्षेत्र में ठंडी शुष्क जलवायु) के चलते काफी जैव विविधता पाई जाती है जिसके कारण इसे देश में ‘मेगा डायवर्स’ राज्य का दर्जा हासिल है। राज्य की भूमि जोत का औसत आकार राष्ट्रीय औसत 1.33 हेक्टेयर की तुलना में केवल 0.67 हेक्टेयर ही है।
देश के बाकी हिस्सों की भांति जम्मू और कश्मीर भी आधुनिक कृषि के दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रहा है रासायनिक उर्वरकों एवं अन्य एग्रो केमिकल्स का प्रयोग राज्य में बढ़ रहा है जिससे मृदा की सेहत खराब हो रही है व पर्यावरण दूषित हो रहा है। राज्य का पर्यावरणीय स्थिरता सूचकांक बिगड़ रहा है जो वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
जैविक कृषि द्वारा हम बड़े पैमाने पर रासायनिक कृषि आदानों का बहिष्कार कर सकते हैं और मिट्टी की जैविक गतिविधियों एवं जैव विविधता सहित कृषि पारिस्थितिकीय तंत्र को बनाए रख सकते हैं। अत: रासायनिक कृषि को जैविक कृषि में स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। किसानों पर राष्ट्रीय आयोग के अनुसार – ‘जैविक कृषि; विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में दूसरी हरित क्रांति का प्रमुख साधन होनी चाहिए’।
जम्मू - कश्मीर में जैविक कृषि की संभावनाएं
जम्मू और कश्मीर में जैविक कृषि की अपार संभावनाएं हैं क्योंकि राज्य के पहाड़ी जिलों में दूरस्थ क्षेत्र रासायनिक कृषि आदानों की अनुपलब्धता और जैविक सामग्री की प्रचुरता के कारण पहले से ही अर्ध-जैविक कृषि के अधीन हैं। राज्य में जैविक कृषि प्रणाली नई नहीं है और प्राचीन काल से ही इसका पालन किया जा रहा है। जम्मू और कश्मीर राज्य कार्बनिक/ जैविक कृषि के लिए एक नैसर्गिक स्थान है।
आर.एस.पुरा का बासमती चावल, भद्रवाह का राजमाश, गुरेज़ और माचिल का आलू और तंगधार, कुपवाड़ा का लाल चावल (जुग), पौनी (रियासी) की हल्दी और अदरक राज्य के प्रमुख निर्यात योग्य जैविक उत्पाद हैं। राज्य की 32,000 हेक्टेयर भूमि पर; ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में, किसान रासायनों का उपयोग नहीं करते हैं। राज्य में पहले से ही बड़ी संख्या में किसान अखरोट, बासमती चावल, मसाले, जड़ी-बूटियाँ आदि उगा रहे हैं जिनमें से कई अखरोट, केसर और बादाम का निर्यात कर लाभ कमा रहे हैं।
अखरोट कुदरती तौर पर ही जैविक रूप से उगाया जाता है और किसान जैविक रूप से केसर भी उगा सकते हैं। राज्य में जैविक बासमती चावल की व्यापक गुंजाइश है, जो 35,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि पर उगाया जाता है और इसमें राजमाश, मसाले, केसर, दाल और आलू के अलावा 88,000 मीट्रिक टन से अधिक का उत्पादन होता है।
आज पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर एग्रोकेमिकल्स के दुष्प्रभावों के कारण जैविक खाद्य की मांग बढ़ रही है जिसके कारण ये उत्पाद बाजार में और अधिक लाभ प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। जम्मू-कश्मीर के किसान इस अवसर का लाभ उठा सकते हैं।
सरकार द्वारा प्रोत्साहन
अर्थव्यवस्था वृद्धि में जैविक कृषि के महत्व को उजागर करने के लिए सरकार द्वारा कई कदम लिए गए हैं जिसके कारण राज्य में जैविक खेती तेजी से बढ़ रही है।
- जैविक उत्पादों पर राष्ट्रीय कार्यक्रम (एन. पी. ओ. पी.) के कारण राज्य में प्रमाणित जैविक क्षेत्र भी बढ़ रहा है।
- देश के पहाड़ी क्षेत्रों को उच्च मूल्य वाले जैविक कृषि उत्पादों के अनन्य क्षेत्रों के रूप में परिवर्तित करने की केंद्र की भव्य योजना के तहत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में किसानों को वैज्ञानिक रूप से परीक्षण किए हुए और व्यावसायिक रूप से लाभदायक सुगंधित और औषधीय पौधों की खेती के लिए प्रोत्साहित करने हेतु ‘जम्मू कश्मीर आरोग्य ग्राम योजना’ शुरू की।
- सरकारी संस्था सीएसआईआर ने किसानों को विशेषज्ञ मार्गदर्शन में मदद और उन्हें नौ में से कई औषधीय और सुगंधित पौधों की किस्में प्रदान की हैं जिनमें लेमन ग्रास, रोज़, मिंट, अश्वगंधा और फालसा शामिल हैं।
- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव मेडिसिन, इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायो रिसोर्स टेक्नोलॉजी, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिसिनल एंड एरोमैटिक प्लांट्स, नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट और नॉर्थ ईस्टर्न इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी जैसे विभिन्न संस्थान इस योजना से जुड़े हैं।
- स्थानीय और स्वदेशी प्रजातियों को प्रोत्साहित करने के लिए जम्मू और कश्मीर में किसानों को स्थानीय बीजों की आपूर्ति की जाती है।
निष्कर्ष
निम्नलिखित कुछ मुद्दे हैं, जिन पर जैविक कृषि के प्रसार के लिए सरकार की नीति बनाने के स्तर पर ध्यान देने की आवश्यकता है:
- व्यवसायिक, वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित तरीके से जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए केंद्र एवं राज्य के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर सरकार द्वारा पर्याप्त वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाना आवश्यक है; खासकर शुरुआती समय में जब जैविक कृषि का उत्पादन साधारणतया कम रहता है जिससे किसान इसे अपनाने में हिचकिचाता है।
- जैविक उत्पाद बिक्री को बढ़ावा देने के लिए देश और विदेश में बाजार विकास महत्वपूर्ण कारक है ताकि किसानों को समृद्ध लाभांश मिल सके।
- किसानों और उपभोक्ताओं के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए रासायनिक कृषि प्रणाली की तुलना में जैविक खेती के लाभों को उजागर करने के लिए जोरदार अभियान आवश्यक है।
- बड़े पैमाने पर जैविक खेती के लिए किसानों को लॉजिस्टिक सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है।
Authors:
Sanjeev K. Chaudhary and Manoj Kumar,
Regional Horticultural Research Sub-Station, Bhaderwah, SKUAST-Jammu (J&K)-182222.
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