Quality Seed Production technologies in Barley
जौ (होर्डियम वल्गेयर एल.) एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है जिसका स्थान भारत मे चावल, गेहूँ, एवं मक्का के बाद आता है। जौ का खाद्य, चारा और पोषण सुरक्षा मे बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। जौ की खेती प्रतिकूल जलवायु मे भी आसानी से की जा सकती है। रबी मौसम की यह फसल लवणीय, शुष्क मृदा मे तथा सीमान्त भूमि पर भी उगाई जा सकती है।
जौ की खेती हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश उत्तराखण्ड, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में करते है। जौ की चारे की श्रेष्ठ गुणवत्ता होती है, इस फसल दोबारा उगने की क्षमता के साथ साथ अनाज के रूप में पौषणिक महत्व होता है जिसके कारण भारत मे किसानो द्वारा इस फसल को बहुउद्देश्य रूप में उगाया जाता है।
इनके अलावा जौ एक औद्योगिक फसल के रूप मे भी माल्टिंग और बीयर बनाने के उद्देश्य से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान मे उपयोग मे लायी जाती है।
भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल, चौ. चरण सिह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार, राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान दुर्गापुरा, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कानपुर, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, अयोध्या एवं अन्य कृषि विश्वविद्यालय, द्वारा जौ की विभिन्न किस्में विकसित की गयी है।
अखिल भारतीय समन्वित गेहूँ एवं जौ परियोजना विभिन्न उपभोक्ताओं को ध्यान मे रखते हुए बुआई की विभिन्न दशाओ एवं विभिन्न क्षेत्रों में उगाने के लिए जौ की प्रजातियों की सिफारिश करती है। जौ की किस्मों का विकास, खाद्य एवं चारे (के उद्देश्य) एवं किसानों की आवश्यकताओ, माल्ट उद्योग को ध्यान मे रखकर किया जाता है।
अच्छी फसल उत्पादन लेने के लिए अच्छे बीज का होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। जो कि अन्य कृषि आदानों जैसे मृदा, उर्वरक, लेबर एवं सिंचाई की क्षमता अच्छे बीज की गुणवता पर निर्भर करता है। खेत मे समान रूप से वृद्धि एवं पैदावार लेने के लिए किसानों द्वारा उन्नत प्रजातियों के बीजों को उपयोग मे लाना आवश्यक है।
किसानों के लिए उन्नत नई विकसित किस्में तभी फायदेमंद है जब किसानों एवं उपभोक्ताओ को इन किस्मों का बीज उचित मा़त्रा मे, उचित मूल्य पर एवं सही समय पर उपलब्ध कराया जाये।
जौ एक स्वपरागित फसल है अत: इसके गुणवतायुक्त बीज का उत्पादन किसानों द्वारा अपने खेतो पर कुछ सावधानियां को ध्यान मे रखते हुए किया जा सकता है। जो गुणवतायुक्त बीज किसानों द्वारा अपने खेत पर तैयार किया जाता है, उसको तीन साल तक लगातार प्रयोग करके उत्पादकों मे बीज के प्रसार को गारंन्टी के साथ बढाया जा सकता है।
बीज उत्पादन मे बीज शु़द्धता (भौतिक, आनुवंशिक) पृथक्करण दूरी को अपनाकर, अवांछनीय पौधों की पहचान करके उन्हें निकालकर, खरपतवार एवं रोगी पौधों को अलग निकालकर बीज बनाने की श्रृंखला मे होने वाले मिश्रण से बचा जा सकता है।
हमेशा सिफारिश की जाती हैं कि बीज उत्पादन की क्रियाए उचित जल निकासी, अच्छी उपजाऊ, सिंचाई की सुविधा गुणवतायुक्त बीज उत्पादन के लिए आवश्यक है।
किसानों द्वारा जौ की उन्नत किस्म के बीज उत्पादन हेतू विभिन्न गतिविधियां
किस्म का चयन:
कृषि जलवायु के अनुरूप किसानों को निम्नलिखित किस्मों का चयन करना चाहिए। किसान आवश्यकतानुसार नेशनल सीड कार्पोरेशन, स्टेट सीड कार्पोरेशन एवं कृषि विभाग जैसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संस्थान, राज्य कृषि विश्वविद्यालय आदि से गुणवतायुक्त बीजों को खरीद सकते है।
अनाज एवं चारे के लिए किस्में:
क्र.सं | किस्में | जारी वर्ष | जारी करने के लिए क्षेत्र | बुआई का समय और स्थिति | अवधि (दिनों में) | औसत उपज/एकड़ (कु./है.) |
1 | डीडब्ल्यूआरबी 137 | 2018 | उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र और मध्य क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 115 | 16.99 |
2 | पीएल-891 | 2019 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 144 | 16.80 |
3 | आरडी -2899 | 2018 | मध्य क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 120 | 16.87 |
4 | आरडी-2907 | 2018 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र और उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र | सिचित, समय से बुआईअम्लीय /क्षारीय मृदा | 124 | 14.21 |
5 | बीएच 959 | 2015 | मध्य क्षेत्र | समय से बुआई, सिचित दशा | 109 | 19.96 |
6 | एचयूबी113(महामना 113) | 2014 | उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र | समय से बुआई, सिचित दशा | 119 | 15.50 |
7 | आरडी-2786 | 2013 | मध्य क्षेत्र | समय से बुआई, सिचित दशा | 111 | 20.08 |
माल्ट उत्पादन के लिए किस्में
क्र.सं | किस्में | जारी वर्ष | जारी करने के लिए क्षेत्र | बुआई का समय और स्थिति | अवधि (दिनों में) | औसत उपज/एकड़ (कु./है.) |
1 | डीडब्ल्यूआरबी 182 | 2021 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 133 | 19.87 |
2 | डीडब्ल्यूआरबी 160 | 2019 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 134 | 21.48 |
3 | डीडब्ल्यूआरबी 123 | 2017 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 130 | 19.48 |
4 | डीडब्ल्यूआरबी 101 | 2015 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 132 | 20.04 |
5 | डीडब्ल्यूआरबी 92 | 2014 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र | सिचित, समय से बुआई | 131 | 19.92 |
6 | डीडब्ल्यूआरबी 91 | 2013 | उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र | सिचित, देर से बुआई | 115 | 16.24 |
खेत का चयन:
जौ के अच्छे गुणवत्ता वाले बीज के उत्पादन के लिए मृदा उपजाऊ व समतल होनी चाहिए और खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था चाहिए। जौ की खेती के लिए मृदा अम्लीय नही होनी चाहिए एवं खेतों में पिछले वर्ष के फसलों के अवांछनीय पौधे ना हो, यह बीज उत्पादन को किसी अन्य प्रजातियों के बीजों के मिश्रण से बचाता है।
पृथक्करण दूरी:
जौ एक स्वपरागित फसल है, किसी भी किस्म के मिश्रण से बचाने के लिए फसल का अन्तराल 3 मीटर तक होना चाहिए। अगर खेत कंडवा बीमारी से संक्रमित है, तो पृथक्करण दूरी 150 मी. रखनी चाहिए।
खेत की तैयारी:
खेत को 2 से 3 जुताई करके पाटा चलाकर समतल कर लेना चाहिए ताकि खेत मे सिंचाई का पानी समान रूप से पहुंच सके और खेत में जल निकासी का उचित प्रबंध होना चाहिए।
बुवाई का समय:
उन्नत बीज के उत्पादन के लिए 10-15 नवम्बर का समय, उपज और गुणवत्ता के लिए अच्छा माना गया है।
बीज दर और बुवाई:
समय से बुवाई के लिए बीज दर 40 किग्रा /एकड उपयुक्त है। बीज बुवाई से पहले बीज का अंकुरण प्रतिशत जानना आवश्यक है। अंकुरण परीक्षण के लिए 400 बीजों को जर्मिनेशन पेपर (पेपर टोवल विधि) या समाचार पत्र पर उचित नमी पर 6-7 दिनों तक कमरे के तापमान पर रखते है। 7 दिनों के बाद अंकुरित बीज की गणना करके देखना चाहिए। यदि अंकुरण 85 प्रतिशत है तो यह समझ लेना चाहिए कि जौ का बीज बुवाई योग्य है।
बीज उपचार:
बीज का उपचार कार्बेंडाजिम 50% के 2.0 से 2.5 ग्रा0/किग्रा बीज की दर से उपचारित करके कंगयारी रोग से बचा जा सकता है।
पौधा/पंक्ति अन्तराल:
जौ की फसल के निरीक्षण और आसानी से रोगिंग के लिए पंक्तियों मे बुवाई हमेशा अच्छी मानी जाती है। जौ बीज उत्पादन के लिए पंक्ति से पंक्ति अन्तराल 22.5 सेमी. होना चाहिए और बीजो की गहराई 4-5 सेमी. होनी आवश्यक है।
बीज उत्पादन वाले खेत से अवांछित पौधो को निकालना:
निराई गुडाई के द्वारा अवांछित पौधो जैसे अन्य किस्म का पौधा, रोगजनित पौधा या खरपतवार को खेतो से हटाना चाहिए। रोगिंग करके बीज की अनुवांशिक शुद्धता, भौतिकी शुद्धता और रोग रहित क्षमता को बनाये रखना आवश्यक है। रोगिंग से दूसरे पौधे और अन्य किस्म के पौधों को चिन्हित किया जा सकता है।
जौ के बीज उत्पादन वाले खेत की रोगिंग के समय अन्य फसलों मे भी पौधे जैसे गेहूँ, जई, और चना को रोगिंग करके खेत से निकाल देना चाहिए। रोग जनित पौधे और अन्य पौधौं को सावधानीपूर्वक निकालकर नष्ट कर देना चाहिए।
पोषक तत्व प्रबंधन:
जौ के उन्नत बीज उत्पादन के लिए समय पर की गई बुवाई अच्छी मानी जाता है। समय से बुवाई के लिए निम्नलिखित उर्वरक की मात्रा उचित पोषण प्रबंधन के लिए आवश्यक है।
अवस्था | नाइट्रोजन | फास्फोरस | पोटाश |
सिंचित, समय से बुआई | 24 कि.ग्रा. | 12 कि.ग्रा | 8 कि.ग्रा |
आधी नाइट्रोजन तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय व शेष नाइट्रोजन को पहली सिंचाई के समय उपयोग करे। (26 क्रि.ग्रा. यूरिया, 75 क्रि.ग्रा. सिंगलसुपर फास्फेट एवं 13 क्रि.ग्रा पोटाश को खेत की तैयारी के समय व 26 किग्रा यूरिया को पहली सिंचाई के समय उपयोग करे।
अवस्था | नाइट्रोजन | फास्फोरस | पोटाश |
सिचिंत व समय से बुआई एवं माल्ट बनाने के उद्देश्य से | 36 कि.ग्रा | 12 कि.ग्रा | 8 कि.ग्रा |
1/2 नाइट्रोजन एवं पूरी मात्रा फास्फोरस एवं पोटाश को खेत की तैयारी के समय खेत मे डालना चाहिए और शेष नाइट्रोजन को पहली सिंचाई के समय उपयोग करें। (39 कि.ग्रा यूरिया 75 कि.ग्रा सिंगल सुपर फास्फेट एवं 13 कि.ग्रा पोटाश को खेत की तैयारी के समय एवं 26 कि.ग्रा यूरिया प्रति एकड की दर से पहली सिंचाई के समय उपयोग करें या डीएपी का उपयोग करना हो तो 26 कि.ग्रा डीएपी, 28 कि.ग्रा यूरिया एवं 13 कि.ग्रा पोटाश प्रति एकड़ की दर से खेत की तैयारी के समय एवं 39 कि.ग्रा यूरिया प्रति एकड पहली सिंचाई के समय उपयोग करें।
सिंचाई:
जौ उत्पादन वाले खेतों में अच्छी फसल वृद्धि के लिए सामान्य तौर पर तीन सिंचाईयों की सिफारिश की जाती है।
जौं बीज फसल मे खरपतवार प्रबन्धन:
गुणवत्ता बीज उत्पादन हेतू खरपतवार प्रबन्धन आवश्यक है। अच्छे खरपतवार नियंत्रण हेतू उचित शाकनाशी का सावधानी पूर्वक प्रयोग करना चाहिए। पतली और चौडी पत्ती वाले खरपतवार के लिए हमे पेन्डीमैथीलीन का छिडकाव 1250 मिली./एकड़ की दर से बुवाई के 1-3 दिन के बाद करना चाहिए।
विभिन्न खरपतवार जैसे: कनकी, एवीना फटुवा (जंगली जई) को पीनाक्साडेन 5 ई.सी. 400 मिली./एकड की दर से 30-35 दिन बाद छिडकाव करना चाहिए। चौडी पत्ती वाले खरपतवार जैसे बथुवा, आरवेन्सिस को बुवाई के 30-35 दिन बाद 2,4-डी द्वारा (400 मिली. एकड की दर से) नियंत्रण कर सकते है।
जौं के रोग-कीट एवं उनका प्रबंधन:
जौ का कंगियारी (कंडवा) रोगः कंगियारी या कंडवा से प्रभावित बीज का उपचार कार्बोक्सिन 2 ग्रा./किग्रा बीज अथवा कार्बोक्सिन 37.5% + थायरम 37.5% डीएस से 2 ग्रा./किग्रा बीज की दर से करना चाहिए।
रतुआ: रोग आने के तुरन्त बाद प्रोपिकानाजोल 25% ईसी का 1 मिली./ली. पानी की दर छिड़काव करना चाहिए।
पर्ण झुलसा: इस रोग के नियंत्रण हेतू प्रोपिकानाजोल 25% ईसी का 1 मिली./ली. की दर छिड़काव करना चाहिए।
चेपा या माहू: चेपा के नियन्त्रण के लिए इमीडाक्लोरोप्रिड (17.8 एस.एल) को 40 मिली प्रति एकड की दर छिड़काव से करना चाहिए। यदि रोग अधिक प्रभावी है तो 15 दिन के अन्तराल पर दूसरा छिडकाव करना आवश्यक है।
जौं की कटाई एवं गहाई :
भारत मे ज्यादातर किसान जौ की कटाई श्रमिकों द्वारा करते है। लेकिन आजकल कम्बाईन हावैस्टर का प्रयोग भी किया जा रहा है। बीज उत्पादन मे जौ की विभिन्न किस्मों को एक साथ मिलने से बचाना है। इसके लिए उपयोग मे ला रहे मशीनरी की भली भांति सफाई अनिवार्यं है।
भंडारण से पहले बीज को धूप मे अच्छी तरह सुखाकर यह सुनिश्चित कर ले कि दानों की नमी 12 प्रतिशत से कम हो। भंडारण हेतू हमेशा नये जूट के बोरो का प्रयोग करना चाहिए जिससे अन्य किस्मों के बीजों के मिश्रण से बचा जा सके। बीज के बोरों को रखते समय उसके नीचे लकडी का फटटा रखे ताकी नमी का बीजों से संपर्क ना हो।
निष्कर्ष: जौ एक महत्वपूर्ण फसल है। उपरोक्त चरणों को समुचित ढंग से अपनाकर किसानों द्वारा उनके ही खेत पर जौ के गुणवत्तायुक्त बीज का उत्पादन सफलतापूर्वक किया जा सकता है जिससे विभिन्न प्रकार के उपयोगों हेतू स्वस्थ एवं गुणवत्तायुक्त जौ की फसल का ली जा सकती है।
Authors
उमेश कांम्बले, चरण सिंह, चन्द्र नाथ मिश्र, विकास गुप्ता, अमित कुमार शर्मा, गोपाल रेड्डी के., रविन्द्र कुमार एवं संतोष कुमार बिश्नोई
भाकृअनुप - भारतीय गेहूँ एवँ जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल-132001 (हरियाणा)
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