Importance of Potash in crop production

पोटेश्‍यि‍म स्वतन्त्र रूप से कार्य करने वाला पोषक तत्व है।  पौधे में किसी भी यौगिक के संष्लेशण में यह प्रत्यक्ष क्रियाओं में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेकर फसल उत्पादन तथा उत्पाद की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।  यही कारण है कि मिट्टी में पोटेषियम की कमी से फसल की उपज, उसकी गुणवत्ता तथा आय में गिरावत आती है।

पोटेश्‍यि‍म का फसलउत्‍पादन मे कार्य :-

  • पौधों की वृध्दि से संबंधित प्रक्रियाओं में पोटेश्‍यि‍म की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका होती है।
  • पोटेश्‍यि‍म साठ से अधिक उत्प्रेरकों (एन्जाइम) की क्रियासीलता को बढाता है।
  • प्रकाश संष्लेशण के उत्पाद को बीज, जड़, फल तथा कन्द के निर्माण के लिये उपलब्ध कराने में पोटेश्‍यि‍म सहायक है।
  • प्रोटीन की संरचना में सहायक होकर नाइट्रोजन की उपयोग क्षमता को बढ़ाता है।
  • पौधों में सूखा, पाला रोग तथा कीटों के विरूध्द अवरोध क्षमता पैदा करता है।
  • फसल की जल शोषण क्षमता में वृध्दि करके सिंचाई जल की आवष्यकता में कमी करने में सहायक है।
  • जड़-तंत्र के स्वस्थ विकास के लिये आवष्यक है तथा मिट्टी में हवा की कमी या खराब जल निकास की दषाओं को सहन करने की क्षमता उत्पन्न करता है।
  • फसल उत्पाद की गुणवत्त में वृध्दि करता है और उसकी भण्डारण अवधि में वृध्दि लाता है। इस तरह पोटाश का फसल गुणवत्ता में विषेश महत्व है।
  • फलों के आकार, रंग, चमक में सुधार लाता है जिससे बाजार में उनका अधिक मूल्य मिलता है और उपभोक्ता इन्हें अधिक पसंद करता है।
  • पोटेश्‍यि‍म फसलों को गिरने से बचाता है।
  • गन्ना, चुकन्दर, शकरकन्द तथा अन्य जड़ वाली फसलों में शर्करा के निर्माण एवं संचालन के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व है।
  • पोटेश्‍यि‍म सरसों, मूंगफली जैसी फसलों में तेल के निर्माण में सहायक है।
  • दलहनी फसलों में राइजोबियम द्वारा नाइट्रोजन के यौगिकीकरण में योगदान तथा नील-हरित शैवाल एवं स्वतन्त्र रूप से नाइट्रोजन यौगिकीकरण करने वाले जीवाणुओं के लिये आवष्यक पोशक तत्व है।

पोटेश्‍यि‍म की कमी के लक्षण :-

पोटेषियम पौधों में अत्यन्त गतिषील होता है।  अत: इस तत्व के अभाव के लक्षण सर्वप्रथम पुरानी पत्तियों की नोकों से प्रारम्भ होते हैं।  पत्तियों का रंग आधार की तरफ से गहरा हरा बना रहता है।  लक्षण निम्नानुसार है:-

  • पौधों की वृध्दि तथा ओज में कमी।
  • कोषिका दीवार पतली, तना कमजोर, भोजन वाहक नली में कमी, जड़ों की संख्या एवं विकास में कमी, पत्तियों में शर्करा, संचयन तथा तनों और पत्तियों में प्रयोगित नाइट्रोजन यौगिकों का संचयन।
  • पुरानी पत्तियों की नोकों तथा किनारों पर विकसित नारंगी रंग के हरितिमा हीन धब्बे।
  • पत्तियों में हरितिमा हीन स्थान का मृत-प्राय: होना, उत्तकों का मरना तथा पत्तियों का सूखना।
  • अभाव के लक्षणों का पुरानी पत्तियों से नयी पत्तियों पर फैलना और अन्तत: पौधों का मर जाना।
  • अभावग्रस्त पौधों की जड़ों के विकास में कमी और सड़न जैसे लक्षण।
  • रोगों का प्रकोप बढ़ना।
  • सिकुड़े दाने व कम उपज
  • फलों, सब्जियों और रेषे वाली फसलों की गुणवत्ता में कमी।

फसलें पोटेषियम का उपयोग काफी अधिक मात्रा में करती है।  अधिकांश फसलें पोटेषियम का निष्कासन नाइट्रोजन से अधिक करती है। मृदा उर्वरता तथा उत्पादकता के दीर्धकालिक टिकाऊपन के लिये पौधों द्वारा निष्कासित पोटाश की पूर्ति करने के लिये पोटाश उर्वरक का प्रयोग करना अत्यन्त आवष्यक है।

प्रयोग करने के लिये पोटाश की संस्तुति निम्न है:

सामान्य संस्तुति :-

मृदा जाँच के अभाव में कृषि संस्थानों द्वारा निर्धारित उर्वरक संबंधी तदर्थ संस्तुतियाँ प्रत्येक फसल के लिये उपलब्ध है जिस आधार पर किसान पोटाश उर्वरक का निर्धारण कर सकते हैं ये संस्तुतियाँ वास्तव में मध्यम उत्पादन के लिये उपयोगी होती है जिन्होने अपने खेत की मिट्टी के स्तर की जाँच नहीं करायी है।

मृदा परीक्षण आधारित संस्तुति :-

पोटाश की यह संस्तुति उस खेत के लिये उपयुक्त होती है जिस खेत की मिट्टी की जाँच की गई होती है।  मृदा परीक्षण के आधार पर संस्तुत पोटाश की मात्रा, सामान्य या तदर्थ संस्तुति की अपेक्षा अधिक संतुलित तथा लाभकारी होती है।

अधिकांश परिस्थितियों में प्रचलित उर्वरत संस्तुतियाँ अधिकतम लाभकारी उपज के लिये अपर्याप्त सिध्द हो रही है।  देश के विभिन्न भागों में किये गये दीर्धकालीन परीक्षणों से यह सिध्द हो चुका है कि वर्तमान में संस्तुत नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश की डयोढ़ी मात्रा देने से उपज में सार्थक वृध्दि होती है। प्रगतिशील किसान जो कि उच्चतम आर्थिक उपज प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये स्थान विषेश के अनुसार, उर्वरकों की मात्रा की संस्तुति की जानी चाहिए।

फसलों में पोटाश का प्रयोग खेत की तैयारी के समय बुवाई/रोपाई के ठीक पहले करके मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए।  हल्की मिट्टी में उगाई जाने वाली कम अवधि की फसलों में पोटाश तत्व की हानि को रोकने के लिये बुआई के तीन-चार सप्ताह बाद पोटाश का खड़ी फसल में आंषिक प्रयोग लाभकारी रहता है।  पोटाश के प्रयोग का निर्धारण फसल की वृध्दि की अवस्था, वर्षा, मिट्टी का गठन, मौसम और प्रयोग विधि पर निर्भर करता है।

अधिक उपज एवं उत्तम गुणवत्ता के लिये पोटाश के प्रयोग की महत्ता एवं आवष्यकता पहले की तुलना में अब और अधिक है।  अत: अन्य पोशक तत्वों की संस्तुत मात्रा के साथ पोटाश की निर्धारित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।  इसके साथ ही वर्तमान पोटाश उर्वरक संस्तुतियों में सुधार की आवष्यकता है। 

मिट्टी में पोटाश की उपलब्ध मात्रा तथा पोटाश उर्वरक की मात्रा निर्धारित की जानी चाहिए।  औसत उपज प्राप्त करने वाले किसानों की तुलना में अधिक उपज प्राप्त करने वाले प्रगतिषील किसानों के लिये पोटाश उर्वरक की संस्तुति अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में होनीी चाहिए।


Authors

विमल खींची एवं श्रीराकेश

स्वामी केशवानन्द राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर -334006 

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