Organic Farming: Land and Life Requirements

भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। 60वें दशक की हरित क्रांति ने यद्यपि देश को खाद्यान्न की दिशा में आत्मनिर्भर बनाया लेकिन इसके दूसरे पहलू पर यदि गौर करें तो यह भी वास्तविकता है कि खेती में अंधाधुंध उर्वरकों के उपयोग से जल स्तर में गिरावट के साथ मृदा की उर्वरता भी प्रभावित हुई है

एक समय बाद खाद्यान्न उत्पादन न केवल स्थिर हो गया बल्कि प्रदूषण में भी बढ़ोतरी हुई है और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हुआ है। इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के लिये गत वर्षों से निरन्तर जेविक खेती के सिद्दांत को अपनाया गया है।

जैविक खेती जीवों के सहयोग से की जाने वाली खेती के तरीके को कहते हैं। जैविक खेती कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाये रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है.

जैविक खेती वह सदाबहार कृषि पद्धति है जो पर्यावरण की शुद्धता, जल व वायु की शुद्धता, भूमि का प्राकृतिक स्वरूप बनाने वाली, जल धारण क्षमता बढ़ाने वाली और धैर्यशील कृत संकल्पित होते हुए रसायनों का उपयोग आवश्यकता अनुसार कम से कम करते हुए कृषक को कम लागत से दीर्घकालीन स्थिर व अच्छी गुणवत्ता वाली पारम्परिक पद्धति है। जैविक खेती हर दृष्टि से सुरक्षित और ज्यादा मुनाफा देने वाली है।

जैविक खेती के लाभ

जैविक खेती के उपयोग से मिट्टी की संरचना में सुधार होता है जिससे उसकी उपजाऊ शक्ति बढ़ती है। मिट्टी में जैविक खेती के दौरान कम घनत्व, उच्च जल धारण क्षमता, उच्च माइक्रोबियल और उच्च मिट्टी श्वसन गतिविधिया होती है। कुदरती पोषण से ज़मीन की उर्वर क्षमता बनी रहती है जिससे उत्पादन भी अच्छा खासा होता है! सबसे बड़ी बात ये कि जैविक खेती पर्यावरण के हित में है और इससे तैयार खाने की चीज़ों में जिंक और आयरन जैसे खनिज तत्त्व बड़ी मात्रा में मौजूद होते हैं और ये दोनों तत्व सेहत के लिए ज़रूरी हैं।

जैविक खेती के प्रोडक्ट्स में आम तौर पर मिलने वाले खाद्य पदार्थों के मुकाबले ज्यादा एन्टी ऑक्सीडेंट पाए जाते हैं। और ये वो तत्व हैं जो शरीर की कोशिकाओं को नुकसान करनेवाले कणों से आपकी रक्षा करते हैं। जेविक खेती में रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से फसलों की गुणवत्ता बढती है, लागत में कमी आती है और किसानो की आय में भी वृद्धि आती है।

जैविक खेती से कई अप्रत्यक्ष लाभ किसानो और उपभोक्ताओ के लिए उपलब्ध है। जबकि उपभोक्ताओ को बेहतर स्वादिष्ट और पोषक मूल्यों के साथ स्वस्थ आहार मिलता है एवम् किसान परोक्ष रूप से स्वस्थ मिट्टी और कृषि उत्पादन वातावरण से लाभान्वित होते है।

जैविक खेती का उद्देश्य

इस प्रकार की खेती करने का मुख्य उद्देश्य यह है कि रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न हो तथा इसके स्थान पर जैविक उत्पाद का उपयोग अधिक से अधिक हो लेकिन वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए तुरंत उत्पादन में कमी न हो अत: इसे (रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को) वर्ष प्रति वर्ष चरणों में कम करते हुए जैविक उत्पादों को ही प्रोत्साहित करना है। जैविक खेती का प्रारूप निम्नलिखित प्रमुख क्रियाओं के क्रियान्वित करने से प्राप्त किया जा सकता है ।

1. कार्वनिक खादों का उपयोग ।
2. जीवाणु खादों का प्रयोग ।
3. फसल अवशेषों का उचित उपयोग
4. जैविक तरीकों द्वारा कीट व रोग नियंत्रण
5. फसल चक्र में दलहनी फसलों को अपनाना ।
6. मृदा संरक्षण क्रियाएं अपनाना ।

आखिर जैविक खेती ही क्यों.?

हमारे देश के खेतों या जोतो का आकार बेहद छोटा है और यहाँ का किसान सामान्यता: मझोला या छोटा है जिसके पास जमीन 2.5 से 5 एकढ़ ही है, वह खेती क़र्ज़ लेके करता है और उस से वह सिर्फ क़र्ज़ ही चुका पता है।

इस दशा में किसान की आवशयकता है की वो अपने संसाधन सस्ते, कम खर्चो में और आसानी से जुटाये और संसाधन उसे कही और नहीं उसके अपने खेत से जुटाना होंगे। इस दशा में जैविक खेती एक अच्छा और आसान विकल्प है। हम खेतों से उसके आस पास के संसाधनों से खेतों के लिए खाद कीटनाशक और अन्य कृषि उपयोगी साधन बना सकते है. खेती की प्रथम आवश्यकता है खाद और उर्वरक।

जेविक खाद
जैविक खाद वह खाद है, जिसमें रसायनिक खाद के स्थान पर गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद, जीवाणु कल्चर आदि का उपयोग किया जाता है जिससे न केवल भूमि की उर्वरा शक्ति लंबे समय तक बनी रहती है, बल्कि पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होता। साथ ही कृषि लागत घटने व उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ने से कृषक को अधिक लाभ भी मिलता है।

जैविक खादों के प्रयोग से मृदा का जैविक स्तर बढ़ता है, जिससे लाभकारी जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है और मृदा काफी उपजाऊ बनी रहती है। जैविक खाद पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक खनिज पदार्थ प्रदान कराते हैं, जो मृदा में मौजूद सूक्ष्म जीवों के द्वारा पौधों को मिलते हैं, जिससे पौधे स्वस्थ बनते हैं और उत्पादन बढ़ता है। रासायनिक खादों के मुकाबले जैविक खाद सस्ते और बनाने में आसान होते हैं।

इनके प्रयोग से मृदा में ह्यूमस की बढ़ोतरी होती है व मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है। पौध वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश तथा काफी मात्रा में गौण पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खादों के प्रयोग से ही हो जाती है। कीटों, बीमारियों तथा खरपतवारों का नियंत्रण काफी हद तक फसल चक्र, कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं, प्रतिरोध किस्मों और जैव उत्पादों द्वारा ही कर लिया जाता है।

जैविक खादें सड़ने पर कार्बनिक अम्ल देती हैं जो भूमि के अघुलनशील तत्वों को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देती हैं, जिससे मृदा का पीएच मान 7 से कम हो जाता है। अतः इससे सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है। यह तत्व फसल उत्पादन में आवश्यक है। इन खादों के प्रयोग से पोषक तत्व पौधों को काफी समय तक मिलते रहते हैं। यह खादें अपना अवशिष्ट गुण मृदा में छोड़ती हैं। अतः एक फसल में इन खादों के प्रयोग से दूसरी फसल को लाभ मिलता है। इससे मृदा उर्वरता का संतुलन ठीक रहता है।

जैविक खेती हेतु प्रमुख जैविक खाद निर्माण विधियां
1. नाडेप विधि:-

नाडेप विधि से कंपोस्ट बनाने की विधि अब लोकप्रिय हो चुकी है। यह परंपरागत तरीके से तैयार की गयी खाद से 3 से 4 गुना अधिक प्रभावशाली है। इस विधि की खोज महाराष्ट्र के एक किसान नारायणराव पांडरी पांडे उर्फ नाडेप काकाद्ध ने की है। इसलिए इस विधि को नाडेप विधि और इससे तैयार खाद को नाडेप कंपोस्ट कहते हैं।

नाडेप का आकार :- लम्बाई 12 फीट, चौड़ाई 5 फीट व उंचाई 3 फीट आकार का गड्डा बना लें।

भरने हेतु सामग्री :- 75 प्रतिशत वनस्पति के सूखे अवशेष, 20 प्रतिशत हरी घास, गाजर घास, पुवाल, 5 प्रतिशत गोबर, 2000 लिटर पानी ।
सभी प्रकार का कचरा छोटे-छोटे टुकड़ों में हो। गोबर को पानी से घोलकर कचरे को खूब भिगो दें । फावडे से मिलाकर गड्ड-मड्ड कर दें ।

विधि नंबर -1  नाडेप में कचरा 4 अंगुल भरें। इस पर मिट्टी 2 अंगुल डालें। मिट्टी को भी पानी से भिगो दें। जब पुरा नाडेप भर जाये तो उसे ढ़ालू बनाकर इस पर 4 अंगुल मोटी मिट्टी से ढ़ांप दें।

विधि नंबर-2 कचरे के ऊपर 12 से 15 किलो रॉक फास्फेट की परत बिछाकर पानी से भिंगो दें। इसके ऊपर 1 अंगुल मोटी मिट्टी बिछाकर पानी डालें। गङ्ढा पूरा भर जाने पर 4 अंगुल मोटी मिट्टी से ढांप दें।

विधि नंबर-3 कचरे की परत के ऊपर 2 अंगुल मोटी नीम की पत्ती हर परत पर बिछायें। इस खाद नाडेप कम्पोस्ट में 60 दिन बाद सब्बल से डेढ़-डेढ़ फुट पर छेद कर 15 टीन पानी में 5 पैकेट पी.एस.बी एवं 5 पैकेट एजेक्टोबेक्टर कल्चर को घोलकर छेदों में भर दें। इन छेदों को मिट्टी से बंद कर दें।

2.कम्पोस्ट खाद

कम्पोस्टिंग वनस्पति और पशु अपशिष्ट को तुरंत गलाकर खेत में मौजूद अन्य अपशिष्टों को भी पौधे के भोजन के लिए तैयार करते हैं। इन अपशिष्टों में पत्तियां, जड़ें, ठूंठ, फसल के अवशेष, पुआल, बाड़, घास-पात आदि शामिल हैं। तैयार कम्पोस्ट भुरभुरे, भूरा से गहरा भूरा आर्द्रता वाली सामग्री का मिश्रण जैसी होती है। मूल रूप से कम्पोस्ट दो प्रकार के होते हैं। पहला एरोबिक और दूसरा गैर-एरोबिक।

एरोबिक कम्पोस्टिंग-

इसमें प्रतिदिन मवेशी का प्रयुक्त बेडिंग, मवेशीशाला का झाड़ू बुहारन और कुछ मूत्र सनी मिट्टी अस्तबल से हटाई जाती है। इसे मवेशी के गोबर के साथ मिलाया जाता है और थोड़ी-सी राख मिला दी जाती है और इसे अच्छी निकासी वाले स्थल पर रखा जाता है। धीरे-धीरे 30 से 45 सेंमी ऊंचाई की परत बनती है। यह ढेर वर्षा ऋतु के शुरू होने के पहले बनता है।

पहली भारी वर्षा के बाद उसमें डूबी हुई सामग्रियां दोनों ओर की 1.2 मीटर पट्टी 2.4 मीटर चौड़ी पट्टी पर रेक बनाती है। इस प्रकार से ढेर की ऊंचाई लगभग एक मीटर बढ़ जाती है। यह प्रक्रिया आर्द्र क्षय से बचाती है और सड़न तुरंत आरंभ होना सुनिश्चित करती है। जब तीन से चार सप्ताह के बाद ढेर कम होता है तो इसे दूसरा टर्निंग दिया जाता है और अंदर की सामग्री के साथ बाहरी सामग्रियां मिलाकर नया ढेर बना लिया जाता है।

लगभग एक माह या अधिक दिनों के बाद यह वर्षा की मात्रा पर निर्भर करता है, बादल वाले दिन से ढेर को अंतिम टर्निंग दिया जाता है। कम्पोस्ट को चार माह के बाद प्रयोग किया जा सकता है।

गैर-एरोबिक कम्पोस्टिंग-

इसमें सुविधाजनक आकार के गड्ढे में फार्म के अवशेषों को जमा किया जाता है। सामान्य तौर पर यह लगभग 4.5 मीटर लंबा, 1.5 मीटर चौड़ा और एक मीटर गहरा होता है। प्रत्येक दिन के संग्रहण को पतली परत में फैला दिया जाता है।

उसके ऊपर ताजा गोमूत्र (4.5 लिटर), राख (140 से 170 ग्राम) और पानी (18 से 22 लीटर) का छिड़काव किया जाता है। तब यह सघन बना दिया जाता है। जब तक कच्ची सामग्री 30 से 46 सेंटीमीटर इसके किनारे से ऊपर होती है तब इसे मिट्टी और गोबर के मिश्रण से प्लास्टर कर दिया जाता है। सघन आर्द्र सामग्रियां आगे बिना किसी प्रकार के कार्य के ही लगभग चार से पांच माह में कम्पोस्ट बन जाती हैं। इस कम्पोस्ट में सामान्य रूप से करीब 0.8 से 1 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है।

३. केंचुआ खाद

हमारी मिट्टी में रहनेवाला केंचुआ रोज अपने वजन के बराबर कचरा/मिट्टी खाता है और उससे मिट्टी की तरह दानेदार खाद बनाता है। भूमि की उपरी सतह पर रहनेवाले लंबे गहरे रंग के केंचुए जो अधिकतर बरसात के मौसम में दिखाई पड़ते हैं, खाद बनाने के लिए उपयुक्त हैं।

केंचुए जमीन भी बनाते हैं जिससे मिट्टी में हवा का वहन होता है एवं मिट्टी की पानी धारण करने की क्षमता बढ़ती है। केंचुआ खाद में न सिर्फ नाइट्रोजन, पोटैशियम एवं फास्फोरस होता है वरन सभी 16 प्रकार के सूक्ष्म पोषक द्रव्य उपस्थित होते हैं। इसके साथ ही इसमें सेंद्रीय पदार्थ एवं उपयोगी जीवाणु होते हैं। इस खाद को जमीन में डालने से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति एवं सजीव शक्ति बढ़ती है। 2-3 वर्षों तक केंचुआ खाद जमीन में डालने पर भूमि पूरी तरह उपजाऊ हो जाएगी एवं किसी भी तरह की रासायनिक खाद को डालने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

इसके साथ ही कीटों का प्रकोप कम हो जाएगा जिससे रासायनिक कीटनाशक की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जैविक खाद होने के कारण वर्मी कम्पोस्ट में लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता अधिक होती है जो भूमि में रहने वाले सूक्ष्म जीवों के लिए लाभदायक एवं उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। वर्मी कम्पोस्ट में उपस्थित पौध पोषक तत्व पौधों को आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

मृदा में जीवांश पदार्थ (ह्यूमस) की वृद्धि होती है, जिससे मृदा संरचना, वायु संचार तथा मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ने के साथ-साथ भूमि उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है। अपशिष्ट पदार्थों या जैव उपघटित कूड़े-कचरे का पुर्नचक्रण आसानी से हो जाता है।

केंचुआ खाद तैयार करना

केंचुए सूर्य का प्रकाश एवं अधिक तापमान सहन नहीं कर सकते इसलिए केंचुआ खाद के उत्पादन के लिए छायादार जगह का होना आवश्यक है। यदि पेड़ की छाया उपलब्ध न हो तो लकड़ी गाड़कर कच्चे घास फूस का शेड बनाया जा सकता है। केंचुआ खाद उत्पादन के लिए वर्मी बेड बनाए जाते हैं जिसकी लंबाई 20 फुट तक हो सकती है किन्तु चौड़ाई 4 फुट से अधिक एवं ऊंचाई 2 फुट से अधिक नहीं होनी चाहिए।

इस बेड में पहले नीचे की तरफ ईंट के टुकड़े (3”-4”) फिर उपर रेत (2”) एवं मिट्टी (3”) का थर दिया जाता है जिससे विपरीत परिस्थिति में केंचुए इस बेड के अंदर सुरक्षित रह सके। इस बेड के ऊपर 6 से 12 इंच तक पुराना सड़ा हुआ कचरा केंचुओ के भोजन के रूप में डाला जाता है।20 फुट लंबे 1 बेड में करीब 1000 किलो तक सड़ा हुआ कचरा डाला जा सकता है। इसमें शुरूआत में 1000 केंचुए डालना आवश्यक है।

रोज बेड में हल्का-हल्का पानी छिड़कना आवश्यक है ताकि 50 से 60 प्रतिशत नमी कायम रहे। पूरे बेड को घास के पतले थर अथवा टाट की बोरियों से ढकना आवश्यक है ताकि सतह से नमी का वाष्पीकरण हो।


40 से 50 दिन के बाद जब घास की परत अथवा टाट बोरी हटाने के बाद हल्की दानेदार खाद ऊपर दिखाई पड़े, तब खाद के बेड में पानी देना बंद कर देना चाहिए। ऊपर की खाद सूखने से केंचुए धीरे-धीरे अंदर चले जाएंगे। ऊपर की खाद के छोटे-छोटे ढेर बेड में ही बनाकर एक दिन वैसे ही रखना चाहिए। दूसरे दिन उस खाद को निकालकर बेड के नजदीक में उसका ढेर कर लें।

खाली किए गए बेड में पुन: दूसरा कचरा जो केंचुओ के भोजन हेतु तैयार किया गया हो, डाल दें। खाद के ढेर के आसपास गोल घेरे में थोड़ा पुराना गोबर फैला दें और उसे गीला रखें। इसके ऊपर घास ढंक दें। इस प्रक्रिया में खाद में जो केचुएं रह गए हैं वे धीरे-धीरे गोबर में आ जाते हैं। इस तरह 2-3 दिन बाद खाद केंचुओं से मुक्त हो जाती है। बचे कचरे को केंचुओं सहित नजदीक के वर्मी बेड में डाल देते हैं।

खाद को छानकर बोरी में फेंक कर दें अथवा छायादार जगह में एक गङ्ढे में एकत्र करें और इस गङ्ढे को ढककर रखें ताकि खाद में नमी बनी रहे। इस प्रकार एक बेड से करीब 500 से 600 किलो केंचुआ खाद 30-40 दिन में प्राप्त होती है।

केंचुआ खाद के उपयोग की मात्रा

सामान्यतः एक एकड़ के लिए कम से कम पहले वर्ष 2000 किलो खाद डालना आवश्यक है। उसके बाद अगले वर्ष में सिर्फ 1000 किलो खाद डालने से भी अच्छे परिणाम आएंगे। सामान्यतः सब्जी वाली फसलों में 2-3 टन प्रति एकड़ की दर वर्मीकम्‍पोस्‍ट खेत में डालकर रोपाई या बुवाई करें।

4. वर्मी वाश

जिस तरह केंचुओं का मल (विष्ठा) खाद के रूप में उपयोगी है, उसी तरह इसका मूत्र भी तरल खाद के रूप में बहुत असरकारक होता है। वर्मी वाश एक बहुत ही पोषक द्रव्य है। इसमें पौधे के लिए उपयुक्त सभी सूक्ष्म पोषक तत्व उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इसी के साथ वर्मी वाश में हारमोन्स तथा एन्जाईम्स भी होते हैं जो फूलों एवं फलों के विकास में वृद्धि करते हैं। वर्मी वाश विशेषत: फल-फूल एवं सब्जियों के पौधों के लिए बहुत उपयोगी है।

वर्मी वाश की प्रकृति गोमूत्र की तरह तीव्र है अत: कम से कम 20 भाग पानी में मिलाकर (एक लीटर वर्मी वाश में 20 लीटर पानी मिलाएं) ही उसका छिड़काव करना चाहिए। इस तरह पौधे के आसपास गोलाई में कम से कम आधा लीटर पानी मिलाया हुआ वर्मी वाश डाला जाता है।वर्मी वाश के छिड़काव से न सिर्फ पौधों की वृद्धि अच्छी होती है बल्कि कीट नियंत्रण भी होता है।

वर्मी वाश का प्रयोग किसी भी फसल पर किया जा सकता है परंतु बहुत छोटे रोपों पर इसका उपयोग न करें क्योंकि उनके जल जाने का डर है। वर्मी वाश की मात्रा तीव्र होने से भी पौधे जल जाते हैं। अत: उचित मात्रा में पानी मिलाकर ही वर्मी वाश का उपयोग करें।
वर्मी वाश केंचुओं के मूत्र को इकट्ठा करने की एक विशेष पद्धति होती है जिसे वर्मी वाश पद्धति कहते हैं। वर्मी वाश बनाने के लिए 40 लीटर की प्लास्टिक की बाल्टी अथवा केन लेकर उसे

निम्न प्रकार से भरा जाता है। बाल्टी में नीचे एक छोटा छेद करते हैं जिससे वर्मी वाश एकत्र किया जाता है।
इंट के छोटे टुकड़े या छोटे-छोटे पत्थर – 5 इंच का थर, रेत मोटी बालू – 2 इंच का थर, मिट्टी – 3 इंच का थर, पुराना खाद / गोबर – 9-12 इंच का थर, घास का आवरण – 1-1.5 इंच का थर
इस तरह बाल्टी को भरकर उसमें करीब 200 से 300 केंचुए छोड़ देते हैं। वर्मी वाश की बाल्टी छायादार जगह में रखी जाती है। रोज इसमें हल्का-हल्का पानी छिड़कते रहना चाहिए। 30 दिनों तक बाल्टी के नीचे के छिद्र को अस्थाई रूप से बंद कर दिया जाता है। 30 दिन के बाद इस छिद्र को खोल कर उसके नीचे एक बरतन रखा जाता है जिसमें वर्मी वाश एकत्र होता है।

वर्मी वाश की बाल्टी में 4-4 घंटे के अंतर पर दिन में करीब 4 से 5 बार हल्के-हल्के पानी का छिड़काव किया जाता है। बाल्टी के छिद्र के नीचे के साफ बर्तन में बूंद-बूंद पानी एकत्र होता रहेगा।

वर्मी वाश का सिद्धांत

वर्मी वाश मूलत: केंचुओं के पसीना और मूत्र को एकत्र करने की पद्धति है। 30 दिन तक केंचुए बाल्टी में सतत उपर से नीचे चालान करते हैं। सामान्य तौर पर केंचुए रात में भोजन लेने के लिए उपर आते हैं एवं दिन में नीचे चले जाते हैं। इस तरह केंचुओं के लगातार चालन से कम्पोस्ट के बेड में बारीक-बारीक नलिकाएं बन जाती हैं।

केंचुए जब इन नलिकाओं से होकर गुजरते है तब केंचुओं के शरीर के ऊपर सतह से निकलने वाला स्राव जिसे मूत्र अथवा पसीना कहा जा सकता है, वह इन नलिकाओं में चिपक जाता है। जब उपर से डाला गया बूंद-बूंद पानी इन नलिकाओं में से होकर गुजरता है तब वह केंचुओं द्वारा निष्कासित स्राव को धोते हुए निकलता है। इस तरह जो पानी नीचे एकत्र होता है उसमें केंचुए के पसीने अथवा मूत्र का मिश्रण होता है।

5. हरी खाद

हरी खाद बनाने में लेगुमिनस पौधे का उत्पादन शामिल होता है। उनका उपयोग उनके सहजीवी नाइट्रोजन या नाइट्रोजन फिक्सिंग क्षमता के कारण किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में गैर-लेगुमिनस पौध का भी उपयोग किया जाता है। आमतौर पर मैदानी इलाके में सनई, ढेंचा आदि को हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। पूरी फसल को मिट्टी पलट हल से जोत दिया जाता है। इससे फसल मिट्टी में दब जाती है और सड़ने के बाद खाद बन जाती है।

जैविक खाद से फसलों में कीट नियन्त्र
देशी गाय का मट्ठा 5 लीटर लें । इसमें 3 किलो नीम की पत्ती या 2 किलो नीम खली डालकर 40 दिन तक सड़ायें फिर 5 लीटर मात्रा को 150 से 200 लिटर पानी में मिलाकर छिड़कने से एक एकड़ फसल पर इल्ली /रस चूसने वाले कीड़े नियंत्रित होंगे।

लहसुन 500 ग्राम, हरी मिर्च तीखी चिटपिटी 500 ग्राम लेकर बारीक पीसकर 150 लीटर पानी में घोलकर कीट नियंत्रण हेतु छिड़कें ।
10 लिटर गौ मूत्र में 2 किलो अकौआ के पत्ते डालकर 10 से 15 दिन सड़ाकर, इस मूत्र को आधा शेष बचने तक उबालें फिर इसके 1 लीटर मिश्रण को 150 लीटर पानी में मिलाकर रसचूसक कीट /इल्ली नियंत्रण हेतु छिड़कें।

बेशरम के पत्ते 3 किलो एवं धतूरे के तीन फल फोड़कर 3 लिटर पानी में उबालें । आधा पानी शेष बचने पर इसे छान लें । इस छने काढ़े में 500 ग्राम चने डालकर उबालें। ये चने चूहों के बिलों के पास शाम के समय डाल दें। इससे चूहों से निजात मिल सकेगी।

प्रति एकड़ बीज हेतु 3 से 5 लीटर देशी गाय का खट्टा मठ्ठा लें । इसमें प्रति लीटर 3 चने के आकार के बराबर हींग पीस कर घोल दें । इसे बीजों पर डालकर भिगों दें तथा 2 घंटे रखा रहने दें । उसके बाद बोयें । इससे उगरा नियंत्रित होगा ।3 से 5 लिटर गौ मूत्र में बीज भिगोकर 2 से 3 घंटे रख दें । उगरा नहीं लगेगा । दीमक से भी पौधा सुरक्षित रहेगा।

चावल में कीट के प्रबन्धन के लिए नीम 3 किलो . केलोट्रोपिस की पत्ती 2 किलो. कस्टर्ड की पत्ती 2 किलो, हाइप्टिस की पत्ती 2 किलो, धतूरे की पत्ती 2 किलो, गौमूत्र 15 लिटर एक ढक्कन लगे हुए मिट्टी के बर्तन में सभी भागों को मिलाएं और फर्मंटेशन के लिए 5-7 दिनों के लिए रख दें। उसके बाद भागों को अच्छे तरह मिलाएं और सत्व को छानकर इकट्ठा करें। सत्व का 5 लिटर प्रति 200 लिटर पानी प्रति एकड के दर से उपयोग करें।

इन दवाओं का असर केवल 5 से 7 दिन तक रहता है । अत: एक बार और छिड़कें जिससे कीटों की दूसरी पीढ़ी भी नष्ट हो सके।

जैव उर्वरक

जैव उर्वरक जीवाणु खाद है। खाद में मौजूद लाभकारी सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल में पहले से विद्यमान नाइट्रोजन को पकड़कर फसल को उपलब्ध कराते हैं और मिट्टी में मौजूद अघुलनशील फास्फोरस को पानी में घुलनशील बनाकर पौधों को देते हैं।

वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि जैविक खाद के प्रयोग से 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर भूमि को प्राप्त हो जाती है तथा उपज 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों को थोड़ा कम प्रयोग करके बदले में जैविक खाद का प्रयोग करके फसलों की भरपूर उपज पाई जा सकती है।

जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों के पूरक तो हैं ही, साथ ही ये उनकी क्षमता भी बढ़ाते हैं। फास्फोबैक्ट्रिया और माइकोराइजा नामक जैव उर्वरक के प्रयोग से खेत में फास्फोरस की उपलब्धता में 20 से 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है।

जैव उर्वरकों से लाभ

ये अन्य रासायनिक उर्वरकों से सस्ते होते हैं जिससे फसल उत्पादन की लागत घटती है। जैव उर्वरकों के प्रयोग से नाइट्रोजन व घुलनशील फास्फोरस की फसल के लिए उपलब्धता बढ़ती है। इससे रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो जाता है। जैविक खाद से पौधों मे वृद्धिकारक हारमोंस उत्पन्न होते हैं जिनसे उनकी बढ़वार पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। जैविक खाद से फसल में मृदाजन्य रोग नहीं होते। जैविक खाद से खेत में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या में बढ़ोतरी होती है और पर्यावरण सुरक्षित रहता है।

जैविक खाद का प्रयोग कैसे करें

जैव उर्वरकों का प्रयोग बीजोपचार या जड़ उपचार अथवा मृदा-उपचार द्वारा किया जाता है

बीजोपचार- बीजोपचार के लिए 200 ग्राम जैव उर्वरक का आधा लीटर पानी में घोल बनाएं। इस घोल को 10-15 किलो बीज के ढेर पर धीरे-धीरे डालकर हाथों से मिलाएं जिससे कि जैव उर्वरक अच्छी तरह और समान रूप से बीजों पर चिपक जाएं। इस प्रकार तैयार उपचारित बीज को छाया में सुखाकर तुरंत बुवाई कर दें।

जड़ उपचार- जैविक खाद का जड़ोपचार द्वारा प्रयोग रोपाई वाली फसलों में करते हैं। चार किलोग्राम जैव उर्वरक का 20-25 लीटर पानी में घोल बनाएं। एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त पौध की जड़ों को 25-30 मिनट तक उपरोक्त घोल में डुबोकर रखें। उपचारित पौध को छाया में रखे तथा यथाशीघ्र रोपाई कर दें।

मृदा उपचार- एक हेक्टेयर भूमि के लिए 200 ग्राम वाले 25 पैकेट जैविक खाद की आवश्यकता पड़ती है। 50 किलोग्राम मिट्टी, 50 किलोग्राम कम्पोस्ट खाद में 5 किलोग्राम जैव उर्वरक को अच्छी तरह मिलाएं। इस मिश्रण को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुवाई के समय या बुवाई से 24 घंटे पहले समान रूप से छिड़कें। इसे बुवाई के समय कूंडों या खूडो में भी डाल सकते हैं।

जैविक खेती के मार्ग में बाधाएं

भूमि संसाधनों को जैविक खेती से रासायनिक में बदलने में अधिक समय नहीं लगता लेकिन रासायनिक से जैविक में जाने में समय लगता है । शुरूआती समय में उत्पादन में कुछ गिरावट आ सकती है, जो कि किसान सहन नहीं करते है । अत: इस हेतु उन्हें अलग से प्रोत्साहन देना जरूरी है। आधुनिक रासायनिक खेती ने मृदा में उपस्थिति सूक्ष्म जीवाणुओं का नष्ट कर दिया अत: उनके पुन: निमार्ण में 3-4 वर्ष लग सकते हैं ।

भारत में जैविक खेती की संभावनाएं

भारत में 70 प्रतिशत छोटी जोत वाले सीमित साधनवाले किसान हैं। अब तो इन किसानों के पास पशुओं की संख्या भी तेजी से कम होती जा रही है। जैविक खेती के लिए उन्हें जैविक खाद खरीदना होता है। वैसे तो जैविक खाद निर्माताओं की संख्या की दृष्टि से देखें तो भारत में साढ़े पांच लाख जैविक खाद निर्माता हैं, जो विश्व के जैविक खाद निर्माताओं के एक तिहाई हैं। किन्तु भारत के 99 प्रतिशत खाद उत्पादक असंगठित, लघु क्षेत्र के हैं तथा इनमें से अधिकांश बिना प्रमाणीकरण करवाए जैविक खाद की आपूर्ति करते हैं।

जैविक खेती अपनाने वाले किसानों की शिकायत रहती है कि उन्हें उक्त खाद से दावा की हुई उपज की आधा उपज भी प्राप्त नहीं होती तथा भारी घाटा होता है। रासायनिक खेती छोड़कर बाजार से जैविक खाद खरीदकर जैविक खेती अपनाने वाले इन छोटे किसानों के कटु अनुभव को देखकर आसपास के ग्रामों के अन्य किसान जैविक खेती करने का इरादा त्याग देते हैं। जैविक खेती न अपनाए जाने का यह एक बड़ा कारण है ।

भारत में जैविक खेती की संभावनाएं तभी उजवल हो सकती हैं जब सरकार जैविक खेती करने वालों को प्रमाणीकृत खाद स्वयं के संस्थानों से सब्सिडी पर उपलब्ध करवाए तथा चार साल के लिए आमदनी की गारंटी का बीमा की व्यवस्था करके प्रारम्भिक सालों में होनेवाले घाटे की क्षतिपूर्ति करे। सरकार को पशुपालन को बढ़ावा देना चाहिए जिससे किसान जैविक खाद के लिए पूरी तरह बाजार पर आश्रित न रहे।


Authors

Dr.Vineeta Pandey
Assistant Professor
Dolphin PG College of Biomedical Sciences
Dehradun Uttrakhand 248007

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