Integrated nutrient management for sustainable crop production

वैश्विक खाद्य आपूर्ति की दीर्घावधि सुरक्षा हेतु उत्पादन में वृध्दि एवं वातावरणीय स्थायित्व के मध्य एक सन्तुलन की आवश्यकता है। पोषक तत्वों का अभाव एवं अतिरेख दोनों ही इस सन्तुलन को बिगाड सकते हैं। टिकाऊ फसल उत्पादन एवं मृदा स्वास्थ्य सन्तुलन हेतु , समन्वित पोषक प्रबंधन कृषि तंत्र में पोषक आपूर्ति का अभाव या उनकी अधिकता तथा कार्बनिक एवं अकार्बनिक दोनों पोषक स्त्रोतों के प्रबंधन की चुनौती का परीक्षण करता है।

सिद्धांतीय एवं अनुप्रयोगी ज्ञान के संयोजन के माध्यम से समन्वित पोषक प्रबंधन को किसी भी प्रकार के फसल उत्पादन तंत्र के लिए सफलता पूर्वक अंगीकृत किया जा सकता है। कृषि एक मृदा आधारित उद्योग है जिसमें मृदा से पोषकों का निष्कर्षण होता है।

दीर्घावधि हेतु टिकाऊ कृषि एवं  फसल उत्पादकता बढाने एवं मृदा स्वास्थ्य बनाए रखने हेतु प्रभावी एवं मृदा से पोषकों के मंद निष्कासन एवं पुर्नप्राप्ति के लिए प्रभावी एव दक्ष प्रयासों की आवश्यकता है। फसल उपज बढाने एवं उच्च स्तर मृदा स्थायित्व बनाए रखने की समग्र रणनीति में अन्य संपूरक मानकों के साथ - साथ मृदा पोषकों के प्रबंधन का समन्वित प्रयास किया जाना चाहिए।

एक समन्वित प्रयास दर्शाता है कि मृदा पादप वृद्वि के लिए अनिवार्य अधिकांश पोषक तत्वों का भण्डार ग्रह है एवं यह तरीका है जिसके द्वारा पोषकों का प्रबन्धन किया जाता है जो कि पादप वृध्दि, मृदा उर्वरता एवं कृषि स्थायित्व पर मुख्य रूप से प्रभाव डालते हैं। कृषक, अनुसंधानकर्ता, संस्थान एवं शासन सभी कृषि उत्पादकता स्थायी रखने में महत्वपूर्ण अपनी-अपनी भूमिका अदा करते हैं। 

पादप पोषक तत्व एवं मृदा उर्वरता:-

1. अनिवार्य पोषक तत्‍व:-

पादप वृध्दि विभिन्न जटिल प्रकियाओं का परिणाम है जिसमें पौधे सौर ऊर्जा, कार्बन डाई ऑक्साईड, जल एवं मृदा से पोषकों को ग्रहण कर संश्लेषण करते हैं। पादप वृध्दि के लिये समस्त 17 तत्व आवश्यक होते हैं। पादप वृध्दि के लिये प्राथमिक पोषक तत्व नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश हैं।

अपर्याप्त मात्रा में होने पर यह प्राथमिक पोषक तत्व सीमित पादप वृध्दि क़े लिये सदैव उत्तरदायी होते हैं। नत्रजन, जो कि अत्यन्त उपयोगी तत्व है यह वातावरण्ा में असीमित रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है एवं लगातार पादप, मृदा, जल एवं वायु में पुन: चक्रित होता रहता है जबकि यह हमेशा पौधों के संश्लेषण एवं उपयुक्त अवशोषण के लिये उपयोगित रूप में हमेशा अनुपलब्ध होता है।

प्राथमिक पोषकों के अतिरिक्त द्वितीयक पोषक (गंधक, कैल्शियम, मैग्नीशियम) कम सघनता से उपयोगित होने वाले समान रूप से आवश्यक होते हैं। सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे लोहा, मैंगनीज, जस्ता, तांबा, बोरोन एवं मोल्बिडिनम भी पादप वृध्दि प्रभावित करते हैं।

इन सूक्ष्म पोषक तत्व की लघु मात्रा में (कुछ ग्राम से 100 ग्राम/ है. तक) पादप उपापचयी क्रियाओं की उचित क्रियाशीलता के लिये आवश्यकता होती है। इन पोषिकों की पूर्णत: अथवा सापेक्ष अनुपस्थिति से पादप वृध्दि अवरोधित होती है साथ ही इनकी अत्यधिक सान्द्रता भी पादप एवं मानव के लिये विषैली हो सकती है।

2- मृदा के गुण :-

पादप पोषिकों की अपेक्षा उत्पादकता मृदा की क्षमता पर निर्भर भी करती है। मृदा के भौतिक, जैविक एवं रासायनिक गुण उदाहरण के लिये इसकी कार्बनिक पदार्थ की मात्रा, अम्लता, गठन, गहराई एवं जलधारण क्षमता आदि सभी उर्वरता को प्रभावित करती हैं क्योंकि ये गुण मृदाओं में भिन्न होते हैं जिससे मृदायें भी गुणवत्ता में भिन्न होती हैं

कुछ मृदायें अपने गठन अथवा गहराई के कारण अनुवाषिंक रूप से उत्पादक होती हैं क्योंकि इस प्रकार की मृदायें जल एवं पोषकों को अधिक मात्रा में संग्रहित कर उन्हें पौधों को उपलब्ध कराती हैं जबकि अन्य मृदाओें में कम पोषक तत्व एवं कार्बनिक पदार्थ पाये जाने के कारण ये उर्वर नहीं होती हैं। मृदा प्रबंधन का तरीका भी मृदा की प्राकृतिक गुणवत्ता को सुधार या बिगाड सकता है।

मृदा के कुप्रबन्धन से लाखों एकड भूमि का स्खलन, सुदृढीकरण, क्षारीयकरण, अम्लीकरण एवं भारी धातुओं के द्वारा प्रदुषण आदि के द्वारा अनुत्पादन हो जाती हैं। मृदा के पुन: अवकरण की उत्क्रम प्रकिया मंहगी एवं समय लेने वाली है। कुछ अत्यधिक अवकृत मृदायेें सुधारी भी नहीं जा सकती हैं। दूसरे शब्दों में उत्तम प्रबन्धन मृदा की भौतिक क्षतियों को सीमित कर सकता है।

उत्तम प्रबन्धन में आच्छादित फसलों का उपयोग एवं मृदा संरक्षण उपाय, मृदा में कार्बनिक पदाथों को मिलाना एवं रासायनिक उर्वरक, कीटनाशी व प्रक्षेत्र यंत्रों का विवेकपूर्ण उपयोग सम्मिलित है। कार्बनिक पदार्थ मात्रा मृदा उर्वरता के उचित प्रबन्धन के लिये महत्वपूर्ण है।

मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ जलधारण क्षमता एवं सूखा प्रतिरोधकता में सुधार कर पादप वृध्दि में सहायता करता है। इसके अतिरिक्त कार्बनिक पदार्थ उत्तम वातायन, पोषकों की उपलब्धता व अवशोषण में वृध्दि कर मृदा को निक्षालन एवं स्खलन हेतु निम्न सुग्राही बनाता है।

3- पादप आवश्यकतायें:-

जितनी अधिक उपज होगी उतनी ही अधिक मात्रा में पोषक आवश्यकता होती है। एक या अधिक पोषकों की कमी पादप वृद्वि को संदर्भित या रोक सकती है लेकिन अत्यधिक पोषक विशेषकर जो अकार्बनिक उर्वरकों के माध्यम दिए जाते हैं वे अनुपयोगी, मंहगे एवं कभी-कभी वातावरण के लिए हानिकारक होते हैं। मृदा भंडारित पोषकों का गृह का कृषक द्वारा प्रभावी एवं दक्ष प्रबंधन मृदा उर्वरता नियमन एवं अधिक उपज में स्थायित्व हेतु अनिवार्य है। फसल के स्वस्थ वृद्वि एवं अनुकूल उपज स्तर प्राप्त करने के लिए पोषकों को ना केवल उचित मात्रा व अनुपात अपितु सही समय पर उपयोगित रूप में उपलब्ध होना चाहिये। कृषकों के लिये अनुकूल आर्थिक लाभ भौतिक अनुकूलता से भिन्न हो सकती है जो कि आदानों के लागत एवं बढी हुई पैदावार से प्राप्त लाभ के मूल्य पर निर्भर करती है।

4- पोषक चक्र:-

Plant nutrient balance mechanism

मृदा पोषक उपलब्धता समय के साथ परिवर्तित होती है। मृदा के अन्दर व बाहर पोषकों का निरन्तर पुन: चक्रण पोषक चक्र के नाम से जाना जाता है। इस चक्र में कई जटिल जैविकी एवं रासायनिक क्रियायें भी सम्मिलित होती हैं। इनमें से कुछ अब तक पूरी तरह से समझी नहीं जा सकी हैं।

पादप वृध्दि के इस चक्र का सरलीकृत रूप आरेख-1 में दर्शाया गया है। इस सरलीकृत चक्र के दो भाग हैं “आगत” जो कि मृदा में पादप पोषकों को उपलब्धता बढाता है एवं “उत्पादन” जो कि मृदा से कृषि उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है।

महत्वपूर्ण आगत स्रोतों में अकार्बनिक उर्वरक, कार्बनिक उर्वरक जैसे खाद, पादप अवशेष एवं आच्छादित फसलें, दलहनी पौधों द्वारा जनित नत्रजन एवं वायुमण्डलीय नत्रजन जमाव पोषक तत्व खेतों से फसल एवं फसल अवशेष तथा निक्षालन, वायुमण्डलीय वाश्पीकरण एवं स्खलन द्वारा निकल जाते हैं। आगत एवं उत्पादन आयतन के बीच का अन्तर पोषक सन्तुलन करता है।

मृदा में धनात्मक पोषक संतुलन (जब मृदा में पोषकों को संयोजन मृदा से निकले पोषकों की तुलना में अधिक होता है) दर्शाता है कि कृषि तंत्र कुशलतापूर्वक कार्य करने में असमर्थ है व चरम में यह वातावरण को प्रदूषित कर सकता है।

ऋृणात्मक संतुलन दर्शाता है कि मृदा का दोहन किया जा रहा है एवं इस प्रकार के कृषि तंत्र दीर्घावधि तक स्थाई नहीं होते हैं एवं कुछ समय पश्चात् कृषि उत्पादन एवं मृदा उर्वरता को भविष्य में बनाये रखने के लिये पोषकों की आपूर्ति करना है।

विकसित आधुनिक किस्मों के बीज एवं पर्याप्त जल आपूर्ति के साथ पोषकों की अकार्बनिक उर्वरक के रूप में किफायती आपूर्ति एक महत्वपूर्ण कारक है जिससे उपज में अत्यधिक वृध्दि प्राप्त होती है जो कि 1960 एवं 1970 की हरित क्रांति में उदाहरण द्वारा समझाया गया है।

पोषक तत्व अनुप्रयोग एवं वातावरणीय प्रदूषण :-

हाल ही के वर्षों में विषय उभरा है कि उर्वरकों विशेषकर अकार्बनिक उर्वरक के उपयोग से गंभीर वातावरणीय समस्याऐं उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार का वातावरणीय प्रदूषण विकसित विश्व एवं विकासशील विश्व के कुछ क्षेत्रों में एक बडी समस्या है। अनेक विकसित देशों में उर्वरक कुल उत्पादन लागत का एक छोटा हिस्सा बनाते हैं। कृषक हमेशा उर्वरकों को अधिक उपज सुनिश्चित करने के उद्देश्य से अनुशंसित स्तर से अधिक मात्रा में उपयोग करते हैं।

अनुसंधानों एवं अध्ययनों के अनुसार रासायनिक उर्वरकों का मृदा में प्रभाव तत्काल प्रकट नहीं होता है क्योंकि मृदा में उसके अवयवों के कारण प्रबल बफरिंग शक्ति होती है। समय के साथ -साथ प्रदूषण मृदा उर्वरता को बदतर करता है। मृदा विघटनकारी क्रियाऐं मृदा में संपन्न होती है जिसके कारण वर्तमान तत्वों के संतुलन में विकृति उत्पन्न होती है इसके अतिरिक्त सब्जियों में विषेले पदार्थों का संचलन मानव एवं पशुओं के खाद्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

कृषि उत्पादकता में मृदा संरचना का अत्यधिक महत्वूपर्ण योगदान होता है एवं इसे एक सूचक के रूप में जाना जाता है अनजाने में ही मृदा में उर्वरकों का उपयोग एवं उद्योगों का उत्सर्जन मृदा संरचना को खराब करता है विशेषकर सोडियम नाइट्रेट, अमोनियम नाइट्रेट, पोटेशियम क्लोराइड, पोटेशियम सल्फेट, अमोनियम क्लोराइड संरचना खराब करते हैं।

मृदा संरचना खराब होने से उच्च गुणवत्ता व दक्ष उत्पाद प्राप्त करना कठिन होता है विशेष रूप से सोडियम व पोटेशियम की उच्च मात्रा वाले उर्वरक मृदा पी.एच. पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। मृदा संरचना बिगडने एवं अम्लता में वृध्दि होने पर सिंचाई एवं अन्य कृषि क्रियाओं से लाभ प्राप्त करना सम्भव नहीं हो पाता है।

अम्ल उत्पादक नत्रजन उर्वरकों के निरन्तर प्रयोग से मृदा पी.एच. में गिरावट आती है इस स्थिति में यदि चूने का प्रयोग ना किया जाये तो फसलों की क्षमता गिरती है। मृदा में उर्वरकों के प्रयोग से पी.एच. में वृध्दि होती है एवं मृदा में इनके संचयन से मृदा प्रदूषण में वृध्दि होती है। मृदा पी.एच. में वृध्दि से उपज एवं उत्पाद की गुणवत्ता में कमी आ जाती है।

समन्वित पोषक प्रबंधन का प्रायोगिक तात्पर्य एवं लाभ:-

स्थाई कृषि उत्पादन में यह सुझाव समाविष्ट किया गया है कि प्राकृतिक संसाधनों को क्षरण किये बिना उत्पादन एवं आय में वृध्दि करने हेतु विशेषकर निम्न आय वर्ग में उपयोग किया जाना चाहिये।इस सन्दर्भ में समन्वित पोषक प्रबन्धन मृदा को वानस्पतिक वृध्दि के लिये अनिवार्य पादप पोषकों के भण्डार गृह के रूप में स्थिर रखता है।

समन्वित पोषक प्रबंधन का उद्देश्य पादप पोषकों के समस्त प्राकृतिक एवं मानव निर्मित स्रोतों का समन्वित उपयोग करना है जिससे फसल उत्पादकता में दक्षतापूर्वक एवं बिना भावी पीढियों की मृदा उत्पादकता संरक्षित कर बिना वातावरणीय स्थायित्व को प्रभावित किये ठीक प्रकार से वृध्दि हो।

समन्वित पोषक प्रबंधन के अन्तर्गत अनेक कारक हैं जिनमें उपयुक्त पोषक अनुपयोग, संरक्षण एवं समन्वित पोषक प्रबंधन क्रियाओं के ज्ञान का कृषकों व अनुसंधान कर्ताओं तक स्थानान्तरण सम्मिलित है।

एक निष्कर्ष के अनुसार कार्बनिक सुधारकों का सूक्ष्मजीवी परिवर्तन के द्वारा पौधों को उपलब्ध नत्रजन, स्फुर एवं गंधक एवं गैसीय नत्रजन रूप नत्रजनचक्र प्रकिया कार्बनिक पदार्थों का अत्यन्त दक्ष प्रयोग निम्न के लिये है।

  1. मृदा स्वास्थ्य एवं उत्पादकता पर कृषिगत प्रबंधन के प्रभाव का मूल्यांकन।
  2. विनाइट्रीकरण क्षमता एवं हरितगृह गैसों के उत्सर्जन का निर्धारण
  3. टिकाउ कृषि के लिये पोषक प्रबंधन क्रियाओं के चयन में सहायता करना।

उपरोक्त निष्कर्ष के अनेक व्यावहारिक उपयोग हैं:-

संकीर्ण कार्बन: नत्रजन अनुपात वाले कार्बनिक पदार्थ (मुर्गीपालन खाद एवं हरी खाद) को फसल बुवाई के समय समाविष्ट करने से पर्याप्त मात्रा में खनिज नत्रजन प्राप्त होती हैं जिसकी फसल को प्रारम्भिक वृध्दि अवधि के दौरान आवश्यकता होती है जबकि कुछ प्रारम्भिक नत्रजन की आवश्यकता तब होती है जब विस्तृत कार्बन: नत्रजन अनुपात वाले कार्बनिक पदार्थों (पशु खाद, प्रेसमड, अनाज फसल अवशेष) को समाविष्ट किया जाता है।

खनिज नत्रजन का स्थिरीकरण अत्यधिक बढाने के लिए विस्तृत कार्बन: नत्रजन अनुपात वाले फसल अवशेष का समावेश, नत्रजन उर्वरक का प्रयोग पुन: खनिजीकरण प्रक्रिया को लगभग तीन सप्ताह अवधि पश्चात सुसाध्य बनाता है।

समन्वित पोषक प्रबंधन का अवषेषी प्रभाव विभिन्न फसल तंत्रों में अगली फसल की उपज में 9-35 प्रतिषत अधिक उत्पादन करता है।

दलहनी फसलों की हरी खाद एवं उर्वरक नत्रजन का संयोजी उपयोग विस्तृत कार्बन:नत्रजन अनुपात वाले अनाज फसल अवशेष के समावेश के कारण उत्पन्न्न बुरे प्रभाव को दूर करता है।

मूंगफली-सूरजमुखी चक्र में मूंगफली फसल अवशेष का पर्याप्त दर के नत्रजन एवं स्फुर उर्वरक के साथ संयोजी रूप से समावेश करने पर उपज वृद्वि, नत्रजन एवं स्फुर अंतग्रहण एवं पोषक उपयोग दक्षता में अतिरिक्त प्रभाव दिखाता है।

अनुसंशित उर्वरकों के साथ समन्वित पोषक प्रबंधन से फसलों के उपज क्षमता में वृद्वि होती है। उदाहरण के तौर पर सरसों में दाने की उपज 100 किलोग्राम नत्रजन प्रति हैक्टेयर एवं 30 किलोग्राम P2O5 प्रति हैक्टेयर जो कि अनुशंसित दर है तक सार्थक रूप से बढती है लेकिन इसके पश्चात और नत्रजन उर्वरक दर 150 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तक  बढाने पर अत्यधिक वानस्पतिक वृद्वि के परिणामस्वरुप उपज में कमी आ जाती है

इसके विपरीत सभी 4 वर्षों तक हरी खाद का 100 किलोग्राम नत्रजन प्रति हैक्टैयर के साथ संयोजी रूप से उपयोग करने पर सरसों के उपज वृद्वि में 11 प्रतिषत का सुधार होता है। इसी प्रकार चावल व राई के उपज वृद्वि में 10 से 16 प्रतिशत की वृद्वि होती है। एक अन्य अध्ययन में भी दर्शाया गया है कि यह लाभ उर्वरक की किसी भी मात्रा से प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

सारांश:-

अकार्बनिक उर्वरकों को कार्बनिक एवं जैविक स्त्रोतों के संयोजन के साथ वातावरण को प्रदूषित किए बिना उच्च उपज प्राप्त करने हेतु पोषकों को उपलब्ध कराने हेतु लक्ष्य दृष्टिकोण से एक पर्याप्त एवं संतुलित मात्रा में प्रयोग आवश्यक है इसी समय पर द्वितीयक पोषकों एवं सूक्ष्म पोषकों का उपयोग एवं उपलब्धता विकसित करने, कार्बनिक उर्वरकों, जैव उर्वरकों, एवं मृदा संरक्षण क्रियाओें को अपनाने हेतु प्रत्येक प्रयास किए जाने चाहिए।

कृषकों को वातावरण स्थायित्व करने में सरकारी सहायता की आवश्यकता है जिससे कि वे अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुसार उपयुक्त तकनीकों का चयन कर सकें, वर्तमान में कुछ विकसित देशों एवं विकासशील देशों के कुछ भागों में अत्यधिक उर्वरक उपयोग होने के कारण वातावरण दूषित हो रहा है उर्वरकों का समुचित एवं जिम्मेदारीपूर्ण उपयोग उपज बनाए रखने एवं प्रदूषण न्यूनतम रखने में मदद करता है।

इसके विपरीत अधिकांश विकासशील देशों में उर्वरक उपयोग का स्तर काफी निम्न है इसलिए वहां इसके अनुप्रयोग से उत्पन्न वातावरणीय समस्याओं की संभावना भी कम है । वास्तविकता में, कार्बनिक एवं अकार्बनिक उर्वरकों का अधिक उपयोग इन क्षेत्रों में उपज में वृद्वि एवं स्वस्थ वातावरण के लिए लाभदायक सिद्व हो सकता है।


Authors

डॉ. प्रियदर्शनी खम्बालकर, डॉ. एस.के.वर्मा, डॉ. संजय कुमार शर्मा, डॉ. शशि यादव एवं डॉ. मुरलीधर जे.सदावर्ती

 राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय, ग्वालियर, म.प्र.

 भा.कृ.अनु.प.- केन्द्रीय आलू अनुसन्धान केन्द्र, ग्वालियर, म.प्र.

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