Advanced cultivation of golden fibre jute: an overview

जूट को भारत का सुनहरा रेशा ('गोल्डन फाइबर') माना जाता है। जूट  प्राकृतिक, नवीकरणीय, जैवनिम्ननीय और पर्यावरण-अनुकूल उत्पाद है, जिसका उपयोग ज़्यादातर पैकेजिंग सामग्री के रूप में किया जाता है, आजकल इसे पैकेजिंग क्षेत्र में सस्ते सिंथेटिक्स से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। पारंपरिक पैकेजिंग क्षेत्र के अलावा, जूट का उपयोग बड़े और छोटे उद्योगों में कपड़ा और गैर-कपड़ा दोनों क्षेत्रों में किया जाता रहा है।

जूट पर्यावरण के अनुकूल है, जैवनिम्ननीय है और इसमें CO2 अवशोषण दर बहुत अधिक होने के कारण, इसको पर्यावरण के अनुकुल बनाता है और 'सुरक्षित' पैकेजिंग के सभी मानकों को पूरा करता है जो इसके व्यवसायिक विकास के लिए एक समग्र अवसर पैदा करता है।

जूट के वैश्विक उत्पाद  में भारत का एक प्रमुख हिस्सेदारी है, यह विश्व के कुल जूट उत्पादन में 70% का योगदान देता है। जूट उद्योग प्रत्यक्ष तौर पर लगभग 3.7 लाख श्रमिकों को रोज़गार प्रदान करता है और लगभग 90% उत्पादन की खपत घरेलू स्तर की की जाती है। लगभग 73% जूट उद्योग का केंद्र पश्चिम बंगाल है (कुल 108 जूट मिलों में से 79 पश्चिम बंगाल में स्थित हैं)।

जूट की गुणवत्ता में सुधार और विविधीकरण के लिए प्रौद्योगिकियों मे वैज्ञानीक नवचार व अनुसन्धान के कारण फर्निशिंग, आंतरिक सजावट, परिधान, ड्रेस सामग्री, भू- सन्रक्षण, कृषि-वस्त्र, हस्तशिल्प, मुलायम सामान आदि के लिए अन्य प्राकृतिक या मानव निर्मित रेशों के साथ जूट का सम्मिश्रण शामिल है। इन प्रौद्योगिकियों को अपनाने से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा होंगे और छोटे उद्यमियों द्वारा आय सृजन होगा। जूट आधारित भू- सन्रक्षण और कृषि-वस्त्र में मृदा संरक्षण, नदी तट की सुरक्षा, सड़क निर्माण आदि में संभावित अनुप्रयोग हैं।

यह फसल कागज और लुगदी उद्योगों के लिए रेशेदार सामग्री के संभावित वैकल्पिक स्रोत के रूप में भी उभर रही है। इसका उपयोग भारत में गरीब परिवारों के पोषण में सुधार के लिए पत्तेदार सब्जियों के रूप में भी किया जाता है। जूट जीनोटाइप के पोषण गुणों के मूल्यांकन से पता चला है कि जूट बीटा कैरोटीन, विटामिन सी और रोग से लड़ने वाले फिनोल जैसे एंटीऑक्सीडेंट का सबसे समृद्ध स्रोत है।

जूट का उपयोग इथेनॉल के स्रोत के रूप में भी किया जाता है। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि जूट का भविष्य उज्ज्वल है, बशर्ते हम इसकी अनेक अनूठी विशेषताओं का दोहन करके अवसर का लाभ उठा सकें।

वित्तीय वर्ष 2022-23 में जूट से निर्मित वस्तुओं के उत्पादन में कुल 1,246,500 मीट्रिक टन (MT) के साथ महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई। जूट से निर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़कर 177,270 मीट्रिक टन हो गया, जो कुल उत्पादन का लगभग 14% है। यह वर्ष 2019-20 के निर्यात के आँकड़ों की तुलना में 56% की उल्लेखनीय वृद्धि दर्शाता है।

जूट की उत्पादकता में यह उल्लेखनीय वृद्धि उच्च उपज देने वाली और समय से पहले फूल आने वाली प्रतिरोधी किस्मों के समावेशन और प्रसार के साथ-साथ स्थान विशेष में बेहतर फसल उत्पादन, संरक्षण और परिस्कृत सड़न प्रौद्योगिकियों के कारण संभव हुई। उत्पादन की बढ़ी हुई लागत विशेष रूप से श्रम और उर्वरकों की बढ़ी हुई लागत और सड़न के लिए पर्याप्त पानी की कमी, क्षेत्र विस्तार के रास्ते में आने वाले प्रमुख बाधक हैं।

भारत के जूट उगाने वाले क्षेत्रों को नौ कृषि-जलवायु क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया है, जिनमें पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, बिहार, उत्तर प्रदेश, मेघालय और त्रिपुरा राज्य शामिल हैं। भारतीय जलवायु परिस्थितियों में जूट की संभावित उपज 40 क्विंटल/हेक्टेयर तक है। संभावित उपज और राष्ट्रीय औसत उपज के बीच में उपज का बहुत अंतर है। इसलिए, उचित पोषक तत्व प्रबंधन और अन्य कृषि संबंधी प्रथाओं के माध्यम से उपज के अंतर को पाटने की गुंजाइश है।

रेशा, जूट की दो खेती की जाने वाली प्रजातियों के तने से निकाला जाता है। ये प्रजातियां हैं, कॉरकोरस ओलिटोरियस एल. (टोसा जूट) और कॉरकोरस कैप्सुलरिस एल. (सफेद जूट)।

सत्तर के दशक की शुरुआत तक, सफेद जूट की किस्में जूट उगाने वाले 80% से अधिक क्षेत्रों पर कब्जा कर लेती थीं परन्तु, सन् 1967, 1971 और 1977 में क्रमशः ‘जेआरओ 878’, ‘जेआरओ 7835’ और ‘जेआरओ 524’ जैसी समय से पहले फूल आने वाली प्रतिरोधी टोसा जूट किस्मों के विकास ने टोसा जूट को जल्दी बोने और पूर्वी भारत के चावल आधारित फसल क्रम में खरीफ चावल से पहले बोने में सक्षम बनाया। परिणामस्वरूप, 80% जूट क्षेत्र टोसा जूट के अंतर्गत आ गया, क्योंकि इसमें फाइबर की अधिक उपज होती है।

जलवायु की अनुकूलता और मिट्टी

जूट को गर्म और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है और इसे 24 से 37 डिग्री सेल्सियस के तापमान और 57 से 97% की सापेक्ष आर्द्रता के भीतर उगाया जा सकता है। जूट की फसल बारिश और धूप के बीच में अच्छी तरह से पनपती है। वर्षा की मात्रा और उसके वितरण का फसल की वृद्धि और अंततः रेशा की उपज पर प्रभाव पड़ता है।

आदर्श स्थिति में, 120-150 मिमी पूर्व-मानसूनीय बारिश के बाद 30-40 दिनों की शुष्क अवधि और पिछले 75-80 दिनों में 1200 से 1500 मिमी वर्षा जूट की फसल के विकास के लिए सबसे अनुकूल स्थिति मानी जाती है।

जूट अधिक गाद वाली नई जलोढ़ मिट्टी पर अच्छी तरह से उगता है, लेकिन अन्य प्रकार की मिट्टी पर भी उग सकता है। भारत में, यह मुख्य रूप से कोल्यूवियम, लाल और लैटेराइट, कैल्शियमयुक्त मिट्टी में उगाया जाता है।

अम्लीय से सामान्य पी. एच. की मिट्टी जूट की खेती के लिए उपयुक्त हैं।  जूट की प्रतिक्रिया मिट्टी के प्रकार के अनुसार प्रयुक्त कार्बनिक उर्वरक और नत्र्जन, फोस्फोरस एवम पोटाश की प्रति हेक्टर मात्रा, प्रयोग का समय, स्थान, फसल संयोजन आदि के साथ परिवर्तित होती है, जो यह दर्शाता है कि व्यापक उर्वरक अनुशंसा मिट्टी की उर्वरता के साथ-साथ रेशा के उत्पादन की लागत को भी प्रभावित करती है।

 

चित्र 1. जुट की खरी फसल  

जूट बुआई का समय, बीज दर और दुरी

जूट फसल की बुवाई मार्च से अप्रैल में पहली बारिश के साथ की जा सकती है। वर्षा आधारित परिस्थितियों में, मानसून के देर से आने के कारण बुवाई में अक्सर अप्रैल के अंत या मई की शुरुआत तक देरी से की जा सकती है।

बीज जनित रोगों के नियंत्रण के लिए बीज को कार्बेन्डाजिम @ 2 ग्राम/किग्रा या ट्राइकोडर्मा @ 10 ग्राम/किग्रा बीज की दर से उपचारित किया जाना चाहिए। ओलिटोरियस और कैप्सुलरिस जूट को क्रमशः 4-6 और 6-8 किलोग्राम/हेक्टेयर की बीज दर के साथ 25 सेमी x 5-7 सेमी और 30 सेमी x 5-7 सेमी की दूरी पर बोया जाता है।

जूट फसल पोषक तत्व प्रबंधन

उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी की उर्वरता स्थिति के अनुसार किया जाना चाहिए। जिन मिट्टी में गाद सामान्य रूप से जमा होती है, वहां रसायनिक खाद का प्रयोग आवश्यक नहीं है, लेकिन बुवाई से पहले 5-10 टन/हेक्टेयर की दर से  गोबर खाद का प्रयोग न केवल उपज को अधिकतम करेगा बल्कि टिकाऊ कृषि को भी बढ़ावा देता है।

ओलिटोरियस और कैप्सुलरिस जूट दोनों के लिए अनुशंसित उर्वरक खुराक मिट्टी की उर्वरता  के अनुसार नीचे दी गई है।

शी. ओलिटोरियस  प्रजाति के लिए अनुशंसित उर्वरक खुराक

निम्न उर्वरता  : N2 : P2 O5  : K2O (80 : 40 : 40, किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर)

मध्यम उर्वरता  : N2 : P2 O5  : K2O  (60 : 30 : 30, किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर)

उच्च उर्वरता : N2 : P2 O5  : K2O  (40: 20: 20, किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर)

शी. कैप्सुलरिस   प्रजाति के लिए अनुशंसित उर्वरक खुराक

निम्न उर्वरता  : N2 : P2 O5  : K2O  (80 : 40 : 40 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर )   

मध्यम से उच्च उर्वरता : N2 : P2 O5  : K2O  (60 : 30 : 30 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर)

जूट की फसल के लिए नाइट्रोजन प्रमुख उपज निर्धारण पोषक तत्व है। जूट के लिए अमोनियम सल्फेट नाइट्रोजन का बेहतर स्रोत पाया गया  है। अध्ययनों से पता चला है कि 3.1 टन/ हेक्टेयर रेशा उत्पन्न करने वाली ऑलिटोरियस जूट (सी. वी. जेआरओ 632) की फसल ने 65 किग्रा नत्रजन , 23 किग्रा फॉस्फोरस, 136 किग्रा पोटाश, 91.4 किग्रा कैल्शियम और 20 किग्रा मैग्नीशिय प्रति हेक्टेयर अवशोसित किया, जबकि कैप्सुलरिस जूट (सीवी. जेआरसी 212) 2.0 टन/हेक्टेयर फाइबर उत्पन्न करने वाली फसल ने क्रमशः 84 किग्रा नत्रजन, 16.2 किग्रा फॉस्फोरस, 97.5 किग्रा कैल्शियम, 85.7 किग्रा कैल्शियम और 29.6 किग्रा मैग्नीशियम प्रति हेक्टेयर अवशोसित किया।

यूरिया @ 20 किग्रा (नाइट्रोजन) प्रति हैक्टर + ग्लिरिसिडिया कम्पोस्ट @ 2.5 टन प्रति हैक्टर (~20 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हैक्टर) यूरिया के रूप में डाले गए 40 किग्रा नाइट्रोजन प्रति हैक्टर के बराबर उपज देता है। औसतन, प्रति हैक्टर लगभग 15 टन हरी जूट की पत्तियां फसल उगाने के दौरान खेत में डाली जाती हैं।

सल्फर जड़ की वृद्धि, बीज निर्माण को उत्तेजित करता है और विभिन्न एंजाइम संश्लेषण में मदद करता है। यह फाइबर फसलों की फाइबर गुणवत्ता में भी सुधार करता है।

एक अंतःक्रिया अध्ययन में, चौधरी (1989) ने देखा कि पोटासियम (@ 40 किग्रा पोटाश  प्रति हेक्टेयर) और मैग्नीशियम  (@ 10 किग्रा MgSO4 .7 H2O प्रति हेक्टेयर) ने दोनों जूट किस्मों (JRO 632 और JRC 212) की वृद्धि और उपज को अनुकूल रूप से प्रभावित किया। इसलिए, नत्रजन,फॉस्फोरस और पोटाश की निर्धारित खुराक के साथ द्वितीयक पोषक तत्व के रूप में मैग्नीशियम (@ 10 किग्रा प्रति हेक्टेयर) को शामिल करने का सुझाव दिया जाता है।

बोरोन (B), कॉपर (Cu), मोलिब्डेनम (Mo) और मैंगनीज (Mn) के निरंतर प्रयोग से फाइबर की उपज में वृद्धि हुई। यह पाया गया कि बोरोन (B), कॉपर और कोबाल्ट (Co) जूट की बीज उपज को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। यदि जूट को अम्लीय मिट्टी में उगाया जाता है तो चूना डालना आवश्यक है असम के सोरभोग की अम्लीय मिट्टी पर किए गए एक अध्ययन में, यह देखा गया कि चूने के प्रयोग से मिट्टी का अम्लीयता  में कमी हुआ और इसके परिणामस्वरूप बिना चूने के उपचार की तुलना में जूट फाइबर की उपज में 24% की वृद्धि हुई।

यह देखा गया कि यूरिया के माध्यम से 75% नत्रजन और कार्बनिक पदार्थों के माध्यम से 25%  नत्रजन के एकीकृत उपयोग से फाइबर की उपज में वृद्धि हुई और मिट्टी की उर्वरता समृद्ध हुई। नीम केक जैसे जैविक पोषक तत्वों के प्रयोग से अकार्बनिक उर्वरकों पर निर्भरता 75 प्रतिशत तक कम हो सकती है।

ट्राइकोडर्मा विरिडी (स्थानीय स्ट्रेन) के कवक संवर्धन के साथ बीज उपचार ने जूट फाइबर उत्पादन में लाभकारी प्रभाव दिखाया। नई सदी में टिकाऊ कृषि उत्पादन के लिए मिट्टी का स्वास्थ्य चिंता का विषय बन गया है, इसलिए उर्वरकों के साथ फसलों का संतुलित पोषण आवश्यक है।

संतुलित पोषण फाइबर की उपज और गुणवत्ता बढ़ाने, मिट्टी की उत्पादकता को बनाए रखने, मिट्टी के स्वास्थ्य और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण घटक है। अच्छी जूट फसल की उपज के लिए एकीकृत मिट्टी परीक्षण और लक्षित उपज के आधार पर उर्वरक का प्रयोग फायदेमंद है।

जूट फसल में जल प्रबंधन

जूट मुख्य रूप से वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है। वर्षा आधारित फसलों की कम फाइबर पैदावार फसल उगाने के मौसम में अनियमित वर्षा वितरण के साथ-साथ अनुचित कृषि प्रबंधन प्रथाओं के कारण होती है। पिछले 25 वर्षों में, जलवायु में उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ है। भारत के जूट उगाने वाले क्षेत्रों में मध्य मार्च से जून के पहले सप्ताह तक वर्षा की कमी 40-50% के क्रम में पाई गई है।

जूट को इसके विकास के लिए लगभग 500 मिमी पानी की आवश्यकता होती है। जूट की काफी अच्छी फसल वर्षा आधारित परिस्थितियों में उगाई जाती है, खासकर जब उत्तर पश्चिमी वर्षा समय पर और पर्याप्त मात्रा में होती है। चूंकि फसल की बुवाई के समय बारिश अनिश्चित होती है, इसलिए सिंचाई बुवाई और फसल की स्थापना के लिए बहुत मददगार होती है। सिंचाई की व्यवस्था होने पर उपज में वृद्धि होती है।

सिंचित फसल को बुवाई से पहले सिंचाई दी जाती है और बुवाई के लगभग 15 दिन बाद पहली सिंचाई की जाती है। जूट को 26.78 सेमी पानी की आपूर्ति करने के लिए बुवाई से पहले सिंचाई सहित चार सिंचाई की आवश्यकता होती है। यह पाया गया कि 1.98 घन मीटर या 1980 लीटर पानी का उपयोग 1 किलोग्राम जूट रेशा के उत्पादन के लिए किया जाता है।

नौ टाइन कल्टीवेटर (रिज बेस 20-25 सेमी चौड़ा और फरो गहराई 8-10 सेमी) द्वारा विकसित खुली खांचों में 8-10 किलोग्राम / हेक्टेयर जूट के बीज की लाइन बुवाई फरो में वर्षा जल को इकट्ठा करने और कम वर्षा के तहत अंकुरण सुनिश्चित करने में मदद करती है। जल जमाव से पौधे की ऊंचाई 14-32%, आधारीय व्यास 11-29% और जैवसंहती(बायोमास) उपज 31-48% तक कम हो जाती है|

जूट में खरपतवार प्रबंधन

खरपतवार संक्रमण जूट के उच्च उत्पादन में एक बड़ी बाधा है। जूट में खरपतवारों के कारण उपज में होने वाली हानि की मात्रा सी. कैसुलेरिस में 52-70% और सी. ऑलिटोरियस में 59-75% के बीच है। अधिकतम खरपतवार संक्रमण फसल की आयु के 3 से 6 सप्ताह तक पाया जाता है।

जूट में फसल-खरपतवार प्रतिस्पर्धा की महत्वपूर्ण अवधि बुवाई के 15 से 60 दिनों के बीच पाई गई। यह पाया गया कि जूट में खेती की कुल लागत का 35% हाथ से निराई के कारण होता है, जो बुवाई के 20 दिनों के बाद और फसल की आयु के पाँच से छह सप्ताह में किया जाता है।

बारिश या सिंचाई के बाद बुवाई के 24 से 48 घंटों के भीतर ब्यूटाक्लोर (50% ईसी) @ 1.0 -2.0 किग्रा ए.आई./हेक्टेयर का पूर्व-उद्भव अनुप्रयोग लाभदायक है।

प्रोपेक्विज़ाफ़ॉप (10% ई.सी.) जैसे उद्भव पश्चात शाकनाशियों का 150 ग्राम ए.आई./हेक्टेयर अथवा क्विज़ालोफ़ॉप इथाइल 5% ई.सी. @ (60 ग्राम ए.आई./हेक्टेयर) 21 डी.ए.ई. पर प्रयोग करने के पश्चात एक हाथ से निराई करने से घास के खरपतवार पर बेहतर नियंत्रण पाया गया।

जूट के लिए कीट और रोग प्रबंधन

पीला-माइट, स्टेम वीविल, सेमी-लूपर, हेयरी कैटरपिलर जूट के प्रमुख कीट हैं। कीटों के कारण होने वाले भारी नुकसान से बचने के लिए प्रतिरोधी/सहनशील किस्मों (पीले माइट के लिए JRO 524, JRO 7835 और JRC 212; स्टेम वीविल और सेमीलूपर के लिए NDC 8812 और NDC 9101) को प्राथमिकता दी जा सकती है।

जूट कीटों के उचित प्रबंधन के लिए बुवाई की अनुकूलतम तिथि, उचित खरपतवार प्रबंधन, कीटनाशकों के छिड़काव से पहले संक्रमित पत्तियों को तोड़ना जैसी महत्वपूर्ण शस्य क्रियाओ का पालन किया जाना चाहिए। यदि संक्रमण आर्थिक सीमा स्तर (ETL) को पार कर जाता है तो कीटनाशकों के छिड़काव की सिफारिश की जानी चाहिए।

सेमीलूपर के प्रबंधन में फेनवेलरेट 0.02% या साइपरमेथ्रिन 0.03% या कार्बेरिल 0.1% जैसे कीटनाशक काफी प्रभावी हैं। साइपरमेथ्रिन 0.03% या कार्बोफ्यूरान (1 किग्रा ए.आई./हेक्टेयर) का उपयोग स्टेम वीविल को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। डाइकोफोल (0.04%) या फेनाज़ाक्विन (0.02%) का उपयोग पीले माइट के प्रबंधन में प्रभावी साबित हुआ।

स्टेम रॉट जूट का सबसे महत्वपूर्ण रोग है जो मैक्रोफोमिना फेजोलिना के कारण होता है। एन्थ्रेक्नोज नियमित रूप से होता है, खासकर कैप्सुलरिस प्रजाति उगाने वाली क्षेत्र में। जूट के खेतों में देखी जाने वाली छोटी बीमारियाँ ब्लैक बैंड, सॉफ्ट रॉट और हुगली विल्ट हैं।

जूट मोजेक, क्लोरोसिस और येलो वेन जूट पर होने वाली वायरल बीमारियाँ हैं। उचित फसल चक्र, गहरी जुताई, स्वच्छ खेती, स्वस्थ बीजों का उपयोग, बीज उपचार, पंक्तिबद्ध बुवाई, इष्टतम अंतर, समय पर निराई और मिट्टी सुधारक (चूना या जिप्सम 2-4 टन/हेक्टेयर यदि मिट्टी का पीएच 5.8 से ऊपर है) का उपयोग करके रोगों की घटना को नियंत्रित किया जा सकता है।

जूट में रोग प्रबंधन के लिए कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम/लीटर पानी या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 4 ग्राम/लीटर पानी और मैन्कोजेब 5 ग्राम/लीटर पानी का छिड़काव करने की सलाह दी जाती है।

कटाई और सड़न प्रौद्योगिकी

जुलाई-अगस्त में बोई फसल की कटाई 120 से 150 दिनों के बीच अथवा फूल आने से पहले किसी भी समय की जाती है। पौधों को हँसुआ से जमीन के बहुत करीब से आधार पर काटा जाता है। काटे गए पौधों को 2-3 दिनों तक खेत में रखा जाता है ताकि पत्ते सूख जाएँ और फिर पूरे पौधों को अधिमानतः धीमी गति से बहते साफ पानी में सड़ाया जाता है।

जलवायु की स्थिति के आधार पर सड़ने में 12 से 16 दिन लगते हैं और तने के लकड़ी वाले हिस्से से रेशा निकाला जाता है। जूट में रेशे की प्राप्ति हरे जैव संहती के 6-7% से भिन्न होती है। जूट रेशा की गुणवत्ता (मज़बूती, महीनता और रंग) उचित सड़न पर निर्भर करती है जो पौधे की आयु, उर्वरक की मात्रा, रीटिंग पानी की गुणवत्ता आदि जैसे विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है।

बेसिलस सबटिली, बी. पॉलीमिक्सा (वायवीय बैक्टीरिया), क्लॉस्ट्रिडियम एसपी. (अवयवीय बैक्टीरिया), एस्परगिलस नाइजर, मैक्रोफोमिना फेसियोलिना, फोमा एसपी. (कवक) जैसे कुशल साड़क़ सूक्ष्मजीवों की पहचान की गई है।

जूट बीज उत्पादन

कच्चे जूट की खेती को सक्षम, व्यवहार्य, लाभकारी और प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए, गुणवत्तापूर्ण बीज उत्पादन अब प्रमुख चिंता का विषय है। पश्चिम बंगाल में फाइबर उत्पादन में 80% से अधिक का योगदान है; आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जूट बीज उत्पादन में अग्रणी हैं।

जूट की बीज उपज बहुत कम है और इसे अनुकूलतम बुवाई समय, उचित अंतराल, खरपतवार नियंत्रण, उर्वरकों और खादों के संतुलित उपयोग, जल निकासी और सिंचाई, छंटाई और फलों को नुकसान करने वाले फफूंद के नियंत्रण सहित अच्छे प्रक्षेत्र प्रबंधन द्वारा बढ़ाया जा सकता है।

भारत में बीज फसल की बुवाई के लिए उपयुक्त तिथि मध्य मई से मध्य जून है। बीज फसल में शाखाओं को बढ़ावा देने और प्रति शाखा यथासंभव अधिक कैप्सूल रखने के लिए अधिक अंतराल वांछनीय है। इस प्रकार पंक्तियों के बीच 30-45 सेमी और पौधों के बीच 10-15 सेमी उपयुक्त पाया गया है।

अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में खरपतवार की वृद्धि कम वर्षा वाले क्षेत्रों की तुलना में अधिक होती है। बुवाई के 21, 45 और 60 दिन बाद निराई करनी चाहिए। मिट्टी की पोषकता की स्थिति के आधार पर नत्रजन,फॉस्फोरस, पोटाश की मात्रा @ 40:60:60 प्रति हेक्टेयर उपयोग किया जाता है। शाखाओं को बढ़ाने के लिए, फुनगी की छंटाई (डिटॉपिंग) या कतरन केवल एक बार की जानी चाहिए ताकि बीज की फसल तेजी से बढ़ती है और 45 से 48 दिनों में 45 से 50 सेमी की ऊंचाई प्राप्त करती है।

जुलाई के बाद छंटाई उचित नहीं है। कटाई की तारीख निर्दिष्ट नहीं की जा सकती है, परन्तु उस समय कटाई करना है जब अधिकांश कैप्सूल पके हुए हों और नुकसान कम से कम होने की संभावना हो। जूट के बीज आमतौर पर नवंबर और दिसंबर के बीच काटे जाते हैं और कुछ जनवरी में अगले साल मार्च-मई में बुवाई से पहले 5 से 6 महीने तक संग्रहीत किए जाते हैं।

वर्तमान में पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा के कुछ हिस्सों में लाल लैटेराइट मिटटी वाले क्षेत्र में बीज की कमी से निपटने बीज उत्पादन के प्रयास किए गए हैं जिससे भारत में जुट की उत्पादन को सत्तता  बनी रहे।

केन्द्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित जुट की सड़न प्रौद्योगिकियाँ

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सी.आर.आई.जे.ए.एफ. द्वारा विकसित नवीनतम उत्पादन  और कटाई के बाद की परिस्कृत सड़न प्रौद्योगिकियों ने जूट की उच्च उत्पादकता प्राप्त करने में बहुत योगदान दिया है।जिनमे से कुछ प्रमुख को उद्दृतकिया जा रहा है,

जूट की लाइन बुवाई के लिए CRIJAF में एक बहु पंक्ति मैनुअल जूट बीज ड्रिल डिजाइन और निर्मित किया गया है। इस बीज ड्रिल को एक हेक्टेयर क्षेत्र को कवर करने के लिए लगभग 5 घंटे की आवश्यकता होती है (शंभू, 2007)। बीज ड्रिल का उपयोग न केवल बीज दर को 50 प्रतिशत से अधिक कम करता है, बल्कि उपज में 10-15 प्रतिशत की वृद्धि करता है और खेती की लागत को 20-25 प्रतिशत कम करता है।

संस्थान ने लाइन से बोई गई जूट फसल में गैर-चयनात्मक शाकनाशी देने के लिए एक शाकनाशी ऐप्लिकेटर विकसित किया। यह हाथ से की जाने वाली निराई से सस्ता है और उन जगहों के लिए उपयुक्त है जहाँ श्रम बल की उपलब्धता कम है। इस शाकनाशी ऐप्लिकेटर को 'हर्बिसाइड ब्रश' (घोराई इट. अल., 2010) के नाम से नामित किया गया है।

सी.आर.आई.जे.ए.एफ में हस्त से संचालित वीडर (नेल वीडर) डिजाइन और निर्मित किया गया है, जो बुवाई के 3-4 दिन बाद भी खरपतवारों को हटा सकता है, जिससे अंकुरित फसल के अंकुरों को न्यूनतम प्रेतिस्पर्द्दा होगी। यह खरपतवार हटाने के लिए श्रम की आवश्यकता को 65 प्रतिशत तक कम कर सकता है (घोराई एट अल., 2010)|

सी.आर.आई.जे.ए.एफ. ने पानी की कमी वाले क्षेत्रों में जूट के लिए एक मिश्रित मेकेनो-माइक्रोबियल रीटिंग और इन सीटू माइक्रोबियल रीटिंग तकनीक विकसित की है। साथ ही संस्थान द्वारा यांत्रिक सह सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा सड़न  विधि विकसित की गयी है, जिसमे  सड़न प्रक्रिया की लागत को कम करने के लिए, पूरे जूट के पौधों के बजाय, " सी.आर.आई.जे.ए.एफ. जूट एक्सट्रैक्टर" द्वारा निकाले गए हरे रिबन/ सूखे रिबन को आसानी से सड़ाया जा सकता है। बिजली से चलने वाला जूट फाइबर एक्सट्रैक्टर टूटी हुई छड़ियों से प्रति घंटे 25 किलोग्राम सूखा फाइबर निकाल सकता है, जबकि मैन्युअल रूप से चलने वाला जूट फाइबर एक्सट्रैक्टर बिना टूटी हुई छड़ियों से प्रति घंटे 15 किलोग्राम सूखा फाइबर या रेशा निकाल सकता है।

सी.आर.आई.जे.ए.एफ.  ने बिना किसी सेल्यूलोज गतिविधि के बहुत अधिक पेक्टिनेज और ज़ाइलानेज गतिविधि वाले तीन पेक्टिनोलिटिक बैक्टीरिया से युक्त एक माइक्रोबियल कोन्सोर्सिया विकसित किया है। माइक्रोबियल कोन्सोर्सिया सड़न की अवधि को 5-7 दिनों तक कम कर देता है,  की गुणवत्ता में कम से कम 2 ग्रेड (TD 6 से TD 4) का सुधार करता है और शुद्ध लाभ में रु. 3000-4500/हेक्टेयर की वृद्धि करता है (मजूमदार एट. अल. 2009 ए) कंसोर्टिया को दोनों में से किसी एक एक्सट्रैक्टर द्वारा कटाई के बाद निकाले गए हरे रिबन पर छिड़का जाना रेशा चाहिए और एक घंटे के लिए पॉलीथीन के अंदर रखा जाना चाहिए। इन छिड़के हुए रिबन को जलवायु की स्थिति के आधार पर 7-9 दिनों के लिए पॉलीथीन-लाइन वाले रिटिंग टैंक में लंबवत रखा जाना चाहिए। फिर फाइबर को साफ पानी में धोया जाता है और सुखाया जाता है। आसान हैंडलिंग के लिए माइक्रोबियल कंसोर्टियम का एक टैल्क आधारित फॉर्मूलेशन विकसित किया गया है।

संसथान द्वारा विकसित अन्य विधि में पूरे पौधे की रिटिंग की जाती है जो कम मात्रा में भूजल के साथ पूरे जूट के पौधों को रिटिंग करने की एक इन-सीटू रिटिंग तकनीक है। एक बीघा (0.13 हेक्टेयर) भूमि से काटे गए जूट के पौधों को रिटिंग करने के लिए 6.5 मीटर फर्श व्यास, 7.5 मीटर शीर्ष व्यास और 1 मीटर गहराई वाला एक गोलाकार माइक्रो तालाब पर्याप्त है फिर CRIJAF में विकसित माइक्रोबियल कंसोर्टियम को तालाब में जूट के बंडलों पर छिड़का जाना चाहिए और उसके बाद रिटिंग टैंक में पानी डालना चाहिए। जूट के बंडलों को पुआल/जलीय खरपतवारों से ढकना चाहिए। रिटिंग अथवा सडन के बाद, रेशों को रिटिंग तालाब में ही धोया जा सकता है और तालाब के तटबंध पर धूप में सुखाया जा सकता है (घोराई एट अल., 2009)।

पर्यावरण संबंधी चिंता के दौर में, जूट संभावित कार्बन संग्रहकर्ता है जो जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करता है। इसके अलावा, कम लागत पर उपज बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकियों का विकास और इन प्रौद्योगिकियों का सफल प्रसार शोधकर्ताओं और किसानों के बीच की खाई को प्रभावी ढंग से पाट सकता है और जूट फाइबर के उत्पादन और उत्पादकता में सुधार कर सकता है।

जूट के विविध उत्पादों के बारे में गरीब किसानों के बीच जानकारी का विशेष रूप से अभाव है, इसलिए खेती की लागत को कम करने और आय सृजन को बढ़ाने के पक्ष में विभिन्न उन्नत प्रौद्योगिकियों पर लोकप्रियकरण प्रसार अभियान की निश्चित करने की आवश्यकता है, जिससे संसाधन-विहीन जूट किसानों के जीवन स्तर में सुधार हो सके।


Authors:

सुमन कुमार सुरेन्द्र1, सुनंदा बिस्वास1,2*, एस. पी. मजुमदार2, डी. के. कुंडू2 और ए. आर. साहा2

1मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग , भा.कृ.अ.प. - भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली -110012

2भाकृअनुप - केन्द्रीय पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर, कोलकाता-700121

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