Causes of milk fever disease in milch animals and preventive measures

Causes of milk fever disease in milch animals and preventive measures

 

दुधारू पशुओं में मिल्क फीवर रोग के कारण एव बचाव के उपाय

In animals giving more milk, excess calcium comes out of the body through milk and the animal becomes calcium deficit. This disease is called milk fever, but in this disease the body of the animal Instead of increasing the temperature, it is less than normal. 

दुधारू पशुओं में मिल्क फीवर रोग के कारण एव बचाव के उपाय

मिल्क फीवर रोग मुख्यत ज्यादा दूध देने वाले पशुओं में सामान्यतया गर्भावस्था के अंत में ब्याने के कुछ समय के मध्य होता है। यह एक उपापचय (मेटाबोलिक) रोग है जो कि रक्त में कैल्शियम की कमी से होता है यह रोग अधिक दूध देने वाले पशुओं के ब्याने के 2 से 3 दिन के अंदर होता है लेकिन ब्याने के बाद अधिकतम उत्पादन के समय भी हो सकता है। 

मिल्क फीवर अधिक दूध देने वाली गाय व भैंस में तीसरे से सातवें ब्यात में अधिक होता है। मिल्क फीवर रोग भेड़ व बकरियों में भी पाया जाता है ।

ज्यादा दूध देने वाले पशुओं में ब्याने के बाद काफी मात्रा में कैल्शियम खीस के साथ निकालने से इसकी कमी हो जाती है दूध के द्वारा अधिक मात्रा में कैल्शियम शरीर से बाहर आ जाता है इस रोग को मिल्क फीवर कहते है लेकिन इस रोग में पशु का शारीरिक तापमान बढ़ने की बजाए सामान्य से भी कम होता है।

साधारणतया शरीर के तापमान बड़ने को ज्वर कहा जाता है परन्तु दुग्ध ज्वर में शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है, इसे फिर भी दुग्ध ज्वर ही कहा जाता है।

दुग्ध ज्वर होने के प्रमुख कारण

यह रोग प्रमुख रूप से अधिक दूध देने वाली गायों व भैसों के रक्त में ब्याने के बाद कैल्शियम स्तर में गिरावट के कारण होता है। ब्याहने के बाद कोलेस्ट्रम के साथ अधिक मात्रा में कैल्शियम शरीर से बाहर आ जाता है। कोलेस्ट्रम में रक्त से अधिक कैल्शियम होता है।

ब्याहने के बाद अचानक कोलेस्ट्रम निकल जाने के बाद हड्डियों से शरीर को तुरंत कैल्शियम नहीं मिल पाता है। इससे पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी हो जाती है। मांसपेशियों कमजोर हो जाती है। शरीर में रक्त का दौरा काफी कम व धीमी गति से होता है।

दुग्ध ज्वर के लक्षण

प्रथम अवस्था

  • रोग की प्रथम अवस्था उतेजित अवस्था है जिसमें उत्तेजना, टेटनस जैसे लक्षण तथा पशु अधिक संवेदनशील हो जाता है सिर व पैरों में अकड़न आ जाती है।
  • पशु चारा-दाना नहीं खाता तथा चलने फिरने की अवस्था में नहीं रहता है पशु अपने सिर को इधर-उधर हिलाना रहता है जीभ बाहर निकालना और दांत किटकिटाना,
  • पशु के शरीर का तापमान सामान्य या हल्का पढ़ा हुआ रहता है शरीर में अकड़न,पिछले पैरों में अकड़न, आशिंक लकवा की स्थिति में पशु गिर जाता है।
  • यदि इस अवस्था में पशु का उचित उपचार नहीं किया जाए तो पशु रोग की दूसरी अवस्था में पहुँच जाता है।

द्वितीय अवस्था

  • इस अवस्था में पशु अपनी गर्दन को एक और मोडकर निढाल सा बैठा रहता है पशु लेटे रहने की बजाय सीने वाले भाग के सहारे बैठा रहता है।
  • पशु के पैर ठंडे पड़ जाते हैं और शरीर का तापमान कम होता है पशु में उत्तेजना अवस्था नहीं रहती हैं।
  • पशु खड़ा नहीं हो पाता है पशु की मांसपेशियां ढीली पड़ जाती हैं।
  • आंखें सुख जाती है,आँख की पुतली फैलकर बड़ी हो जाती है तथा आँखें झपकना बंद हो जाता है।
  • हृदय ध्वनि धीमी हो जाती है, नाड़ी कमजोर हो जाती है यदि उपचार न किया गया तो रोग की तीसरी अवस्था में पहुच जाता है।

तृतीय अवस्था

  • पशु सीने के सहारे बैठे रहने की बजाए बेहोशी की हालत में लेटी अवस्था में रहता है और खड़ा नहीं हो पाता है|
  • पशु का गोबर रुक जाता है कई बार पशु पेशाब करना भी बंद कर देता है|
  • पशु के बैठे रहने की वजह से अफारा भी हो जाता है। उसका सारा शरीर ठण्डा पड़ जाता है।
  • शरीर का तापमान काफी कम हो जाता है। इस अवस्था में उचित उपचार नहीं मिलने पर पशु की मृत्यु हो सकती है|

दुग्ध ज्वर का उपचार

  • इस रोग में उपचार जितना जल्दी हो सके उतना ही अच्छा है यदि समय पर उपचार नहीं हो तो पशु की मृत्यु 12 से 24 घंटे में हो सकती है।
  • पशु चिकित्सक की सलाह पर पशु की नस में धीमी गति से कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट चढ़ाने से तुरंत आराम मिलता है| ध्यान रखना चाहिए कि यह दवा धीरे-धीरे से चढ़ानी चाहिए।
  • मिल्क फीवर की शुरुआती अवस्था में कैल्शियम देने से पशु जल्दी ठीक होता है उपचार के दौरान यदि पशु लेटा हुआ है तो उसे सहारा देकर बैठाना चाहिए।
  • पशु के नीचे भूसा,बोरि का सहारा रखना चाहिए |

दुग्ध ज्वर में सावधानियां और बचाव

  • अधिक दूध देने वाले पशुओं को ब्याने के 1 महीने पहले से खनिज लवण, दाना मिश्रण देना चाहिए।
  • पशु ब्याने के बाद थानों से पूरा खीस नहीं निकालना चाहिए।
  • पशुओं को संतुलित पौष्टिक आहार ब्याने से कम से कम 1 महीने पहले पहले शुरू कर देना चाहिए।
  • सर्दी के मौसम में चारे में कैल्शियम की मात्रा बहुत कम हो जाती है इसलिये पशु की दानें में खनिज मिश्रण अवश्य मिलाएं अतः कैल्शियम खुराक की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए।
  • दुधारू पशुओं को ब्याने से ब्याहने से दो महीने पहले दूध निकालना छोड़ देना चाहिये।
  • ब्याहने के बाद 3 दिनों तक पूरा खीस नहीं निकालना चाहिए।
  • अधिक दूध देने वाली संकर गायों में यह समस्या ज्यादा रहती है तो इनमें अधिक सावधानी से खिलाई पिलाई करनी चाहिए।
  • विटामिन डी की पूर्ति हेतु पशु को मौसम को ध्यान में रखते हुए कुछ समय धूप में भी रखना चाहिए।
  • इस रोग के इलाज में देरी करने से पशु का दूध उत्पादन घट जाता है या पशु की मृत्यु भी हो सकती है।

Authors

डॉ. विनय कुमार एवं डॉ.अशोक कुमार

पशु विज्ञान केंद्र, रतनगढ़ (चूरु)

राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, बीकानेर

Email: vinaymeel123@gmail.com

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