जैविक फफूदंनाशी ट्राइकोडर्मा का सही व प्रभावी प्रयोग

जैविक फफूदंनाशी ट्राइकोडर्मा का सही व प्रभावी प्रयोग

Correct and effective use of biofungicide Trichoderma

हमारे मिट्टी में कवक (फफूदीं) की अनेक प्रजातियाँ पायी जाती है जो फसलों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इनमें से एक ओर जहाँ कुछ प्रजातियाँ फसलों को हानि (शत्रु फफूदीं) पहॅचाुते हैं वहीं दूसरी ओर कुछ प्रजातियाँ लाभदायक (मित्र फफूंदी) भी हैं। जैसे कि द्राइकोडरमा ।

प्रकृति ने स्वयं जीवों के मध्य सामंजस्य स्थापित किया है जिससे कि किसी भी जीव की संख्या में अकारण वृध्दि न होने पाये और वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी समस्या का कारण न बनें। 

ट्राईकोडर्मा एक मित्र फफूदीं है जो विभिन्न प्रकार की दालें, तिलहनी फसलों , कपास , सब्जियों  तरबूज , फूल के कार्म आदि की फसलों में पाये जाने वाले भूमि उत्पादित रोग – उकठा ,जड़गलन कालर राट, आद्रपतन, कार्म सड़न को नियंत्रण करने में एक महत्वपूर्ण योगदान करती है।

ये रोग मिट्टी में पाये जाने वाले फफूंद जैसे- फ्यूजेरियम पिथियम, राजोक्टीनिया स्केलेरोटिया, फाइटोफ्थोरा, मैक्रोफोमिना, अर्मीलौरिया आदि की कुछ प्रजातियों से होते हैं, जो बीजों के अंकुरण को प्रभावित करती है एवं अंकुरण के बाद आद्रपतन या पौधों के अन्य विकास स्तर पर भी रोग उत्पन्न करती है।

इन रोगों को नियंत्रण करने के लिये रसायन आर्थिक दृष्टि से प्रभावी नहीं है। सामान्यत: फफूदं रसायनिक दवाओं का असर 10 से 20 दिनों तक रहता है। यदि फिर इनका प्रकोप होता है तो हमें फिर से रासायनिक दवाओं का प्रयोग करना पड़ता है। इस तरह रोग का प्रकोप फसल में लगभग 45 दिन तक रहता है लगातार रसायनों के छिड़काव तथा बीज उपचारण से मिट्टी में रहने वाले लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा अवशेष मिट्टी में रह जाते हैं। रोगजनित फफूदीं में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होती है तथा अवशेष स्वास्थय की दृष्टि से हानिकारक होता है। 

ट्राईकोडर्मा एक मित्र फफूदीं है और फसलों के लि‍ए नुकसानदायक फफूदाेंं को खत्म करती है। इसलिए मिट्टी में फफूदाें के द्वारा उत्पन्न होने वाले कई प्रकार की फसल बिमारीयों के प्रबंधन के लिए यह एक महत्वपूर्ण फफूदं है।

यह मृदा में पनपता है एवं वृध्दि करता है तथा जड़ क्षेत्र के पास पौधों की तथा फसल वृध्दी की नर्सरी अवस्था से ही रक्षा करता है। ट्राईकोडर्मा की लगभग 6 स्पीसीज ज्ञात हैं लेकिन केवल दो ही ट्राईकोडर्मा विरिडी व ट्राईकोडर्मा हर्जीयानम मिट्टी में बहुतायत मिलता है। 

कुछ मुख्य रोगों का प्रबन्धन जो ट्राईकोडर्मा के प्रयोग से किया जा सकता है –

  • दलहनी व तिलहनी फसलों से उकठा रोग
  • अदरक का प्रकंद विगलन
  • कपास का उकठा , आद्रपतन, सूखा, जड़गलन विगलन ।
  • चुकन्दर का आद्रपतन।
  • मूगंफली में कालर राट।
  • फूलों में कार्म सड़न
  • सब्जियों में आद्रपतन , उकठा, जड़गलन, कालर राट

उपयोग

  • बीज का उपचार : बीज के उपचार के लिये 5 ग्राम पाउडर प्रति किलो बीज में मिलाते हं।ै यह पाउडर बीज में चिपक जाता है , बीज को भिगोने की जरूरत नहीं है क्योंकि पाउडर में कार्बक्सी मिथाइल सेल्यूलोज मिला होता है। बीज के जमने के साथ-साथ द्राइकोडर्मा भी मिट्टी में चारो तरफ बढ़ता है और जड़ को चारों तरफ से घेरे रहता है जिससे कि उपरोक्त कोई भी कवक आसपास बढ़ने नहीं पाता। जिससे फसल के अन्तिम अवस्था तक बना रहता है। 
  • मिट्टी का उपचार एक किग्रा ट्राईकोडर्मा पाउडर को 25 किग्रा फार्म यार्ड मेनोर्य (एफ.वाई.एम.) में मिलाकर एक हफ्ते के लिये छायेदार स्थान पर रख देते हैं जिससे कि स्पोर जम जाय फिर इसे एक एकड़ खेत की मिट्टी में फैला देते हैं तथा इसके उपरान्त बोवाई कर सकते हैं। बोने के 5 दिन पहले 150 ग्राम पाउडर को 1 घन मीटर मिट्टी में 4-5 सेमी. गहराई तक अच्छी तरह मिला लें फिर बोवाई करें। बाद में यदि समस्या आवे तो पेड़ों के चारो ओर गडढा या नाली बनाकर पाउडर को डाला जा सकता है जिससे कि पौधों के जड़ तक यह पहँचु जाय। 
  • कन्द या कार्म या रायजोम का उपचार : 1 लीटर पानी से बने स्पोर को 10 लीटर पानी में घोलकर रायजोम , कन्द, बल्ब या कार्म को 30 मिनट तक डुबो देते हैं ओैर तुरन्त बो देते हैं।
  • बहुवर्षीय पेड़ों के लिए आधे किलो से 1 किग्रा पाउडर जड़ के चारो ओर गङ्ढा खोद कर मिट्टी में मिलाने से उकठा रोग दूर हो सकता है।

कम्‍पोस्‍ट खाद बनाने मे प्रयोग :

ढाई महीने में कम्पोस्ट तैयार हो जाता है। इस तरह समय आधा हो जाता है तथा कार्बन तथा नाइद्रोजन की मात्रा ज्यादा होती है इसमें ट्राईकोडर्मा स्‍‍‍‍‍‍पोर होने के कारण जिस खेत में डालेंगे वहाँ बीमारी भी नहीं होगी।

कार्य करने का तरीका :

ट्राईकोडर्मा मिट्टी में पाये जाने वाली फफूदं है जो दूसरे पौधों को नुकसान पहुँचाने वाले फफूदं के बढ़ने का विरोध करती है। यह विरोध परजीवी के रूप में, भोजन की स्पर्धा या एन्टीबायोसिस के रूप में करता है। ट्राईकोडर्मा,  रोग जनित फफूदं की कोशिकाओं को नष्ट करने वाले इन्जाइम जैसे सेल्यूलेज एवं काइटिनेज का स्त्राव करता है जि‍ससे रोगजनित फफूदीं के कोशिकाऐं नष्‍ट हो जाती है।

इसके अलावा विरिडिन, ट्राईकोडर्मिन नामक जहरीला स्त्राव भी होता है जो दूसरे फफूदं को नष्ट कर देता है इससे उनकी बढ़त रूक जाती है। ट्राईकोडर्मा वातावरण के लिये नुकसान रहित, पोधों को जहरीला न बनाने वाली, जैविक खादों के साथ अच्छा काम करने वाली, पूर्ण फसल अवधि तक प्रभावकारी एवं रासायनिक फफूदीं नाशकों से सस्ती होती है।

सावधानियाँ :

ट्राईकोडर्मा श्वसनतंत्र, ऑंखों एवं खुले घावों के लिये नुकसानदायक है, इसलिये प्रयोग के समय इन ऍंगों की सुरक्षा हेतु ऑंखों में चश्मा , खुले घावों को पट्टी से बाँधना तथा नाक व मुँह को मास्क या कपडे से ढ़कना चाहिये ताकि इसके स्पोर अन्दर न जाए।

यह 32-33 डिग्री सेल्सियस तापमान से अधिक पर नष्ट हो जाता है। इसलिए अक्टूबर-नवम्बर से मार्च महिने के बीच लगने  वाले फसलों के बीजोपचार/ मिट्टी उपचार में ट्राईकोडर्मा का व्यवहार किया जाता है। ध्यान रहे कि ट्राईकोडर्मा सूर्य की रौशनी के प्रति संवदेनशीन है इसलिए प्रयोग के समय सूर्य की रौशनी से बचाएँ।

फफूंदनाषक जीवों के लि‍ए विष तुल्य है। फफूदनाषकों के डिब्बों या बोतलों पर विभिन्न रंगो त्रिकोण मानव व पशू-पक्षियों के लिए उनकी विषाक्त या जहरीलेपन के सूचक है।

हरे रंग का त्रिकोण अल्प विषाक्त, नीले रंग का त्रिकोण मध्य विषाक्त, पीले रंग का त्रिकोण अत्यधिक विषाक्त तथा लाल रंग का त्रिकोण अत्यधिक विषाक्त का परिचायक है यदि इनके भंडारण तथा प्रयोग करने मे सावधानी न बरती जाए तो ये मनुष्यों पशुओ एवं वातावरण के लिए बहुत खतरनाक होते है। 

भंडारण में सावधानी

फफूंदनाषकों को इनके मूल डिब्बों या बोतलों में, ठंड व सूखी जगह पर, फफूंदयुक्त खाद पदार्थो तथा पशू के चारे से कही दूर, तालाबंद कमरे जो बच्चो की पहुंच से दूर हो मे रखे।

फफूदनाश्‍कों के प्रयोग में सावधानी:

फफूदनाश्‍कों के प्रयोग करने से पहले इनके डिब्बे, टिन व बोतलों पर दर्षाए गए लिखित निर्देषो को ध्यानपूर्वक पढें और निर्देषानुसार ही प्रयोग करें। यदि लेबल उपलब्ध नही है अथवा अपठनीय है, तो इन्हें प्रयोग में न लाए। प्रयोग करते समय न तो कुछ खाएं पीए और न ही धूम्रपान करें। दवा के छिडकाव के लिए रब र के दस्ताने प्रयोग में लाएं ताकि दवा आपकी त्वचा को छू न पाए।

घोल तैयार करने के लिए लकडी की छडी अथवा डेडे का प्रयोग करें। छिडकाव अथवा धूडे के समय दवाई सांसों के साथ शरीर में प्रवेष न करें। छिडकाव के समय खेतों के पास पशूुओं के चारे तथा पीने के पानी को सावधानीपूर्वक ढक लें ताकि दवाई का प्रभाव पानी में न जाऐं।

छिडकाव करते समय यदि यंत्र छेद बंद हो जाए तो उसे बारीक तार अथवा स्टोव पिन से ही खोलें, मुंह से फूंक मार कर कभी भी खोलने की कोशिश न करें। छिडकाव हवा के अनुरूप करें, हवा के विपरीत दिषा में किया जाने वाला छिडकाव बौछारों से आपके शरीर को नुकसान कर सकता है।

फसलों पर छिडकाव उपरांत पशूओं का चरा कम से कम एक सप्ताह के लिए बंद कर दें। फसलों की कटाई से दो सप्ताह पहले ही छिडकाव बंद कर दें।

प्रयोग के बाद

फफुंदनाषकों के डिब्बें, टिन अथवा बोतलों को खाने पीने के लिए इस्तेमाल न करें, बल्कि इन्हे पीने वाले उपलब्ध पानी से कही दूर जमीन में 1.5 -2 फुट की गहराई में गाढ दें। जिन बर्तनों को बीजोपचार के लिए प्रयोग किया गया हो, उन्हें भी प्रयोग के तुरंत बाद हाथ व शरीर के वे अंग जहां दवा लग गई हों तो पानी व साबुन से तुरंत अच्छी तरह धो लें।

प्राथमिक चिकित्सा एवं संकट कालीन उपचार

  • फफूदनाषकों का त्वचा पर गिर जाने की अवस्था में प्रभावित त्वचा को अच्छी तरह साबुन और पानी के साथ धो लें।
  • यदि दवा आंखों में चली गई हो तो साफ पानी से दस मिनट तक धोंए।
  • यदि सांस द्वारा दवाई की फुहार अंदर चली गइ हो तो मरीज को तुरंत खुली हवा में ले जाएं, उसके कपडे ढ़ीले कर दें व कृत्रिम सासं दिलाएं। शराब का सेवन बिल्कुल न करने दें।
  • यदि रोगी जहर निगल लिया हो तो सावधानीपूर्वक उसके गले में उंगली डालकर उल्टी करवाएं या आधा गिलास पानी में दो चम्मच नमक मिलाकर रोगी को पिलाकर उल्टी करवाएं और इस क्रिया को उस समय तक करते रहें, जब तक उल्टी साफ न हो जाएं।
  • शीध्र ही डॉक्टर की सेवाएं उपलब्ध करवाएं।
  • जिन फफूदनाषकों को प्रयोग से संकटकालीन परिस्थिति उत्पन्न हुई उनके डिब्बे, टिन या बोतले मरीज के साथ ही डॉक्टर को इलाज करने मे सही दिषा में सहायता मिलेगी।
  • बेहोषी की हालत में रोगी को उल्टी न करवाकर तुरंत डॉक्टर को दिखाएं।
  • यदि मरीज की हालात ज्यादा बिगड रही हो तो हल्का कंबल आढा दें और चारपाई आदि पर लेटें मरीज के पैरों को थोडा उपर रखने की व्यवस्था करें तथा रोगी को तेज चाय अथवा काफी देकर पुन: डॉक्टर को दिखाए।

Authors

सुरेश कुमार वर्मा

विद्यावाचस्पति छात्र, पादप रोग विज्ञान,

श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि महाविद्यालय, जोबनेर जयपुर ˗ 303329

suresh41240@gmail.com

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