गेंदे की उन्नत खेती की संपूर्ण जानकारी
गेंदे (मेरिगोल्ड) की खेती हमारे देश में लगभग हर क्षेत्र में की जाती है| यह बहुत महत्तवपूर्ण फूल की फसल है| क्योंकि इसका उपयोग व्यापक रूप से धार्मिक और सामाजिक कार्यों में किया जाता है| इसके प्रमुख उत्पादक राज्य महांराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, आंध्रा प्रदेश, तामिलनाडू और मध्य प्रदेश है|
गेंदे की खेती व्यवसायिक रूप से केरोटीन पिगमेंट प्राप्त करने के लिए भी की जाती है| इसका उपयोग विभिन्न खाद्य पदार्थों में पीले रंग के लिए किया जाता है| गेंदा के फूल से प्राप्त तेल का उपयोग इत्र तथा अन्य सौन्दर्य प्रसाधन बनाने में किया जाता है| साथ ही यह औषधीय गुण के रूप में पहचान रखता है|
कुछ फसलों में कीटों के प्रकोप को कम करने के लिए फसलों के बीच में इसके कुछ पौधों को लगाया जाता है|
मेरिगोल्ड के लिए पयुक्त जलवायु:
अफ्रीकन एवं फ्रेंच गेंदा की खेती वर्ष भर की जाती है| इनका विभिन्न समय पर पौध रोपण करने पर लगभग वर्ष भर पुष्पोत्पादन मिलता रहता है| खुला स्थान जहाँ पर सूर्य की रोशनी सुबह से शाम तक रहती हो, ऐसे स्थानों पर गेंदा की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है|
छायादार स्थानों पर इसके पुष्प उत्पादन की उपज बहुत कम हो जाती हैं तथा गुणवत्ता भी घट जाती है| शीतोष्ण जलवायु को छोड़कर अन्य जलवायु में इसकी खेती लगभग वर्ष भर की जा सकती है| शीतोष्ण जलवायु में इसका पुष्पोत्पादन केवल गर्मी के मौसम में किया जा सकता है|
गेंदे के लिए भूमि का चयन:
गेंदा की खेती वैसे तो हर प्रकार की भूमि में की जा सकती है| परन्तु भरपूर उपज के लिए जीवांशयुक्त उपजाऊ दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान 6.0 से 6.8 के मध्य हो, अधिक उपयुक्त रहती है| खेत में जलन निकास का उचित प्रबंध होना भी नितांत आवश्यक है|
खेत की तैयारी:
गेंदा की खेती के लिए पौध की रोपाई के लगभग 15 दिन पहले भूमि की मिट्टी पलटने वाले हल से दो से तीन बार अच्छी तरह जुताई कर ले तथा मिट्टी में 30 टन प्रति हैक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद मिला देनी चाहिए| क्यारीयों की चौड़ाई एवं लम्बाई सिंचाई के साधन एवं खेत के आकार पर निर्भर करती है|
खेत समतल होने पर क्यारीयां लम्बी एवं चौड़ी बनानी चाहिए, लेकिन खेत नीच ऊंच होने पर क्यारी का आकार छोटा रखना चाहिए| लेकिन दो क्यारियों के बीच में 1 से 1.5 फीट चौड़ा मेड़ रखनी चाहिए|
गेंदें की उन्नत प्रजातियाँ:
गेंदा पुष्प उत्पादन के दृष्टिकोण से अफ्रिकन गेंदा और फ्रेंच गेंदा दो प्रकार की किस्में प्रचलित है, जैसे-
1. अफ्रिकन गेंदा-
अफ्रिकन गेंदे के पौधे 90 से 95 सेंटीमीटर तक लम्बे तथा बड़ी-बड़ी शाखाओं वाले होते है| फूलों का रंग पीला, सुनहरा पीला, नारंगी आदि होता है| इसकी प्रचलित व्यवसायिक किस्में इस प्रकार है, जैसे-
बड़े फूलों वाली-
पूसा नारंगी गेंदा, पूसा वसन्ती गेंदा, पूसा बहार, यलो सुप्रीम, क्लाईमैक्स, जीनिया गोल्ड, गोल्ड काँचन, सन जाइंट समाइलस और मैन इन दी मून आदि प्रमुख है|
मध्यम आकार के फूलों वाली-
जुवलो सीरिज, हैप्पी फेस, गोल्ड जैलोट और लोडी आदि प्रमुख है|
छोटे आकार के फूलों वाली-
स्पेस राज सीरिज, अपोलो मून शोट, मैरीनेट, जिरेंक, गोल्डन रे, स्पन पीला, क्यूपिड, हैप्पीनेस और डोली आदि प्रमुख है|
2. फ्रेंच गेंदा-
फ्रेंच गेंदे के पौधे अफ्रिकन गेंदे की अपेक्षा छोटे होते हैं| इस प्रजाती के पौधे की वृद्धि तीव्र गति से होती है| इस कारण यह फसल अफ्रिकन गेंदे की अपेक्षा शीघ्र तैयार हो जाती है| फ्रेंच गेंदे के फूल विभिन्न आकर्षक रंगो जैसे पीला, संतरी, भूरा, महारानी, दोरंगा तथा कई रंगो के मिश्रण आदि में पाए जाते है| फ्रेंच गेंदे की किस्मों को पौधों की ऊँचाई के आधार पर विभक्त किया जाता है, जैसे-
छोटे पौधे वाली-
पूसा अर्पिता, फ्लैम, फ्लेमिंग फायर डबल और रस्टी रैड आदि प्रमुख है|
सबसे छोटे पौधे वाली-
इस वर्ग में पिटाइट सीरिज की किस्में जो आमतौर पर 15 सेंटीमीटर तक बढ़ती है, जैसे- गोल्ड, जिप्सी, ओरेंज फ्लैम, डैन्टी मरीटा, स्टार ऑफ इण्डिया व टीना में इकहेर फूल आते है|
3. हाइब्रिड -
अपोलो, क्लाइमैक्स, फस्ट लेडी, गोल्ड लेडी, ओरेंज लेड़ी, इन्का येलो, इन्का गोल्ड और इन्का ओरेंज आदि प्रमुख है|
गेंदें का प्रवर्धन:
गेंदा का प्रवर्धन बीज तथा वानस्पतिक भाग शाखा से कलम विधि द्वारा किया जाता है| वानस्पतिक विधि द्वारा प्रवर्धन करने से पौधे पैतृक जैसे ही उत्पादित होते हैं| व्यवसायिक स्तर पर गेंदा का प्रवर्धन बीज द्वारा किया जाता है| इसका 800 ग्राम से 1 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से लगता है| गेंदा का प्रवर्धन कलम विधि द्वारा करने के लिए 6 से 8 सेंटीमीटर लम्बी कलम पौधे के उपरी भाग से लेते हैं|
पौधे से कलम को अलग करने के उपरान्त कलम के निचले हिस्से से 3 से 4 सेंटीमीटर तक की सभी पत्तियों को ब्लेड से काट देते हैं तथा कलम के निचले भाग को तिरछा काटते हैं| इसके बाद कलम को बालू में 2 से 3 सेंटीमीटर गहराई पर लगा देते हैं। कलम को बालू में लगा देने के 20 से 25 दिन बाद कलम में जड़ें बन जाती हैं| इस प्रकार वानस्पतिक प्रवर्धन विधि से पौधा बन कर रोपण हेतु तैयार हो जाता है|
बुवाई का समय:
गर्मी के मौसम का गेंदा पुष्पोत्पादन करने हेतु फरवरी माह के दूसरे सप्ताह तथा वर्षा ऋतु के समय पुष्पोत्पादन हेतु जून के पहले सप्ताह में बीज की बुवाई करनी चाहिए| सर्दी के मौसम का पुष्पोत्पादन हेतु सितम्बर माह के दूसरे सप्ताह में बीज की बुवाई करनी चाहिए| नर्सरी में बीज की बुवाई के एक माह बाद पौध रोपण हेतु तैयार हो जाती है|
नर्सरी तैयार करना:
गेंदा की पौध तैयार करने के लिए सामान्य तौर पर 1 मीटर चौड़ा तथा 15 से 20 सेंटीमीटर जमीन को सतह से ऊंची क्यारी बनाते हैं| दो क्यारियों के बीच में 30 से 40 सेंटीमीटर का फासला छोड़ देते हैं, जिससे सुगमतापूर्वक नर्सरी में खरपतवार निकाई तथा क्यारी से पौधों को रोपण हेतु निकाला जा सके
नर्सरी की क्यारी की मिट्टी अच्छी तरह भुरभुरी करके मिट्टी में सड़ी हुई गोबर की खाद 10 से 12 किलोग्राम प्रति वर्गमीटर के दर से मिला देते हैं|
यदि बलुई दोमट मिट्टी न हो तो क्यारी में आवश्यकतानुसार बालू की मात्रा भी मिला देते हैं| क्यारी में बीज की बुवाई से पहले 2 ग्राम कैप्टान प्रति लीटर पानी में घोल कर सभी क्यारियों में डेंच कर देना चाहिए, इससे नर्सरी में कवक का प्रकोप कम हो जाता है| जिसके कारण बीज के अंकुरण के बाद पौधों की मृत्यु दर कम हो जाती है|
क्यारी में बीज की बुवाई दो पंक्तियों के बीच में 6 से 8 सेंटीमीटर का फासला रखते हुए 1.5 से 2 सेंटीमीटर की गहराई पर करनी चाहिए|
पंक्तियों में बीज पास-पास नहीं रखना चाहिए, क्योंकि पास-पास बीज की बुवाई करने से पौध कमजोर हो जाती है| जिससे पुष्प उत्पादन भी कम होता है| बीज की बुवाई के बाद सड़ी पत्ती की खाद या बालू की पतली परत क्यारी के उपर बिछा देना चाहिए|
ऐसा करने से क्यारी में नमी बनी रहती है और बीज का अंकुरण भी अधिक होता है| क्यारियों में गर्मी के मौसम में सुबह-शाम तथा सर्दी एवं बरसात के मौसम में सुबह पानी प्रतिदिन फुहारा से देना चाहिए|
पौध रोपण:
नर्सरी में गेंदा बीज की बुवाई के एक माह बाद पौध रोपण हेतु तैयार हो जाती है| अफ्रीकन गेंदा 40 x 40 सेंटीमीटर तथा फ्रेंच 30 x 30 सेंटीमीटर पौध से पौध एवं पंक्ति से पंक्ति के फांसले पर तथा 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई पर रोपना चाहिए|
पौध रोपण गर्मी के मौसम में सांयकाल तथा सर्दी एवं बरसात में पूरे दिन किया जा सकता है| पौध रोपण के समय यदि पौध लम्बा हो गया हो तो लगाने से पहले उसका शीर्षनोचन कर देना चाहिए|
खाद एवं उर्वरक:
गोबर की सड़ी खाद 250 से 300 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से डालना चाहिए| इसके अतिरिक्त रासायनिक उर्वरकों द्वारा 200 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर नत्रजन और 80 किलोग्राम फास्फोरस एवं 80 किलोग्राम पोटाश देने से पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है|
फास्फोरस एवं पोटाश को पूरी मात्रा हेतु सिंगल सुपरफास्फेट तथा म्यूरेट आफ पोटाश को क्यारियों की तैयारी के समय मिट्टी में मिला देना चाहिए| नत्रजन की मात्रा को तीन बराबर भाग में बांट कर एक भाग क्यारीयों की तैयारी के समय एवं दो भाग पौध रोपण से 30 एवं 50 दिन पर यूरिया या कॅल्शियम अमोनियम नाइट्रेट उर्वरक द्वारा देना चाहिए|
सिंचाई प्रबंधन:
गेंदा की खेती में पौधों की बढ़वार एवं पुष्पोत्पादन में सिंचाई का विशेष महत्व है| सिंचाई के पानी का पी एच मान 6.5 से 7.5 तक लाभकारी पाया गया है| पौध रोपण के तुरन्त बाद सिंचाई खुली नाली विधि से की जाती है| मृदा में अच्छी नमी होने से जड़ों की अच्छी वृद्धि एवं विकास होता है और पौधों को मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्व उचित मात्रा में मिलता रहता है|
शुष्क मौसम में सिंचाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए| गर्मी में 5 से 6 दिन तथा सर्दी में 8 से 10 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए| क्यारियों में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए| बरसात में अत्याधिक पानी की निकासी के लिए जल निकास नाली पहले से तैयार रखनी चाहिए|
खरपतवार नियंत्रण:
खरपतवार जब छोटा रहे उसी समय खेत से बाहर निकाल देना चाहिए| गेंदा फसल की छोटी अवस्था में समय पर गुड़ाई करनी चाहिए| ऐसा करने से मिट्टी भुरभुरी बनी रहती हैं और जड़ों की अच्छी वृद्धि एवं विकास होता है| मिट्टी की गुड़ाई बहुत गहरी नहीं करनी चाहिए|
शीर्ष नोचन:
प्रथम- शीर्षनोचन पौधा की फैलाव को बढ़ाने के लिए किया जाता है| शीर्षनोचन दो बार करने से पुष्पोत्पादन बढ़ जाता हैं| यदि पौध रोपण बिलम्ब से किया गया हो तो केवल प्रथम शीर्षनोचन करना चाहिए| प्रथम पौध रोपण के समय यदि पौधों का शीर्षनोचन न किया गया हो तो पौध लगाने के 12 से 15 दिन बाद उन प्रत्येक पौधा का शीर्षनोचन हाथ से करना चाहिए|
जिनकी लम्बाई जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर से अधिक हो गयी हो| शीर्षनोचन के समय यह ध्यान रखा जाता है, कि शीर्षनोचन के उपरान्त पौध पर 4 से 5 पूर्ण विकसित पत्तियाँ बनी रहें, ऐसा करने से एक पौध पर 3 से 5 तक मुख्य शाखाएं आ जाती हैं| शाखाओं की संख्या बढ़ने पर पुष्पोत्पादन बढ़ जाता है|
द्वितीय- प्रथम शीर्षनोचन जैसा ही द्वितीय शीर्षनोचन करते हैं| इसमें मुख्य शाखाएं जब 15 से 20 सेंटीमीटर लम्बी हो जाती हैं, उस समय हर शाखा पर 4 से 5 पूर्ण विकसित पत्तियों छोड़कर शीर्षनोचन कर देते हैं|
कीट एवं रोकथाम:
रेड स्पाइडर माइट- माइट गेंदा की पत्तियों का रस चूस लेते हैं| जिससे पत्तियाँ हरे रंग से भूरे रंग में बदलने लगती हैं, और पौधों की बढ़वार बिल्कुल रुक जाती है| इसका अत्याधिक प्रकोप होने पर पुष्पोत्पादन भी नहीं हो पाता, जो कलियां बनती भी हैं, वह खिल भी नहीं पाती हैं|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए हिल्फोल 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए|
एफिड्स- एफिड्स रस चूसने वाला कीट है| इनका प्रकोप गेंदा फसल की पत्तियों, टहनियों एवं पुष्प कलियों पर होता है| यह पौधे की वृद्धि को कम कर देता है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए मैलाथियान या इण्डोसल्फान का छिड़काव 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर करना चाहिए|
लीफ माइनर- लीफमाइनर नर एवं मादा दोनों गेंदा फसल को नुकसान पहुंचाते हैं| गेंदा में इसका प्रकोप होने पर पत्तियों में सफेद धारियां बन जाती हैं, और पौधों की बढ़वार कम हो जाती है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए 1.5 से 2 मिलीलीटर इण्डोसल्फान प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए|
कैटरपिलर- कैटरपिलर हरा एवं भूरा काले रंग का कीट है| यह गेंदा फसल की पत्तियों, टहनियों एवं कलियों को नुकसान पहुंचाते हैं|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए 1.5 मिलीलीटर इण्डोसल्फान या मैलाथियान एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए|
रोग एवं रोकथाम:
डैमपिंग आफ- यह बीमारी राइजोकटोनिया सोलेनाई कवक का प्रकोप होने पर नर्सरी में होती हैं| इस बीमारी का प्रकोप होने पर नर्सरी में ही पौधों की मृत्यु हो जाती हैं| अधिकतर यह बीमारी नर्सरी में पौधों को बहुत अधिक पानी देने के कारण होती है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए क्यारीयों में बीज की बुवाई करने से पहले क्यारी में किसी भी कापर कवकनाशी (कैप्टान) का घोल (2.2 प्रतिशत सान्द्रता) का ड्रेच करना चाहिए या मिट्टी को फार्मल्डीहाइड नामक रसायन के घोल (2 प्रतिशत सान्दता) से संक्रमित कर देना चाहिए| इस बीमारी का प्रकोप होने के बाद निदान करना बहुत ही कठिन है|
फ्लावर बड़ रॉट- यह बीमारी अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों में देखी गई है| इस बीमारी से गेंदा फसल की कलियों पर ब्राउन धब्बे पड़ जाते हैं| इस प्रकार की कलियाँ पूर्ण रूप से खिल नहीं पाती हैं|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम- 45 का.2.2 प्रतिशत सान्द्रता के घोल का छिड़काव करना चाहिए|
कालर रॉट, फूट रॉट एवं रूट रॉट- यह बीमारियों राइजोकटोनिया सोलेनाई, फाइटोप्थोरा स्पेशीज, पीथियम स्पेशीज़, इत्यादि कवकों के कारण होती है| कालर राट गेंदा फसल में किसी अवस्था में देखा जा सकता है| फूट रॉट एवं रूट रॉट अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्र में तथा क्यारी में अधिक पानी होने के कारण भी होता है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए नर्सरी की मिट्टी को बीज की बुवाई से पहले फार्मल्डीहाइड की घोल से संक्रमित करें, रोग रहित बीज का प्रयोग करें, रोगग्रसित पौधों को उखाड़ दें, बहुत घना नर्सरी या पौध रोपण न करें तथा बुवाई से पहले कैप्टान से बीज को उपचारित करें|
लीफ स्पाट- यह बीमारी अल्टरनेरिया टॅजेटिका कवक के प्रकोप होने पर गेंदा के पौधों पर देखि गई है| इस बीमारी से प्रभावित पौधों के पत्तियों के ऊपर भूरा गोल धब्बा दिखने लगता है, जो धीरे-धीरे पौधों की पत्तियों को खराब कर देता है|
रोकथाम- इस बीमारी की रोकथाम के लिए बाविस्टीन 1 से 1.5 ग्राम पाउडर प्रति लीटर पानी में घोलकर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए|
पाउडरी मिल्ड्यू- गेंदा में पाउडरी मिल्ड्यू ओडियम स्पेशीज और लेविल्लुला टैरिका कवकों के प्रकोप होने के कारण होता है| इस बीमारी में पौधों के पत्तियों के उपर सफेद पाउडर दिखाई देने लगता हैं| कुछ समय बाद पूरे पौधे पर सफेद पाउडर दिखने लगता है|
रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए कैराथेन 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए|
विषाणु रोग- विषाणु पौधों की गुणवत्ता को धीरे धीरे कम कर देते हैं| गेंदा में कुकुम्बर मोजैक वाइरस का प्रकोप भी देखा गया है|
रोकथाम- विषाणु रोग के बचाव के लिए रोगग्रसित पौधों को समय-समय पर उखाड़ कर जमीन के अन्दर दबा दें या जला देना चाहिए|
पुष्पों की तुड़ाई:
गर्मी के मौसम की फसल मई माह के मध्य से शुरु होकर बरसात के समय तक चलती है| लेकिन यह देखा गया है कि जून में सर्वाधिक पुष्प उत्पादन होता है| बरसात के मौसम की फसल में फूलों का उत्पादन सितम्बर मध्य से शुरु होकर लगातार दिसम्बर तक तथा सर्दी के मौसम की फसल जनवरी मध्य से शुरु होकर मार्च तक लगातार पुष्पोत्पादन होता रहता है|
पहाड़ी क्षेत्रों में गर्मी एवं बरसात की फसल सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है| पुष्पों को पौध से तब अलग करते हैं, जब पुष्प पूर्ण रूप से खिल जाए| फूलों को तोड़ते समय यह ध्यान रखा जाता हैं, कि पुष्प के नीचे लगभग 0.5 सेंटीमीटर तक लम्बा हरा डण्ठल पुष्प से जुड़ा रहे| पुष्पों की तुड़ाई सुबह के समय करना चाहिए तथा किसी ठण्डे स्थान पर रखना चाहिए|
यदि पुष्प के ऊपर अतिरिक्त नमी या पानी की बूंद हो, तो उसे छायादार स्थान पर फैला देना चाहिए| नमी कम हो जाने के बाद बांस की टोकरी में बाजार में भेज दिया जाता है| फूलों को अतिरिक्त नमी के साथ पैक करने पर पुष्प की पंखुड़ियाँ काली पड़ने लगती हैं| इसी कारण ऐसे फूलों की कीमत बाजार में बहुत कम मिलती हैं|
पैदावार:
यदि उपरोक्त वैज्ञानिक विधि और सही तरीके से गेंदे की फसल पर ध्यान दिया गया हो तो अफ्रीकन गेंदा 200 से 300 क्विंटल तथा फ्रेंच गेंदा 125 से 200 क्विंटल और हाइब्रिड गेंदा से 350 क्विंटल से अधिक प्रति हैक्टेयर पुष्प की उपज प्राप्त होती है|
निष्कर्ष:
कम समय के साथ ही साथ कम लागत की फसल होने के कारण यह काफी लोकप्रिय है| गेंदा के फूल आकार और रंग में आकर्षक होते हैं| इसकी खेती आसान होने के कारण इसे व्यापक रूप से अपनाया जा रहा है| आकार और रंग के आधार पर इसकी दो किस्में होती हैं- अफ्रीकी गेंदा और फ्रैंच गेंदा|
यदि उत्पादक बंधु गेंदा की खेती वैज्ञानिक तकनीक अपनाकर करें, तो इसकी फसल से उत्तम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| आजकल कुछ किस्मों के फूलों का इस्तेमाल कार्तिक पुष्प के रूप में फूलदान सजाने में भी किया जाता है|
पौधों की विभिन्न ऊंचाई एवं फूलों के विविध रंगो की छाया के कारण इनका इस्तेमाल गमलों एवं क्यारियों में लगाकर भू-दृश्य की सुन्दरता बढ़ाने में भी किया जाता है, साथ ही गेंदे के फूल तथा पत्तियों का उपयोग विभिन्न दवाइंयो, तेल निष्कर्षण, आहार योग्य रंगो के उत्पादन में भी किया जाता है|
नांरगी फूल वाली किस्मों के फूलों की पंखुड़ियों में कैरोटिनॉइडस-पीला वर्णक (ल्यूटिन) अधिकत्ता में पाया जाता है| इसका उपयोग पोल्ट्री उद्योग में मुर्गियों के दाने के रूप में किया जाता है, जिससे अंडे की जर्दी (योक) का रंग पीला हो जाता है|
गेंदे का उपयोग उपरोक्त सभी मूल्यसंवर्धन उत्पादो के अलावा अंतरवर्ती फसल के रूप में भी सूत्रकृमियों की रोकथाम हेतु किया जाता है| इसकी जड़ो से अल्फा-टेरथिएनील नामक एक पदार्थ का निर्माण होता है जो मूल ग्रंथ सूत्रकृमियों को अपनी ओर आकर्षित करता है| इसी कारण से यह सब्जियों वाली फसलों के साथ- साथ पॉलीहाउस में भी सूत्रकृमियों की रोकथाम के लिये उगाया जाता है|
Authors:
संदीप कुमार राजवंशी1, दीपा एच. द्विवेदी1 और विकास कुमार2
पी. बी. आर. डिग्री कॉलेज, हरदोई- 241305
बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर वि”वविद्यालय, लखनऊ- 226025
कृषि विभाग, रामपुर, उत्तर प्रदेश- 244901
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