जौ उत्पादन की आधुनिक तकनीकियाँ

भारत में जौ की खेती प्राचीनतम काल से की जा रही है। भारत के उत्तर पश्चिमी एवं पूर्वी मैदानी क्षेत्रों की जौ एक महत्वपूर्ण रबी फसल है। वर्ष 2019-20 के दौरान भारत में जौ का 16.9 लाख टन उत्पादन 6.20 लाख हैक्टर भूमि पर 26.17 किलोग्राम/हैक्टर उत्पादकता के साथ किया गया।

प्राचीन काल से जौ का उपयोग मनुष्य के खाद्य पदार्थों (आटा, दलिया, सत्तू व पेय पदार्थ), पशु आहार एवं इसके अर्क व सीरप का प्रयोग व्यावसायिक रूप से तैयार किए गए खाद्य एवं मादक पेय पदार्थों में स्वाद, रंग या मिठास जोड़ने के लिए किया जाता है।

वैज्ञानिक अनुसंधान के आधार पर जौ को औषधीय रूप में काफी उपयोगी माना जाता है। भारत में माल्ट बनाने के लिए जौ का प्रयोग पहले से ही होता आ रहा है। सरकार की उदार आर्थिक नीतियों के कारण अनेक ब्रुअरीज का भारत में आगमन हुआ जिसके कारण माल्ट की आवश्यकता में निरन्तर वृद्धि देखी जा रही है।

इस समय भारत में जौ की प्रति वर्ष औद्योगिक आवश्यकता लगभग पाँच लाख मीट्रिक टन है और इसमें 10 प्रतिशत की दर से वार्षिक वृद्वि हो रही है। देश में जौ उत्पादन का लगभग 30 प्रतिशत भाग माल्ट बनाने में प्रयोग किया जा रहा है। इस कारण देश के विभिन्न भागों में अनेक कम्पनियों द्वारा माल्ट जौ की अनुबन्ध खेती शुरू की गई है। अनेक कम्पनियाँ आधुनिक तकनीक, जौ की उन्नत किस्में एवं फसल उत्पादन की समग्र सिफारिशें अनुबन्धित किसानों को उपलब्ध कराती हैं।

किसानों को बीजाई से लेकर कटाई तक आवश्यकतानुसार समुचित सलाह भी दी जाती है तथा कटाई के उपरान्त पूर्व निर्धारित कीमत पर किसानों से जौ की खरीद भी करती हैं।

कृषि जलवायु के आधार पर जौ की खेती के लिए भारत को चार भागों में बांटा गया है जिसमें उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र, उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र, उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र एवं मध्य क्षेत्र क्षेत्र शामिल हैं। इन क्षेत्रों के अनुसार जौ उत्पादन की तकनीकें भी विकसित की गई हैं जिनका विस्तृत विवरण निम्नलिखित है।

जौ की खेती के लिए जलवायु एवं भूमि

जौ की खेती के लिए शीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है, लेकिन समशीतोष्ण जलवायु में भी इसकी खेती सफलतापू्र्वक की जा सकती है। जौ की खेती समुद्र तल से 4000 मीटर की ऊंचाई तक आसानी से कर सकते हैं। इसकी खेती के लिए बीजाई के समय 25 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान उपयुक्त रहता है।

जौ की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है लेकिन अच्छे जल निकास वाली दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है। इसकी खेती के लिए मृदा अभिक्रिया (पीएच) 6.5 से 8.5 के मध्य होना चाहिए। भारत में जौ की खेती अधिकांशतः रेतीली भूमि में की जाती है।

क्षारीय एवं लवणीय भूमियों में भी सहनशील किस्मों की बीजाई करके जौ की खेती आसानी कर सकते हैं। असिंचित क्षेत्रों में वर्षा पर आधारित खेती के लिए जौ को सर्वोत्तम माना जाता है।

जौ की उपयुक्त किस्में, उपज एवं उपयोगिता

जौ के अधिक उत्पादन के लिए रोगरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए। किसानों को किस्मों के चयन के समय मृदा संसाधनों की उपलब्धता, स्थानीय स्तर पर बीज की उपलब्धता तथा जौ की उपयोगिता को भी ध्यान में रखना चाहिए। जौ की नवीनतम किस्मों का विवरण निम्नलिखित तालिका में दिया गया है।

उत्तम गुणवत्ता के बीज भारतीय बीज निगम, राज्य बीज निगम, अनुसंधान संस्थानों, कृषि विश्वविद्यालयों एवं कृषि विज्ञान केंद्रों से प्राप्त किए जा सकते हैं।

 

प्रजातियों के नाम

बीजाई की दशा

औसत उपज (कुंतल/हैक्टर)

उपज क्षमता (कुंतल/हैक्टर)

उपयोगिता

उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र:

पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान (कोटा एवं उदयपुर संभाग को छोड़कर) पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र, जम्मू कश्मीर के जम्मू एवं कठुआ जिले व हिमाचल प्रदेश का ऊना जिला एवं पोंटा घाटी को मिलाकर यह क्षेत्र बनाया गया है।

डीडब्ल्यूआरबी 182

सिंचित, समय से बीजाई

49.68

74.50

माल्ट

डीडब्ल्यूआरबी 160

सिंचित, समय से बीजाई

53.72

74.07

माल्ट

डीडब्ल्यूआरबी 123

सिंचित, समय से बीजाई

48.70

67.26

माल्ट

आरडी 2849

सिंचित, समय से बीजाई

50.90

69.20

माल्ट

डीडब्ल्यूआरबी 101

सिंचित, समय से बीजाई

50.10

67.44

माल्ट

डीडब्ल्यूआरबी 92

सिंचित, समय से बीजाई

49.81

69.06

माल्ट

डीडब्ल्यूआरबी 91

सिंचित, देर से बीजाई

40.62

58.90

माल्ट

डीडब्ल्यूआरबी 73

सिंचित, समय से बीजाई

38.70

53.10

माल्ट

डीडब्ल्यूआरयूबी 64

सिंचित, समय से बीजाई

40.50

61.20

माल्ट

आरडी 2624

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

24.89

38.60

खाद्य एवं पशु आहार

आरडी 2660

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

24.30

34.10

खाद्य एवं पशु आहार

बीएच 946

सिंचित, समय से बीजाई

51.96

66.32

खाद्य एवं पशु आहार

बीएच 902

सिंचित, समय से बीजाई

49.75

61.60

खाद्य एवं पशु आहार

पीएल 891

सिंचित, समय से बीजाई

36.60

50.00

खाद्य एवं छिलका रहित

आरडी 2552

सिंचित, समय से बीजाई

44.06

61.00

खाद्य एवं चारा

आरडी 2035

सिंचित, समय से बीजाई

42.70

46.74

खाद्य एवं चारा

उत्तरी पूर्वी मैदानी क्षेत्र:

यह क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं झारखण्ड को मिलाकर बनाया गया है।

डीडब्ल्यूआरबी 137

सिंचित, समय से बीजाई

37.93

53.62

खाद्य एवं पशु आहार

एचयूबी 113

सिंचित, समय से बीजाई

43.20

63.77

खाद्य एवं पशु आहार

के 560

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

30.40

46.40

खाद्य एवं पशु आहार

के 603

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

29.07

38.40

खाद्य एवं पशु आहार

के 1055 (उत्तर प्रदेश)

सिंचित, समय से बीजाई

38.07

47.40

खाद्य एवं पशु आहार

के 508 (उत्तर प्रदेश)

सिंचित, समय से बीजाई

40.50

57.00

खाद्य एवं पशु आहार

नरेन्द्र जौ 2 (उत्तर प्रदेश)

सिंचित, देर से बीजाई

32.40

39.90

खाद्य एवं पशु आहार

एनडीबी 943 (उत्तर प्रदेश)

सिंचित, समय से बीजाई

25.00

38.00

खाद्य एवं छिलका रहित

मध्य क्षेत्र:

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, राजस्थान के कोटा एवं उदयपुर संभाग तथा उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र को मिलाकर यह क्षेत्र बनाया गया है।

डीडब्ल्यूआरबी 137

सिंचित, समय से बीजाई

42.49

67.44

खाद्य एवं पशु आहार

बीएच 959

सिंचित, समय से बीजाई

49.90

67.50

खाद्य एवं पशु आहार

आरडी 2786

सिंचित, समय से बीजाई

50.20

61.40

खाद्य एवं पशु आहार

पीएल 751

सिंचित, समय से बीजाई

42.30

64.10

खाद्य एवं पशु आहार

आरडी 2715

सिंचित, समय से बीजाई

26.30

54.50

खाद्य एवं चारा

जेबी 1 (मध्य प्रदेश)

सिंचित,, समय से बीजाई

42.70

51.00

खाद्य एवं पशु आहार

आरडी 2899

सिंचित, समय से बीजाई

42.19

57.43

खाद्य एवं पशु आहार

जेबी 58 (मध्य प्रदेश)

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

31.30

32.20

खाद्य एवं पशु आहार

उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र:

यह क्षेत्र जम्मू कश्मीर (जम्मू एवं कठुआ जिलों को छोड़कर), हिमाचल प्रदेश (ऊना जिला एवं पोंटा घाटी को छोड़कर) उत्तराखंड (तराई क्षेत्रों को छोड़कर) को मिलाकर बनाया गया है।

बीएचएस 400

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

32.71

58.70

खाद्य एवं पशु आहार

बीएलबी 118

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

30.84

50.00

खाद्य एवं पशु आहार

बीएचएस 352

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

21.90

38.00

खाद्य एवं छिलका रहित

बीएचएस 380

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

20.97

29.80

खाद्य एवं चारा

एचबीएल 276

वर्षा आधारित, समय से बीजाई, ठंड एवं रतुआ अवरोधी

23.00

34.90

खाद्य एवं छिलका रहित

वीएलबी 130 (उत्तराखंड)

वर्षा आधारित, समय से बीजाई

25.42

37.70

खाद्य एवं चारा

सभी क्षेत्रों के लिए:

लवणीय एवं क्षारीय (कल्लर) भूमियों के लिए

आरडी 2907

सिंचित, समय से बीजाई

35.54

53.62

खाद्य एवं पशु आहार

आरडी 2794

सिंचित, समय से बीजाई

29.90

43.30

खाद्य एवं पशु आहार

आरडी 2552

सिंचित, समय से बीजाई

44.06

61.00

खाद्य एवं चारा

एनडीबी 1445 (उत्तर प्रदेश)

सिंचित, समय से बीजाई

32.00

38.00

खाद्य एवं पशु आहार

एनडीबी 1173

सिंचित, समय से बीजाई

35.20

46.20

खाद्य एवं पशु आहार

नरेन्द्र जौ 1 (उत्तर प्रदेश)

सिंचित, समय से बीजाई

22.30

28.30

खाद्य एवं पशु आहार

नरेन्द्र जौ 3 (उत्तर प्रदेश)

सिंचित, समय से बीजाई

35.00

46.00

खाद्य एवं पशु आहार

सूत्रकृमि प्रतिरोधी

 

 

 

 

आरडी 2052 (राजस्थान)

सिंचित, समय से बीजाई,

30.68

45.64

खाद्य एवं पशु आहार

 Barley verities

जौं की उन्नत प्रजातियाँ

खेत की तैयारी

जौ की अच्छी पैदाकर लेने के लिए खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लेना चाहिए। समतल उपजाऊ खेत का चयन करके, जुताई पूर्व सिंचाई के बाद उपयुक्त्त नमी होने पर खेत की तैयारी के लिए डिस्क हैरो, टिलर और भूमि समतल करने वाले यंत्र से पाटा के साथ खेत को अच्छी तरह तैयार कर लेना चाहिए। खेत का अच्छी तरह से समतल होना आवश्यक है क्योंकि जौ की फसल जल भराव के प्रति संवेदनशील होती है।

जौं की बीज दर, पंक्ति से पंक्ति की दूरी एवं बीजाई की विधि

समय से बीजाई के लिए 100 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से बीज डालना चाहिए तथा देर से बीजाई के लिए बीज की मात्रा 125 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करें। माल्ट के उद्देश्य से की जा रही जौ बीजाई में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 18-20 सेंटीमीटर रखें।

जबकि पशु आहार के लिए की जा रही बीजाई में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 23 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। जौ की बीजाई के लिए खाद व बीज ड्रिल सबसे उपयुक्त एवं वैज्ञानिक विधि है। ड्रिल से बीजाई करने के बाद पाटा लगाने की आवश्यकता नही पड़ती है।

इस विधि द्वारा लाईनों में बीजाई करने से उत्पादन में वृद्धि होती है। सबसे पुरानी एवं पारम्परिक विधि देशी हल के पीछे लगे चैंगे में बीज डालकर भी लाईनों में बीजाई की जा सकती है लेकिन इस विधि से बीजाई करने के बाद मिट्टी एवं बीज के अच्छे सम्पर्क हेतु मिट्टी को पाटा लगाकर सघन एवं समतल कर देना चाहिए। जीरो टिलेज विधि से भी जौ की बिजाई कर सकते हैं।

बीज उपचार

बीज जनित रोगों एवं दीमक के प्रभावी प्रबंधन के लिए अनुमोदित दवाईयों से बीज उपचारित करना चाहिए।

  • जौ की खुली कंगयारी रोग नियन्त्रण के लिए बीज को कार्बोक्सिन (विटावेक्स 75 डब्ल्यूपी) 0 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से या कार्बेन्डाजीम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यूपी) 2.0 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
  • बन्द कंगयारी रोग नियन्त्रण के लिए बीज को थीरम तथा कार्बोक्सिन (विटावेक्स 75 डब्ल्यूपी)/कार्बेन्डाजीम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यूपी) को 1:1 के अनुपात में मिलाकर 5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें।
  • दीमक नियन्त्रण के लिए 150 मिलीलीटर क्लोरपाइरीफोस (20 ईसी) को 5 लीटर पानी में घोलकर 100 किलोग्राम बीज उपचारित कर सकते हैं।

जौं बीजाई का समय

पशु आहार एवं माल्ट के लिए जौ की बीजाई 1-20 नवम्बर के मध्य कर देनी चाहिए। माल्ट के लिए देर से बीजाई दिसम्बर के पूरे महीने की जा सकती है। ध्यान रहे कि देर से बीजाई के लिए अनुमोदित किस्मों का ही चयन करना चाहिए।

उर्वरक की मात्रा एवं प्रयोग की विधि

माल्ट के उद्देश्य से बीजाई की गई फसल में नत्रजन की मात्रा 90 किलोग्राम प्रति हैक्टर, फास्फोरस 40 किलोग्राम प्रति हैक्टर एवं पोटाश 30 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से डालना चाहिए। पशु आहार के लिए बीजाई की गई फसल में नत्रजन की मात्रा 60 किलोग्राम प्रति हैक्टर, फास्फोरस 30 किलोग्राम प्रति हैक्टर एवं पोटाश 30 किलोग्राम प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करें।

नत्रजन की आधी मात्रा बीजाई के समय तथा शेष आधी मात्रा प्रथम सिंचाई के बाद डालनी चाहिए। फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बीजाई के समय ही डालें। बारानी खेती के लिए 40 किलोग्राम नत्रजन, 20 किलोग्राम फास्फोरस तथा 20 किलोग्राम पोटाश की पूरी मात्रा का उपयोग बीजाई के समय ही करना चाहिए।

अच्छी गुणवत्ता के जौ उत्पादन के लिए 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हैक्टर की दर से बीजाई के समय डालना अच्छा रहता है। माल्ट जौ की अधिक वानस्पतिक वृद्धि के कारण फसल के गिरने की समस्या के निदान हेतु वृद्धि अवरोधक क्लोरमिक्वाट क्लोराईड (50 प्रतिशत एसएल) 0.2 प्रतिशत + प्रोपीकोनाजोल (25 ईसी) 0.1 प्रतिशत का 30-32 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए ताकि अनावश्यक वृद्धि को रोका जा सके।

जौं में सिंचाई प्रबंधन

अच्छी उपज लेने के लिए जौ की फसल को सामान्यतः 2-3 सिंचाईयाों की आवश्यकता होती है लेकिन वर्षा आधारित/बारानी/पानी की कमी वाले क्षेत्रों में भी जौ की फसल आसानी से ली जा सकती है। पानी की उपलब्धता के अनुसार पौधों की उपयुक्त अवस्थाओं पर सिंचाई करनी चाहिए।

पहली सिंचाई कल्ले निकलते समय अर्थात बीजाई के 30-35 दिन बाद, दूसरी सिंचाई बीजाई के 60-65 दिन बाद बाली निकलते समय व तीसरी सिंचाई दाना बनते समय अर्थात बीजाई के 90-95 दिन बाद की जानी चाहिए। केवल दो ही सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो तो पहली सिंचाई कल्ले फूटते समय (बीजाई के 30-35 दिन बाद) तथा दूसरी सिंचाई बाली निकलते समय की जानी चाहिए।

यदि सिर्फ एक ही सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध है तब कल्ले निकलते समय (बीजाई के 30-35 दिन बाद) सिंचाई करना आवश्यक है। प्रति सिंचाई 5-6 सेंटीमीटर पानी लगाना चाहिए। दूध पड़ते समय सिंचाई शान्त मौसम में करनी चाहिए क्योंकि इस समय फसल के गिरने की आशंका बनी रहती है। जौ के खेत में जल निकासी का भी उचित प्रबन्ध होना आवश्यक है। अधिक उत्पादन एवं दानों की एक रूपता और अच्छी गुणवत्ता सुनिश्चित करने हेतु माल्ट जौ की फसल को 3-4 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है।

जौं में खपतवार प्रबंधन

जौ की फसल में संकरी पत्ती वाले (मंडूसी/कनकी/गुल्ली डंडा, जंगली जई, लोमड़ घास) खरपतवारों के नियंत्रण के लिए पिनोक्साडेन (5 ईसी) 350 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर प्रयोग करें।

चैड़ी पत्ती वाले (बथुआ, खरबाथु, जंगली पालक, मैना, मैथा, सोंचल/मालवा, मकोय, हिरनखुरी, कंडाई, कृष्णनील, प्याजी, चटरी-मटरी) खरपतवारों की समस्या हो तो मेटसल्फ्यूरॉन (20 डब्ल्यूपी) 8 ग्राम या कारफेन्ट्राजोन (40 डब्ल्यूडीजी) 20 ग्राम या 2,4 डी (38 ईसी) 500 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करें।

सभी खरपतवारनाशी/शाकनाशी का छिड़काव बीजाई के 30-35 दिन बाद 120-150 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लैट फैन नोजल से करें। मिश्रित खरपतवारों की समस्या होने पर संकरी पत्ती के लिए अनुमोदित शाकनाशी के प्रयोग के उपरान्त चैड़ी पत्ती शाकनाशी का छिड़काव करें।

बहुशाकनाशी प्रतिरोधी कनकी के नियंत्रण के लिए पेन्डीमैथालिन (30 ईसी) 1250-1500 मिलीलीटर/एकड़ की दर से बीजाई के तुरन्त बाद प्रयोग करें।

जौं फसल में कीट एवं व्याधि प्रबंधन

जौ की फसल में अनेक प्रकार के कीट एवं बीमारियों का प्रकोप होता है जिसके कारण फसल में काफी नुकसान होता है। अतः उपज की होने वाली क्षति को रोकने के लिए उचित समय पर इनका प्रबंधन अत्यन्त आवश्यक है।

पीला रतुआ

पीला रतुआ जौ का एक प्रमुख रोग है जिससे उत्तर भारत में उगाई जाने वाली जौ की फसल प्रभावित होती है। फसल सत्र के दौरान उच्च आर्द्रता एवं वर्षा पीले रतुआ के संक्रमण के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा करती हैं। पौधों के विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में इस रोग के संक्रमण से अधिक हानि हो सकती है।

उत्तर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र एवं उत्तरी पर्वतीय क्षेत्र में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के प्रभावी प्रबंधन के लिए अनुमोदित रोगरोधी किस्मों की ही बीजाई करें तथा किसी एक किस्म को अधिक क्षेत्र में न लगाएं। उर्वरकों का संतुलित मात्रा में प्रयोग करें और जनवरी माह से खेतों का लगातार निरीक्षण करें।

पीला रतुआ रोग का संक्रमण होने पर प्रोपीकोनाजोल (25 ईसी) या टेब्यूकोनाजोल (250 ईसी) नामक दवा का 0.1 प्रतिशत (1.0 मिली/लीटर) घोल बनाकर छिड़काव करें। एक एकड़ खेत के लिए 200 मिलीलीटर दवा को 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। यदि रोग का प्रकोप विकास की प्रारम्भिक अवस्था में हो तो 100-120 लीटर पानी पानी का प्रयोग किया जाना चााहिए। रोग के प्रकोप तथा फैलाव को देखते हुए यदि आवश्यक हो तो 15-20 दिन के अंतराल पर पुनः छिड़काव कर सकते हैं।

चेपा या माहू कीट

जौ की फसल में चेपा या माहू नामक कीट का प्रकोप पिछले कुछ वर्षों से काफी देखा जा रहा है। यह कीट कोमल एवं हल्के रंग के होते हैं जो पत्तियों एवं बालियों के रस चूसते हैं।

माहू के प्रौढ़ हनी डीयू नामक मीठे पदार्थ का उत्सर्जन करते हैं जो पत्तियों पर काले धुंधले पदार्थ के रुप में दिखाई देता है जिससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम हो जाती है। इस रोग के प्रभावी नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल (17.8 %डब्ल्यू/डब्ल्यू) का 100 मिलीलीटर दवा को 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें।

इस कीट का संक्रमण खेत के किनारों से प्रारम्भ होता है अतः आरम्भिक अवस्था में 15 मिलीलीटर दवा को 15 लीटर पानी में घोलकर खेत के किनारों पर 5 मीटर की पट्टी में छिड़काव करने से इस कीट के फैलाव को रोका जा सकता है।

दीमक

दीमक जौ की फसल के सबसे महत्वपूर्ण कीटों में से एक है। इसका प्रकोप मुख्य रूप से उत्तरी पश्चिमी और मध्य क्षेत्र में अधिक देखने को मिलता है। वे मिट्टी के छोटे टीले या मिट्टी के ऊपर दिखने वाले मार्ग बनाते हैं। मिट्टी के मार्ग के एक हिस्से को खोलने पर, भूरे-सफेद, पंख रहित श्रमिक कीड़े दिखाई देते हैं।

दीमक का मुख्य प्रकोप फसल पर बीजाई के तुरन्त बाद तथा फसल पकने के समय होता है। दीमक की वजह से होने वाला नुकसान पौधों का आरम्भिक अवस्था में ही मर जाने से होता है। यह कीट असिंचित व हल्की मृदाओं में अधिक तापमान की अवस्था में काफी नुकसान पहुँचाता है। 

दीमक नियन्त्रण के लिए 450 मिलीलीटर क्लोरपाइरीफोस (20 ईसी) को 5 लीटर पानी में घोलकर 100 किलोग्राम बीज उपचारित कर सकते हैं।

खड़ी फसल में दीमक का संक्रमण होने पर 3 लीटर क्लोरपाइरीफोस (20 ईसी) को 2 लीटर पानी में मिलाकर 20 किलोग्राम रेत या बारीक मिट्टी में मिलाकर एक एकड़ खेत में एक समान बुरकाव करके सिंचाई करने से दीमक को नियत्रिंत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सिंचाई के साथ भी क्लोरपाइरीफोस (20 ईसी) को खेत में डाला जा सकता है।

इसके लिए एक लीटर के डिब्बे में छेदकर सिंचाई वाली नाली के ऊपर डिब्बे को उल्टा रख दिया जाता है जिसमें से बूंद-बूंद करके दवा गिरती रहती है और सिंचाई जल के साथ मिलकर खेत में फैल जाती है। इसके लिए दो लीटर दवा प्रति एकड़ के हिसाब से प्रयोग करें।

चूहा नियन्त्रण

खेतों में जौ की फसल को चूहे भारी क्षति पंहुचाते हैं। चूहों के नियंत्रण के लिए 3-4 ग्राम जिंक फोस्फाईड को गेहूँ के एक किलोग्राम आटे में थोड़ा सा गुड़ व तेल के साथ मिलाकर छोटी छोटी गोलियां बना लें तथा उन्हें चूहों के बिल के पास रख दें। अगले दिन उन सभी बिलों को मिट्टी से बन्द कर दें। यदि बिल पुनः खुले हुए मिलते हैं तो इस प्रक्रिया को पुनः दोहराएं।

जौं की कटाई व मढ़ाई

जौ की फसल मार्च के अन्त से अप्रैल के पहले पखवाड़े तक पककर तैयार हो जाती है। जौ की फसल में दाना झड़ने एवं बालियाँ के टूट कर गिरने की प्रवृति होने के कारण फसल को अधिक पकने से पहले ही काट लेना चाहिए। जब दाने सख्त हो जाएं और उनमें नमी की मात्रा 15-18 प्रतिशत के बीच हो तो हाथ से कटाई करें। जौ की कटाई सुबह के समय हांसिए/दरांती से मजदूरों द्वारा की जा सकती है।

कटी हुई जौ की फसल को 2-3 दिन सुखाकर बंडल बनाएं और फिर पावर थ्रेशर से मढ़ाई करें। अपने थ्रेशर के चक्करों को जौ के अनुसार  सेट करें अन्यथा गेहूँ की सैटिंग पर जौ के दाने कटने की समस्या उत्पन्न हो सकती है। नमी की मात्रा 14 प्रतिशत से कम होने पर कम्बाइन हार्वेस्टर से कटाई की जा सकती है। माल्ट जौ की नवीन प्रजातियों में इस तरह की समस्या नही होती है तथा इसकी कटाई पूर्ण पकने की अवस्था में कम्बाईन हार्वेस्टर से करना चाहिए।

जौं की उपज

अत्यधिक उपज देने वाली जौ की नवीनतम् प्रजातियों के प्रयोग, कुशल सस्य क्रियाएं, बीमारियों एवं अन्य कीटों के प्रभावी प्रबंधन द्वारा अगेती किस्मों से लगभग 55-65 कुंतल प्रति हैक्टर तक उपज प्राप्त की जा सकती है।

जौं का भंडारण

भंडारण से पहले दानों को अच्छी तरह से सुखा लें ताकि औसत नमी 10-12 प्रतिशत के सुरक्षित स्तर पर आ जाए। कम नमी वाले बीजों में कीट नुकसान नही कर पाते हैं। टूटे व कटे-फटे दानों को अलग कर देने से कीटों से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है।

अनाज भंडारण के लिए जी आई शीट के बने बिन्स (साइलो एवं कोठिला) का प्रयोग करना चाहिए। कीड़ों से बचाव के लिए लगभग 10 कुंतल अनाज में एल्यूमिनियम फोस्फाईड की एक टिकिया रखनी चाहिए। भंडारित स्थान को साफ सुथरा रखना चाहिए। अनाज का भंडारण नमी वाले स्थानों पर कदापि न करें। बिन्स/साइलो/कोठिला को साफ करने के बाद धूमन अवश्य करें।


Authors: 

मंगल सिंह, अनुज कुमार, सत्यवीर सिंह, राजेन्द्र सिंह छोकर, सेन्धिल आर, रमेश चन्द एवं रमेश पाल सिंह वर्मा

भाकृअनुप-भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल

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