उन्नत तकनीक से गुणवतायुक्त फील्ड मटर की खेती

मटर (पाइसम सटाइवम उप-प्रजाति अरवेंस एल.) की खेती विभिन्न उपयोग के आधार पर की जाती हैं जैसे सब्जी, दाल व बीज के लिये इसमें फील्ड मटर की खेती मुख्यत दाल व बीज के लिये की जाती हैं | भारत में 7.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर 8.3 लाख टन मटर का उत्पादन होता हैं, राजस्थान में इसका क्षेत्र 2.6 हजार हेक्टेयर में 4.7 हजार टन पैदावार होती हैं |

रबी मौसम में दलहनी फसलों में इसका प्रमुख स्थान हैं, ये केवल प्रोटीन का ही अच्छा स्त्रोत नहीं बल्कि इसमें विटामिन्स, फोस्फोरस और लोहा भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता हैं | दाल मटर का प्रयोग दाल के साथ-साथ बेसन के रूप में भी किया जाता हैं |

जलवायु :

यह शरद ऋतु में बोई जानी वाली फसल हैं, इसके लिये शुष्क एवं ठंडा मौसम उपयुक्त हैं, बीज के अंकुरण के लिये 20-22 डिग्री सेल्सियस तथा पौधों के वानस्पतिक बढवार के लिये 10-18 डिग्री सेल्सियस तापमान होना चाहिए फूल व फलिया बनते समय अधिक व कम तापमान से नुकसान होता हैं पाले के प्रति ये बहुत संवेदनशील होता हैं |

भूमि एवं खेत की तैयारी :

मटर की खेती के लिये दोमट व हल्की दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती हैं, साथ ही पी.एच्. भी 6.5-8.5 रहना चाहिए | अच्छी पैदावार के लिये जल निकास की पर्याप्त सुविधा होनी चाहिए |

खेत की तैयारी के लिये हल्की मिट्टी में 2-3 तथा भारी मिट्टी में 3-4 मिट्टी पलटने वाले हल या हैरो से जुताई करनी चाहिए इससे खरपतवार नियन्त्रण व मिट्टी उपजाऊ रहती हैं | जुताई के समय अगर पर्याप्त नमी नहीं हो तों पलेवा देकर जुताई करके पाटा चलाकर खेत को समतल करना चाहिए |

भूमि उपचार :

खेत में रोग की अधिकता होने पर भूमि का उपचार कर लेना चाहिए ताकि रोग व कीटो से बचाव हो सके इसके लिये बिजाई से पूर्व 100 कि.ग्रा. सड़ी गोबर में 5-10 कि.ग्रा. ट्राईकोड्रमा प्रति हेक्टेयर अच्छी तरह मिलाकर खेत में छिटा देकर सिंचाई कर दे | या फिर क्यूनाल्फोस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर मिट्टी में आखिर जुताई के साथ मिला देवे |

मटर की उन्नत किस्मे :

किस्मे

पकने की अवधि (दिनों में)

उपज (किव्न्त्ल/हे.)

विशेषताए  

रचना   

130-135

20-25

लम्बे पौधे व सफेद बुकनी या चूर्णिल आसिता अवरोधी

मालवीय मटर-2

125-130

20-25

लम्बे पौधे, दाने सफेद व चूर्णिल आसिता रोग प्रतिरोधी

पन्त मटर-42  

130-140

24-25

लम्बे पौधे व रतुआ रोगरोधी

शिखा (आई.पी.एफ.99-15)  

125-130

25-30

लम्बे पौधे व सफेद बीज

के.पी.एम.आर-400 (इंद्र)

125-130

30-32

बोने पौधे, दाने सफेद व बुकनी अवरोधी

मालवीय मटर-15

120-125

22-25

बोने पौधे व रतुआ अवरोधी

पूसा प्रभात (डी.डी.आर.-23)

100-105

15-18

बोने पौधे व बुकनी रोगरोधी

सपना (के. पी.एम.आर. 144-1)

125-130

30-35

बोने पौधे व चूर्णिल आसिता अवरोधी

 इसके अतिरिक्त लम्बी किस्मो में अम्बिका अलंकार व बी.एल.मटर-42 तथा बोनी किस्मो में अपर्णा, पूसा-पन्ना उतरा इत्यादि |

खाद व उर्वरक :

फसल की अच्छी बढवार के लिये भूमि में सभी तरह के पोषक तत्वों की आवश्यकता होती हैं इनमे स्थुल व सुक्ष्म दोनों की मृदा जाच के अनुसार मात्रा देने चाहिए | गोबर व कचरे की सड़ी हुई खाद खेत की तैयारी के समय लगभग 10-20 टन प्रति हेक्टेयर देनी चाहिए | नाइट्रोजन के लिये 45 कि.ग्रा. यूरिया ऊचे  कद वाली प्रजाति के लिये व बोनी किस्म के लिये 90 कि.ग्रा. यूरिया का उपयोग आधी मात्रा बुवाई के समय व आधी मात्रा उसकी वानस्पतिक वर्धि तथा फूल आते समय करनी चाहिए | 100-120 कि.ग्रा. डी.ए.पी. फास्फॉरस के लिये व पोटाश के लिये म्यूरेट ऑफ पोटाश की 40-50 कि.ग्रा. बुवाई के समय देनी चाहिए | सुक्ष्म तत्व जैसे जिंक के लिये जिंक सल्फेट की 20-25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर मात्रा बुवाई के समय देनी चाहिए |

बोने की विधि व लाइनों में दुरी :

मटर की फसल को अगर बेड प्लांटिंग विधि से उगाने से पानी व उर्वरको की बचत के साथ ही खरपतवार भी कम होते हैं | इस विधि में बेड बनाने के लिये रेज्ड बेड प्लान्टर का उपयोग किया जा सकता हैं इसमें लगभग 25-30 प्रतिशत बीज की बचत होती हैं अंकुरण भी 90-95 प्रतिशत तक होता हैं पौधों की वर्धि व फलिया अधिक लगती हैं जिससे उत्पादन बड़ता हैं |

बोने का समय व बीज की मात्रा :

असिंचित व अगेती बुवाई का समय 15 अक्टूबर तथा समय व सिंचित में 15 अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए | समय व सिंचित के लिये ऊचे कद की किस्म के लिये 75-80 कि.ग्रा., बोनी के लिये 100-125 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त हैं | बोते समय पौधे से पौधे की दुरी 10 से.मी. व लाईन से लाईन की दुरी ऊचे के लिये 40-45  से.मी. व बोनी के लिये 25-30  से.मी. रखनी चाहिए साथ ही बीज की गहराई 5-6 से.मी. रखनी चाहिए |

बीजोपचार :

बीज को बोने से पूर्व फ.आई.आर. क्रम में करना चाहिए सर्वप्रथम फफूंदनाशी जिसमे 3 ग्राम थायरम या 6-10 ग्राम ट्राईकोडर्मा से उसके बाद कीटनाशी क्लोरोपायरीफोस 20 इ.सी. 4-5 मि.ली. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से तथा अंत में राइजोबियम व पी.एस.बी. कल्चर प्रत्येक के 3 पैकेट प्रति हेक्टेयर बीज को उपचारित करे |

सिंचाई :

पहली सिंचाई बुवाई के 40 दिन बाद, दूसरी फूल आने से पहले एवं तीसरी सिंचाई फलिया बनते समय करनी चाहिए | जाड़े में बरसात होने से फसल को फायदा मिलता हैं, लेकिन वातावरण में अधिक आद्रता होने से चूर्णिल आसिता रोग लगने की सम्भवना बढ़ जाती हैं |

निराई –गुड़ाई :

खरपतवार व कमजोर पौधों को निकालने से पौधों को सही इस्थान व पोषण मिल जाता हैं साथ ही अच्छी बढ़वार भी होती हैं | पहली निराई-गुड़ाई बुवाई के 25-30 दिन बाद तथा दूसरी 40-45 दिन बाद करनी चाहिए |

पौध संरक्षण :

रोग व कीटो से होने वाले नुकसान से बचाने के लिये पहले लक्षणों को पहचाने उसके बाद उपयुक्त रोग्नाशी व कीटनाशको का प्रयोग करना चाहिए |

रोग व कीट                              लक्षण                   नियन्त्रण
चूर्णिल आसिता रोग इस रोग में पत्तियों की दोनों सतह पर सफेद चूर्ण के धब्बे हो जाते हैं, जों बाद में रंगहीन चितियो का रूप धारण कर लेते हैं इनके चारो और चूर्णी फेल जाती हैं जिसके कारण पौधे की बढवार रुक जाती हैं | समय पर बुवाई करने रोग की सम्भावना कम हो जाती हैं लक्षण दिखाई देने पर गंधक चूर्ण का 25-30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए | 
किट्ट रोग (रस्ट) इसके कारण तनों व फलियों के हरे भागों पर हल्का पीलापन दिखाई देता हैं जों बाद में धीरे-धीरे गहरे भूरे या काले रंग के जल बनाता हैं | इसके नियन्त्रण के लिये 2 कि.ग्रा. डाईथेन एम-45 को 700-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से पहला छिडकाव रोग दिखाई देने पर और दूसरा व तीसरा 15 दिन के अन्तराल पर करे | या फिर 0.2 प्रतिशत केलिक्सिन का प्रयोग करे
उकठा रोग  इस रोग के लक्षण पौधे की प्रारम्भिक अवस्था पर ही दिखाई देने लगती हैं इसमें पौधे मुरझा जाते हैं पानी की उपलब्धता होने पर भी और फिर वो सूखने लगते हैं पौधों की जड़ो व तनों पर धारिया बन जाती हैं | इसकी रोकथाम के लिये गर्मियों में गहरी जुताई करनी चाहिए साथ ही बीज को उपचारित करके बोना चाहिए | ट्राईकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से | 
लीफ माइनर इसकी सुंडी पत्तियों में सुरंग बनाकर हरे भाग को खाती हैं जिससे भूरे चकते पड़ जाते हैं | इसके लिए परजीवी ब्रेकोन ब्रेविकोर्निस खेत में छोड़े या फिर 625-750 ग्रा.एसिफेट-75 एस.पी. का छिडकाव करना चाहिए |
दीमक पौधों को निचे से काटकर सुखा देती हैं और पौधे को उखाड़ने पर आसानी से उखड़ जाते हैं बीज को 3-4 मि.ली. क्लोरोपायरीफोस 20-ई.सी. पर कि.ग्रा. से उपचारित करे | खड़ी फसल में इमिड़ाक्लोप्रिड 200-300 मि.ली. को पानी में मिलाकर छिडकाव करे |

फसल कटाई एवं गहाई :

इसका उतम समय फरवरी से मार्च हैं जब फलियों का रंग परिवर्तित होने लगे गहरे हरे से हल्के भूरे, और अच्छी तरह से पक गई हो तभी कटाई करे इसके लिये पौधों को फलियों सहित काटकर एक सप्ताह तक सुखाकर फिर गहाई करनी चाहिए | गहाई के बाद जब बीज में 8-9 प्रतिशत नमी हो तब ही भण्डारण करना चाहिए |

उपज :

इसकी औसत उपज 20-30 किव्न्त्ल होती हैं अगर उपरोक्त सभी उन्नत तकनीक के अनुसार खेती करे|


लेखक :

मधु चौधरी

पादप प्रजनन एवं आनुवंशिकी

राजस्थान कृषि अनुसंधान संस्थान, दुर्गापुरा, जयपुर

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