जायद में मूंग का उत्पादन
दलहनी फसलों में मूंग की बहुमुखी भूमिका है। इससे पौष्टिक तत्व प्रोटीन पर्याप्त होने के कारण स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मूंग के दानों में 25 प्रतिशत प्रोटीन, 60 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 13 प्रशित वसा तथा अल्प मात्रा में विटामिन सी पाया जाता है। इसमें वसा की मात्रा कम होती है और इसमें विटमिन बी कम्पलेक्स, कैल्शियम, खाद्य रेशा एवं पोटेशियम भरपूर होता है।
मूंग की दाल से दही बडे, हल्वा, लड्डू, खिचड़ी, नमकीन, चीला, पकोडे़ आदि बनाये जाते हैं। बीमार होने पर डाॅक्टर मूंग की खिचड़ी या मूंग की दाल खाने का परामर्श देते हैं क्योकि यह जल्दी पच जाती है। फली तोड़ने के बाद फसलों को भूमि में पलट देने से यह हरी खाद की पूर्ति भी करता है।
उत्तर देश के एटा, अलीगढ़, देवरिया, इटावा, फरूखाबाद, मथुरा, ललितपुर, कानपुर देहात, हरदोई एवं गाजीपुर जनपद प्रमुख मूंग उत्पादन के रूप में उभरें है। जिला ललितपुर में वर्ष 2017 के अनुसार मूंग का कुल आच्छादन क्षेत्रफल 4988 हे0, उत्पादन 1890 मे0 टन तथा उत्पादकता 3.79 कु0/हे0 था (कृषि विभाग, ललितपुर के कृषि उत्पादन कार्यक्रम खरीफ 2018-19 के अनुसार)।
इसकी महत्ता को देखते हुए ही भारत सरकार ने रु0 7050.0 प्रति कु0 न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है। किसान मूंग की उन्नत कृषि क्रियाएं अपनाकर उत्पादकता को बढ़ा सकता है। अन्य जनपदों में भी इसकी संभावनायें है।
निम्न विधि से मूंग की खेती करने जायद में इसकी अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है-
संस्तुत प्रजातियाॅः
नरेन्द्र मूंग-1, मालवीय जागृति (एच.यू.एम. 12), समा्रट (पी.डी.एम. 139), मालवीय जनप्रिया (एच.यू.एम. 6), मेहा (आई.पी.एम. 99-125), पूसा विशाल, मालवीय जन कल्याणी (एच.यू.एम.-16), मालवीय ज्योति (एच.यू.एम. 1), टी.एम.वी. 37, मालवीय (एच.यू.एम. 12), आई.पी.एम. 2-3, आई0पी0एम 2-14, के.एम. 2241 (स्वेता), के0एम0-2195 (स्वाती), आई.पी.एम. 205-7 (विराट)।
बुवाई का समयः
बसंत कालीन प्रजातियों की बुआई 15 फरवरी से 15 मार्च तथा ग्रीष्म कालीन प्रजातियों के लिए 10 मार्च से 10 अप्रैल का समय उपयुक्त होता है। जहाॅ बुआई अप्रैल के प्रथम सप्ताह के आसपास हो वहाॅ प्रजाति सम्राट एवं एच.यू.एम.-16 की बुआई की जाये।
भूमि एवं भूमि की तैयारीः
म्ूंाग की खेती के लिए दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। पलेवा करके दो जुताइयाॅ करने से खेत तैयार हो जाता है। ट्रैक्टर, पावर टिलर, रोटावेटर या अन्य आधुनिक कृषि यंत्र से खेत की तैयारी शीघ्रता से की जा सकती है।
बीज दर व बीजशोधनः
15-18 कि0ग्रा0 स्वस्थ्य बीज प्रति हैक्टर पर्याप्त होता है।
2.5 ग्राम थीरम अथवा 2 ग्राम थीरम एवं 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम या 5 ग्राम ट्राडकोडर्मा $ स्यूडोमोनास से प्रति कि0ग्रा0 बीज की दर से शोधन करें। इससे प्रारम्भिक अवस्था में रोग रोधक क्षमता बढ़़ती है। इससे जमाव अच्छा हो जाता है। फलस्वरूप प्रति इकाई पौधों की संख्या सुनिश्चित हो जाती है और उपज में वृद्वि हो जाती है।
इसके बाद मोनोक्रोटोफास 36 ई0सी0 दवा 10 मि0ली0/ कि0ग्रा0 की दर से बीज का शोधित कर लें इससे तना बेधक मक्खी के प्रकोप से बचाव होता है तथा फसल की बढ़वार अच्छी होती है।
रसायन से बीज शोधन के बाद बीजों को एक बोरे पर फैलाकर, मूंग की विशिष्ट राईजोबियम कल्चर से उपचारित करते हैं। आधा लीटर पानी में 200 ग्राम राइजोबियम कल्चर का पूरा पैकिट मिला दें। इस मिश्रण को 10 कि0ग्रा0 बीज के ऊपर छिड़ककर हल्के हाथ से मिलायें जिससे बीज के ऊपर एक हल्की पर्त बन जाती है।
इस बीज को छाये में 1-2 घन्टे सुखाकर बुवाई प्रातः 9 बजे तक या सायंकाल 4 बजे के बाद करें। तेज धूप में कल्चर के जीवाणुओं के मरने की आशंका रहती है। ऐसे खेतों में जहाॅ मूंग की खेती पहली बार अथवा काफी समय केे बाद की जा रही हो, वहाॅ कल्चर का प्रयोग अवश्य करें।
दलहनी फसलों के लिये फास्फेट पोषक तत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण है। रसायनिक उर्वरकों से दिये जाने वाले फास्फेट पोषक तत्व का काफी भाग भूमि में अनुपलब्ध अवस्था में परिवर्तित हो जाता है। फलस्वरूप फास्फेट की उपलबधता में कमी के कारण इन फसलों की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
भूमि में अनुपलब्ध फास्फेट को उपलब्ध दशा में परिवर्तित करने में पी.एस.बी. (फास्फेट सालूबलाईजिंग बैक्टिरिया) का कल्चर बहुत ही सहायक होता है। इसलिये आवश्यक है कि फास्फेट की उपलब्धता बढ़ाने के लिए पी0एस0बी0 का भी प्रयोग किया जाये। पी0एस0बी0 प्रयोग विधि एवं मात्रा राइजोबियम कल्चर के समान ही रखना चाहिए।
बुवाई की विधिः
मूंग की बुवाई देशी हल के पीछे कूंडों में या सीडड्रिल से 4-5 से0मी0 की गहराई पर करें और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25-30 से0मी0 रखनी चाहिए।
उर्वरक का प्रबन्धनः
सामान्यतः उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण की संस्तुतियों के अनुसार किया जाना चाहिए। यदि मृदा परीक्षण नहीं हुआ है तो उस दशा में उर्वरक की मात्रा निम्नानुसार निर्धारित की जाये-
10-15 किलो नत्रजन, 40 कि0ग्रा0 फास्फोरस एवं 20 कि0ग्रा0 सल्फर प्रति हेक्टर की दर से प्रयोग करें। फास्फोरस के प्रयोग से मूंग की उपज में विशेष वृद्वि होती है। उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा
बुवाई के समय कूड़ों में बीज से 2-3 से0मी0 नीचे देना चाहिए।
समुद्री शैवाल के सार का प्रयोगः
मछुआरों द्वारा भारत के दक्षिण पूर्व तट पर समुद्र में उगाई गयी लाल समुद्री वनस्पति (शैवाल) से निकाला जाता है। इसके सार में बहुत से उपयोगी खनिज, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट, अमीनों एसीड, एन्जाइम्स, होर्मोन्स, पोषक तत्व इत्यादि निहित है।
समुद्री शैवाल के सार सेे लाभः
1. भूमि से पोषक तत्वों की अवशेषण क्षमता में वृद्वि करता है।
2. फसल की आंतरिक विकास और वृद्वि करने वाली क्रियाओं को प्रोत्साहित करना।
3. प्रतिकूल अवस्थाओं और रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकास।
4. भूमि में सूक्ष्म जीवों की संख्या को बढ़ाता है जिससे भूमि स्वास्थ्य में सुधार आता है।
5. जड़ों का बेहतर विकास, शाखाओं के बनने में, फूल, फलन और बीज के विकास में योगदान देता है।
तरल समुद्री शैवाल के सार का उपयोग: 625 मि0ली0/हे0/छिड़काव का पहला छिड़काव बुवाई के 20 दिन बाद, दूसरा छिड़काव फूल आने से एक सप्ताह पहले तथा तीसरा छिड़काव फूल आने के एक सप्ताह बाद करना चाहिए। सैम्पू का दो पैकिट मिला देने से यह स्टीकर का काम करता है।
दानेदार समुद्री शैवाल के सार का उपयोग : पहला बुवाई के 20-30 दिन बाद तथा दूसरा 40-45 दिन बाद 20-25 किलो/हे0 की दर से प्रयोग करना चाहिए।
सिंचाई प्रबन्धनः
मूंग की सिंचाई भूमि की किस्म, तापमान तथा हवाओं की तीव्रता पर निर्भर करती है। आम तौर पर मूंग की फसल को 4-5 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली सिंचाई बुवाई के 20-35 दिन बाद और फिर बाद में 10-15 दिन के अन्तर से आवश्यकतानुसार सिंचाई की जाये।
पहली सिंचाई बहुत जल्दी करने से जड़ों तथा ग्रन्थियों के विकास पर विपरित प्रभाव पड़ता है। फूल आने से पहले तथा दाना पड़ते समय सिंचाई आवश्यक है। सिंचाई क्यारी बनाकर करना चाहिए। जहाॅ स्प्रिंकलर हो वहाॅ इसका प्रयोग उत्तम जल प्रबन्ध हेतु किया जाये।
ललितपुर जिला के ग्राम टेंनगा तथा नयागांव में मूंग पर लगाई गई समूहबद्व अंग्रिम पंक्ति प्रदर्शन में पाया गया कि मिट्टी की जलधारण क्षमता कम होने तथा जलवायु (तापमान ज्यादा होने के कारण) के अनुसार किसान खेत में 6-8 सिंचाई तक करते हैं।
खरपतवार प्रबन्धनः
पहली सिंचाई के बाद निराई-गुडाई करने से खरपतवार नष्ट होने के साथ-साथ भूमि में वायु का भी संचार होता है जो उस समय मूल ग्रन्थियों में क्रियाशील जीवाणुओं द्वारा वायुमण्डलीय नत्रजन एकत्रित करने में सहायक होता है। खरपतवार नियंत्रण हेतु पंक्तियों में बोई गई फसल में वीडर का प्रयोग आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होगा।
खरपतवारों का रासायनिक नियंत्रण पैन्डीमैथलीन 30 ई0 सी0 के0 3.3 लीटर अथवा ऐलाक्लोर 50 ई0सी0 के 3 लीटर को 600-700 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के दो-तीन दिन के अन्दर जमाव से पूर्व छिड़काव करें। क्वीजोलोफास इथाईल 5 प्रतिशत ई0सी0 (टरगा सुपर) की 750-1000 मि0ली0 मात्रा प्रति हे0 का एक वर्षीय संकरी घास के लिए तथा 1250-1500 मि0ली0प्रति हे0 मात्रा बहुवर्षीय (कांस एवं दूब) घास के लिए संस्तुत की गयी है।
इसका प्रयोग खरपतवार के 2-3 पत्तियों की अवस्था से लेकर फूल वाली अवस्था पर प्रयोग किया जा सकता है। प्रयोग करने के 5 से 8 दिन के अन्दर पूर्णतः सूख जाती है। यह खरपतवारों जैसे सिटेरिया स्पी0, डिजीटेरिया स्पी, साइनोडान स्पी0, सैकरम स्पी0, एल्यूसिन स्पी0, सोरघम स्पी0 और हेमरथ्रीया स्पी0 को चैडी पत्ती वाले खरपतवारों को प्रभावी ढ़ंग से नियंत्रण करता है।
सोडियम एसीफ्लोरोफेन $ क्लोडिनाफाॅप उगे हुए घास जाति (सांवा, जंगली ज्वार, बनरा, पारा घास, सुनहरी घास, चिनियारी बट्टा, बरू, घोड़ा घास एवं मकड़ा) और चैडी पत्ती वाले खरपतवारों (बुचबुचा, चिरपोट, रेश्म काॅटा, आधा शीशी, छोटी दूधी, जंगली चैलाई, जंगली जूट, हूलहुल, कांजरू, हजार दाना, छोटा हलकुशा, पत्थरचट्टा, फुलकिया, गुलमेंहदी, गाजर घास, फाचरी, सफेद मूर्ग) को नियंत्रित कर सर्वोत्तम परिणाम देता है।
इस खरपतवारनाशी की 1 ली0 मात्रा को 375-500 ली0 पानी में मिलाकर प्रति हे0 की दर से बुवाई के 15-25 दिन के बीज खरपतवार की 2-4 पत्ती वाली अवस्था पर किया जाता हैं। यह चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को 3-4 दिनों में और घास जाति वाले खरपतवारों को 7 से 10 दिनों में नियंत्रित कर देता है।
हैलाक्सीफाॅफ-आर-मिथाइल (10.5 प्रतिशत ई.सी.) खरपतवारनाशी घास जाति वाले खरपतवारों के नियंत्रण हेतु नवीनतम उत्पाद है। इसकी 1 ली0 मात्रा 500 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हे0 की दर से बुवाई के 15-20 दिनांे के बीच प्रयोग किया जाता है। यह मुख्य रूप से पारा घास, चिनयारी, डाईनेब्रा, साॅवा, सुनहरी घास, एराग्रास्टिस स्पी, पैनिकम स्पी खरपतवारों को प्रभावी ढंग से नियंत्रण करता है।
मूंग की बीमारियां
1. पीला चित्रवर्ण मौजेक
मूंग में प्रायः पीला चित्रवर्ण मौजेक रोग लगता है रोग के विषाणु सफेद मक्खी द्वारा फैलते है।
रोकथामः
1. इसकी रोकथाम के लिए समय से बुवाई करना अति आवश्यक है।
2. मोजेक अवरोधी प्रजातियों का प्रयोग करना चाहिए।
3. मोजेक वाले पौधे को सावधानी से उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
4. इस रोग के वाहक कीट (सफेद मक्खी) को सही समय पर उचित कीटनाशी से नियंत्रण करना चाहिए।
मूंग के कीटः
1. थ्रिप्स, हरे फुदके, कमल कीट एवं फली बेधक
मूंग की फसल में थ्रिप्स, हरे फुदके, कमल कीट एवं फली बेधक कीट लगते हैं।
रोकथामः
इसके नियंत्रण के लिए क्यूनालफास 25 ई0सी0 की 1.25 लीटर मात्रा 600-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे0 की दर से छिड़काव करना चाहिए, जिससे की कीटों का प्रकोप न हो सके।
तना मक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहों, जैसिड, थ्रिप्स
2. तना मक्खी, फलीबीटल, हरी इल्ली, सफेद मक्खी, माहों, जैसिड
रोकथामः
इनकी रोकथाम हेतु इण्डोसल्फान 35 ई0सी0 1 ली0 व क्वीनालफाॅस 25 ई0सी0 1.5 ली0 प्रति हे0 या मिथाइल डिमेटान 25 ई0सी0 की 0.5 ली0 प्रति हे0़ के हिसाब से छिड़काव करें। आवश्यकता पड़ने पर 15 दिन बाद पुनः छिड़काव करें।
3. फलीछेदक एवं नीली तितली
पुष्पावस्था में फलीछेदक एवं नीली तितली का प्रकोप होता है।
रोकथामः
क्वलीनालफाॅस 25 ई0सी0 का 1.5 ली0 या मिथाइल डिमेटान 25 ई0सी0 का 0.5 ली0 प्रति हे0़ के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने से इसकी रोकथाम हो सकती है।
4. कम्बल कीड़े
कई क्षेत्रों में कम्बल कीड़े का भारी प्रकोप होता है।
रोकथामः
इसकी रोकथाम हेतु पेराथियान चूर्ण 2 प्रतिशत, 25 किलो प्रति हे0़ के हिसाब से भुरकाव करेें।
फसल की कटाई-मड़ाईः
जब फसल में फलियां पक जाए तभी कटाई करनी चाहिए। कटाई करने के बाद भी खलिहान में अच्छी तरह सुखाकर मड़ाई करना चाहिए। इसके पश्चात ओसाई करके बीज और इसका भूसा अलग-अलग कर लेना चाहिए।
मूंग की उपज एवं भंडारण
किसान उन्नत कृषि तकनीकी का प्रयोग करके जायद में मूंग का उत्पादन लगभग 8-10 क्विंटल प्रति हे0 प्राप्त कर सकते हैं।
बीज के भण्डारण से पहले अच्छी तरह सुखा लेना चाहिए। बीज में 8 से 10 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं रहनी चाहिए। मूंग के भण्डारण में स्टोरेज बिन का प्रयोग करना चाहिए। सूखी नीम पत्ती का प्रयोग करने से भण्डारण में कीड़ों से सुरक्षा की जा सकती है।
Authors
डा. एन.के. पाण्डेय, डा. दिनेश तिवारी, डा. अर्चना दीक्षित, डा. नितिन कचरू यादव
कृषि विज्ञान केन्द्र, ललितपुर
बाॅदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, बाॅदा
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