Improved agronomical techniques of Ashwagandha or Winter cherry cultivation
अश्वगंधा (withania somnifera) की पौधा सीधा 1.25 मीटर उॅचा होता हैं तथा इसके तने में बारीक रोम पाये जाते हैं। इसके पत्तिायों का आकार अण्डाकार एवं पत्तिायों में रोम पाये जाते है जिसे छूने से मुलायम महसूस होता है।
फूल छोटे हरे या हल्के पीले रंग के तथा फल छोटे गोले नारंगी या लाल रंग के होते है। जड़ो को मसलकर सूॅघने से अश्व (घोड़े) के पसीने एवं मूत्र जैसी गंध आती है। जड़ों का रंग सफेद सा भूरा होता हैं। इसका संस्कृत नाम: अष्वगंधा, हिन्दी नाम : असगंध, अंग्रेजी : विन्टरचेरी (Winter cherry), इंडियनगिनसेंग (Indian ginseng) हैैै। ।
भोगौलिक वितरण:
अशवगंधा का वितरण अफ्रीका, भूमध्यसागरीय से भारत एवं श्रीलंका में पहुॅचा है। भारत के हिमालय पहाड़ के तटों में 1000 मीटर की उंचाई तक पाई जाती है। भारत मे हिमाचल प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, हरयाणा, उत्तारप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र एवं मध्यप्रदेश आदि क्षेत्रों में पाये जात है।
अश्वगंधा के लिए जलवायू:
अश्वगंधा को उष्णकटिबंधी और समशीतोष्ण जलवायु वालें क्षेत्रो में उगाया जाता है और साथ ही शुष्क मौसम की आवश्यकता होती है। वार्षिक वर्षा 600 से 750 मिलीलीटर में अश्वगंधा की वृद्वि अच्छी से होती है बीच में 1-2 बार ठण्ड में बर्षा होने से अश्वगंधा की जड़ो की पूर्ण विकास होता है।
अश्वगंधा की खेती के लिए रेतीली दोमट से हल्की भूमियों में अच्छी मात्रा कार्बनिक पदार्थ एवं मृदा पी एच 7.5 - 8 के बीच होनी चाहिए और अच्छी जल निकास की व्यवस्था होनी चाहिए।
अश्वगंधा की प्रजातियॉ: पोषिता, जवाहर असगंध-20, जवाहर असगंध-134
अश्वगंधा की पौधा जुलाई-सितम्बर में फूल आता है और नवम्बर-दिसम्बर में फल लगता है। अश्वगंधा की पौधे के फल से बीज निकालकर उसे सूर्य के रोशनी में सुखने दिया जाता है।
बुवाई के पहले बीजों को 24 घण्टे के लिये ठण्डे पानी में भिगो दिया जाता है तथा उसे छिड़काव विधि द्वारा तैयार बीजों को सीधे खेत में बो दिया जाता है और हल्के मिट्टी से ढक दिया जाता है।
अश्वगंधा को क्यारी में भी बोया जाता है और दूरी 5 सेन्टीमीटर रखा जाता है।
अश्वगंधा की बुवाई खरीफ में जुलाई से सितम्बर तथा रबी में अक्टूबर से जनवरी में बोया जाता है। अश्वगंधा का अंकुरण 6 से 7 दिनों में 80 प्रतिशत होताहै।
बीज की मात्रा:
2 से 5 किलोग्राम प्रति एकड़ में तथा 5 से 12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर लगता है।
रोपण एवं रखरखाव:
जब पौधेे की उम्र 6 दिनो का हो तब उसका रोपण किया जाता है। कतार की कतार से दूरी 60 सेन्टीमीटर होनी चाहिए।
रोपण के 25 से 30 दिन बाद पौधो की विरलीकरण करके उसे बीस हजार से पच्चीस हजार की संख्या प्रति हेक्टेयर तक रखना चाहिए।
खरपतवार के नियंत्रण के लिये तीस दिन के अंतराल में निदाई करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक:
अश्वगंधा की फसल को खाद एवं उर्वरक अधिक आवश्यकता नहीं रहती है। पिछले फसल के अवशेष उर्वरकता से खेती किया जाता है।
फसल सुरक्षा:
प्रमुख कीट: तनाछेदक, माइट।
प्रमुख बीमारी: बीजसड़न, पौध अंगमारी एवं झुलसा रोग।
नियंत्रण:
- माइट के नियंत्रण के लिये इथियान का 10 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी दर का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
- तनाछेदक के नियंत्रण के लिये सुमिसीडिन का 10 मिलीलीटर प्रति लीटर पानीदर का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
- बीजसड़न एवं पौध अंगमारी के नियंत्रण के लिये बुवाई के पहले बीज उपचार कैप्टन का 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से किया जाना चाहिए तथा कॉलफोमिन का 3 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी दर से रोपण के पहले पौधों को डुबोया जाता है।
- झुलसा रोग के नियंत्रण के लिये डाइथेन एम 45 का 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 30 दिनों बाद में 15 के अंतराल में छिड़काव दोबारा करने से झुलसा रोग कम हो जाता है।
अश्वगंधा की कटाई जनवरी से मार्च तक लगातार चलता रहता है।
अश्वगंधा पौधे को उखाड़ा जाता है उसकी जड़ों को पौधे के भागों को काटकर अलग किया जाता है
अश्वगंधा की जड़ों को 7 से 10 सेन्टीमीटर लंबाई तक काटकर छोटे-छोटे टुकड़े किये जाते है जिससे आसानी से उसे सुखाया जा सके। पौधे के पके फल से बीज एवं सुखे पतियॉ प्राप्त कि जाती हैं।
अश्वगंधा की उपज:
अश्वगंधा की 600-800 किलोग्राम जड़ तथा 50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होताहै।
अश्वगंधा काा उपयोगी भाग : पत्ती एवं जड़
अश्वगंधा का औषधीय उपयोग:
अश्वगंधा के जड़ों का उपयोग पाउण्डर बनाकर कमजोरी, दमा, कफ संबंधी बीमारी, अनिद्रा, हृदय रोग एवं दुर्घटना में बने घाव के उपचार में किया जाता है। जड़ों के पाउण्डर को मधु एवं घी से मिलाकर कमजोरी के लिये प्रांरभिक उपचार किया जाता है। अश्वगंधा जड़ के चूर्ण का सेवन से शरीर में ओज तथा स्फूर्ती आती है तथा रक्त में कोलस्ट्राल की मात्रा को कम करने के लिये उपयोग किया जाता है।
कमर एवं घुटना दर्द में भी उपचार के लिये अश्वगंधा का पाउण्डर को शक्कर का केण्डी एवं घी के साथ मिलाकर सेवन किया जाता है।
Authors:
दिनेश कुमार मरापी, डॉ. वाय. के. देवांगन, हेमंत कुमार जॉगड़े एवं योगेश सिदार,
इं.गा.कृ.वि.वि.,रायपुर
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