Improved technology for cluster bean cultivation
ग्वार, लेग्युमिनेसी कुल की, खरीफ ऋतु में उगाई जाने वाली एकवर्षीय फसल है। ग्वार यानि क्लस्ट्रबीन का वैज्ञानिक नाम साइमोपसिस टेट्रागोनोलोबा है। इसका पौधा बहु-शाखीय व सीधा बढ़ने वाला है। पौधे की लम्बाई 30-90 सेमी तक होती है। इसकी जड़ें मृदा में काफी गहराई तक जाती हैं।
ग्वार के फूल आकार में छोटे व गुलाबी रंग के होते हैं। फलियां लम्बी व रोएंदार होती हैं। ग्वार एक स्वपरांगित फसल है। ग्वार की फसल में बुवाई के 70-75 दिनों बाद फलियां आनी शुरू हो जाती हैं। सामान्यतः 110-133 फलियां प्रति पौधा आ जाती हैं। ग्वार की खेती कम वर्षा और विपरीत परिस्थितियों वाली जलवायु में भी आसानी की जा सकती है।
ग्वार की ताजा व नर्म-मुलायम फलियों को सब्जी और भुरता बनाने के काम में लाया जाता है। कच्ची सुखाकर रखी हुई फलियों का प्रयोग भी सब्जी बनाने में किया जाता है। फलियों को सुखाकर व नमक मिलाकर लम्बे समय तक उपयोग के लिए रखा जा सकता है।
ग्वार की हरी फलियों में रेशे की मात्रा अधिक पायी जाती है। हरी फलियों के 100 ग्राम भाग में 81.0 ग्राम पानी, 3.2 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा, 1.4 ग्राम खनिज, 3.2 ग्राम रेशा और 10.8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसके अतिरिक्त हरी फलियों में कैल्शियम (130 मि.ग्रा.), फास्फोरस (57 मि.ग्रा.), लोहा (1.08 मि.ग्रा.) तथा विटामिन-ए, थाइमिन, फोलिक अम्ल और विटामिन-सी इत्यादि भी इसमें पाए जाते हैं।
ग्वार जानवरों के लिए भी एक पौष्टिक आहार है। ग्वार के दानों और ग्वार चूरी को जानवरों के खाने में प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए दिया जाता है।
ग्वार के बीज में लगभग 37-45 प्रोटीन, 1.4-1.8 पोटेशियम, 0.40-0.80 कैल्शियम और 0.15-0.20 मैग्निशियम पाया जाता है।
हरे चारे के रूप में इसे फलियां बनते समय पशुओं को खिलाया जाता है। इस अवस्था पर इसमें प्रोटीन व खनिज लवणों की मात्रा अधिक पायी जाती है। ग्वार के दानों का 14 से 17 प्रतिशत छिलका तथा 35 से 42 प्रतिशत भाग भ्रूणपोष होता है।
ग्वार के दानों के भ्रूणपोष से ही ‘ग्वार गम’ उपलब्ध होता है। ग्वार के दाने में 30 से 33 प्रतिशत गोंद पाया जाता हैl
ग्वार की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि यह उन मृदाओं में आसानी से उगायी जा सकती है जहां दूसरी फसलें उगाना अत्यधिक कठिन है। अतः कम सिंचाई वाली परिस्थितियों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
ग्वार फसल के लिए जलवायु
ग्वार एक सूखा सहन करने वाली व गर्म जलवायु की फसल है। यह उन क्षेत्रों में आसानी से उगाया जा सकता है जहां पर औसत वार्षिक वर्षा 30-40 सेंमी तक होती है।
बीजों के अंकुरण व जड़ों के विकास के लिए 25 से 300 सें. के नीचे तापमान उपयुक्त होता है। ग्वार एक प्रकाश संवेदनशील फसल है। अतः इस फसल में फूल व फलियों का निर्माण केवल खरीफ के मौसम में ही होता है।
अत्यधिक बरसात व ठंड को यह सहन नहीं कर पाती है। जिन क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी पड़ती है परंतु सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है वहां पर ग्वार की खेती से भरपूर पैदावार ली जा सकती है। शुष्क और अर्ध-शुष्क दोनों दशाओं में इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।
ग्वार की खेती के लिए भूमि
ग्वार की खेती के लिए उचित जल निकास वाली दोमट व बलुई दोमट मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। यह फसल सिंचित एवं असिंचित दोनों क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है। हल्की क्षारीय व लवणीय भूमि जिसका पीएच मान 7.5 से 8.5 तक हो, वहां पर ग्वार की खेती आसानी से की जा सकती है।
ग्वार के लिये एक जुताई मिटटी पलटने वाले हल या डिस्क हैरो से क्रॉस जुताई करके पाटा लगा देना चाहिएl इसके उपरांत एक कल्टीवेटर से जुताई पर्याप्त रहता है जिससे मृदा नमी संरक्षित रहे। जुताई जून के द्वितीय पखवाड़े में करनी चाहिए। इस प्रकार तैयार खेत में खरपतवार कम पनपते हैं।
ग्वार की बुवाई का समय
ग्रीष्मकालीन फसल की बुवाई के लिए मध्य फरवरी से मार्च का प्रथम पखवाड़ा उपयुक्त समय है। देरी से बुवाई करने पर पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जबकि वर्षा ऋतु की फसल की बुवाई के लिए जून-जुलाई उपयुक्त समय है।
वर्षा आधारित क्षेत्रों में जुलाई में वर्षा आगमन के साथ ही ग्वार की बुवाई कर देनी चाहिए।
क्लस्ट्रबीन की बुआई के लिए बीज की मात्रा
दाने एवं हरी फलियों के लिए 15 से 18 किग्रा, हरी खाद वाली फसल के लिए 30 से 35 किग्रा तथा चारे वाली फसल के लिए 35 से 40 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है।
ग्वार फसल के लिए बीजोपचार
बीजों के अच्छे जमाव व फसल को रोगमुक्त रखने के लिए ग्वार के बीजों को सबसे पहले 2.0 ग्राम बाविस्टिन या कैप्टान नामक फफूंदीनाशक दवा से प्रति किलो बीज की दर से अवश्य उपचारित करें। पौधों की जड़ों में गांठों का अधिक निर्माण हो व वायुमंडलीय नाइट्रोजन का भूमि में अधिक यौगिकीकरण हो, इसके लिए बीजों को राइजोबियम नामक जीवाणु उर्वरक से उपचारित करना बहुत जरूरी है। बीज उपचार बुवाई के ठीक पहले कर लेना चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई हेतु राइजोबियम जीवाणु के 200 ग्राम के दो पैकेट पर्याप्त होते हैं।
ग्वार बुवाई की विधि
अधिक पैदावार के लिए ग्वार की बुवाई हमेशा पंक्तियों में करें। बुवाई हल के कुड़ों में अथवा सीडड्रिल की सहायता से करें। कुड़ों में पौधों की जड़ों के पास वर्षा जल भी अधिक संग्रहित होता है। इससे पैदावार अधिक मिलती है और फसल की देखभाल करने में भी आसानी रहती है।
ग्वार की बुवाई पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेमी. से 50 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10-15 से.मी. पर करनी चाहिएl बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए जिससे बीज का जमाव शीघ्र व पर्याप्त मात्रा में हो सके।
ग्वार की प्रजातियां
ग्वार की उन्नतशील प्रजातियों को मुख्यतः तीन भागों — दाने, चारे व हरी फलियों के रूप में बांटा जा सकता है।
दाने के लिए- मरू ग्वार, आरजीसी-986, दुर्गाजय, अगेती ग्वार-111, दुर्गापुरा सफेद, एफएस-277, आरजीसी-197, आरजीसी-417
हरी फलियों हेतु- आईसी-1388, पी-28-1-1, गोमा मंजरी, एम-83, पूसा सदाबहार, पूसा मौसमी, पूसा नवबहार, शरद बहार
हरे चारे हेतु- एचएफजी-119, एचएफजी-156, ग्वार क्रांति, मक ग्वार, बुंदेल ग्वार-1 (आईजीएफआरआई-212-1), बुंदेल ग्वार-2, आरआई-2395-2, बुंदेल ग्वार-3, गोरा-80
ग्वार फसल में खाद एवं उर्वरक
ग्वार दलहनी फसल होने के कारण नाइट्रोजन की कुछ आपूर्ति वातावरण की नाइट्रोजन को जड़ों में उपस्थित गाँठों द्वारा एकत्र करके की जाती है लेकिन फसल की प्रारम्भिक अवस्था में पोषक तत्वों की पूर्ति के लिये 20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन व 40 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता हैl सम्पूर्ण नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की मात्रा बुवाई के समय खेत में डाल देनी चाहिए l
इसके अतिरिक्त ग्वार के बीज को बुवाई से पहले राइजोवियम कल्चर की 600 ग्राम मात्रा को एक लीटर पानी व 250 ग्राम गुड़ के घोल में 15 कि.ग्रा.बीज को उपचारित कर छाया में सुखा कर बोना लाभदायक रहता है l खेत की तैयारी के समय 5 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद 2-3 वर्ष में एक बार अवश्य प्रयोग से पहले मिटटी की जाँच कर लेनी चाहिये।
ग्वार फसल में सिंचाई प्रबंधन
सामान्यतः खरीफ ऋतु में बोयी फसल में सिंचाई की कोई आवश्यकता नहीं होती है। यदि बुवाई के पश्चात अच्छी वर्षा न हो जहाँ सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर कम से कम 3 सिंचाई देनी चाहिएl
ग्रीष्मकालीन फसल में आवश्यकतानुसार 6-7 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। सूखे की स्थिति में ग्वार की बुवाई के 25 व 45 दिन बाद 0.10प्रतिशत थायोयूरिया के घोल का छिड़काव करने से उपज में बढ़ोतरी होती हैl
खरपतवार नियंत्रण
ग्वार की फसल को खरपतवारों से पूर्णतया मुक्त रखना चाहिए। सामान्यतः फसल बुवाई के 10-12 दिन बाद कई तरह के खरपतवार निकल आते हैं जिनमें चंदलिया, सफेद फूली, बुई, कांटी, मंची, लोलरु, सोनेल मौथा, जंगली जूट, जंगली चरी (बरू) व दूब-घास प्रमुख हैं।
ग्वार की फसल में समय-समय पर निराई-गुड़ाई कर खरपतवारों को निकालते रहना चाहिए। इससे पौधें की जड़ों का विकास भी अच्छा होता है तथा जड़ों में वायु संचार भी बढ़ता है। दाने वाली फसल में बेसालिन 1.0 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में बुवाई से पूर्व मृदा की ऊपरी 8 से 10 सेंमी सतह में छिड़काव कर खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
खरपतवारों के नियंत्रण हेतू फसल की बुवाई के 2 दिन पश्चात तक पेंडीमेथालिन (स्टोम्प) खरपतवारनाशी की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्र को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर समान रूप से खेत में छिड़काव कर देना चाहिएl
ग्वार फसल में पादप संरक्षण
दीमक
फसल के पौधों की जड़ों को खाकर नुकसान पहुंचाती हैंl बुवाई से पहले अंतिम जुताई के समय खेत में क्यूनलफोस 1.5 प्रतिशत या क्ल्रोपाइरीफॉस पाउडर 20 से 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलानी चाहिये l बोने के समय बीज को क्लोरोपाइरीफॉस कीटनाशक की 2 मि.ली.मात्रा से प्रति कि.ग्रा.बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिये l
कातरा
इस कीट की लट प्रारम्भिक अवस्था में फसल के पौधों को खाकर नुकसान पहुँचाती हैं। इसके नियंत्रण के लिए खेत के आसपास सफाई रहनी चाहिए तथा खेत में प्रकोप होने पर मिथाइल पेराथियोन या क्यूनालफोस 1.5 प्रतिशत चूर्ण की 20 से25 कि.ग्रा.मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकनी चाहिएl
मोयला
यह कीट पौधों के कोमल भागों का रस चूस कर फसल को हानि पहुँचाता हैl इसके नियंत्रण हेतु मोनोक्रोटोफॉस या इमिडाक्लोप्रिड कीटनाशी की आधा लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहि l
सफेद मक्खी एवं हरा तेला
इन कीटों के नियंत्रण के लिए ट्राइजोफॉस या मेलाथियोनं की एक लीटर मात्रा को पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिएl
बैक्टीरियल ब्लाइट
यह ग्वार की बहुत हानिकारक बीमारी हैl इस बीमारी के ऊपर गोल आकार के धब्बे बनते हैl इस बीमारी के नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्मों को उगाना चाहिएl बीज को 2ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन से प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिएl
छाछिया
इस रोग के कारण पौधों के ऊपर सफेद रंग के पाउडर का आवरण बन जाता है इस रोग के नियंत्रण हेतु 25 किग्रा गंधक चूर्ण या एक लीटर केराथेन को 500लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिएl
जड़ गलन
यह बीमारी भूमि में पैदा हुई फफूँद के कारण फैलती हैl इस बीमारी के कारण पौधे अचानक मर जाते हैंl इस बीमारी की रोकथाम के लिये बीज को 3 ग्राम थाइरम या मेकोंजेब की 2.50 ग्रामप्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिये l
कटाई एवं मड़ाई
सब्जी वाली फसल में फलियों को मुलायम अवस्था में ही हाथों से तोड़ लेना चाहिए। सब्जी वाली फसल में 55 से 70 दिनों बाद फलियां तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं। नर्म, कच्ची व हरी फलियों की तुड़ाई पांच दिनों के अंतराल पर नियमित रूप से करते रहना चाहिए।
जहां तक हो सके फलियों की तुड़ाई सुबह जल्दी करनी चाहिए। चारे के लिए बोयी गयी फसल 60 से 80 दिनों में फूल आने के समय या फलियां आने की अवस्था पर कटाई हेतु तैयार हो जाती हैं। यदि फसल दानों के लिए बोयी गयी है तो पूर्ण रूप से पकने पर ही फसल की कटाई करें।
कटाई हंसिये / दरांती की मदद से करके उनको बंडलों में बांधकर सूखने के लिए धूप में छोड़ दें। इसके 7-10 दिन बाद मड़ाई कर दानों को अलग कर लेते हैं।
ग्वार की उपज या पैदावार
उन्नत सस्य प्रौद्योगिकियां से ग्वार की फसल से 250-300 क्विंटल हरा चारा, 12-18 क्विंटल दाना और 70 से 120 क्विंटल हरी फलियां प्रति हेक्टेयर प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि ग्वार फली की उपज मौसम, प्रजाति, मृदा के प्रकार और सिंचाई सुविधाओं पर निर्भर करती है।
Authors
रूपल धूत*१ , एच. एल. धडुक१ , मीनाक्षी धूत२ और वरुण कुमार बड़ाया२
आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग,
१बी. ए. कृषि महाविद्यालय, आणंद कृषि विश्वविद्यालय, आणंद-३८८११० (गुजरात)
२महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्वविद्यालय, उदयपुर-३१३००१ (राजस्थान)