कटहल की उन्नत खेती तकनीक
कटहल भारत का एक महत्वपूर्ण फल है। इसकी उत्पत्ति भारत में हुई हैं। यह विश्व के अन्य देशों में भी उगाया जाता हैं। भारत वर्ष में इसकी खेती पूर्वी एवं पश्चिमी घाट के मैदानों, उत्तर-पूर्व के पर्वतीय क्षेत्रों, संथाल परगना एवं छोटा नागपुर के पठारी क्षेत्रों, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बंगाल के मैदानी भागों में मुख्य रूप से की जाती है।
इसे दक्षिण भारत में प्रमुखता से उगाया जाता हैं। जगदलपुर व बस्तर कटहल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं। कटहल का पौधा एक दीर्घजीवी, सदाबहार, 8-15 मी. ऊँचा बढ़ने वाला, फैलावदार एवं घने क्षेत्रकयुक्त बहुशाखीय वृक्ष होता है।
कटहल के छोटे एवं नवजात मुलायम फल सब्जी के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। जैसे-जैसे फल बड़े होते जाते है इनमें गुणवत्ता का विकास होता जाता है एवं परिपक्व होने पर इसके फलों में शर्करा, पेक्टिन, खनिज पदार्थ एवं विटामिन ‘ए’ का विकास होता है। कटहल में कार्बोहाइड्रेड, प्रोटीन, कैल्शियम, फ़ॉस्फोरस, लौह तत्व विटामिन ‘ए’ एवं थायमिन प्रचुर मात्रा में मिलता है।
कठहल के लिए भूमि
कटहल के पौधे लगभग सभी प्रकार की मिट्टी में उगाऐ जा सकतेे है परन्तु अच्छी जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी इसकी बढ़वार एवं पैदावार के लिए उपयुक्त होती है क्योंकि इनकी जड़े भूमि में अधिक पानी के जमाव को सहन नहीं कर सकती जिसके फलस्वरूप जल स्तर ऊपर उठने पर पौधे सूखने लगते हैं।
कठहल के लिए जलवायु
कटहल एक उष्ण कटिबन्धीय फल है। इसे शुष्क तथा नम दोनों प्रकार की जलवायु में उगाया जा सकता है। इसकी खेती मैदानी भागों से लेकर समुद्र तल से लगभग 1000 मी. ऊँचाई तक पहाड़ों पर की जा सकती है।
कठहल की किस्में
बागवानी एवं कृषि-वानिकी शोध कार्यक्रम, राँची से विकसित प्रजातियाँ खजवा, स्वर्ण मनोहर, स्वर्ण पूर्ति (सब्जी के लिए) एन.जे.-1, एन.जे.-2, एन.जे.-15 एवं एन.जे.-3 है।
खजवा
इस किस्म के फल जल्दी पक जाते हैं। यह सफेद कोये वाली फसल हैं। फल भार 25-30 की.ग्रा. होता हैं। यह ताजे पके फल खाने वाली किस्मों में यह सर्वोत्तम किस्म हैं।
स्वर्ण मनोहर
मध्यम घने क्षत्रक वाले इस किस्म में फरवरी के प्रथम सप्ताह में फल लग जाते हैं जिनको छोटी अवस्था में बेचकर अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है।
फल लगने के 20-25 दिन बाद इसके एक पेड़ से 45-50 कि.ग्रा. फल सब्जी के लिए प्राप्त किया जा सकता है। इसकी प्रति वृक्ष औसत उपज 350-500 कि.ग्रा. (पकने के बाद) है।
स्वर्ण पूर्ति
किस्म के फल देर से पकने के कारण लंबे समय तक सब्जी के रूप में उपयोग किये जा सकते हैं। इस किस्म के वृक्ष छोटे तथा मध्यम फैलावदार होते हैं फलों का आकार गोल एवं कोये की मात्रा अधिक होती है।
इसका फल छोटा (3-4 कि.ग्रा.), रंग गहरा हरा, रेशा कम, बीज छोटा एवं पतले आवरण वाला तथा बीच का भाग मुलायम होता है। 80-90 फल प्रति वृक्ष प्रति वर्ष लगते हैं।
रुद्रासी
फल छोटे तथा काटे वाले होते हैं। इनका भार 4-5 की.ग्रा. तक होता हैं। फल गुच्छो में आते हैं।
सिंगापुर
फल आकार में बडे होते है और अधिक समय तक लगे रहते है।
कठहल के पेड प्रसारण
कटहल का प्रसारण अधिकतर बीज द्वारा किया जाता है। एक समान पेड़ तैयार करने के लिए वानस्पतिक विधि द्वारा पौधा तैयार करना चाहिए। इसके लिए इनाचिंग और गूटी द्वारा सफल पाया गया है। बड़े आकार एवं उत्तम किस्म के कटहल से बीज का चुनाव करना चाहिए।
बीज को पके फल से निकलने के बाद ताजा ही बोना चाहिए। पौध तैयार करने के लिए मूल वृंत की आवश्यकता होती है जिसके लिए कटहल के बीजू पौधों का प्रयोग किया जाता है। मूल वृंत को तैयार करने के लिए ताजे पके कटहल से बीज निकाल कर 400 गेज की 25 x 12 x 12 सें.मी. आकार वाली काली पॉलीथीन को थैलियों में बुआई करना चाहिए।
थैलियों को बालू, चिकनी मिट्टी या बागीचे की मिट्टी तथा गोबर की सड़ी खाद को बराबर मात्रा में मिलाकर बुवाई से पहले ही भर देना चाहिए। चूँकि कटहल का बीज जल्दी ही सूख जाता है अतः उसे फल से निकालने के तुरन्त बाद थैलियों में 4-5 सें.मी. गहराई पर बुआई कर देना चाहिए।
उचित देख-रेख करने से मूलवृंत लगभग 8-10 माह में बंडिंग / ग्रैफ्टिंग योग्य तैयार हो जाते है।
कटहल के पौधे को पैच बडिंग या क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग विधि द्वारा तैयार किया जा सकता है। पैच बडिंग के लिए मातृ वृक्ष से सांकुर डाली काटकर ले आते हैं जिससे 2-3 सें.मी. लम्बी कली निकाल कर मूलवृंत पर उचित ऊँचाई पर उसी आकार की छाल हटाकर बडिंग कर देते हैं।
बडिंग के बाद कली को सफेद पालीथीन की पट्टी (100 गेज) से अच्छी तरह बांध देते हैं तथा मूलवृंत का ऊपरी भाग काट देते हैं। ग्रैफ्टिंग विधि से पौधा तैयार करने के लिए मातृ वृक्ष पर ही सांकुर डाली की पत्तियों को लगभग एक सप्ताह पहले पर्णवृंत छोड़कर काट देते हैं।
जब पत्ती का पर्णवृंत गिरने लगे तब सांकुर डाली को काटकर ले आते है। मूलवृंत को उचित ऊँचाई पर काट देते हैं तथा उसके बीचो-बीच 3-4 सें.मी. लम्बा चीरा लगा देते हैं।
सांकुर डाली के निचले भाग को दोनों तरफ से 3-4 सें.मी. लगा कलम बनाते हैं जिसे मूलवृंत के चीरे में घुसाकर 100 गेज मोटाई की सफेद पालीथीन की पट्टी से बांध देते है।
छोटानागपुर क्षेत्र में बडिंग के लिए फरवरी-मार्च तथा ग्राफ्टिंग के लिए अक्टूबर-नवम्बर का महीना उचित पाया गया है।
पौधा रोपण
रोपाई के लिए उपयुक्त समय जुलाई से सितम्बर है।मई-जून के महीने में भूमि की अच्छी तरह से जुताई करने के बाद पाटा चलाकर भूमि को समतल बना लेना चाहिए।
कटहल का पौधा आकार में बड़ा तथा अधिक फैलावदार होता है अतः इसे 10 x 10 मी. की दूरी पर लगाया जाता है। अतः 10 से 12 मीटर की दूरी पर 1 x 1 x 1 मीटर आकार के गड्ढे तैयार करना चाहिए।
इन गड्ढों को 15 दिन खुला रखने के बाद ऊपरी मिट्टी दूसरी तरफ रख देते हैं। 15 दिन खुला के बाद इन गड्ढों में 20 से 25 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद अथवा कम्पोस्ट, 250 ग्राम सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट, 500 म्युरियेट ऑफ़ पोटाश, 1 किलो नीम की खल्ली तथा 10 ग्राम थाइमेट को मिट्टी में अच्छी प्रकार मिलाकर भर देना चाहिए।
जब गड्ढे की मिट्टी अच्छी तरह दब जाये तब उसके बीचो-बीच में पौधे के पिण्डी के आकार का गड्ढा बनाकर पौधा लगा दें। पौधा लगाने के बाद चारों तरफ से अच्छी तरह दबा दें और उसेक चारों तरफ थाला बनाकर पानी दें।
कठहल फसल की देख-रेख
पौधा लगाने के बाद से एक वर्ष तक पौधों की अच्छी देख-रेख करनी चाहिए। नवीन रोपित पौधों को धुप व पाले से सुरक्षा करना आवश्यक हैं। प्रतिवर्ष वर्षा ऋतू के पश्चात बोर्डो पेस्ट लगा देना चाहिए।
कठहल फसल में सिंचाई
नवजात पौधों को कुछ दिन तक बराबर पानी देते रहें। पौधा लगाने के बाद प्रारंभिक वर्ष में पौधों की गर्मियों में प्रति सप्ताह और जाड़े में 15 दिनों के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए।
बड़े पेड़ों की गर्मी में 15 दिन और जाड़े में एक महीने के अंतर से सिंचाई करनी चाहिए। नवम्बर-दिसम्बर माह में फूल आते हैं। इसलिए इस अवधि में सिंचाई नहीं करना चाहिए।
कठहल के पेडों की काट-छांट
नये पौधों में 3 वर्ष तक उचित ढांचा देने के लिए काट-छांट करना चाहिए ढांचा देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि तने पर 1.5-2.0 मी. ऊँचाई तक किसी भी शाखा को नहीं निकलने दें। उसके ऊपर 3-4 अच्छी शाखाओं को चारों तरफ बढ़ाने देना चाहिए जो पौधों का मुख्य ढांचा बनाती हैं। कटहल के पौधों के मुख्य तनों एवं शाखाओं से निकलने वाले उसी वर्ष के कल्लों पर फल लगता है। अतः इसके पौधों में किसी विशेष काट-छांट की आवश्यकता नहीं होती है। फल तोड़ाई के बाद फल से जुड़े पुष्पवृंत टहनी को काट दें जिससे अगले वर्ष अच्छी फलत हो सके। पुराने पेड़ों पर पनपने वाले परजीवी जैसे बांदा (लोरेन्थस), सूखी एवं रोगग्रस्त शाखाओं को समय-समय पर निकालते रहना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
प्रत्येक पौधे को 25-30 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी हुई खाद, 125 ग्रा. यूरिया, 250 ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 125 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष की दर से जुलाई माह में देना चाहिए।
तत्पश्चात पौधे की बढ़वार के साथ खाद की मात्रा में वृद्धि करते रहना चाहिए। जब पौधे 10 वर्ष के हो जाये तब उसमें 80-100 कि.ग्रा. गोबर की खाद, 1.25 कि.ग्रा. यूरिया, 2.5 कि.ग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट तथा 1.25 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश प्रति वर्ष देते रहना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक देने के लिए पौधे के क्षत्रक के नीचे मुख्य तने से लगभग 1-2 मी. दूरी पर गोलाई में 25-30 सें.मी. गहरी खाई में खाद के मिश्रण को डालकर मिट्टी से ढक देना चाहिए।
निंदाई-गुड़ाई
पौधों के थालों में समय-समय पर खरपतवार निकाल कर निराई-गुड़ाई करते रहना चाहिए। निंदाई-गुड़ाई करके पौधे के थाले साफ़ रखने चाहिए। बड़े पेड़ों के बागों की वर्ष में दो बार जुताई करनी चाहिए। कटहल के बाग़ में बरसात आदि में पानी बिल्कुल नहीं जमना चाहिए।
कठहल मे अन्तः शस्य
शुरू के कुछ वर्षों तक पौधों के बीच काफी जगह खाली पड़ी रहती है। इसलिए 3 से 6 वर्ष तक अन्तः शस्य के रूप में सब्जिया, पपीता आदि लगाया जा सकता हैं बड़े पेड़ हो जाने पर भी इनके बीच अदरख और हल्दी की खेती अंतरफसल के रूप में की जा सकती है।
कठहल मे फलन
फूल मुख्य तने एवं मोटी डालियों पर जनवरी-फरवरी में आते है। फल जनवरी-फरवरी से जून-जुलाई तक विकसित होते रहते हैं। इसी समय में फल के अंदर बीज, कोया इत्यादि का विकास होता है और अंततः जून-जुलाई में फल पकने लगते हैं।
कठहल की उपज
कटहल के बीजू पौधे में 7-8 वर्ष में फलन प्रारम्भ होता है जबकि कलमी पौधों में 4-5 वर्ष में ही फल मिलने लगते है। पेड़ का 12 वर्ष की उम्र तक फलन कम होता है।
इसके बाद प्रति पेड़ 100-250 तक फल प्राप्त होते है। कटहल के फलों को विकास के साथ कई प्रकार से उपयोग में लाया जाता है । अति नवजात एवं मध्यम उम्र के फल, जिसे सब्जी के लिए प्रयोग किया जाता है, को उस समय तोड़ना चाहिए जब उसके डंठल का रंग गहरा हरा, गूदा कठोर और कोर मलायम हो।
साधारणतः फल लगने के 100-120 दिनों बाद तोड़ने लायक हो जाते हैं। तोड़ते समय फलों के सीधा जमीन पर गिरने से फल फट जाते है इसलिए फल के वृंत को रस्सी से बांध कर धीरे-धीरे नीचे सावधानीपूर्वक उतार कर किसी छायादार स्थान पर रखना चाहिए।
कठहल के रोग
फल गलन
यह रोग राइजोपस आर्टोकारपाई नामक कवक के कारण होता है। इसका प्रकोप फल की छोटी अवस्था में होता है। इसके कारण कटहल के फल सड़कर गिरने लगते हैं।
इस बीमारी की रोकथाम के लिए डाइथेन एम-45 के 2 ग्राम प्रति लीटर में घोलकर 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 छिड़काव करना चाहिए या फल लगने के बाद लक्षण स्पष्ट होते ही ब्लू कॉपर के 0.3 घोल का दो छिड़काव 15-20 दिनों के अंतराल पर करें।
गुलाबी धब्बा
इस रोग में पत्तियों को निचली सतह पर गुलाबी रंग का धब्बा बन जाता है। इसके नियंत्रण के लिए कॉपर जनित फफूंद नाशी जैसे कॉपर आक्सीक्लोराइड या ब्लू कॉपर के 0.3 घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए।
कठहल के कीट
मिली बग
ये नये फूल-फल एवं डंठलों का रस चूसते हैं फलस्वरूप फूल एवं फल गिर जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए मई-जून में बगीचे की जुताई कर देनी चाहिए। इसके उपचार के लिए 3 मिली. इंडोसल्फान प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
तना छेदक
इस कीट के नवजात पिल्लू कटहल के मोटे तने एवं डालियों में छेद बनाकर नुकसान पहुँचाते हैं। इसका आक्रमण अधिक होने पर पेड़ की डालियाँ एवं तना सूख जाते हैं इसके नियंत्रण के लिए छिद्र को किसी पतले तार से साफ़ करके नुवाक्रान का घोल (10 मि.ली./ली.) अथवा पेट्रोल या किरोसिन तेल के चार-पाँच बूंद रुई में डालकर गीली चिकनी मिट्टी से बंद कर दें।
Authors:
संगीता, हेमंत कुमार पाणिग्रही और युगल किशोर लोधी
उद्यान विज्ञान विभाग,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छ.ग.)
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