फलदार बागीचे की स्थापना एवं प्रबंधन
बागबानी एक दीर्घकालीन निवेश है अतः एक फलदार बागीचे की स्थापना एवं प्रबंधन बहुत ही सावधानीपूर्वक और योजनाबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए। अधिकतम पैदावार और ज्यादा से ज्यादा लाभ सुनिश्चित करने हेतु बागीचे के लिए उपयुक्त स्थान का चयन, सही रोपण प्रणाली, उचित रोपण दूरी, पौधों की अच्छी किस्मों का निर्धारण, नर्सरी से स्वस्थ पौधों का चुनाव, पौधों की देखभाल, फसल की मार्केटिंग इत्यादि बहुत से महत्वपूर्ण कारक हैं।
बागीचे के लिए उपयुक्त भूमि और स्थान का चुनाव
एक अच्छा बागीचा लगाने के लिए ऐसे स्थान का चुनाव करें जहां पाला कम पड़े और जो प्राकृतिक विपदाओं व जंगली जानवरों से सुरक्षित हो। स्थान ऐसा हो जहां आसानी से पहुँचा जा सके। सभी तरह की मिट्टी में फल पौधे नहीं लगाये जा सकते। अत: फल पौधों की सही बढ़ौतरी, अधिक और गुणवत्तापूर्ण फल उत्पादन के लिए मिट्टी का पी. एच. मान 5.5 से 7.5 तक, मिट्टी रेतीली दोमट से बालुई दोमट और उपजाऊ होनी चाहिए।
बागीचे की रूपरेखा बनाने से पहले उस क्षेत्र की मिट्टी की जाँच करवाकर उसमें उपस्थित पोषक तत्वों की जानकारी अवश्य ज्ञात कर लेनी चाहिए। भूमि की भीतरी सतह पथरीली न हो, उसमें अधिक कंकर-पत्थर न हों और न ही उसमें अधिक जल खड़ा होता हो। जमीन की भीतरी सतह तक खुदाई आवश्यक है ताकि पथरीली सतह को हटाया जा सके। जमीन के अन्दर पथरीली सतह जड़ों के बढ़ने तथा फैलने में बाधा पैदा करती है।
बागीचे की रूप रेखा
बागीचा ऐसी व्यवस्था एवं अनुमोदित विधि द्वारा लगाया जाना चाहिए जिससे पौधे का पूर्ण विकास हो तथा उत्पादन क्षमता बढ़ सके। समतल तथा घाटियों वाले क्षेत्र में वर्गाकार, षट्कोण, आयताकार या किसी दूसरी विधि से पौधे लगाये जा सकते हैं। ढलान वाले पहाड़ी क्षेत्रों में कण्टूर विधि से पेड़ लगाना उत्तम है। किसी भी विधि से बागीचा लगाते समय यह विशेष ध्यान रहे कि आयु के साथ पेड़ों को फैलने के लिए उचित स्थान, प्रकाश तथा वायु मिले और पौधों की शाखाएं आपस में न उलझें। रोपण दूरी तय करने वाले कारक निम्नलिखित हैं:
पौधों का प्रकार - आम 10 मीटर x 10 मीटर की दूरी पर, अमरूद 5 मीटर x 5 मीटर की दूरी पर और पपीते 2 मीटर x 2 मीटर की दूरी पर लगाए जाते हैं।
वर्षा - एक प्रकार के वृक्ष के लिए उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों की तुलना में कम वर्षा वाले क्षेत्रों में व्यापक अंतर दिया जाना चाहिए।
मृदा प्रकार और उर्वरता - भारी मिट्टी में कम अंतर दिया जाना चाहिए क्योंकि शीर्ष और जड़ विकास सीमित होते हैं।
रूटस्टॉक - विभिन्न रूट स्टॉक पर ग्राफ्ट की गई एक ही किस्म के पेड़ अलग-अलग आकार में विकसित होंगे और उन्हें अलग-अलग रोपण दूरी की आवश्यकता होती है। जैसे- सेब।
प्रूनिंग और प्रशिक्षण - हेड सिस्टम पर प्रशिक्षित पौधों को अन्य प्रकार के प्रशिक्षण प्रणाली की तुलना में करीब रिक्ति की आवश्यकता होती है।
बागीचों में पौधों के बीच के खाली स्थान में कुछ समय तक कुछ अनुमोदित फसलें भी लगाई जा सकती हैं।
पौधों का चुनाव
पौधे स्वस्थ तथा रोग रहित होने चाहिएं। इसके लिए पंजीकृत पौधशालाओं और विश्वस्त स्रोतों से ही पौधे खरीदें। कलम का जोड़ भूमि से लगभग 25-30 सैं.मी. ऊँचा होना चाहिए।
पौधों की रोपाई का समय
पर्णपाती फल पौधों (सर्द ऋतु में जिन पौधों के पत्ते पूर्णतया झड़ जाते हैं) जैसे सेब, नाशपाती, प्लम, आडू, खुमानी, अखरोट, बादाम, जापानी फल इत्यादि को प्राय: सर्दियों में दिसम्बर महीने के अंत से मध्य मार्च तक रोपित किया जाता है।
सदाबहार फल पौधों (जिन पौधों की वृद्धि सारे वर्ष होती रहती है तथा वर्ष भर पौधे हरे रहते हैं) जैसे नीम्बू प्रजातीय फल, अमरूद, आम, लीची, लोकाट आदि को वर्षा ऋतु में जुलाई से सितम्बर तक रोपित किया जा सकता है।
पौधा लगाना
गड्ढा पौधा लगाने से एक महीना पहले तैयार कर लें ताकि मिट्टी में मिले उर्वरक तथा खाद पौधे को पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकें और मिट्टी अपने स्थान पर ठीक से बैठ जाए। जड़ों के विकास के लिए गड्ढे मिट्टी की उपजाऊ क्षमता और फलों की किस्म देखकर विभिन्न आकार एवं गहराई के खोदे जाते हैं।
सामान्य तौर पर एक घन मीटर आकार (1x1x1 मीटर) का गड्ढा तैयार किया जाता है। गड्ढा बनाते समय ऊपरी 1/3 भाग की मिट्टी को एक तरफ रखें और नीचे की 2/3 भाग की मिट्टी को ऊपर रखें। धूप द्वारा कीटाणुशोधन के लिए 2-4 सप्ताह का समय दें। गड्ढे में मिट्टी भरने के समय अच्छी तरह से विघटित गोबर की खाद (50 कि.ग्रा), सुपरफॉस्फेट (100 ग्राम), क्लोरपाइरीफॉस (50 मि.ली. धनुषबान / रूबान / डरमेट दर्सबान / मासबान / फोर्स / ट्राईसल 20 ई.सी. 10 लीटर पानी प्रति गड्ढा) मिट्टी में मिलाएं।
यदि क्षेत्र की मिट्टी पथरीली हो और मिट्टी की गहराई कम हो तो गड्ढे का आकार बढ़ा लें और जंगल की ऊपरी सतह से मिट्टी लेकर गड्ढे में भरें। पौधों को गड्ढों के ठीक मध्य में तथा उतनी ही ऊँचाई पर लगाएं जितना कि वह पौधशाला में था। पौध रोपण के पश्चात् इसके आसपास की मिट्टी को पैरों से दबा दें ताकि मिट्टी पौधे की जड़ों के साथ ठीक से बैठ जाये। पौधा लगाने के पश्चात् हल्की सिंचाई अवश्य करें।
छोटे पौधों की देखभाल
छोटे पौधों को सहारा देने के लिए इस तरह से स्टेक (डण्डे) लगाएं ताकि जड़ों को क्षति न पहुँचे और उन्हें तने के साथ बांध दें। परन्तु जैसे ही इनकी आवश्यकता न हो इन्हें निकाल दें। जितना सम्भव हो पौधों के इर्द-गिर्द बनाए गए तौलिये खरपतवार मुक्त रखें और मिट्टी में अपेक्षित नमी बनाए रखने हेतु सूखी घास या पॉलीथीन आदि से इन्हें ढक कर रखें।
इससे भूमि की उपजाऊ क्षमता बनी रहती है। बरसात में मल्च को हटा दें। पौधा लगाते समय सिंचाई की आवश्यकता होती है। फल की बढ़ौतरी के समय तथा फूल आने पर चाहे फल उगाए जाने वाले क्षेत्र में वर्षा होती भी हो, फिर भी सम्भव हो सके तो सिंचाई का प्रबन्ध करना चाहिए। नीम्बू प्रजातीय पौधों को सूखने से बचाने के लिए गर्मियों में सिंचाई की जरूरत रहती है।
यह ध्यान रहे कि तौलियों को न तो अधिक सूखा और न ही अधिक गीला रखें। तौलियों में पानी अधिक देर तक खड़ा नहीं होना चाहिए। छोटे पौधों को गर्मियों में धूप से और सर्दियों में कोहरे से बचाएं। इसके लिए घास फूस की छत का इस प्रकार से उपयोग करें ताकि पौधों पर सुबह शाम की धूप पड़ती रहे।
पौधों की सिधाई और काट-छांट
सिधाई का कार्य पौधे के प्रतिरोपण के साथ ही आरम्भ कर दिया जाता है। शीतोष्ण फल पौधों की जड़ों और शाखाओं के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए तने के ऊपर आगे के भाग को काट दें और मोटी जड़ों की काट-छांट करें। इससे पौधे की जड़ें अधिक कुशलता से कार्य कर सकती हैं और पौधों और जड़ों की वृद्धि में संतुलन रहता है। पेड़ों को ऐच्छिक आकार प्रदान करने के लिए यह आवश्यक है कि उसे किसी सुनिश्चित विधि के प्रयोग से सिधाया तथा काटा जाए।
इस तरह की विधियों में मुख्यत: सैन्ट्रल लीडर, ओपन सैन्टर तथा मॉडीफाईड सैन्ट्रल लीडर प्रणाली में से पौधे की किस्म व प्रजाति के अनुकूल कोई एक विधि अपनाई जाती है। सामान्यत: मॉडीफाईड सैन्ट्रल लीडर प्रणाली में मुख्य शाखा को बहुत ऊँचा नहीं बढ़ने दिया जाता है।
अन्य शाखाओं को भी निश्चित ऊँचाई और संख्या में बढ़ने दिया जाता है। इस तरह से पेड़ ओपन सैन्टर से ऊँचा तथा सैन्ट्रल लीडर से नीचा और फैलावदार रहता है। इससे पौधे पर होने वाले विभिन्न कार्य आसानी से किए जा सकते हैं।
रोगग्रस्त, कीड़ों से प्रभावित, आपस में उलझी तथा नीचे की शाखाओं और नई अवांछनीय शाखाओं को निकाल दिया जाता है। प्राय: काट-छांट सर्दियों में ही करनी चाहिए। केवल आवश्यकता पड़ने पर ही बहुत कम मात्रा में गर्मियों में काट छांट करनी चाहिए।
अधिक आयु वाले पौधों पर अपेक्षाकृत अधिक काट छांट की जाती है, परन्तु नए फल पौधों की उचित प्रणाली से ही सिधाई या काट-छांट करें। फल देने वाले पौधों की केवल संतुलित काट-छांट ही करें। काट-छांट की मात्रा पेड़ की प्रजाति, क्षेत्र की जलवायु और मिट्टी की उपजाऊ क्षमता पर निर्भर करती है।
अन्तर फसलों का प्रयोग
पेड़ों के तौलिये छोड़कर खाली स्थानों में मटर, बीन, चने तथा अन्य फलीदार फसलें उगाई जानी चाहिएं। इससे मिट्टी की बनावट तथा उपजाऊपन बना रहता है तथा बागीचे के फल उत्पादन की गुणवत्ता तथा मात्रा में वृद्धि होती है। बागीचे में कुछ उन्नत घास की किस्में भी उगाई जा सकती हैं। इससे पशुओं को चारा मिलता है और भूमि कटाव भी रुकता है। पपीता तथा आडू के पौधे भी अन्तर फसल के रूप में उगाये जा सकते हैं।
वृद्धि नियामक व अन्य रासायनों का प्रयोग
पौधों को सामान्य रूप से विकसित होने तथा फलों की गुणवत्ता और आकार बढ़ाने या विकृति से बचाने के लिए वृद्धि नियामकों और रासायनिक पदार्थो का छिड़काव किया जाता है। यह छिड़काव निर्धारित मात्रा में ही होना चाहिए। थोड़ी सी भी मात्रा बढ़ाने से ये नुकसानदायक सिद्ध हो सकते हैं।
पौधों का संरक्षण
ठीक समय पर ही कीड़े तथा बीमारियों की रोकथाम के लिए कदम उठा लेने चाहिएं। अधिक या कम मात्रा में कीटनाशकों या रासायनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। केवल ताजा बनाई हुई दवा का ही प्रयोग करना चाहिए।
काट-छांट के समय पेड़ों पर बने जख्मों पर फफूंदनाशक दवा का लेप अवश्य करें। कीट तथा फफूंदनाशक दवायें पहले ही खरीद कर रख लेनी चाहिएं ताकि उचित समय पर प्रयोग करके नुकसान को रोका जा सके।
फलों की तुड़ाई और रख-रखाव
फलों की तुड़ाई उचित परिपक्व अवस्था में ही करनी चाहिए। फलों की तुड़ाई करते समय यह ध्यान रखें कि फलों को कहां, कितनी दूर और कब प्रयोग में लाना है। कम दूरी पर व कम समय में प्रयोग होने वाले फलों को ठीक पकी हुई स्थिति और देर तक रखने वाले फलों को थोड़ा कच्चा तोड़ना चाहिए।
फलों को सावधानी से डंठल के साथ तोड़कर छाया में रखें। उन पर किसी प्रकार का दबाव न पड़े और न ही वे आपस में रगड़ खायें। फल पकने के समय अधिक वर्षा तथा धुन्ध के कारण फलों पर रंग नहीं आता, फलों की गुणवत्ता घट जाती है और फलों पर फफूंद के धब्बे बन जाते हैं।
फलों की पैकिंग
फलों को लकड़ी या गत्ते की पेटियों तथा टोकरियों में पैक किया जाता है। परन्तु पैकिंग के समय विशेष ध्यान रखना चाहिए कि फलों पर कोई चोट या दाग न लगे और फलों को मण्डियों तक सुरक्षित पहुँचाया जा सके।
ऐसे फल ही पैक करें जो कि बाजार या मण्डियों में पहुँचने तक सड़ें नहीं और उनकी अच्छी कीमत भी मिले। केवल सही ग्रेड किये हुए तथा विपणन योग्य फल ही पैक करने चाहिएं।
Authors
Sanjeev K. Chaudhary, Neeraj Kotwal and Nirmal Sharma
Regional Horticultural Research Sub Station - Bhaderwah, SKUAST-Jammu (J&K)-182222.
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