10 Major Diseases of Tomato and Their Integrated Disease Management

1. आर्द्रपतन

इस रोग में रोगजनक का आक्रमण बीज अंकुरण के पूर्व अथवा बीज अंकुरण के बाद होता है। पहली अवस्था में बीज का भ्रूण भूमि के बाहर निकलने से पूर्व ही रोगग्रसित होकर मर जाता है । मूलांकुर एवं प्राकूर बीज से बाहर निकल आते फिर भी वे सड़ जाते है

Tomato cropदुसरी अवस्था में बीज अंकुर के बाद कम उम्र के छोटे  के तनों पर भूमि से सटे तनों पर अथवा भूमि के अंदर वाले भाग पर संक्रमण हो जाता है जिससे जलसिक्त धब्बे बन जाते है और पौधा संक्रमित स्थान से टुट कर गिर जाता है पौधों में गलने के लक्षण भी दिखाई देते है। रोग का प्रकोप नम भूमि मे ज्यादा होता है।

रोगजनक:- पिथियम, फाइटोफ्थोरा, स्क्लेरोशियम, फ्यूजेरियम आदि।

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

रोगजनक भूमि में या पादप अवशेषों पर काफी समय तक जीवित रहता है। इन रोजनकों के जिवाणु जैसे पोषित कवकजाल स्क्लेरोषियम आदि प्रतिकुल मौसम में भी भूमि में पड़े रहतें है एवं अनकुल वातावरण निकलने पर उग जाते है तथा यही प्राथमिक निवेष द्रव्य का काम करते है। रोग के संक्रमण के लिए 25-30 डिग्री  तापमान अनुकूल होता है।

2. अगेती झुलसा

रोग का लक्षण नर्सरी में एवं पौध लगाने के बाद खेतो में पत्तियों पर छोटे-छोटे धब्बे (कान्संन्ट्रिक रिंगं) के रूप में दिखाई देता है प्रारंम्भ में ये बिखरे हुये गोलाकार, अंडाकार या कोणीय हो सकते है । प्रभावित पत्तियां पीली पड़कर झड़ जाती है तथा फल सड़ जाता है । इससे उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं।

रोगजनक:- आल्टर्नेरिया सोलेनाई

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

यह रोग फफूद से उत्पन्न होता है जो कि वैकल्पिक परजीवी गुण वाला होता है। यह मूल रूप से मृतजीवी होता परन्तु उपयूक्त मेजबान मिलने पर परजीवी हो जाता है। इस तरह रोगजनक पौध अवशेषों  पर मृतजीवी के रूप मे अगले वर्ष तक बना रहता है।

रोगजनक बीज की बाह्य सतह पर भी हो सकता है यदि संक्रमित फलों से बीज एकत्रीत किया जाए अतः रोगजनक बीज पर एक पौधे से दुसरे में सिधे संक्रमण कर देता है। रोग का प्राथमिक संक्रमण पत्त्यो पर प्रकट होता है और सम्पूर्ण फसल के लिए द्वितीयक संक्रमण का स्रोत भी बनता है।

अगेती झुलसा तापमान में अत्यधिक गिरावट एवं वायुमंडल में आर्द्रता की अधिकता में रोग का फैलाव तेजी से होता है ।

3. पक्षेती झुलसा

रोग के लक्षण सबसे पहले पौधों की निचली पत्तियों के किनारे पर भूरे से रंग के अनियमित गीले या जलासिक्त धब्बे बनना षुरू होते है जो मौसम की अनुकूलता पाकर तेजी से फैलता है तथा कुछ ही दिनो में पत्तियों झुलस कर गिरने लगती है।

पत्तियों के निचले सतह पर बने धब्बों की परिधि पर रोगजनक की वृद्धि को देखा जा सकता है। रोगजनक पत्तियों के अथवा शाखाओं तनों व फलों पर भी आक्रमण करता है। फलों पर जैतूनी रंग के धब्बे बनते है जो बढ़कर पूरे फल पर फैल जाते है और फल फट जाते हैं।

रोगजनक:- फाइटोफ्थोरा इन्फेस्टेंन्स 

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

रोगजनक पौधों में अवषेषों के साथ भूमि में पड़ा रहता है जो प्राथमिक निवेषद्रव्य का काम करता है। तापमान 38 डिग्री से अधिक होने पर जीवित नही रह सकते | आजकल टमाटर की लगातार दो फसल होने के कारण संक्रमण की ज्यादा संम्भावना होती है अथवा संक्रमित फलों से बीज की बुवाई करने पर अनुकूल वातावरण में बीज से निकले प्ररोहों पर आक्रमण करता है द्वितीय संक्रमण टमाटर के संक्रमित पौधो  द्वारा ही होता है।

4. सेप्टेरिया पर्णचित्ती

इस रोग में पत्तियों की निचली सतह पर गोलाकर छोटे-छोटे जलसिक्त धब्बें  बनते है  जिनका रंग भूरा होता है और पीले रंग से घिरा होता है। इन धब्बों का आकार बढ़कर 3.6 मि0 मी0 व्यास का हो जाता है।

उन धब्बों के बीच के भाग का रंग धूसर सा हो जाता है इस भाग पर काले बिन्दुनुमा संरचना देखी जा सकती है जिसे पिकनिडियम कहते है। इसी प्रकार के धब्बे शाखाओं एवं तनों पर भी पाये जाते है। रोग ग्रसित पत्तियाँ संक्रमण के दो से तीन हफ्ते बाद गिरने लगती है प्रभावित पोधो में फलों पर भी रोग के लक्षण देखे जा सकते हैं । फल कम और छोटे आकार के लगते हैं ।

रोगजनक:- सेप्टोरिया लाइकोपर्सिकी

रोगचक्र एवं अनुकूल वातारण:-

रोगजनक पौध अवशेषों में व भूमि में अगले वर्ष तक मृतजीवी के रूप में रहता है कई षोध में यह बीज जनित रोग पाया गया है रोगजनक का प्रसार वर्षा एवं कृषियंत्रो द्वारा होता है।

5. फल सड़न

इस रोग के लक्षण फलों पर पीले रंग के धब्बों के रूप में प्रकट होते है और अनुकूल वातावरण पाने पर ये धब्बे बड़े हो जाते हैंै। रोग के संक्रमण के कारण फल के अन्दर गूदे सड़ जाते हैं । कभी कभी छोटे तथा हरे फल रोगी होने पर सूखकर सिकुड़ जाते है।

रोगजनक:- फाइटोफ्थोरा निकोटियानी उपजाति पैरासिटिका

6. फ्यूजेरियम म्लानि

इस रोग का संक्रमण पौधों में होने पर प्रारंम्भ में पत्तियां पीली पड़ने लगती है और धीरे धीरे यह पीलापन पौधे के उपरी भाग की ओर बढ़ता जाता है नई पत्तियों की षिराओं का गहरा रंग हल्का हो जाता है एंव पत्तियाँ नीचे की ओर झुक जाती है अंततः पौधा सूख जाता है।

इसमें स्तंम्भमूल सन्धि जड़ें तथा अन्य भूमिगत भाग प्रभावित होते है संवहन पूल की कोषिकाओं का रंगीन होना इस रोग का विषिट लक्षण है जो कि कवक के कारण होता है।

रोगजनक:- फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम उपजाति लाइकोपर्सिकी 

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

रोगजनक एक वर्ष से दुसरे वर्ष तक संक्रमित पौधों की जड़ं की अवषेषों में एवं भूमि में जीवित रहता है। प्रतिकूल परिस्थिति में भी क्लेमाइडोस्पोर के द्वारा जिवित रहने की क्षमता होती है जो अगले फसल तक सुरक्षित रहते है अनुकूल वातावरण में यह संक्रमण कर देते हैं।

7. जीवाणु म्लानि

रोग के लक्षण किसी भी उम्र के पौधे पर दिखाई दे सकता है। संक्रमित पौधों में नीचे की पतियाँ पीली होकर मुरझाने लगती है। कुछ ही समय में एैसे पौधे हरे के हरे मुरझा जाते है कभी - कभी पत्तियाँ पीली ही नही पड़ती और पौधा हरा ही मुरक्षा जाता है।

अचानक पौधों का मुरझा जाना इस रोग की प्रमुख पहचान है संक्रमित पौधों की जड़ो के यदि ब्लेड से काटकर गिलास में साफ पानी लेकर उसमें डाल दिया जाय तो उसमें से सफेद - भूरा लसदार रस निकलकर पानी को दूधिया बना देता है यह इस रोग का मुख्य लक्षण है।

रोगजनक:- रालस्टोनियां सोलेनेसिएरम

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

रोगजनक जीवाणु भूमि में 9-16 माह तक जीवित रह सकता है अधिक तापमान के लगातार मिलने की स्थिति में रोगजनक जीवाणु नष्ट हो सकता है। यह पौध अवषेषों एवं मिट्टी में आगामी फसल तक जीवित रहता है और प्राथमिक निवेष द्रव्य का काम करता है। मिट्टी में अधिक आर्द्रता व तापमान रोग बढ़वार के लिये अनूकूल होता है। पोटाष की कमी और फास्फोरस की अधिकता से रोग का प्रकोप बढ़ता है।

8.पर्ण कुंचन

रोग का प्रारम्भ पत्तियों के एक और मूड़ जाने से होता है एक स्थान पर पत्तियां इक्कठी हो जाती है इन पत्तियों का आकार होता हो जाता है तथा वे नीचे की ओर मुड़ी हुई एवं मोटी व खुरदरी हो जाती है पौधे छोटे रह जाते है। फूल व फल बहुत कम लगते है तथा संक्रमित पौधे झाड़ियों के समान दिखाई देने लगता है।

रोगजनक:- निकोटियाना विषाणु

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

यह रोग वायरस से होता है यह वायरस तम्बाकू, मिर्च, पपीते पर भी रोग उत्पन्न करता है। रोग बाह्य बीज जनित हो सकता है रेाग मक्खी वेमिसिया टेबेकाई द्वारा संचारित एवं प्रसारित होता है।

9. मोजेक

इस रोग के कारण पत्तियों सिकुड़कर पीली हो जाती है तथा पौधों की बढ़वार रूक जाती है संक्रमित पौधों में फल कम लगते है प्रभावित पत्तियाँ की पर्णहरितमा खत्म हो जाती है।

रोगजनकः- निकोटियाना विषाणु - 1 एवं ट¨मैटो मोजेक विषाणु

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

रोगजनक विषाणु कई परपोषी पौधे जैसे धतूरा, तम्बाकू आदि में रहता है जिससे संक्रमण हो सकता है खेत में संक्रमण चितकबरे भाग में वायरस से होता है जिसका प्रसार किटों द्वारा होता है। रोग बाह्य बीज जनित हो सकता है रेाग मक्खी वेमिसिया टेबेकाई द्वारा संचारित एवं प्रसारित होता है।

10. मूलग्रन्थि/जड़गांठ रोग

इस रोग का प्रारंम्भ पौधे की जड़ों में गाँठ बनने से होता है। पौधों की वृद्वि रूक जाती है तथा छोटी कम हरी पत्तियाँ निकलती है संक्रमित पौधों क¨ उखाड़ कर देखने से उनकी जड़ांे में गाँठ दिखाई देती है जो रोग वही मुख्य पहचान है।

संक्रमित पौधों की जड़ो की मृत्यू नही होती है लेकिन कुछ दिनो के बाद इस पर जीवाणु एवं फफूंद का आक्रमण हो जाने से विगलन हो जात है और पौधें सूख जाते है ।

रोगजनक:-  मेलाइडोगाइन जावनिका

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:-

संक्रमित पौधे की जड़ में बनी गांठों में सूत्रकृमि एक फसल से दूसरी फसल के आने तक मृदा में जीवित रहकर अगली फसल पर भी रोग उत्पन्न करते है। रोग प्रसार मुख्यतः कृषि औजारो, पशुओं व पानी द्वारा होता है।

टमाटर में समेकित रोग प्रबंधन:-

  • सदैव उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज ही प्रयोग करें ।
  • गर्मी में गहरी गहरी जुताई करें जिससे प्राथमिक संक्रमण को कम किया जा सकें।
  • खरपतवार जो कि रोग के प्राथमिक निवेश द्रब्य का काम करते है खेत से निकाल देना चाहिए ।
  • पौधषाला की क्यारी भूमि सतह से कुछ ऊपर उठी तथा प्रत्येक वर्ष स्थान बदलते रहना चाहिए।
  • आसपास या एक खेत में लगातार टमाटर की फसल लेने से बचना चाहिऐ।
  • जल का निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए तथा बीज घने नही होना चाहिए।
  • नर्सरी को मृदा सौर्यउर्जीकरण करने से रोग एवं कीट कम लगते है।
  • टमाटर से साथ गेंदा की खेती निमेटोड के संक्रमण को कम कर देता है।
  • रोगजनक मुक्त नर्सरी से ही पोधो की रोपाई करें।
  • फसल चक्र अपनायें जैसे:- लोबिया-मक्का गोभी, भिण्डी लोबिया मक्का, जीवाणु म्लानी को कम करता है।
  • वायरस को फैलाने वाले कीट से बचने के लिये खेत के चारों तरफ पुदीना को लगा सकते है अथवा 10 पीला कार्ड लगाकर वेक्टर की संख्या को कम किया जा सकता है।
  • रोगमुक्त स्वस्थ पौधों से बीज बोने के लिए चयनित किया जाना चाहिए।
  • नर्सरी में संक्रमित पौधों की उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए इसका इस्तेमाल रोपाई में नही करना चाहिये।
  • यदि मोजेक रोग का ज्यादा प्रकोप है तो तम्बाकू आलू मिर्च, षिमला मिर्च और अन्य सोलेनेसी फसलो के अथवा अन्य फसलो के साथ फसल चक्र अपनाना चाहिऐ।
  • रोगराधी प्रजातियों जैसे :-

जड़ग्रान्थि रोग-पूसा -120, 2, 4 अर्का वरदान, हिसार

टोमेटो लीफ कर्ल - अर्का अन्यया, काषी विषेष काषी अमृत

जिवाणु म्लानी - अर्का अन्यया, अर्का अमिजीत, अर्का आलोक। 

  • खेत में 100 किग्रा/हेक्टेयर नीम की खली का प्रयोग करंे।
  • जैव कारक ट्राइकोडर्मा  5 ग्रा. /किग्रा  से भी बीज को उपचारित कर सकते है।
  • पौधशाला का मृदा उपचार थाइरम या कैप्टान से 3 ग्राम/वर्ग मीटर की दर से करें।
  • बीजोपचार कैप्टान, थाइरम अथवा कापर आम्सीक्लोराइड से 5 ग्राम /किग्रा बीज की दर से बोआई से पूर्व करें।
  • खेत में अगेती झुलसा के लंक्षण दिखने पर साइमोक्सनिल + मैकोजेब / 1.5 – 2.0 ग्राम/ली0 अथवा ऐजोक्सीस्ट्राबिन 1 मिली /लीटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • फ्यूजेरियम म्लानि होने पर कार्बेन्डाजिम से 1 ग्राम/ किग्रा बीज की दर से उपचारित करंे अथवा कार्बेन्डाजीम 1 ग्राम /लीटर पानी के साथ छिड़काव करें। ।
  • वायरस से संक्रमित पौधों में लक्षण जैसे मोजेक या पर्णकुचन दिखे तो रोग का प्रसार राकने के लिये इमिडक्लोप्रिड 5 मिली /10लीटर पानी के साथ छिड़काव करें।
  • मूलग्रन्थि का आक्रमण होने पर फोरेट का 15 किग्रा/हेक्टेयर की दर से पौधों को लगाने के एक सप्ताह पूर्व मृदा मे मिलायें।

Authors

डा. दिनेश राय

पादप रोग विभाग, डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा,  बिहार समस्तीपुर

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