Carnation - Introduction, Significance, Diseases & their Management

कारनेशन की खेती के दौरान नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग उखेड़ा (फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम ), काला धब्बा रोग/ शाखा गलन (अल्टरनेरिया डायनथी ), तना गलन (राइजोक्टोनिया सोलानी ), रतुआ रोग (यूरोमाइसेस डायनथी ), जड़ गलन/ साउदर्न ब्लाईट (स्क्लेरोटियम रोल्फसई ), ग्रे मोल्ड (बोट्रीटिस सिनेरिया ), फेयरी रिंग स्पाॅट (माइकोस्फेरेला डायनथी ), और कारनेशन मोटल विषाणु हैं। इस लेख में कारनेशन के रोगों के लक्षण व प्रबधंन का वर्णन किया गया है।

कारनेशन एक महत्वपूर्ण बारहमासी फूल है। यह आमतौर पर इसके वैज्ञानिक नाम से भी जाना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम डायनथस कैरीयोफिलस है। इसका यह नाम यूनानी वनस्पति शास्त्री थियोफैरास्टस ने दिया था। डायनथस शब्द दो यूनानी शब्दों से मिलकर बना है। पहला शब्द  डायोस तथा दूसरा शब्द एंथोस है, जिसका पूरा अर्थ है भगवान का फूल।

कारनेशन फूल की उत्पत्ति का स्थान यूरेशिया माना जाता है तथा यह 2000 वर्षों से उगाया जा रहा है। यह दुनिया के सबसे पुराने फूलों में से एक है जिनकी खेती की जाती है। प्राचीन रोमनों और यूनानियों द्वारा इसका उपयोग फूलों के हार बनाने में किया जाता था।

कारनेशन की व्यवसायिक खेती करने वाले प्रमुख देश क्रोएशिया, यूरोप, अल्बानिया, दक्षिण अफ्रीका, कोलम्बिया, टर्की, ग्रीस, नीदरलैंड, इजराइल, स्पेन, भारत इत्यादि हंै। विश्व में कारनेशन की लगभग 250 प्रजातियां मिलती हैं।

कारनेशन  का भारतीय परिदृश्यः

भारत में कारनेशन की खेती की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। भारत में अच्छी गुणवत्ता के फूल शिमला, कुल्लू, मनाली, ऊटी, बैंगलोर, पुणे जैसे ठंडे मौसम वाले स्थानों पर उगाये जाने की उत्कृष्ट मांग है। 

भारत में इसकी खेती मुख्यतः महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड के कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती है। इसकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण है कि यह विभिन्न रंगों में उपलब्ध होता है। इसके फूल काटने के बाद भी कई दिनों तक ताजा रहते है।

कारनेशन की खेतीः

यह मुख्यतः दो प्रकार का होता है स्टैंडर्ड कारनेशन तथा स्प्रे कारनेशन। स्टैडंर्ड कारनेशन फूल आकार में बड़ा होता है तथा पौधे 3 फीट तक बढ़ते है। इसके हर एक तने पे बड़ा फूल खिलता है। इसकी खेती बड़े पैमाने पे की जाती है। स्प्रे कारनेशन में छोटी शाखांएं होती है जिनमें हर शाख पर गुच्छों में फूल खिलते हैं।

इसके अलावा माइक्रो कारनेशन भी पाया जाता है। इनमें छोटे तने होते है तथा स्पे्र किस्मों की तुलना में उच्च पैदावार मिलती है। इनका उपयोग सजावटी गमलों के पौधों के रूप में किया जाता है। कारनेशन फूल के लाल, पीला, गुलाबी व सफेद फूलों की अलग-अलग किस्में उपलब्ध है।

तापमान कारनेशन के वृद्धि और गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इसके उत्पादन के लिए ठंडा तापमान होना चाहिए। पौधों के विकास के लिए तापमान 5 से 10 डिग्री सेल्सियस उचित होता है तथा अधिकता तापमान 30 से 35 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। आद्रता भी 40 से 50 प्रतिशत से अधिक नही होनी चाहिए। अधिक तापमान में पौधा व फूल अच्छी वृद्धि नही कर पाते। अधिक नमी वाले स्थानों पर इसमें फफंूदी लगने का खतरा बढ़ जाता है। 

भूमि का पीएच मान 6-7 के बीच होना चाहिए। बलुई दोमट मिट्टी इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है। खेत में जल निकास का उचित प्रबधंन होना चाहिए।

कारनेशन का प्रवर्धन बीज व तना कर्तन के द्वारा किया जाता है। स्वस्थ पौधों से लगभग 8-10 सै.मी. लम्बी कटिंग लेकर उसकी नीचे की तरफ की एक-दो पत्तियां तोड़ कर क्यारियों में लगा दें। एक महीने बाद जडे़ निकल कर पौधे तैयार हो जाते है। अलग-अलग जगहों व वातावरण को देखते हुए इसको सितम्बर माह से अप्रैल माह तक लगाना चाहिए। बीज को 20X20 सै.मी. की दूरी पर उगाया जाता है। 24 -30 पौधे प्रति वर्ग मीटर की दर से लगाए जाते हैं।

अच्छी पैदावार के लिए 50 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर डालनी चाहिए। अच्छी वृद्धि के लिए 30 ग्राम नाइट्रोजन, 20 ग्राम फास्फोरस व 10 ग्राम पोटाश प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में डालना उचित होता है। कारनेशन में फव्वारों द्वारा सिंचाई करना उचित होता है तथा अच्छी पैदावार के लिए हर 3 से 4 दिन बाद तथा वर्षा ऋतु में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए।

कारनेशन में पिंचिंग एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें शुरू में मुख्य तने से कली को हटाते है। यह प्रक्रिया सुबह के समय करनी चाहिए। इस प्रक्रिया से ज्यादा शाखाएं निकलती है जिससे पौधे घने हो जाते हैं और ज्यादा फूल खिलते हैं। फूलों को अधखिली अवस्था में 45 - 50 सै.मी. स्टाक की लम्बाई के साथ काट लिया जाता है। फूलों की गे्रड़िंग के बाद 25 से 30 फूलों का बंडल बनाकर उचित आकार के गत्ते के डिब्बे में पैक कर दिया जाता है।

प्रमुख रोग एवं उपचारः

उखेड़ा (फ्यूजेरियम आॅक्सीस्पोरम)

इस रोग का संक्रमण घाव द्वारा होता है। पत्तियां मुरझा कर गिर जाती है। तने के चारों ओर फैली भूरी लकीरों के कारण तना गल जाता है। गंभीर स्थिति में पौधा बहुत जल्दी मर जाता है। खींचने पर पौधा आसानी से टूट जाता है और जड़ें जमीन में रह जाती है। संक्रमित पौधों को खेत से निकाल देना चाहिए। स्वस्थ पौधों का चयन करें। खेत में मिट्टी को कार्बेंडाजिम (3 ग्राम प्रति लीटर) या रिडोमिल (2 ग्राम प्रति लीटर) से उपचारित करें।

काला धब्बा रोग/शाखा गलन (अल्टरनेरिया डायनथी)

इस रोग में पत्तियों और फूलों पर बैगंनी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। धीरे-धीरे धब्बों का आकार बढ़ता जाता है और वो गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं। इन धब्बों के आसपास के उत्तक पीले दिखाई देते हैं। पौधों को अधिक नमी से बचाना चाहिए। इस बीमारी का प्रकोप होने पर फसल में ज़िनेब (1 ग्राम प्रति लीटर) या मैनकोजेब या केप्टान (2 ग्राम प्रति लीटर) की दर से छिडकाव करें।

तना गलन (राइजोक्टोनिया सोलानी)

इस रोग में तने पे धब्बे दिखाई पड़ते हैय लेकिन जडे़ं प्रभावित नहीं होती। तना गल जाता हैै और बीच से टूट भी जाता है। खेत में अधिक नमी व जल निकासी की उचित सुविधा न होने के कारण यह रोग अधिक होता है। यह रोग होने की अवस्था में रोवरल (0.5 ग्राम प्रति लीटर) या थीरम (3 ग्राम प्रति लीटर) का छिड़काव उचित रहता है।

रतुआ रोग (यूरोमाइसेस डायनथी)

गर्म व आद्र परिस्थितियां होने पर यह रोग सामान्य है। इस रोग के प्रारंभिक लक्षणों में हरे रंग की सूजन जो कि बाद में लाल से गहरे भूरे रंग के पाउडर जैसी दिखाई पड़ती है। अधिक संक्रमण होने की अवस्था में पत्तियां पीली हो जाती है और पौधा भी मर जाता है। संक्रमित पौधों को नष्ट कर देना चाहिए। रोग को फैलने से बचाने के लिए मैनकोजेब (1.5 ग्राम प्रति लीटर) या जिनेब (1 ग्राम प्रति लीटर) का छिड़काव करें।

जड़ गलन/साउदर्न ब्लाईट (स्क्लेरोटियम रोल्फसई)

इस रोग का प्रमुख लक्षण पत्तियों का मुड़ जाना व पीला पड़ना है। पौधों को आसानी से उखाड़ा जा सकता है। संक्रमित जड़ों में सफेद फफूंद दिखाई पड़ती है तथा भूरे रंग के स्क्लेरोसिया भी देखे जा सकते है। इस रोग के उपचार के लिए प्रभावित पौधों को कार्बेंडाजिम (1 ग्राम प्रति लीटर) या काॅपर आॅक्सीक्लोराइड (1 ग्राम प्रति लीटर) की दर से उपचारित करें।

ग्रे मोल्ड (बोट्रीटिस सिनेरिया)

इस रोग के प्रथम लक्षण पत्तों पे जलयुक्त गहरे रंग का धब्बा दिखाई पड़ना है। बाद में यह रोग पंखुड़ियों पे फैल जाता है और यह रोग निर्यात के दौरान भी फूलों की गुणवत्ता को कम कर देता है। फूलों पर घाव होने की अवस्था में यह रोग ज्यादा फैलता है। इस रोग के उपचार के लिए कार्बेंडाजिम या केप्टान (2 ग्राम प्रति लीटर) की दर से छिड़काव उचित होता है।

फेयरी रिंग स्पाॅट (माइकोस्फेरेला डायनथी)

इस रोग में सफेद व गहरे रंग के धब्बे जो कि लाल-बैगंनी रंग से घिरे होते है, दिखाई पड़ते है। इन धबबो के शीर्ष पे पिन के आकार के बीजाणु घिरे हुए दिखाई पड़ते है। इस रोग के उपचार के लिए मैनकोजेब 1.5 ग्राम प्रति लीटर की दर से या सल्फर 1 ग्राम प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें।

कारनेशन मोटल विषाणु

इस पौधे में यह विषाणु आमतौर पर मिलता है। इस रोग में धब्बेदार पैटर्न दिखाई पड़ता है। यह फूलों के उत्पादन और गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। यह रोग मुख्यतः संक्रमित पौधों को खेती के लिए प्रयोग करने से फैलता है। इसके अलावा चेपा/अल/माहू (एफिड) भी इस रोग को फैलाता है। स्वस्थ पौधों का उपयोग करना चाहिए तथा कीट को नियंत्रित करने के लिए रोगोर 30 ई.सी. (1 मिलीलीटर प्रति लीटर) का फूल खिलने से पहले छिडकाव करें।

 


Authors

प्रोमिल कपूरएवं लोकेश यादव

*सहायक वैज्ञानिक (पादप रोग विभाग),

पादप रोग विभाग,

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार

Corresponding Author – This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.

 

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