Major diseases of garlic and onion and their integrated disease management
प्याज़ एवं लहसुन भारत में उगाई जाने वाली महत्वपूर्ण फसले हैं लहसुन और प्याज एक कुल की प्रजाति का पौधे माने जाते है, दुनियाभर में लहसुन और प्याज का प्रयोग व्यंजनों को अलग स्वाद देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है इनको सलाद, सब्जी, अचार या चटनी बनाने के लिए प्रयोग किया जाता हैं
प्याज एवं लहसुन की खेती रबी मौसम में भी की जाती है लेकिन इनको खरीफ वर्षा ऋतु मौसम में उगाया जाता है| लहसुन को औषधीय रूप में जैसे पेट, कान तथा आंख की बीमारियों के उपचार के लिए प्रयोग में लाया जाता है|
प्याज़ और लहसून में नुकसान पहुचाने वाले रोग लगते हैं अंत: रोगों के लक्षणों की समय पर पहचान कर इनका नियन्त्रण करने से फसल को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है| लहसुन और प्याज में लगने वाले मुख्य रोग व उनकी रोकथाम के उपाय निम्नलिखित है :-
1. आर्द्रगलन रोग (Fusarium oxysporum f. sp. cepae and Pythium butleri)
यह पौधषाला (नर्सरी) की बहुत गंभीर बीमारी है। इस रोग से पौधे अंकुरण से पहले और बाद में भी मर जाते हैं।
प्रबन्धन:
बिजाई से पहले बीज का उपचार ढाई ग्राम एमीसान या कैप्टान या थीराम दवाई एक किलो बीज में मिलाकर करें। उगने के बाद पौधों को गिरने से बचाने के लिए 0.2 प्रतिषत (2 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में) कैप्टान के छिड़काव से नर्सरी की सिंचाई करें।
2. पर्पल ब्लॉच (Alternaria porri)
यह बीमारी प्याज एवं लहसुन में उगने वाले सभी क्षेत्रों में पाई जाती है | यह रोग में फूलों की डंडी पर तथा पत्तियों पर जामुनी या गहरे-भूरे धब्बे बनते हैं बाद में इनका रंग भूरा हो जाता है, और बड़ा आकार ले लेते हैं जो बाद में बीज को हानि पहुँचाते हैं।
नम मौसम में धब्बों की सतह काली दिखाई देती है जो कि फफूंद के बीजाणु के कारण होती है |
धब्बे जब बड़े हो जाते हैं तो पत्तियां पीली पडकर सूख जाती है | जब बीज के डंठल इस रोग से प्रभावित होते हैं तो बीज का विकास नहीं होता है | अगर बीज बन भी जाते हैं तो सिकुड़ा हुआ होता है इस बीमारी का प्रकोप प्याज व लहसुन की कन्द वाली फसल पर भी होता है।
प्रबन्धन:
अच्छी रोग प्रतिरोधक प्रजाति के बीज का प्रयोग करना चाहिए | जिस खेत में बीज की फसल पर यह रोग लगता हो वहां पर अन्य फसलें उगाने चाहिए | 2 या 3 साल का फसल चक्र अपनाना चाहिए प्याज से संबंधित चक्र शामिल नहीं करना चाहिए |
फसल पर इण्डोफिल एम-45 या कापर आक्सीक्लोराइड 400-500 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 200-250 लीटर पानी में घोलकर तथा किसी चिपकने वाले पदार्थ (सैलवेट-99, 10 ग्राम या ट्रिटान 50 मि.ली./100 लीटर घोल) के साथ मिलाकर 10-15 के अन्तर पर छिड़काव करें।
3. डाउनी मिल्डयू (Peronospora destructor)
रोग के लक्षण पत्तियों पर अण्डाकार से लेकर आयताकार धब्बों के रुप में दिखाई देते हैं। यह धब्बे पीले रंग के होते हैं और पत्तियों की सतह पर बिखरे रहते हैं। रोग का आक्रमण सामान्य परिस्थितियों में पत्तियों के लगभग आधे भाग में होता है।
रोगग्रस्त भाग सूखने लगता है। रोगी पौधे से प्राप्त कन्द छोटे होते हैं। यदि रोग के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां रही और वातावरण में र्प्याप्त नमी रही तो पौध के रोगी भागों पर कवक की वृद्धि बैंगनी रंग लिए रुई के समान दिखाई देती है।
प्रबन्धन:
बीज एवं कन्द स्वस्थ पौधों से ही प्राप्त करना चाहिए। जंगली प्याज के पौधों का नष्ट कर देना चाहिए अन्यथा ये स्थायी स्त्रोत बन सकते हैं। जल निकास का उतम प्रबन्ध करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजिब या रिडोमिल एम जैड 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल कर) का छिडकाव करें।
दस से पन्द्रह दिन के अन्तर पर 3-4 छिडकाव की आवश्यकता होती है। चिपकने वाला पदार्थ अवश्य मिला लें।
Authors:
प्रवेश कुमार1, राकेश मेहरा1, पूनम कुमारी1 लोचन शर्मा2 एवं सरिता1
1पादप रोग विभाग और 2सूत्रकृमि विभाग
चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार
Email: