Disease management measures in Arhar (Pigeonpea) crop

अरहर खरीफ की मुख्य दलहनी फसल है | दलहनी फसलों में चना के बाद अरहर का स्थान है| अरहर अंतर फसल एवं बीच के फसल के रूप में उगाई जाती है, अरहर ज्वार, बाजरा, उर्द एवं कपास के साथ बोई जाती है |अन्य फलों की तरह अरहर में भी रोग का प्रकोप होता है जिनमें से कुछ रोगों के संक्षिप्त विवरण एवं प्रबंधन नीचे दर्शाया गया है |

अरहर की फसल में उकठा रोग (विल्ट) :-

यह रोग फ्यूजेरियम नामक कवक से होता है | इस रोग में पौधा पीला पड़कर सुख जाता है | फसल में फूल एवं फल लगने की अवस्था में एवं बारिश के बाद इस रोग का प्रकोप अधिक होता है | रोग ग्रसित पौधों की जडें सड़कर गहरे रंग की हो जाती हैं तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने तक काले रंग की धारियां पाई जाती हैं | एक ही खेत में कई वर्षों तक अरहर की फसल लेने पर इस रोग की उग्रता बढती है |

 

Disease management in Arhar or pegionpea

प्रबंधन –

  • जिस खेत में रोग का प्रकोप अधिक हो वहां 3-4 साल तक अरहर की फसल न लें |
  • खेतों की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें |
  • ज्वार के साथ अरहर की फसल लेने से रोग की तीव्रता में कमी की जा सकती है|
  • कवक नाशी जैसे बेनोमील 50% + थायरम 50% के मिश्रण का तीन ग्राम प्रति किलो बीज की डर से उपचारित करें |
  • ट्राइकोडर्मा  4 ग्राम/किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोएं |
  • रोग रोधी किस्में आशा, राजीव लोचन, सी -11 आदि का उपयोग बुआई हेतु करें |

 

अरहर का बाँझ रोग –

यह रोग विषाणु जनित है जिसका वाहक एरियोफिड माईट है जो की एक प्रकार का सूक्ष्म जीव है| इस रोग की अधिकता के कारण 75% तक उत्पादन में कमी देखी गयी है | रोग से ग्रसित पौधे पीलापन लिए हुए झाड़ीनुमा हो जाते हैं | पत्तियों के आकार में कमी, शाखाओं की संख्या में वृद्धि तथा पौधों में आंशिक या पूर्ण रूप से फूलों का नहीं आना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं| फूल नहीं आने से फल नहीं लगते इसलिए इस रोग को बाँझ रोग कहते हैं | फसल पकने की अवस्था में रोगी पौधे लम्बे समय तक हरे दिखाई देते हैं जबकि स्वस्थ पौधे परिपक्व होकर सूखने लगते हैं |  


अरहर का बाँझ रोग –

प्रबंधन –

  • जिस खेत में अरहर लगाना हो उसके आसपास अरहर के पुराने एवं स्वयं उगे हुए पौधे नष्ट कर देना चाहिए|
  • खेत में जैसे ही रोगी पौधे दिखे उनको उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए|
  • फसल चक्र अपनाना चाहिए|
  • रोग रोधी प्रजातियाँ जैसे:- पूसा-9, आई.सी.पी.एल.-87119, राजीव लोचन, एम.ए.-3, 6, शरद आदि का चयन करना चाहिए|
  • फय़ूराडान 3 जी., की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की डर से उपचारित करना चाहिए एवं फसल की प्रारंभिक अवस्था में कैल्थेन (1 मिली./ली. पानी) का छिडकाव रोगवाहक माईट के रोकथाम में प्रभावी होता है |

अरहर की फसल में तना अंगमारी रोग (स्टेम ब्लाइट):

यह रोह कवक के द्वारा होता है | इसका प्रकोप 7 दिन से लेकर एक माह के पौधों में दिखाई देता है | शीघ्र पकने वाली किस्मों में इस रोग का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक होता है | प्रभावित पौधों की पत्तियों पर पनीले धब्बे बन जाते हैं एवं एक सप्ताह के भीतर पूरी पत्तियां जलकर नष्ट हो जाते हैं | साथ ही तने एवं शाखाओं पर धब्बे गोलाई में बढ़कर उतने भाग को सुखा देते हैं, जिससे तना एवं शाखाएं टूट जाती हैं | इस रोग का प्रकोप कम उम्र के पौधों में अपेक्षाकृत अधिक होता है| अनुचित जल निकास वाले क्षेत्रों में भी इस बीमारी का प्रभाव अधिक होता है |

  तना अंगमारी रोग (स्टेम ब्लाइट):प्रबंधन:-

  • बीजों को बुवाई से पूर्व रिडोमिल नामक कवकनाशी की 2 ग्रा. मात्रा प्रति किग्रा.बीज की से उपचारित करें |
  • खेतों में जल निकास की उचित व्यवस्था करें |
  • जहाँ इस रोग का प्रकोप अधिक होता है वहां 3-4 वर्ष तक अरहर की फसल नहीं लेनी चाहिए |
  • रोग की प्रारभिक अवस्था में ताम्रयुक्त कवकनाशी जैसे फायटोलान 50% की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से या रिडोमिल एम.जेड. 1.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से 10-12 दिन के अन्तराल में छिडकाव करना चाहिए |
  • रोगरोधी किस्में जैसे :- पूसा-9, एन.ए.-1, एम.ए.-6, बहार, शरद, अमर आदि का चुनाव करना चाहिए |

 


Authors:

Mahendra Patel and Chanchala Rani Patel

Department of Agriculture, Raigarh- 496001, Chhattisgarh

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