Major Cyst Nematode crop diseases and their management
हमारे देश में वर्ष भर में विभिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती है। इन फसलों के कई प्रकार के शत्रू है, जिसमें प्रमुख रूप से सूत्रकृमि भी है जो पौधों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप से हानि पहुंचाते है।
यह सभी तरह की मृदा में पाये जाते हैं। सूत्रकृमि सुक्ष्म जीव होते हैं जो नग्न आखों से नहीं दिखते हैं और आसानी से पहचाने भी नहीं जा सकते हैं। मृदा में कई प्रकार के सूत्रकृमि पाये जाते हैं, जिसमें से पुट्टीकारी (Cyst) सूत्रकृमि प्रमुख हैं। यह पुट्टीकारी सूत्रकृमि कई प्रकार के होते हैं जिसमें से मुख्यतया निम्नलिखित है:-
1. गेंहूँ एवं जौ पुट्टी सूत्रकृमि (हेटेरोडेरा एवेनी Heterodera avenae):-
यह सूत्रकृमि गेंहूँ एवं जौ में “मोल्या” नामक रोग उत्पन्न करता है। इसे भारत में सर्वप्रथम वासुदेवा ने 1958 में नीम का थाना (सीकर) राजस्थान में देखा। इस सूत्रकृमि की विकसित मादा नींबू के आकार की होती है जो पौधे की जड़ों पर मोतीनुमा चिपकी हुई दिखाई देती है।
यह पौधे की जड़ों पर चिपक कर पोषक तत्व प्राप्त करती है तथा पौधे की जड़ों को क्षति पहुँचाती है। मृत्यू के पश्चात यह मादा भूरी या काली रंग की दिखाई देती है तथा यह अंडों को मोटे आवरण द्वारा अपने अंदर ही घेर लेती है और अंडों को क्षतिग्रस्त होने से बचाती है।
इसकी एक मादा लगभग 300-400 अण्डे देती है तथा यह वर्ष में अपना एक जीवन चक्र ही पूर्ण करती है। यह नवम्बर से अप्रैल के मध्य गेंहूँ एवं जौ के खेत में सक्रिय होते हैं। इसके लिए उपयुक्त तापमान 16-18 0C होता है।
गेंहूँ-जौ पुट्टी सूत्रकृमि विश्व में कई देशों जैसे - भारत, इजरायल पाकिस्तान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया एवं रुस में पाया जाता है। भारत में यह राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तरप्रदेश एवं जम्मु-कश्मीर में पाया जाता है तथा राजस्थान में मुख्यतयाः यह सीकर, झुंझनु, जयपुर, अलवर, पाली, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़,उदयपुर, डुंगरपुर, अजमेर, राजसमंद, हनुमानगढ़ एवं गंगानगर जिलों में पाया जाता है।
2. मक्का पुत्ती सूत्रकृमि (हेटेरोडेरा जी):-
मक्का एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है एवं यह मक्का में क्षति पहुँचाने वाला प्रमुख सूत्रकृमि है इसलिए यह मक्का उगाने वाले क्षैत्र में बहुत महत्व रखता है। इस सूत्रकृमि की सर्वप्रथम खोज कोशी, स्वरुप एवं सेठी ने 1971 में की थी।
इसकी खोज विश्व में सर्वप्रथम राजस्थान राज्य के राजसमंद जिले के छापली गाँव में की गई। मक्का पुट्टी सूत्रकृमि द्विलिंगी होता है, जिसमें नर एवं मादा अलग-अलग होते हैं। नर धागेनुमा तथा मादा नींबू के आकार की पीले रंग की होती है।
यह सूत्रकृमि तापमान से बहुत प्रभावित होता है, इसके लिए उपयुक्त तापमान 25-300C होता है। सामान्यतः यह सूत्रकृमि अपना सम्पूर्ण जीवनचक्र 15-17 दिनों में पूर्ण कर लेता है एवं मक्का की एक फसल में 5-6 वंशावलियों को पूरा करता है। एक मादा में लगभग 100-150 अण्डे होते हैं।
मक्का पुट्टी सूत्रकृमि सभी मक्का उगाने वाले क्षेत्रों में प्रचुरता में पाया जाता है। सामान्यतया यह भारत, अमेरिका एवं पाकिस्तान में पाया जाता है। भारत में यह बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा पंजाब, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, बिहार व उत्तरप्रदेश में पाया जाता है तथा यह राजस्थान में उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, बाँसवाड़ा, डुंगरपुर, भीलवाड़ा, अजमेर, झालावाड़, पाली, सिरोही आदि जिलों में पाया जाता है।
3. अरहर पुट्टी सूत्रकृमि (हेटेरोडेरा केजेनी):-
यह सूत्रकृमि दलहनी व तिलहनी फसलों में प्रमुखता से पाया जाता है। इसकी विकसित मादा नींबू के आकार की श्वेत रंग की जड़ों से बाहर निकली हुई दिखाई देती है तथा यह मृत्यू के प्श्चात् एक भूरी पुट्टी में बदल जाती है जिसमें लगभग 200-300 अण्डे होते हैं। इसकी मादा कुछ अण्डे शरीर के अंदर व कुछ अण्डे शरीर के बाहर श्लेष्मा झिल्ली में देती है। यह अपना जीवन चक्र 20-30 दिनों में पूर्ण कर लेते हैं तथा एक ऋतु में कई पीढ़ियाँ पूरी कर लेते हैं।
अरहर पुट्टी सूत्रकृमि मुख्यतः दलहन व तिलहन उत्पादन वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। विश्व में यह भारत, पाकिस्तान एवं इजिप्ट में पाया जाता है। भारत में यह मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, पंजाब व हरियाणा में पाया जाता है तथा राजस्थान में यह चित्तौड़गढ़, उदयपुर, झालावाड़, कोटा, पाली, सिरोही, भीलवाड़ा, अजमेर, राजसमंद आदि जिलों में पाया जाता है।
4. आलू पुट्टी सूत्रकृमि (ग्लोबोडेरा स्पि.):-
यह सोलेनेसी कुल का मुख्य परजीवी है। भारत में इसको सर्वप्रथम जोन्स ने 1961 में नीलगिरी की पहाड़ियाँ (तमिलनाडू) से खोजा था। इसकी पुट्टी सुनहरी पीले रंग की होती है जिसमें लगभग 200-350 अण्डे पाये जाते हैं। यह मुख्यता ठण्डी जलवायु में पाया जाता है। यह अपना जीवन चक्र 5-7 सप्ताह में पूर्ण कर लेता हैं। यह आलू की फसल की गुणवता व मात्रा दोनों को हानि पहुँचाता है।
आलू पुट्टी सूत्रकृमि शीतोष्ण जलवायु में बहुतायत में पाया जाने वाला सूत्रकृमि है। यह विश्व में यूरोप, दक्षिणी अमेरिका, उत्तरी अमेरिका, भारत, रुस व दक्षिणी अफ्रीका में पाया जाता है। भारत में नीलगिरी की पहाड़ियाँ (तमिलनाडु) व हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है।
पुट्टी सूत्रकृमियों द्वारा फसलों में क्षति:-
विभिन्न पुट्टी सूत्रकृमियों द्वारा भिन्न-भिन्न फसलों में विभिन्न स्तरों तक क्षति पहुँचायी जाती है जो निम्नलिखित है:-
गेंहूँ एवं जौ पुट्टी सूत्रकृमि द्वारा:- दोमट मृदा में इसके द्वारा 8.2 - 28.8 प्रतिशत क्षति पहुँचायी जाती है। यह क्षति हल्की मृदाओं में 45-48 प्रतिशत तक पहुँच जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार इस सूत्रकृमि से गेहूँ में 40 मिलीयन तथा जौ में 30 मिलीयन रु. का नुकसान होता है।
मक्का पुट्टी सूत्रकृमि द्वारा:- इस सूत्रकृमि द्वारा 10.2 प्रतिशत हानि होती है। इसी आधार पर केवल राजस्थान में ये सूत्रकृमि वर्तमान में लगभग 2 क्विंटल/हैक्टर की पैदावार में कमी करते हुए करीब 250 करोड़ रुपये का नुकसान करते हैं।
अरहर पुट्टी सूत्रकृमि द्वारा:- यह सूत्रकृमि अलग-अलग फसलों में अलग-अलग क्षति पहुँचाता है जैसे - मुंग में 38 प्रतिशत, चंवले में 20-28.6 प्रतिशत तथा अरहर में 23.7 प्रतिशत, क्षति पहुँचाता है। इस सूत्रकृमि द्वारा फ्यूजेरियम कवक के साथ मिलकर दलहनों में सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया जाता है।
आलू पुट्टी सूत्रकृमि:- यह सूत्रकृमि आलू में मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों रुप से क्षति पहुँचाता है। इस सूत्रकृमि द्वारा 53-66 प्रतिशत क्षति पहुँचायी जाती है।
पुट्टीकारी सूत्रकृमियों के मुख्य परपोषी:-
गेहूँ एवं जौ पुट्टी सूत्रकृमि:- यह सूत्रकृमि विशिष्ट परपोषी सूत्रकृमि होता है अतः यह गेहूँ, जौ एवं जई को ही मुख्य रूप सें नुकसान पहुँचाता है।
मक्का पुट्टी सूत्रकृमि:- यह मक्का को मुख्य रूप सें प्रभावित करता है। लेकिन गेहूँ, जौ व अन्य खाद्यान्न की फसलों व खरपतवारों को भी प्रभावित करता है।
अरहर पूट्टी सूत्रकृमि:- यह सूत्रकृमि दलहन व तिलहन फसलों पर आक्रमण करता है। जैसे - अरहर, मूंग, उड़द, मोठ, चँवला, तिल, सोयाबीन, सनई एवं ग्वार आदि।
आलू पुट्टी सूत्रकृमि:- इस सूत्रकृमि का मुख्य परपोषी आलू है परंतु यह दूसरे सोलेनेसी कुल के पौधों पर भी पाया जाता है। जैसे:- टमाटर, बैंगन एवं सोलेनेसी कुल के कुछ खरपतवार (मकोय) आदि।
फसलों में पुट्टीकारी सूत्रकृमियों के प्रकोप केे लक्षण:-
- पेंची वृद्धि - खेत में फसल एक समान ऊँचाई की नहीं रहकर कहीं पर बड़ी एवं कहीं पर छोटी रह जाती है।
- एक से दो माह पूरानी फसल में हरिमाहीनता हो जाती है। जिससें पौधों में भोजन बनाने कि प्रक्रिया बुरी तरह से प्रभावित हो जाती हैं।
- पौधों में पाश्र्वशाखाएं नहीं निकलती हैं तथा स्फुटन नहीं होता है एवं कल्ले नहीं निकलते हैं।
- पुष्प परिपक्वता से पूर्व गिर जाते हैं एवं पौधें जल्दी से अपना जीवन चक्र समाप्त कर देतें है।
- फसलों के उत्पादन में भारी कमी हो जाती हैं।
- पौधे छोटे रह जाते हैं।
- पौधे दिन के समय ज्यादा मुरझा जाते हैं व कभी- कभी सुखकर मर जाते हैं।
- जड़ें फूल जाती हैं तथा गुच्छेनुमा हो जाती हैं।
- जड़ों पर मोतीनुमा सफेद मादाऐं दिखाई देती है। जो इन सूत्रकृमियों की उपस्थिति का शत प्रतिशत परिचायक हैं।
- पौधा आसानी से उखड़ जाता है।
सूत्रकृमि जनित रोग का प्रबन्धन:-
1. फसल चक्र:-
जो सूत्रकृमि विशिष्ट फसल चाहने वाले होते हैं। इनके प्रबंधन के लिए फसल चक्र सर्वोत्तम विधि है। परंतु बहु फसल चाहने वाले सूत्रकृमि के प्रबन्धन में यह कारगर नहीं है। इस विधि में कई फसलों को हेर-फेर कर एक ही स्थान पर बोते रहते हैं, जिससे सूत्रकृमि को अपना मनचाहा परपोषी नहीं मिल पाता है और उनकी संख्या कम हो जाती है।
उचित फसल चक्र को कम से कम 2-3 वर्षों तक प्रयोग करना चाहिए। जैसे:- मक्का - ग्वार - सोयाबीन - तिल, गेहूँ - सरसों - चना - लहसुन एवं अरहर - मक्का - मुंगफली - ज्वार
2. ग्रीष्मकालीन जुताई:
ग्रीष्म ऋतु (मई - जून) के महिने में 10-15 दिन के अंतराल पर, 15-20 सेमी. गहरी जुताई 2-3 बार करने पर सूत्रकृमियों की संख्या में कमी आती है। ग्रीष्म जुताई के कारण मृदा में उपस्थित नमी खत्म हो जाती है और नमी की कमी के कारण सूत्रकृमियों के शरीर की नमी भी कम हो जाती है और सूत्रकृमि मर जाते हैं।
3. रोग रोधक किस्मों का प्रयोग:-
रोग रोधी किस्मों का खेत में लगाना एक ऐसा तरीका है जिससे बिना किसी लागत के रोगोपचार व अधिक पैदावार ली जा सकती है। जैसे:- गेहूँ ( राज एम.आर. - 1, ए.यु.एस.- 15854), जौ (राजकिरण, सी.-164द्ध, मक्का (प्रताप मक्का-9, एच.क्यू.पी.एम. .1, प्रताप मक्का चरी-6, अगेती - 76), चंवला ( सलेक्शन-ए, सलेक्शन-4-1, एन.पी.-2), आलू (कुफरी स्वर्णा) आदि।
4. फसल अवशेषों को नष्ट करना:-
फसल की कटाई के बाद पौधे की जड़ों को उखाड़कर पूर्णतः नष्ट कर देना चाहिए क्योंकि फसल अवशेषों में सूत्रकृमि रह जाते हैं और अगली फसल को हानि पहुँचाते हैं।
5. अंतरवर्ती फसलें उगाना:-
पुट्टी सूत्रकृमि के प्रबन्धन हेतु मुख्य फसलों के साथ सरसों, प्याज, ग्वार, सोयाबीन, तिल, लहसुन, गंदा आदि को 2:2 पक्ंतयों में उगाकर प्रबंधन कर सकते हैं।
6. कार्बनिक पदार्थों का प्रयोग:-
कई प्रकार के कार्बनिक पदार्थों का प्रयोग करके सूत्रकृमियों की संख्या पर निमंत्रण किया जा सकता हैं यह निम्नलिखित है:-
- गोबर या कम्पोस्ट 10-15 टन/हैक्टर, नीम/करंज/महुआ/सरसों आदि की खली 2 क्विंटल/हैक्टर
- इन सभी पदार्थों की निश्चित मात्रा को बुवाई से 15 दिन पूर्व खेत में मिलाकर प्रयोग में लेना ज्यादा प्रभावशाली देखा गया है।
7. जैवकारकों का प्रयोग:-
सूत्रकृमियों से ग्रसित मृदा में प्रबन्धन हेतु जैवकारकों का प्रयोग बहुत ही फायदेमंद एवं प्रचलित विधि है। इसमें कई जैवकारकों जैसे कवकजनित (पेसिलोमाइसिस लिलासिनस, ट्राइकोडर्मा विरिडी/हरजियानम, पोकोनिया क्लेमायडोस्पोरियम), जीवाणु जनित (स्यूडोमोनास फ्लोरसेन्स, पाश्चुरिया पेनेट्रान्स) का प्रयोग बीजोपचार (10-20 ग्राम/किलोग्राम बीज) के रूप में प्रयोग करना बहुत ही अच्छा पाया गया हैं।
8. रासायनिक उपचार:-
सूत्रकृमियों के प्रारम्भिक संक्रामकता को रोकने के लिए कार्बोसल्फान 25 DS से 3 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित करते हैं। रोग की अधिकता होने पर कार्बोफ्यूरान 3 जी एवं फोरेट 10 जी की 2 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व मात्रा प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग में लेनी चाहिए।
Authors:
डाँ. बी.एल. बाहेती एवं शक्ति सिंह भाटी*
सूत्रकृमि विज्ञान विभाग, राजस्थान कृषि महाविद्यालय, उदयपुर (राज.)
*सम्पर्क सूत्रः