7 Major diseases of cotton crop and their symptoms
कपास फसल का व्यावसायिक फसलाेे, प्राकृतिक रेेसे वाली फसलाेे और तिलहन फसलाेे में महत्वपूर्ण स्थान है। प्राकृतिक फाइबर का कम से कम 90 प्रतिशत अकेले कपास की फसल से प्राप्त होता है। कपास फसल का देश की अर्थव्यवस्था मे बडा योगदान है। यह भारत में 123 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में उगाई जाती है जो कृषि योग्य भूमि का करीब 7.5 प्रतिशत और वैश्विक कपास क्षेत्र का 36.8 प्रतिशत है।
भारत में 130 कीट प्रजातियों पाई जाती हैं, उनमे से आधा दर्जन से अधिक विकसित कपास, संकर और अन्य किस्मों की पूरी क्षमता से पैदावार प्राप्त करने में समस्या पैदा करती हैं । रोगों का पृभावी नियंत्रण उनकि सही पहचान पर निर्भर करता है।
कपास की फसल के प्रमुख रोग एवं उनके रोग कारक एवं रोग के लक्षण इस प्रकार है ।
1 जड़ गलन रोग
यह रोग देशी एवं अमेरिकन कपास दोनों में लगता है । अमेरिकन कपास और अमेरिकन कपास की बी.टी. संकर किस्मों में यह रोग कम -ज्यादा लगभग सभी किस्मों में लगता है ।
रोगकारक:
जड़गलन रोग बीज एंव मृदा जनित राइजोक्टोनिया नामक फफूंद से होता है ।
रोग के लक्षण:
रोग आमतौर पर पहली सिचाई के बाद पौधों की 35 से 45 दिनों की उम्र में दिखना शुरू हो जाता है। जड़गलन रोग खेत में गोलाकार पेच/ गोले में दिखाई देतें है । प्रभावित पौधे अचानक मुरझा कर धीरे-धीरे सूख जाते है। ऐसे पौधे हाथ से खींचने पर आसानी से उखड़ जाते है।
जड़गलन रोग के कारण पौधों की जड़ों की छाल गल सड़कर अलग हो जाती है इन जड़ों पर मिट्टी चिपकी रहती है। तथा ये जडे़ नमीयुक्त रहती है । ऐसी जड़ो का रंग पीला होता है तथा इस रोग से प्रभावित पौधों के सूखने पर भी पत्तियां तने पर लगी रहती हैं, गिरती नही हैं।
जड़गलन रोग के लक्षण
नुकसान
कपास के बीज उगने से पहले ही सङ जाते है। अगर उग भी जाते है तो जमीन के बाहर निकलने के बाद छोटी अवस्था में ही मर जाते है जिससे खेत में पौधों की संख्या घट जाती है व कपास के उत्पादन में कमी आ जाती है। आमतौर पर इस बीमारी से लगभग 23 फीसदी नुकसान हर साल होता है।
2. विगलन या पौध अंगमारी या उखटा रोग
विगलन या उखटा रोग मुख्य रूप से देशी कपास में ही लगता है जबकि जड़गलन रोग देशी एवं अमेरिकन कपास दोनो में लगता है ।
रोगकारक: विगलन या उखटा रोग बीज एंव मृदा जनित फ्युजेरियम स्पिसीज नामक फफूंद से होता है ।
रोग के लक्षण: यह रोग आमतौर पर पहली सिचाई के बाद पौधों की 35 से 45 दिनों की उम्र में दिखना शूरू हो जाता है। विगलन रोग खेत में गोलाकार पेच गोले में दिखाई देतें है । प्रभावित पौधे अचानक मुरझा कर धीरे-धीरे सूख जाते है। ऐसे पौधे हाथ से खींचने पर आसानी से उखड़ जाते है।
विगलन रोग के कारण रोगी पौधों की जड़ें अंदर से भूरी व काली हो जाती है । रोगी पौधों को चीर कर देखने पर उतक काले दिखाइ देते है। पौधों की पत्तियां मुरझाकर नीचे गीर जाती हैं। हवा और जमीन में ज्यादा नमी व गरमी होने के कारण एवं सिचाई से सही नमी का वातावरण मिलनें पर यह रोग बढता है।
विगलन या पौध अंगमारी या उखटा रोग के लक्षण
कपास में विगलन रोग
रोग चक्र
नुकसान
कपास के बीज उगने से पहले ही सङ जाते है। अगर उग भी जाते है तो जमीन के बाहर निकलने के बाद छोटी अवस्था में ही मर जाते है जिससे खेत में पौधों की संख्या घट जाती है व कपास के उत्पादन में कमी आ जाती है।
3 कपास का पत्ता मरोड़ रोग
उत्तरी भारत में विषाणु पत्ता मरोड़ रोग कपास का एक महत्वपूर्ण रोग है । अमेरिकन कपास और अमेरिकन कपास की बी.टी. संकर किस्मों के लिए अभिषाप है ।
रोगकारक एंव रोगाणु वाहक सफेद मक्खी
यह रोग जैमिनी नामक विषाणु से पैदा होता है । यह यह जैमिनी विषाणु मोनोपारटाइट सिंगल स्ट्रेंडेड सरकुलर डी.एन.ए. जीनोम तथा दो सैटेलाइट डी.एन.ए. बीटा से मिलकर बना होता है। यह रोग बीज या मृदा जनित नही हैं। यह विषाणु रोगी पौधों से स्वस्थ पौंधो तक सफेद मक्खी के व्यस्कों द्वारा फैलाया जाता है।
रोग के लक्षण
रोगी पौधों की नई पत्तियों की षिरायें फूलकर उभर जाती है तथा गहरे हरे रंग की हो जाती है प्रभावित पत्ती को सूर्य के प्रकाष में सीधी देखने पर पत्ती की बारीक शिराएं/नसे उभरी हुई तथा गहरे हरे रंग की दिखाई देती है ।
जैसे जैसे रोग का प्रकोप बढ़ता है, प्रभावित पत्तियों की निचली सतह पर इन शिराओं पर कप जैसे आकार की पत्तियां बन जाती हैं जिसे इनेषन कहते हैं। पत्तियों का रंग गहरा हरा होकर पत्तियां कठोर हो जाती है ।
प्रभावित पत्तियां ऊपर या नीचे की ओर मुड़ जाती है। तथा प्रभावित पौधे बौने रह जाते है जिन पर शाखाएं, फूल तथा टिण्डे कम बनते है फलस्वरूप पैदावार तथा गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
पत्ता मरोड़ रोग के लक्षण
रोग का प्रसार:
रोग चक्र -कपास का विषाणु पत्ता मरोड़ रोग
वैकल्पिक पौधे (अल्टरनेट होस्ट)
यह विषाणु कपास के अलावा अनेक जंगली पौंधो जैसे हिरणखुरी, आसकन्द, जंगली सूरजमुखी, बथूआ, खरबथूआ, साठा, गोखरू, भिण्डी, जंगली मिर्च, टमाटर आदि पर भी जीवित रहता है । विस्तृत जानकारी सारणी 2 में दी गई है।
सरणी 2. जैमिनी विषाणु को शरण देने वाले पौंधो के स्थानीय तथा वानस्पतिक नाम।
क्र.सं . |
स्थानीय नाम |
वानस्पतिक नाम |
क्र.सं. |
स्थानीय नाम |
वानस्पतिक नाम |
1 |
गाजर घास |
पारथेनियम हिस्टोफोरस |
10 |
गुथपटना |
जन्थियम स्ट्रामेरियम |
2 |
मकोय |
सोलेनम नाइग्रम |
11 |
तान्दला |
डाईजेरिया आरवेन्सिस |
3 |
पुथकंडा |
ऐकिरेन्थस एस्पेरा |
12 |
जंगली खीरा |
कुकुमिस स्पीसिज |
4 |
जंगली मिर्च |
क्रोटोन स्परसिक्लोरस |
13 |
गोखरू |
ट्राईबुलस टेरेस्टरिस |
5 |
हिरणखुरी |
कोनवोलवुलस आरवेन्सिस |
14 |
कंघी-बूंटी |
एबुटिलोनी इण्डिकम |
6 |
लेन्टाना |
लेण्टाना केमेरा |
15 |
जंगली जूट |
कोरकोरस स्पीसिज |
7 |
एजिरेंटम |
एजिरेंटम कोनोजोइडस |
16 |
पीली -बूंटी |
सीडा एल्बा |
8 |
बथुआ |
चिनोपोडियम एल्बम |
17 |
सनकूप्पी |
क्लेयरोडेन्डरोन स्पीसीज |
9 |
जंगली पालक |
स्पाईनेसिया स्पीसिज |
18 |
धनेरी घास |
लेन्टाना केमरा |
4 जीवाणु अंगमारी झुलसा या कोणीय धब्बा रोग
कपास में मुख्य रूप से जीवाणु अंगमारी झुलसा, आल्टरनेरिया झुलसा तथा मायरोथिसियम पत्ती धब्बा रोग लगते है जिनमें जीवाणु अंगमारी झुलसा उत्तर भारत की मुख्य बीमारी है। यह पौधों के सभी हिस्सों में लग सकता है। इस रोग को कई नामों से जाना जाता है।
रोगकारक: यह रोग बीज एंव मृदा जनित जेन्थोमोनास एक्जेनोपोडिस पैथोवार मालवेसियरम नामक जीवाणु से पैदा होता है।
रोग के लक्षण:
बीज पत्र परः शुरू-शरू में जीवाणु अंगमारी झुलसा रोग के लक्षण बीज-पत्रों (कॉटीलिडन) पर दिखते हैं। जीवाणु बीजो द्वारा बीज-पत्रों तक पहुंचते हैं तथा बीज-पत्रों के किनारे पर छोटे, गोलाकार या अनियमित आकार के जलसिक्त धब्बे बन जाते हैं। ये धब्बे बाद में भूरे या काले हो जाते है तथा बीज पत्र सिकुड़ जाते है । बीज-पत्रों से संक्रमण तने से होकर पूरे पौधे पर फैल जाता हैं।
पत्तियों परः जीवाणु अंगमारी झुलसा रोग के स्पष्ट लक्षण पत्तियों पर दिखते हैं। पत्तियों की निचली सतह पर असंख्य, छोटे-छोटे जलसिक्त धब्बे बनते है। लेकिन कुछ समय बाद ये धब्बे पत्तियों की दोनो सतहों पर दिखाई देने लगते है धीरे - धीरे ये धब्बे आकार में बढ़ने लगते है लेकिन छोटी शिराओं तक ही सीमित रहते है और कोणाकार बन जाते है अतः इस अवस्था को कोणिय धब्बा (एंगुलर लीफ स्पोट) रोग कहते है। ये धब्बे बाद में भूरे तथा काले हो जाते है ।
जीवाणु धीरे धीरे नई पत्तियों पर फैलने लगते है और पौधा किशोरावस्था में ही मुरझा कर मर जाता है। इस अवस्था को सीडलींग ब्लाइट कहते है। जब प्रभावित पत्तों की शिरायें आंषिक या पूर्ण रूप से झुलस जाती है और षिराओं के बढता रहता है ऐसी अवस्था को वेन ब्लाइट/ब्लेक ब्लाइट कहा जाता है । रोग की उग्र अवस्था में रोग ग्रसित पौंधो की पत्तियां सूखकर कर गिरने लग जाती हैं।
शाखाऔं एवं टीण्डों पर: जीवाणु अंगमारी झुलसा रोग की उग्र अवस्था में रोगकारक जीवाणु तनें और शाखाऔं पर आक्रमण करता है और उनका रंग काला हो जाता है। टीण्डों पर छोटे-छोटे जलसिक्त नुकिले एवं तिकोने धब्बे बन जाते है जोकि आपस में मिलकर बङे हो जातें है । टीण्डों से सङा हुआ पानी सा निकलता है और टीण्डें सङने लगते है।
जीवाणु अंगमारी झुलसा या कोणीय धब्बा रोग के पत्ति एंव टीण्डों पर लक्षण
नुकसान: पत्तियां गिर जरने से प्रकाष संष्लेषण क्रिया प्रभावित होती हैं जिससे पैदावार पर विपरित प्रभाव पड़ता हैं। टीण्डें सङने के कारण रेशे की किस्म पर भी असर पङता है।
रोग प्रसार
5 मायरोथिसिम पत्ती धब्बा या झुलसा रोग
रोगकारक: यह रोग बीज एंव मृदा जनित मायरोथिसिम रोरीडम नामक फफूंद से होता है ।
रोग के लक्षण:
मायरोथिसिम रोग मुख्यतया बीज जनित रोग हैं । इससे संक्रमित पौधों की पत्तियों की उपरी सतह पर गोल या अनियमित आकार के भूरे रंग के धब्बे बनते हैं । इन धब्बों का बाहरी हिस्सा गुलाबी रंग का होता है ।
कई धब्बे आपस में मिलकर बड़ा धब्बा बना लेते हैं । रोग की बाद की अवस्था में इन धब्बो का बीच वाला भाग गिर जाता है तथा इस बचे हुए छेद को ‘शूट होल कहते हैं। ऐसे धब्बे तना, टिण्डे तथा टिण्डे के इतंबजे पर बनते हैं।
मायरोथिसिम पत्ती धब्बा या झुलसा रोग के लक्षण
नुकसान
अधिक प्रकोप होने पर संक्रमित पौधों का तना टुट जाता हैं। टिण्डे पर धब्बे बनने से रेषा खुरदरा तथा बदरंगा हो जाता हैं।
रोग प्रसार
रोग चक्र: मायरोथिसिम झुलसा रोग
6 आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा या झुलसा रोग
रोग जनक: यह रोग बीज जनित आल्टरनेरिया मेक्रोस्पोरा नामक फफूंद से होता है ।
रोग के लक्षण
आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग बीज जनित रोग हैं । रोगी पौधों की पत्तियों की उपरी सतह पर भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं जो बाद में कालेभूरे तथा गोलाकार हो जाते है । इन धब्बों में बनने वाली गोलाकार वलय इसकी पहचान का मुख्य लक्षण हैं। रोग ग्रसित पौधों की पत्तियां गिर जाती हैं।
आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा या झुलसा रोग के लक्षण
नुकसान
पत्तियां गिरने से प्रकाष संष्लेषण की क्रिया प्रर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है फलस्वरूप पैदावार कम होती हैं।
रोग का प्रसार:
7 कपास का पैरा विल्ट या पैरा विगलन
यह रोग अमेरिकन कपास की बी.टी. संकर किस्मों में मुख्य रूप से लगता है । बी.टी. संकर किस्मों में यह रोग कम -ज्यादा लगभग सभी किस्मों में लगता है ।
लक्षण: पैरा विल्ट रोग फसल के पूरी तरह फलन की अवस्था में आने पर सबसे अधिक देखा गया है। इस रोग में पौधे अचानक मुरझा जाते है तथा पत्तियां झड़ने लगती है। पौंधो पर लगे टिण्डे समय से पहले खिल जाते है जिनमें रूई का वजन तथा गुणवत्ता सामान्य से कम रह जाती है।
पैरा विल्ट या पैरा विगलन के लक्षण
रोग कारक: पैरा विल्ट या पैरा विगलन के कारण सिंचाई करने के लगभग 12 -24 घण्टों में पौधे अचानक मुरझाने शुरू हो जाते है। यह रोग मुख्यतः पौंधो की जड़ो द्वारा पानी के अवषोषण (अपटेक) तथा पत्तियों द्वारा पानी के वाष्पोत्सर्जन में असंतुलन के कारण होता है। ऐसे पौधों की जड़े पूरी तरह से विकसीत नहीं होती। इसमें जल्दी बढ़ने वाली संकर किस्मों, तेज धूप एवं अधिक तापमान का भी योगदान रहता है।
Authors
डॉ. सतीश कुमार सैन एवं डॉ. दिलीप मोंगा
भा. कृ. अनु. प.-केन्द्रीय कपास अनुसंधान संस्थान क्षेत्रीय स्टेशन, - सिरसा
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