गेहूँ के मामा खरपतवार नियन्त्रण के प्रभावी उपाय

गेहूँ के मामा खरपतवार नियन्त्रण के प्रभावी उपाय

Effective control measures of Phalaris minor in wheat crop

भारत में गेंहूँ की रबी फसल का सबसे खतरनाक खरपतवार मंडूसी है जिसे गुल्ली डण्डा या गेहूँ के मामा भी कहा जाता है। यह धान-गेहूँ फसल चक्र का प्रमुख खरपतवार है इसका जन्म स्थान मेडीटेरियन क्षेत्र में माना जाता है।

यह आम धारणा कि गेहूँ के मामा का बीज भारत में हरित क्रांति के लिए मैक्सिको से आयातिक बौनी प्रजातियों के साथ ही साठ के दशक में आया। वास्तविक्ता में गेहूँ के मामा को चालीस के दशक में दिल्ली में आस-पास पशुचारे के रूप में उपयोग करने के सदर्भ भी मिलते है। इस खरपतवार का प्रसार नदियाँ, नहरों तथा सिंचाई जल के अन्य साधनों द्वारा तीव्रता से हुआ।

गेहूँ की उच्च पैदावार देने वाली बौनी किस्मों के साथ-साथ अधिक खाद व पानी के उपयोग के फलस्वरूप इस खरपतवार की वृद्धि हेतु अनुकूल वातावरण मिला। इस खरपतवार से 10 से 100 प्रतिशत तक का नुकसान पाया जाता है।

ऐसी स्थितियाँ भी सामने आयी है जब हरियाणा तथा पंजाब के कुछ भागों में किसानों को गेहूँ की हरी फसल में गेहूँ के पौधों से अधिक गेहूँ के मामा की संख्या थी, पशुओ के चारे के रूप में काटना पड़ा।

गेहूँ के मामा खरपतवार की पहचान:

गेहूँ के खेत में गेहूँ के मामा के पौधों की पहचान काफी मुश्किल होती है लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि गेहूँ के मामा के पौधे सामान्यतः गेहूँ के मुकाबले हल्के रंग के होते है। गेहूँ के मामा में कैग्यूद तथा गेहूँ में आरिकल्ज ज्यादा विकसित होते है।

इसके अतिरिक्त गेहूँ के मामा का तना जमीन के पास से लाल रंग का होता है। तना तोड़ने या काटने पर उसके पत्तो, तने और जड़ों से भी लाल रंग का रस निकलता है जबकि गेहूँ के पौधे से निकलने वाला रस रंगविहीन होता है।

नियंत्रण की विधियाँ:

गेहूँ के मामा के नियंत्रण विधियों को मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है । बचाव विधि, सस्य विधि , यांत्रिक विधि , खरपतवारनाशी का प्रयोग

(अ) बचाव विधि:

  • खरपतवार बीज रहित गेहूँ के बीज का प्रयोग करना चाहिए।
  • बीज बनने से पहले ही गेहूँ के मामा को उखाड कर फेक देना चाहिए या पशुचारे के रूप में प्रयोग करना चाहिये।
  • मेढो तथा पानी की नालियों को साफ रखना चाहिए।
  • पूर्ण रूप से सड़े हुए कार्बनिक खाद का प्रयोग करना चाहिए।

(ब) सस्य विधियाँ:

  • गेहूँ की बुआई 15 नवम्बर से पहले करें।
  • पंक्ति से पंक्ति की दूरी कम रखना चाहिए (18 सेमी0)।
  • गेहूँ के पौधों की संख्या बढाने के लिए क्रास बुआई करना चाहिए।
  • खाद को बीज में 2-3 सेटीमीटर नीचे बोना चाहिए।
  • खेत में तीन सालो में कम से कम एक बार बरसीम अथवा जई की फसल चारे के रूप में उगाना चाहिए।
  • जल्दी पानी लगाकर गेहूँ के मामा को उगने देना चाहिए तथा फिर खरपतवारनाशी या खेत को जोत कर इसे खत्म करने के बाद गेहूँ की बुआई करना चाहिए।
  • जीरो टिलेज में गेहूँ का मामा कम उगती है लेकिन लगातार कई सालों तक इसके प्रयोग से दूसरे खरपतवारो का प्रकोप बढ़ जाता है।

(स) यांत्रिक विधि:

गेहूँ के मामा का पौधा शुरू में बिल्कुल गेहूँ के पौधे जैसा होता है इसलिए इसे पहचान पाना आसान नही होता। अतः इसे निराई-गुड़ाई करके निकालना बहुत कठिन है। बुआई के 30 से 45 दिन बाद लाईनों में बोये गेहूँ में खुरपी द्वारा निराई की जा सकती है।

ज्यादातर गेहूँ की बुआई छिटकवा करतें है। इसीलिए यान्त्रिक विधि से गेहूँ के मामा का नियंत्रण करना सम्भव नही है। खरपतवारनाशी से ही पूर्णतया गेहूँ के मामा का नियंत्रण हो सकता है।

(द) खरपतवारनाशी का प्रयोग:

आइसोप्रोट्यूरान नामक खरपतवारनाशी को सत्तर के दशक के अन्त में गेहूँ के मामा के नियंत्रण के लिए प्रमाणित किया गया। जो लगभग एक दशक तक बहुत प्रभावशाली भी रहा। लेकिन पूरी तरह से इसी खरपतवारनाशी पर हमारी निर्भरता का परिणाम यह हुआ कि इस खरपतवारनाशी का गेहूँ के मामा पर असर न होने की खबरे उत्तर-पश्चिम भारत में नब्बे के दशक के आरम्भ में मिलनी शुरू हुई।

शुरू में निराशाजनक नियंत्रण के कारण मुख्यतः घटिया दवाई, ठीक से स्प्रे न करना आदि समझा गया। लेकिन निरन्तर निराशाजनक परिणाम के फलस्वरूप यह शक होने लगा कि कहीं मंडूसी या गेहूँ का मामा इस दवाई के प्रति प्रतिरोधी क्षमता तो उत्पन्न नही हो गई है। अब यह सर्वमान्य है कि मंडूसी में इस दवाई के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गयी है।

आइसोप्रोट्यूरान के असरदार न रहने से पिछले सालो में गेहूँ उत्पादन में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। गेहूँ का मामा का नियंत्रण आज गेहूँ की उत्पादकता वृद्धि के रास्ते में एक प्रश्न चिन्ह बनकर रह गया है। आइसोप्रोट्यूरॉन प्रतिरोधी क्षमता वाली गेहूँ का मामा के नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी का प्रयोग निम्नलिखित तरीके से उपयोग में करना चाहिए।

(अ) गेहूँ उगने के पहले:

गेहूँ उगने से पहले प्रयोग करने वाला खरपतवारनाशी सिर्फ स्टाम्प 30 ई0सी0 (पैडीमैथालिन) है, जिसे 3.3 लीटर (1.0 लीटर एo आईo प्रति हेक्टेयर) प्रति हेक्टेयर की दर से 400-500 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 0 से 3 दिन के बीच स्प्रे करना चाहिए।

(ब) गेहूँ उगने के बाद:

पिछले 3-4 वर्षों में कई खरपतवारनाशी ऐसे पाए गए है जो गेहूँ का मामा का उन प्रजातियों पर भी असरदार है जिन पर आइसोप्रोट्यूरॉन का कोई असर नहीं होता। निम्नलिखित खरपतवारनाशियों को गेहूँ बुआई के 30 से 35 दिन बाद या गेहूँ के मामा जब 2 से 3 पत्तीदार हो तब प्रयोग में लाना चाहिए।

1. टोपिक 15 डब्ल्यू0 पी0 (क्लोडीनाफोप) का 400 ग्राम प्रति है0 (60 ग्राम एoआईo प्रति हैo) की दर से 350-400 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
2. प्यूमासुपर 10 ई0सी0 (फिनोक्साप्रोप इथाइल) के 800-1200 मिलीo प्रति हैo (80-120 ग्राम एoआईo प्रति हैo) की दर से 350-400 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
3. एक्सिल 5 ईoसीo (पिनाक्साडेन) 800-1000 मि0ली0 प्रति है0 (40-50 ग्राम एoआईo प्रति हैo) की दर से 350-400 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
4. लीडर 75 डब्ल्यूoपीo (सल्फोसल्फ्यूरान) 33 ग्राम प्रति हैo (25 ग्राम एoआईo प्रति हैo) की दर से 350-400 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
5. सींकार 70 डब्ल्यूoपीo (मेट्रव्यूजीन) 250-300 ग्राम प्रति हैo (175-210 ग्राम एoआईo प्रति हैo) की दर से 350-400 लीटर पानी में घोलकर बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

शाकनाशी प्रयोग करते समय सावधानियाँ

1. शाकनाशी की अनुमोदित मात्रा, विधि एवं समय का ध्यान रखना चाहिए।
2. छिड़काव हेतु चपटी नोजल (फ्लैट फैन नोजल) का ही प्रयोग करना चाहिए।
3. शाकनाशी का घोल तैयार करने हेतु साफ पानी की उचित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
4. प्रयोग के समय मृदा में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
5. छिड़काव से पहले स्पेयर का अंशाकन (कैलीवेरेशन) अच्छी तरह से करना चाहिए।
6. स्प्रेयर को दवा छिडकने से पहले एवं बाद में अच्छी तरह धो लेना चाहिए।
7. छिड़काव के समय दस्ताने, लम्बे जूते/बूट तथा रासायनिक सुरक्षा पोशाक का इस्तेमाल करना चाहिए।


Authors:
प्रमोद कुमार1, कैरोविन लाकरा1 एवं अविनाश पटेल2
1शोध छात्र, सस्य विज्ञान विभाग, चंद्र शेखर आज़ाद कृषि एवं प्रौद्योगिक वि० वि०, कानपुर- 208002
2शोध छात्र, सस्य विज्ञान विभाग, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
Corresponding author mail id: pramodcsauat@gamil.com

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