भिण्डी के रोग तथा कीट का एकीकृत प्रबंधन

भिण्डी के रोग तथा कीट का एकीकृत प्रबंधन

Integrated pests and disease management in Okra crop

भिंडी के रोगों मे पीत शीरा मोजैक वाइरस (यलो वेन) एवं चूर्णिल आसिता तथा कीटों में मोयला, हरा तेला सफेद मक्खी, प्ररोहे एवं फल छेदक कीट, रेड स्पाइडर माइट मुख्य है।

भि‍ण्‍डी के कीट

1. भिण्डी का प्ररोह एवं फल छेदक : 

लक्षण:

इस कीट का प्रकोप वर्षा ऋतु में अधिक होता है। प्रारंभिक अवस्था में इल्ली कोमल तने में छेद करती है जिससे पौधे का तना एवं शीर्ष भाग सूख जाता है। फूलों पर इसके आक्रमण से फूल लगने के पूर्व गिर जाते है।इसके बाद फल में छेद बनाकर अंदर घुसकर गूदा को खाती है। जिससे ग्रसित फल मुड़ जाते हैं और भिण्डी खाने योग्य नहीं रहती है।

प्रबंधन

  • क्षतिग्रस्त पौधो के तनो तथा फलो को एकत्रित करके नष्ट कर देना चाहिए।
  • मकड़ी एवं परभक्षी कीटों के विकास या गुणन के लिये मुख्य फसल के बीच-बीच में और चारों तरफ बेबीकॉर्न लगायें जो बर्ड पर्च का भी कार्य करती है।
  • फल छेदक की निगरानी के लिये 5 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर लगायें।
  • फल छदे क के नियत्रंण के लिये टा्रइकोगा्रमा काइलाेिनस एक लाख प्रति हक्ेटयेर की दर से 2-3 बार उपयोग करें तथा साइपरमेथ्रिन (4 मि.ली./10 ली.) या इमामेक्टिन बेन्जोएट (2 ग्रा./10 ली0) या स्पाइनोसैड (3 मि.ली./10 ली.) का छिड़काव करें।
  • क्युनालफॉस 25 प्रतिशत ई.सी. क्लोरपायरिफॉस 20 प्रतिशत ई.सी. अथवा प्रोफेनफॉस 50 प्रतिशत ई.सी. की 5 मिलीमात्रा प्रति लीटर पानी के मान से छिडकाव करें तथा आवश्यकतानुसार छिडकाव को दोहराएं।

2. भिण्डी का फुदका या तेला

लक्षण:

इस कीट का प्रकोप पौधो के प्रारम्भिक वृध्दि अवस्था के समय होता है। शिशु एवं वयस्क पौधे की पत्तिायों की निचली सतह से रस चूसते हैं, जिसके कारण पत्तिायां पीली पड़ जाती हैं और अधिक प्रकोप होने पर मुरझाकर सूख जाती हैं।

प्रबंधन

  • नीम की खली 250 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयेर की दर से अंकुरण के तुरंत मिटटी मे मिला देना चाहिए तथा बुआई 30 दिन बाद फिर मिला देना चाहिए
  • बुआई के समय कार्बोफयुराँन 3जी 1 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयेर की दर से मिटटी मे मिलाने इस कीट का काफी हद तक नियंत्रण होता है।

3. भि‍ंडी की सफेद मक्खी :

लक्षण:

ये सूक्ष्म आकार के कीट होते है तथा इसके शिशु एवं प्रौढ पत्तिायों कोमल तने एवं फल से रस को चूसकर नुकसान पहुंचाते है। जिससे पौधो की वृध्दि कम होती हौ जिससे उपज में कमी आ जाती है। तथा ये येलो वेन मोजैक वायरस बीमारी फैलाती है।

प्रबंधन

  • नीम की खली 250 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयेर बीज के अंकुरण के समय एवं बुआई के 30 दिन के बाद नीम बीज के पावडर 4 प्रतिशत या 1 प्रतिशत नीम तेल का छिडकाव करे।
  • आरम्भिक अवस्था में रस चूसने वाले किटो से बचाव के लिये बीजों को इमीड़ाक्लोप्रिड या थायामिथोक्सम द्वारा 4 ग्रा. प्रति किलो ग्राम की दर से उपचारित करें।
  • कीट का प्रकोप अधिक लगने पर आक्सी मिथाइल डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा डायमिथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. की 5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी मे ंअथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस.एल अथवा एसिटामिप्रिड 20 प्रतिशत एस. पी. की 5 मिली./ग्राम मात्रा प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करें एवं आवश्यकतानुसार छिडकाव को दोहराएं।

4. भि‍ंडी की रेड स्पाइडर माइट

लक्षण:

यह माइट पौधो की पत्तिायों की निचली सतह पर भारी संख्या में कॉलोनी बनाकर रहता हैं। यह अपने मुखांग से पत्तिायों की कोशिकाओं में छिद्र करता हैं । इसके फलस्वरुप जो द्रव निकलता है उसे माइट चूसता हैं। क्षतिग्रस्त पत्तिायां पीली पडकर टेढ़ी मेढ़ी हो जाती हैं। अधिक प्रकोप होने पर संपूर्ण पौधा सूख कर नष्ट हो जाता हैं।

प्रबंधन

  • इसकी रोकथाम हेतु डाइकोफॉल 5 ईसी. की 2.0 मिली मात्रा प्रति लीटर अथवा घुलनशील गंधक 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करें एवं आवश्यकतानुसार छिडकाव को दोहराएं ।

5. भि‍ंडी काा जड ग्रन्थि सुत्रकुमि

लक्षण:

जड ग्रन्थि सुत्रकुमि पौधो की जडो मे घाव बना देते है। जिसके कारण पौधे मिटटी से जल एवं पोषक तत्वो का अवशोषण नही कर पाते परिणाम स्वरूप पौधे पीले पड जाते है एवं पोषक तत्वो की कमी के फलस्वरूप पौधो की वृघ्दि की रूक जाती है तथा फल का आकार छोटा हो जाता है।

प्रबंधन

  • फसल चक्र मे अनाज वाली फसलो को लगाना चाहिए।
  • ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई 2 से 3 बार करनी चाहिए।
  • जैव किटनाशक स्युडोमोनास फलोरीसेन्स 10 ग्रा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।
  • पौधो के प्रारंभिक वृध्दि अवस्था के समय सिचाई से पहले नीमागाँन 30 लीटर प्रति हेक्टयेर छिडकाव करना चाहिए।

भि‍ंडी के रोग

6. पीत शिरा रोग (यलो वेन मोजैक वाइरस)

लक्षण:

यह भिण्डी की सबसे महत्वपूर्ण एवं अधिक हानि पहुचानें वाली विषाणु जनित बीमारी है जो सफेद मक्खी दवारा फैलती है संक्रमण जल्दी होने पर 20-30 प्रतिशत तक उपज मे हानि होती है। तथा इस रोग के लक्षण पौधो के सभी वृध्दि अवस्था मे दिखाई देती है। पत्तिायों की शिराएं पीली पडने लगती है। एवं पत्तिायों मे एक जाल जैसी सरंचना बन जाती इसके बाद प्रकोप बढने पर पौधो सभी पत्तिाया एवं फल भी पीले रंग के हो जाते है और पौधे की बढवार रुक जाती है।

प्रबंधन

  • जुन के अन्तिम सप्ताह या फिर जुलाई के पहले सप्ताह मे ही बीज की बुआई कर देनी चाहिए।
  • पीत शिरा रोग प्रतिरोधी किस्म लगाने चाहिए जैसे अर्का अनामिका, वर्षा उपहार, अर्का अभय, पूसा ए-4, प्रभनी क्रांति,
  • आक्सी मिथाइल डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी अथवा डायमिथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. की 5 मिली प्रति लीटर पानी में अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस.एल. अथवा एसिटामिप्रिड 20 प्रतिशत एस. पी. की 5 मिली./ग्राम मात्रा प्रति 15 लीटर पानी

7. चुर्णिल आसिता

लक्षण:

इस रोग में भिंडी की पुरानी निचली पत्तिायों पर सफेद चूर्ण युक्त हल्के पीले धब्बे पडने लगते है। ये सफेद चूर्ण वाले धब्बे काफी तेजी से फैलते है।

प्रबंधन

  • इस रोग का नियंत्रण न करने पर पैदावार 30 प्रतिशत तक कम हो सकती है। इस रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 5 ग्राम मात्रा अथवा हैक्साकोनोजोल 5 प्रतिशत ई.सी. की 1.5 मिली. मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 2 या 3 बार 12-15 दिनों के अंतराल पर छिडकाव करना चाहिए

8. आर्द्र गलन

लक्षण:

ठण्डी एवं वर्षा वाले मौसम बादल, अधिक नमी, नम एवं कठोर मिटटी इस तरह की समस्या होने पर यह रोग अधिक फैलता है इस रोग के कारण पौधो की अंकुरण क्षमता कम हो जाती है। तथा पौधे उगते ही या उगने से पहले ही मर जाते है।

पौधे के तने का वह जहा से वह मिटटी के जुडा रहता उसी स्थान ने घाव बनने के कारण पौधे मर जाते है। इस रोग का फैलाव मिटटी मे पाये जाने वाले फफुंद पाइथियम या राईजोक्टोनिया तथा पर्यावरण स्थिति पर निर्भर करता है।

प्रबंधन

  • आवश्यकता से अधिक सिचाई नही करनी चाहिए।
  • ट्राइकोडर्मा विरीडी 3 ग्रा. प्रति कि.ग्रा. बीज दर से बीजोप्चार करना चाहिए।
  • डाइथेन एम-45 0.2 प्रतिशत एवं बैवस्टीन 1 प्रतिशत की दर से मिटटी मे मिलाने से इस रोग मे कमी आती हैं।

9. फ्युसेरियम विल्ट (म्लानी)

यह रोग एक फफुद जनित रोग है जो लम्बे समय तक मिटटी मे बने रहते है। शुरूआत मे पौघे अस्थाई रूप से सूखने लगते है तथा बाद मे सक्रमण बढने पर पौधे की लताऐ एवं पतियाँ पीली पडने लगती है तथा कवक पौधे के जड प्रणाली पर  आक्रमण करते जिससे पौधे मे जल सवंहन अवरूध्द हो जाता है जिससे पौधे पुर्णत; मर जाते है।

प्रबंधन

  • लगातार एक ही जगह पर भिण्डी की खेती नही करनी चाहिए।
  • फसल चक्र का प्रयोग करना चाहिए।
  • रोग अधिक दिखने पर केराथेन 6 ग्रा प्रति 10 ली. पानी या बैवेस्टीन 1 ग्रा प्रति ली. पानी मे मिलाकर 5-6 दिन के अंतराल मे 3 बार छिडकाव करना चाहिए।

Authors:

विजय कुमार सुर्यवंशी

एम.एस.सी(कृषि)उघानिकी, ग्रा.कृ.वि.अ. वि.ख. बिल्हा, जिला बिलासपुर (छ.ग.)

Email: vijay.sury@yahoo.in

Related Posts

भिंडी के लिए एकीकृत कीट प्रबन्धन
विभिन्न सब्जियों के बीच ओकरा (Okra) जिसे आम तौर पर...
Read more
Improved Varieties of Okra
भिण्‍डी की उन्‍नत किस्‍में  Varieties Developed By Average yield   (q/ha) Characters  काशी सातधारी (आई. आई....
Read more
बिहार में कृषि विकास के लिए समेकित...
Holistic approach of integrated nutrient management for agricultural development in...
Read more
मूल्य संवर्धन के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं...
Empowering Rural Women through Value Addition: The Success Story of...
Read more
ड्रैगन फ्रूटः एक आधुनिक, पोषक और औषधीय...
Dragon Fruit: An Modern, Nutritious and Medicinal Fruit  ड्रैगन फ्रूट, हिलोकेरस...
Read more
खेती में कीटनाशकों और पानी के उपयोग...
Artificial intelligence in minimizing pesticide and water use in agriculture ऐसे...
Read more
rjwhiteclubs@gmail.com
rjwhiteclubs@gmail.com