How to properly nurture newborn calf?
पशुपालन व्यवसाय की सफलता के लिये उचित संख्या में उत्तम गुणों वाले बच्चों का विकास आवश्यक है। यही बछड़े बड़े होकर पुराने, बूढ़े तथा अनुत्पादक पशुओं का स्थान लेते है। इस तरह यह सतत प्रक्रिया चलती रहती है एवं उत्पादकता और लाभ दोनों ही बढ़ते हैं। यदि बछड़े पर्याप्त संख्या में ना हों तो अगली पीढ़ी के लिये उच्च उत्पादकता के पशु चयन करने में सफलता नहीं मिल पाएगी ।
यदि पालन पोषण पर ध्यान नहीं दिया जाए तो बछड़ों की मृत्युदर अधिक हो जाती है साथ ही जो बच्चे बच जाते हैं उनकी वृधिदर कम हो जाती है तथा उत्पादकता घट जाती है।
बछड़ों की मृत्युदर सबसे अधिक जन्म से एक माह तक की आयु में होती है। पशुओं की विभिन्न प्रजातियों में इनके कारण भिन्न होते हैं । परन्तु कुछ कारण सभी में एक जैसे होते हैं एवं इनसे बचाव के उपाय भी समान होते हैं। कुछ सावधानियों को ध्यान में रखकर इनका उचित प्रबंधन करने से मृत्युदर में कमी की जा सकती है।
बछड़े के पैदा होने का स्थान कैसा हो?
बछड़ों का स्वास्थ इस बात पर निर्भर होता है की उसका जनन स्थल कैसा है। यह बात सभी प्रजातियों जैसे गाय, भैस, भेड़, बकरी, शुकर आदि पर सामान रूप से लागु होती है।
बच्चा देने वाले स्थान पर पशु को एक सप्ताह पहले से ही रखना आवश्यक है जिससे पशु उस स्थान से परिचित हो जाये। चुना गया स्थान हवादार तथा साफ़ हो।
उस स्थान पर बहुत भीड़- भाड़ न रखें। फर्श साफ़ एवं सूखा होना चाहिए।फर्श पर सूखा बिछावन जैसे धन का पुआल, लकड़ी का बुरादा या गन्ने के सूखे पत्ते डाल दें।
जनन के उपरान्त सबसे पहले क्या करें?
बच्चा माँ के गर्भ में अपनी माँ के रक्त से प्राणवायु लेता है। परन्तु जैसे ही बच्चे का जन्म होता है उसका अपना श्वसन तंत्र भी चालू हो जाता है। अतः सबसे पहले यह देखना चाहिए की बच्चे की सांसे चल रही है।
इसके लिए बच्चे के मुंह तथा नाक पर लगे चिपचिपे पदार्थ को किसी सूखे साफ़ कपडे से पोंछ दें तथा आवश्यक होने पर छाती पर हाथ से दबाव देकर कृत्रिम श्वसन दिया जाना चाहिए। ऐसा करने से बच्चे के फेंफडे कम करना प्रारंभ कर देते हैं।
सामान्यतः माँ अपने बछड़े को चाट कर साफ़ कर देती है पर कभी-कभी ऐसा नहीं होता। ऐसी दशा में बच्चे को सूखे तथा स्वच्छ टाट आदि से रगड़ कर साफ़ कर दें तथा सुखा दें ।
गीला रहने की स्तिथि में बच्चे को ठण्ड लगने की सम्भावना रहती है तथा जाड़े में निमोनिया का खतरा रहता है।
खीस कब और कैसे पिलाएं?
सभी स्तनधारी पशुओं के बच्चा पैदा होने के बाद माँ के थानों से निकलने वाले गाड़े पीले दूध को खीस कहते हैं । खीस धीरे-धीरे ५ से ६ दिनों बाद सामान्य दूध में बदल जाता है । बच्चा जब पैदा होता है तो उसमें रोगों से लड़ने की क्षमता विकसित नहीं होती है ।
उस परिस्थिति में बच्चा किसी भी रोग का शिकार हो सकता है । परन्तु प्रकृति ने इससे बचाव के लिए माँ के खीस में गामा ग्लोब्युलिन नामक प्रोटीन उपलब्ध कर रखा है जो बछड़ों को उन सभी बीमारियों से बचाव प्रदान करता है जिनके संपर्क में उनकी माँ आ चुकी है। अतः बछड़ों को रोग मुक्त रखने के लिए पहला कदम है उचित समय पर खीस का पिलाना ।
पैदा होने पर बच्चे की आंत में गामा ग्लोब्युलिन को सीधे पचाने की क्षमता होती है जो धीरे-धीरे कम होती जाती है तथा १२-१५ घंटों बाद समाप्त हो जाती है । अतः हमारा प्रयास होना चाहिए की पैदा होने से दो घंटे के भीतर एक बार खीस अवश्य पिला दी जाये।
इस बीच बच्चा खड़ा हो जाता है तथा माँ का थन ढूढने लगता है । इस दौरान माँ के पिछले भाग को गुन-गुने पानी से धो कर, बच्चे को खीस पिला देना चाहिए ।
कई स्थानों पर भ्रान्ति है की ज़ेर (प्लेसेंटा) आने से पहले खीस नहीं पिलाना चाहिए । परन्तु ऐसा सोचना केवल भ्रम है तथा खीस दो घंटे के भीतर अवश्य पिलाएं ।
बच्चों की नाल का इलाज कैसे करें?
बच्चे की नाभि से लटकती हुयी नाल को शरीर से लगभग एक इंच की दूरी पर साफ़ धागे से बाँध कर साफ़ कैंची से काट देना चाहिए तथा दिन में तीन बार टिंचर आयोडीन में डुबाना चाहिए । ऐसा करने से एक सप्ताह में नाल सूख जाती है । अन्यथा नाल पाक जाती है तथा बहुत सारी बीमारियों के जीवाणुओं को मार्ग देती है ।
बछड़ों की आवास व्यवस्था तथा भोजन व्यवस्था कैसे करें?
नवजात पशुओं में मौसम से लड़ने की क्षमता बहुत ही कम होती है । अतः उनको अधिक गर्मी तथा सर्दी से बचाना चाहिए । इसके लिए आवास के स्थान पर वायु का सीधा प्रवाह नहीं होना चाहिए तथा जाड़े में बिछावन का प्रयोग अवश्य करें । सीधी हवा से बछड़ों को बचाए परन्तु शुद्ध वायु के प्रवेश को बाधित ना करें ।
गर्मियों में बछड़ों को हवादार स्थान पर पेड़ की छाया में बांधना सबसे उत्तम है अन्यथा छप्पर या खपरैल के नीचे रखें (फर्श साफ़ तथा सूखा होना चाहिए) । पीने के लिए स्वच्छ पानी सदैव उपलब्ध होना चाहिए ।
खान पान व्यवस्था में सर्वप्रथम दूध की बात आती है । माँ का दूध कम से कम चार सप्ताह तक बछड़ों के शरीर भार का लगभग दस प्रतिशत देना ही चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे दूध की मात्रा घटाई जा सकती है। भैस के कटरे/कटिया तथा देशी गाय के बच्चे सोलह सप्ताह तक विभिन्न मात्राओं में दूध पीते हैं ।
बछड़ों की वृद्धि दर बनाए रखने के लिए उन्हें विशेष प्रकार के दाने का मिश्रण बनाकर जन्म के दुसरे सप्ताह से उपलब्ध कराना चाहिए । उस दाने में प्रोटीन तथा शक्ति देने वाले तत्व अधिक होने चाहिए । ५०% मक्के या जौं का दलिया, ३०% खली, १७% गेहूं का चोकर, २% खनिज लवण मिश्रण तथा १% खाने का नमक मिला कर यह मिश्रण बनाया जा सकता है । दो सप्ताह की आयु के बाद थोड़ी थोड़ी नरम घांस भी दी जा सकती है ।
बछड़ों में पेट के कीड़ों की समस्या को कैसे हल करें?
जिन स्थानों पर पशु चरने जाते हैं या नदी व तालाब में पानी पीते हैं उनके बछड़ों को सात से दस दिन की आयु में कीड़ों की दवा अवश्य ही दे देनी चाहिए । भैसों के बच्चों की मृत्यु में इसका बड़ा योगदान है । कई बार तो देखा जाता है की पैदा होने से ही इनके बच्चों के पेट में कीड़े होते हैं जो माँ के पेट से आते हैं ।
ऐसी दशा में माँ को गर्भकाल के छह माह बीतने पर कीड़ों की दवा दे देनी चाहिए । जिससे माँ से आने वाली समस्या से बचा जा सके। अन्य टीके तथा दवाइयां स्थानीय पशु चिकित्सक की सलाह से दें ।
इन सभी बातों को प्रयोग में लाकर पशु पालक भाई आपने नवजात पशुओं की मृत्यु दर कम कर सकते हैं तथा उनके पशु जब स्वस्थ होंगे तो उन्हें और अधिक लाभ पहुचाएंगे।
Authors
डॉ. दीपक उपाध्याय*, पुष्पेन्द्र कोली एवं डॉ. मधु मिश्रा
भा.कृ.अनु.प.-भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसन्धान संस्थान,झाँसी , उ.प्र.
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