Maize grain and fodder crop production technology

Maize grain and fodder crop production technology

मक्का की अनाज तथा चारा फसल उत्पादन की तकनीक 

मक्का की खेती भारत में एक व्यापक स्तर पर की जाती है जो विभिन्न कृषि जलवायु के लिये अनुकूलित होती है। इसलिए वैश्विक स्तर  पर इसे  अनाजों की रानी कहा जाता है क्योंकि आनुवंशिक रूप से इसकी अन्य अनाजों की तुलना में अधिक उत्पादन  क्षमता होती है।  मक्का का वानस्पतिक नाम जीया मेज है यह एक प्रमुख अनाज की फसल हैं, जो मोटे अनाजो की श्रेणी में आता है।

भारत मे मक्का की खेती सभी राज्यो में की जाती है। जैसे आन्ध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश इत्यादि।  मक्का भारत में  गेहूं और धान के बाद तीसरी सबसे महत्पूर्ण फसल के रूप में प्रशिद्ध  है। मक्का को भारत में खाद्द्य एवं हरे चारे की एक प्रमुख  फसल के रूप में उगाया जाता है।

मक्का की खेती प्रमुख रूप से 9.1 एवं 0.9 मिलियन हैक्टर क्षेत्रफल पर क्रमश: अनाज और हरे चारे के रूप में की जाती है। इसका भारत के राष्ट्रीय खाद्द्य उत्पादन में लगभग 9-10 % योगदान है। जिसका 80 % मूल रूप से भोजन के लिए उपयोग किया जाता है। तथा 20 % अन्य उपयोग जैसे स्टार्च, तेल, प्रोटीन, एल्कोहलिक पेय, दवा, कॉस्मेटिक, कपड़ा, गोंद और कागज उधोग के लिए किया जाता है।

मक्का की खेती का महत्त्व

(1). डेरी पशुओं के लिए हरा चारा:

लाभदायक या किफायती पशु पालन व्यवसाय मुख्य रूप से हरे चारे की उपलब्धता और उसके पोषक तत्वों के गुणों पर निर्भर करती है। हरा चारा दाना राशन की तुलना में मिल्क उत्पादन की लागत को कम करता है। प्रति पशु प्रति दिन 40 कि. ग्रा. हरे चारे की आवश्यकता होती है जबकि भारत में इसकी मांग और आपूर्ति कि बीच बहुत अंतर है।

वर्तमान समय में भारत में हरे चारे की 35.6 % और सूखे चारे की 11 % कमी है। जिसका सीधा असर पशुओं के स्वास्थ्य और मिल्क उत्पादन पर पड़ता है। अर्थात इसके कारण भारत में प्रति पशु दुग्ध उत्पादन क्षमता विश्व की औसत दर की आधे से भी कम आंकी गई है। इसलिए हरा चारा उत्पादन पशुपालन के लिए एक महत्पूर्ण घटक है। और पशुपालन की बृद्धि दर भी मुख्य रूप से हरे के गुणों के पोषक तत्वों पर निर्भर करती है। 

मक्का का हरा चारा सभी अनाज कुल के चारों की तुलना में सबसे अधिक पौष्टिक और किसी भी प्रकार के विषैले तत्व से मुक्त रहता है। जबकि ज्वार, बाजरा में क्रमश: धुरीन और ऑक्जेलिक अम्ल की विषाक्तता पाई जाती है।

मक्का अपनी त्वरित या शीघ्र बृद्धि, अधिक हरा चारा उत्पादन, अत्यधिक स्वादिष्ट चारा के लिए प्रचलित है।  इसके साथ ही यह अन्य अदलहनी चारा फसलों की तुलना में अधिक प्रोटीन, खनिज तत्व और अधिक पाचक शीलता होती है। इसमें अधिक मात्रा में घुलनशील शर्करा पाई जाती है जिससे अच्छी गुणों वाली साइलेज बनाकर इसे लम्बे समय तक दुधारू पशुओं को खिलाया जा सकता है।

यह पशुपालक की कुल लागत को ही कम नहीं करता है बल्कि सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता की कमी को दूर करता है, और प्रति पशु दुग्ध उत्पादन क्षमता को बढ़ाता है। इसके साथ ही मक्का के अनाज को पशुओं, मुर्गी पालन और पिग पालन के लिए उपयोग किया जा सकता है। इसकी चारे के लिए उपयुक्त कटाई दाने की दुग्ध अवस्था पर करना चाहिए। 

इसके चारे में शुष्क पदार्थ के आधार पर DM-(20-22%), CP-(8-11%), EE- (2-2.5%), NDF-(64-68%), ADF-(38-42%), CF-(25-30%), ASH-(7-10%) और IVDMD-(58-68%) और 0.42-0.70  कैलिसयम होता है।

(2). खाद्य या भोजन:

विकासशील देशों में मक्का मुख्यत: खाद्य या भोजन के लिए उपयोग में लाया जाता है।  भारत में इसके उत्पादन का  85 % से अधिक भोजन के रूप में उपयोग किया जाता है। जैसे – चपाती, दलिया, उबला या भुना हुआ भुट्टा, कॉर्न फ्लेक्स, पॉप कॉर्न और कई तरह की मिठाईया बनाने के लिए उपयोग किया जाता है।

(3). बेबी कॉर्न:

बेबी कॉर्न को शिशु मक्का भी कहा जाता है यह अनिषेचित मक्के का भुट्टा होता है, जिसमें कोब निकलने के 3-5 दिन के अंदर शिशु कोब की तुड़ाई की जाती है इस समय हस्क की लम्बाई 15-20 CM और बेबी कॉर्न की लम्बाई 7-10 CM एवं 1-1.5 CM व्यास होता है।

इसका उपयोग नमकीनी भोज्य पदार्थ, सूप्स और सलाद के रूप में किया जाता है। इसको 2 % नमक के घोल में डालकर लम्बे समय तक सरंक्षित किया जा सकता है। इसको किसान नगदी फसल के रूप में उगाकर अधिक लाभ ले सकता है इसके साथ ही इसे हरे चारे के लिए भी उपयोग किया सकता है।

बेबी कॉर्न की किस्मे :

इसके लिए अल्प अवधि, मध्यम ऊंचाई और अधिक फलने वाली एवं अधिक शर्करा युक्त किस्मों का चयन करना चाहिए। जैसे: माधुरी स्वीट कॉर्न, प्रिया स्वीट कॉर्न, अम्बर पॉपकॉर्न, VL-42, VL-45, MTH-14, HIM-129, गोल्डन बेबी एवं MH-4 है।

मक्का की खेती के लिए जलवायु :

मक्का की खेती के लिए सभी प्रकार की जलवायु उपयुक्त होती है परन्तु मक्का एक गर्म जलवायु की फसल होने के कारण इसको मुखतय 18-20 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवशकता होती है इस तापमान पर इसकी अंकुरण क्षमता ठीक प्रकार से हो होती है। इसकी कम तापमान पर अंकुरण क्षमता अच्छी नहीं होती है इसलिए इसे गर्म जलवायु की फसल कहते है I  मुखतय मक्का के लिए 24-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त है इससे  कम और अधिक तापमान होने पर इसके उत्पादन पर विपरीत प्रभाव होता है। 

भूमि:

मक्का को लगभग सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। इसकी खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी अच्छी होती है लेकिन इसे दोमट से लेकर चिकनी काली में भी सफलता पूर्वक उगाया जाता है। इसके अधिक उत्पादन के लिए मृदा में उचित मात्रा में कार्बनिक पदार्थ, उचित जल धारण क्षमता के साथ इसका पी. एच. मान 5.5 – 8 तक होना चाहिए। यह जल भराव के लिए अधिक संवेदनशील होती है इसलिए इससे बचने के लिए उचित जल निकास वाले खेत का चुनाव करना चाहिए।

मक्का की प्रजातियां:

मक्का में अनेक प्रकार की किस्मे पाई जाती है। जिसमे हरे चारे के लिए उपयुक्त किस्मे सारिणी न. 1 में दी गई है।

सारिणी न. 1 मक्का की हरे चारे के लिए प्रमुख उन्नत किस्में

किस्में अनुशंसित क्षेत्र हरे चारे की उपज (टन/है.)
जे. 1006 उत्तर पश्चमी क्षेत्र 41
अफ्रीकन टाल सम्पूर्ण भारत  50
प्रताप मक्का चरी-6 उत्तर पश्चमी क्षेत्र 45-50
ए.पी.एफ.एम.-8 दक्षिण भारत 35
विजय संकुल सम्पूर्ण भारत  50-80
जवाहर संकुल सम्पूर्ण भारत  50-80
मोती संकुल सम्पूर्ण भारत  50-80
मंजरी कम्पोजिट सम्पूर्ण भारत  50-80

सारिणी न. 2 मक्का के दाना उत्पादन के लिए उपयुक्त किस्मे।

किस्में फसल की अवधि अनुशंसित क्षेत्र
गंगा सफ़ेद-2 100-110           उत्तरी मैदान और प्रायद्वीपीय भारत
गंगा सफ़ेद-5 95-110 उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान
डेक्कन 105-110 मक्का के सभी क्षेत्रों के लिए
हिमालयन 100-110 बिहार और उत्तर प्रदेश
गंगा सफ़ेद-4 105-115 मध्य प्रदेश, बिहार और  उत्तर प्रदेश 
विजय 100-110 भारतीय उपमहाद्वीप 
किसान 105-110 उत्तर भारत
विक्रम 90-95 तराई उत्तर प्रदेश और उत्तर पूर्वी हिमालयन क्षेत्र
सोना 100-110 उत्तर भारत
अम्बर 105-110 प्रायद्वीपीय भारत

बीज दर प्रति हेक्टेयर :

सभी प्रकार की किस्मो के लिए मक्का की बीज दर अलग-अलग होती है।जैसे सामान्य मक्का ,स्वीट मक्का,  बैबी मक्का, पॉप मक्का, ग्रीन कोब , हरा चारा उत्पादन के लिए इसकी बीज दर प्रति हैक्टर सारिणी न. 3 में दिया गया है।  

सारिणी न. 3: मक्का की विभिन्न किस्मों के लिये बीज की दर, पौधे से पौधा एवं पंक्ति से पंक्ति की दूरी।

क्र. न. किस्में बीजदर(कि.ग्रा./हैक्टर) पंक्ति से पंक्ति और पौधे से पौधे की दूरी
1 सामान्य मक्का 20 60 X 20
2 स्वीट मक्का 8 75 X 25
3 बैबी मक्का 25 60 X 20
4 पॉप कॉर्न मक्का 12 60 X 20
5 ग्रीन कोब 20 75 X 20
6 हरी चारा मक्का 50-60 30 X 10

खाद एवं उर्वरक :

अधिक उपज प्राप्त करने के लिए, मक्का की फसल को गोबर की खाद 10-15 टन प्रति हैक्टर तक देनी चाहिए। ये खाद बोने के 15 दिन पहले देने से वह मिटटी में अच्छे प्रकार से मिल जाती है। जिससे फसल को सभी सूक्ष्म व् मुख्य पोषक तत्व लम्बी अवधि तक प्राप्त होते है। मक्का की संकर और मिश्रित किस्मों के लिए, 100-120 कि. ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि. ग्रा.  फास्पोरस और 40 कि. ग्रा. पोटाश एवं 20-25 कि. ग्रा. ज़िंक सल्फेट प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है ।

नाइट्रोजन का एक तिहाई, फास्फोरस, पोटाश एवं ज़िंक सल्फेट को बुवाई के समय प्रारंभिक खुराक के रूप में दिया जाता है। तथा शेष नाइट्रोजन को मक्का के उगने के 15-20 दिन के बाद पहली साइड ड्रेसिंग के रूप में तथा दूसरी 35-40 दिन बाद साइड ड्रेसिंग/ स्प्रे  के रूप में  बराबर मात्रा में काम में ली जा सकती है ।

बुवाई: 

बीज की बुवाई से पहले कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया जाता है जैसे सही बीज का चुनाव, बीज अकुंरण क्षमता और  बीज की अंकुरण क्षमता भी अच्छी होनी चाहिए। बीज खरपतवार से मुक्त होना चाहि। इसलिए बीज की खरीददारी हमेशा सरकारी संस्थाओ या सरकार से मान्यता प्राप्त दूकान से खरीदें। मक्का के बीजों को मृदा जनित कीड़े और फंगस से बचने के लिए इसके बीजो का उपचार करने के बाद ही खेत में बुवाई  करनी चाहिए । 

मक्का की बुवाई के लिए पौधे से पौधा और पंक्ति से पंक्ति की दूरी विशेष प्रकार की फसल जैसे सामान्य मक्का या हरा चारा के लिए  उपयुक्त दूरी को ही अपनाना चाहिए। इसकी फसल को किसान भाई सुविधा अनुसार सब्जियों, बागवानी के साथ पंक्तियों के बीच खाली पड़ी जगह में अंतर फसलीय प्रणाली को अपनाकर हरा चारा या बेबी कॉर्न के लिए उगा सकते है जिससे किसान अलग से आय प्राप्त क्र सकता है।

मक्का बुवाई का समय: 

मक्का की बुवाई शरद ऋतु को छोड़कर वर्ष के सभी महीनो में की जा सकती है। इसकी बुवाई खरीफ ऋतु में जून से जुलाई तक की जाती है। रबी ऋतु में इसे अक्टूबर से नवम्वर तथा जायद या ग्रीष्म ऋतु में फरवरी से मार्च तक बुवाई की कीहै। इसकी समय पर बुवाई करने से इसकी बृद्धि एवं उपज दोनों अच्छी दर्ज की जाती है।

जल प्रबंधन :

मक्का की खेती मुख्यतय: खरीफ मौसम के समय वर्षा पर निर्भर होती है। खरीफ मौसम में  मक्का की फसल 80%  वर्षा पर निर्भर करता है क्योंकि लगभग 80% मक्का की खेती मानसून के मौसम के दौरान की जाती है वर्षा की स्थिति में सिंचाई की आवश्कता नही होती है क्योकि मानसून के समय भूमि में नमी बनी रहती है।

दुसरे मौसम में जैसे रबी, जायद के मौसम में मक्का को 3-5 सिंचाई की आवश्कता होती है उस समय तापमान अधिक होने से भूमि में नमी की मात्रा कम होने  के कारण सिंचाई की आवश्कता अधिक होती है जिसे उन मौसम में जल प्रबंधन करना एक अच्छा स्रोत माना जाता है जिसके कारण पौधे की वृद्वि में कोई भी रूकावट नही आती है और पौधे की वृद्वि अच्छी होती रहती है इसलिए मक्का की अलग अलग स्टेजों पर पानी देना होता है मक्का की सभी  स्टेजों  पर पानी समय पर देने से मक्का की वृद्वि अच्छी होती है जिसके कारण पैदावार  कम नही होती है।

खरपतवार प्रबंधन:

खरीफ मौसम में मक्का की फसल में खरपतवारो की एक मुख्य समस्या होती है, जो खरपतवारो के कारण मक्का की फसल को मिलने वाले विशेष रूप से पोषक तत्वों के लिए मक्का के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं जिसके कारण 35% तक उपज की कम होती है। इसलिए, अधिक उपज प्राप्त करने के लिए समय पर खरपतवार प्रबंधन की आवश्यकता होती है।

शाकनाशी के रूप में एट्राजिन एवं एलाक्लोर की  1 से 1.5 कि.ग्रा./ हैक्टर मात्रा 400 से 500 लीटर पानी के साथ मिलकर बुवाई के 2 से 3 पर छिड़काव किया जाता है।इससे अच्छी गुणवत्ता का हरा चारा प्राप्त होने के साथ-साथ अधिक उपज प्राप्त होती है।

पौधों की  रोगो से सुरक्षा:

मक्का में विशेष तोर से लीफ ब्लाइट रोग का बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है। ये रोग पौधे की पतियों पर पीले-बैंगनी रंग के धब्बे हो जाते है, जिसके कारण पत्तियाँ प्रभावित होकर सूख जाती हैं  साथ में पत्तिया झुलस व् जल भी जाती है। जिसके कारण मक्का की उपज कम हो जाती है I

नियंत्रण: 

इस रोग की रोकथाम के लिए फसल को डाइथेन एम -45 या इंडोफिल @ 35-40 ग्राम या ब्लू कॉपर @ 55 -60 ग्राम लेकर पानी के साथ 18 लीटर पानी में, 15 दिन के अंतराल पर 2 -3 स्प्रे से छिड़काव किया जा सकता है, जिससे रोग पर प्रभावी रूप से  नियंत्रण किया जाता है I

कीटो से सुरक्षा :

मक्का के पौधों पर विभिन प्रकार के कीटो के प्रकोप के द्वारा बहुत ज्यादा नुक़सान होता है।जैसे की  स्टेम बोरर ये पहले के चरणों में पत्तियों को अपना भोजन के रूप में काम लेतेहै Iऔर उसके बाद ये पौधे के तना तथा मक्का में लगने वाली भुट्टे को अपना भोजन बनालेते है। जिसके कारण मक्का का  उत्तपादन में भारी मात्रा में नुक़सान हो जाता हैI  

नियंत्रण:

  1. फसल काटने के बाद डंठल और बुदबुद को खेत से इकट्ठा करके जला देना चाहिए।
  2. फसल को दो लीटर थायोडान 35 ईसी @ 27 मिलीलीटर की मात्रा में 18 लीटर पानी में मिलाकर एक बार अंकुरण के 20-25 दिन बाद और दूसरा स्प्रे अनाज बनने के समय (स्थानिक क्षेत्रों में) किया जा सकता है।

ग्रास हॉपर :

ये किट बहुत छोट पंख वाले हॉपर होता है जो पौधे की पतियों को अपना भोजन बनाते है I  ये कीट मिटटी में लगभग 7.5 से 20 सेंटीमीटर की गहराई पर  अंडे देते हैं। जब उनके लार्वा निकल जाते है तो पौधे की कोमल पतियों को खाते हैं। जिसे पौधे की वृद्वि कम होने के कारण मक्का का उत्त्पादन भी कम होजाता है I

नियंत्रण:

घास हॉपर को नियंत्रण करने के लिए 18 लीटर पानी में थायोडान 35 ईसी @ 25 मिली या एलाक्स 25 ईसी @ 28 मि ली को पानी में मिलकर पौधें पर स्प्रे करवाते है जिसके कारण घास हॉपर को नियंत्रण में किया जाता है I

अनाज फसल की कटाई एवं उपज:

जिन भुट्टे का उपयोग अनाज के रूप में किया काम में लिए जाता है तो उन भुट्टे को सुखा लेते है जिनमे लगभग 20% नमी की मात्रा हो तो फसल को काटनी चाहिए। मिश्रित और उच्च उपज देने वाली किस्मों के अनाज में उपस्थिति भ्रामक हो सकती है। क्योंकि अनाज सूख जाते हैं जबकि डंठल और पत्तियां अभी भी हरे रहते हैं।

बीज को खड़ी फसल में से ही अलग कर लिया जाता है। और ढाने निकालने से पहले से उन भुट्टे को भली भाती से सूखा लेते है, जिसके कारण अनाज ख़राब नहीं होता  है। भुट्टे में 20% से ज्यादा नमी होगी तो अनाज खारब होने का डर होता है।

अनाज उत्पादन के लिए मक्का की कटाई का उपयुक्त समय होता है। जब भुट्टे के दानों में नमि 20% से अधिक न हो तथा दाना सामान्यत: सूखा होता है। इसकी सामान्य उपज 4-6 टन/हैक्टर होती है  जो मक्का की किस्म, फसल प्रबंधन, उर्वक प्रबंधन और मृदा की उर्वरता पर निर्भर करता है।

चारा फसल की कटाई एवं उपज

अच्छी गुणवत्ता का हरा चारा प्राप्त करने के लिए इसकी कटाई 50 % पुष्पावस्था से लेकर दुग्धावस्था के मध्य में की जाती है। जिससे अधिक उपज प्राप्त होता है। इस प्रकार इसकी सही समय पर उपयुक्त प्रबंधन जैसे  बुवाई,  खरपतवार नियंत्रण, कीटनाशी एवं कटाई सही समय पर करने से इसकी उपज लगभग 40 से 50 टन/हैक्टर तक दर्ज की जाती है।


Authors

फूल सिंह हिण्डोरिया एवं राकेश कुमार

सस्य विज्ञान अनुभाग, भा.कृ.अनु.प. – राष्ट्रीय डेरी अनुसन्धान संस्थान, करनाल -132001, हरियाणा

Email: pshindoria2012@gmail.com

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