धान के 7 प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन

धान के 7 प्रमुख रोग एवं उनका प्रबंधन

7 major diseases of Paddy and their management

हमारे देश की सबसे प्रमुख धान्य फसल धान है। धान की फसल पर अनेक तरह की समस्याएँ आ सकती हैं, रोग आक्रमण कर सकते हैं तथा इन रोगों के रोगकारक जीव की प्रकृति में विभिन्नता होने के कारण इनकी रोकथाम के उपाय भी भिन्न-भिन्न होते हैं। अतएवः रोगों का निदान एवं उसके प्रबन्धन के विषय में जानकारी अत्यावश्यक है।

सबसे पहले हमें स्वस्थ बीज की बात करनी चाहिए क्योंकि अगर किसान भाइयों के पास स्वस्थ बीज उपलब्ध हो तो आधी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं। अगर आपके पास स्वस्थ बीज की उपलब्धता नहीं है तो आप बीजोपचार करके आधी से अधिक समस्याओं से निदान पा सकते हैं ।

आज आवश्यकता इस बात की है की हम प्रमुख धान्य फसलों के प्रबंधन पर ध्यान दें। इसके लि‍ए हम कि‍सानो को धान के कुछ प्रमुख रोगों की विस्तृत जानकारी से अवगत करा रहे है । 

1. धान प्रध्वंस (ब्लास्ट)

प्रध्वंस रोग मैग्नोपोर्थे ओरायजी द्वारा उत्पन्न होता है। सामान्यतया बासमती एवं सुगन्धित धान की प्रजातियां प्रध्वंस रोग के प्रति उच्च संवेदनशील होती है।

लक्षण:

रोग के विशेष लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते हैं, परन्तु पर्णच्छद, पुष्पगुच्छ, गाठों तथा दाने के छिलको पर भी इसका आक्रमण पाया जाता है। कवक का पत्तियों, गाठों एवं ग्रीवा पर अधिक संक्रमण होता है। पत्तियों पर भूरे रंग के आँख या नाव जैसे धब्बे बनते हैं जो बाद में राख जैसे स्लेटी रंग के हो जाते हैं।

क्षतस्थल के बीच के भाग में धूसर रंग की पतली पट्टी दिखाई देती है। अनुकूल वातावरण में क्षतस्थल बढ़कर आपस में मिल जाते हैं, परिणामस्वरुप पत्तियां झ्ाुलस कर सूख जाती है।

गाँठ प्रध्वंस संक्रमण में गाँठ काली होकर टूट जाती हैं। दौजी की गाँठों पर कवक के आक्रमण से भूरे धब्बे बनते है, जो गाँठ को चारो ओर से घेर लेते हैं।

ग्रीवा (गर्दन) ब्लास्ट में, पुष्पगुच्छ के आधार पर भूरे से लेकर काले रंग के क्षत बन जाते हैं जो मिलकर चारों ओर से घेर लेते हैं और पुष्पगुच्छ वहां से टूट कर गिर जाता है जिसके परिणामस्वरूप दानो की शतप्रतिशत हानि होती है। पुष्पगुच्छ के निचले डंठल में जब रोग का संक्रमण होता है, तब बालियों में दाने नही होते तथा पुष्प और ग्रीवा काले रंग की हो जाती है।

प्रबंधनः

  • स्वस्थ पौधों से प्राप्त बीज का ही प्रयोग करें। नर्सरी को नमीयुक्त क्यारी में उगाना चाहिये और क्यारी छायादार क्षेत्र में नही होनी चाहिये।
  • जुलाई के प्रथम पखवाड़े में रोपाई पूरी कर लें। देर से रोपाई करने पर ब्लास्ट रोग के लगने की संभावना बढ़ जाती है।
  • ट्राइसायक्लेजोल (बीम 75 डब्ल्यू पी 2 ग्रा. रसायन/कि.ग्रा. बीज) उपचारित बीज बोएं या 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से कार्बेन्डाजिम के साथ बीजोपचार।
  • 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में ट्राइसायक्लेजोल (बीम या धानटीम 75 घुलनशील पाउडर) या 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में कार्बेन्डाजिम (बैविस्टिन या धानुस्टिन 50 घुलनशील पाउडर) फफूँदनाशी का छिडकाव।
  • संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें। खेत में रोग के लक्षण दिखायी देने पर नाइट्रोजन उर्वरक का प्रयोग न करें
  • फसल स्वच्छता, सिंचाई की नालियों को घास रहित करना, फसल चक्र आदि उपाय अपनाना।
  • रोग रोधी किस्मों जैसे-पूसा बासमती 1637, आई आर 64, पंकज, जमुना, सरजु 52, आकाशी और पंत धान 10 आदि को उगाना चाहिए।
  • पूसा सुगंध-5 (पूसा 2511) ब्लास्ट के प्रति मध्यम प्रतिरोधी है।

2. बकाने रोग

यह रोग जिबरेला फ्यूजीकुरेई की अपूर्णावस्था  फ्यूजेरियम मोनिलिफोरमे से होता है।

लक्षण:

बकाने रोग के प्ररूपी लक्षणों में प्राथमिक पत्तियों का दुबर्ल हरिमाहीन तथा असमान्य रूप से लम्बा होना है हालाँकि इस रोग से संक्रमित सभी पौधे इस प्रकार के लक्षण नही दर्शाते हैं क्योंकि संक्रमित कुछ पौधों में क्राउन विगलन भी देखा गया है जिसके परिणामस्वरूप  धान के पौधे छोटे (बौने) रह जाते हैं।

फसल के परिपक्वता के समीप होने के समय संक्रमित पौधे, फसल के सामान्य स्तर से काफी ऊपर निकले हुए हल्के हरे रंग के ध्वज-पत्र युक्त लम्बी दौजियाँ (टिलर्स) दर्शाते हैं।  संक्रमित पौधों में दौजियों की संख्या प्रायः कम होती है और कुछ हफ्तों के भीतर ही नीचे से ऊपर की और एक के बाद दूसरी, सभी पत्तियाँ सूख जाती हैं।

कभी-कभी संक्रमित पौधे परिपक्व होने तक जीवित रहते हैं किन्तु उनकी बालियाँ खाली रह जाती है ं संक्रमित पौधों के निचले भागों पर, सफेद या गुलाबी कवक जाल वृद्धि भी देखी जा सकती है।         

प्रबंधन

  • रोग रोधी किस्मोें का चयन करना चाहिए ।
  • रोग में कमी लाने के लिए साफ-सुथरे रोगमुक्त बीजों का प्रयोग करना चाहिए जिन्हें विश्वसनीय बीज-उत्पादकों या अन्य विश्वसनीय स्रोतों से खरीदा जाना चाहिए।
  • बोए जाने वाले बीजों से भार में हलके एवं संक्रमित बीजों को अलग करने के लिए नमकीन पानी का प्रयोग किया जा सकता है। ताकि बीजजन्य निवेश द्रव्य को कम किया जा सके।
  • गर्म जल से बीजोपचार प्रभावी है। इसके लिए पहले बीजोें को 3 घन्टे तक सामान्य जल में भिगो दें और तत्पश्चात बीजों में विद्यमान कवक को नष्ट करने के लिए उन्हें 50-570 सें तापमान पर गर्म जल से 15 मिनट तक भिगोकर उपचारित करें।
  • कवकनाशियों के साथ बीजोपचार की संस्तुति की जाती है। इसके लिए 2 प्रतिशत कार्बडेज़ीम के घोल में बीजो को 5 घन्टे तक भिगो कर रखते हैं। इस प्रकार से बीजोपचार के बाद, बुआई के पहले इन बीजों को 24 घन्टे तक सामान्य जल में भिगो कर रखें।
  • रोपाईसे पहले पौध को 1 प्रतिशत कार्बडेज़ीम के घोल में 12 घन्टे तक उपचार भी प्रभावी पाया गया है।
  • खेत को साफ-सुथरा रखेें और कटाई के पश्चात धान के अवशेषों एवं खर पतवार को खेत में न रहने दें।
  • बकाने रोग से ग्रस्त पौधों के देखते ही तुरंत खेत से निकाल कर नष्ट कर दें ताकि अन्य स्वस्थ पौधे संक्रमित न हो सकें।

3. जीवाणुज पत्ती अंगमारी (जीवाणुज पर्ण झुलसा)

यह रोग जैन्थोमोनास ओरायजी पीवी ओरायजी नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है।

लक्षण:

यह राग मुख्यतः दो अवस्थाओं में प्रकट होता है। पर्ण अंगमारी (पर्ण झ्ाुलसा) अवस्था और क्रेसेक अवस्था।

पर्ण अंगमारी (पर्ण झ्ाुलसा) अवस्था:  पत्तियों के उपरी सिरो पर जलसिक्त क्षत बन जाते है। पीले या पुआल रंग के ये क्षत लहरदार होते है जो पत्तियों के एक या दोनो किनारों के सिरे से प्रारंभ होकर नीचे की ओर बढ़ते है और अन्त में पत्तियां सूख जाती है।

गहन संक्रमण की स्थिति में रोग पौधांे के सभी अंगो जैसे पर्णाच्छद, तना और दौजी को सुखा देता है। क्रेसेक अवस्था: यहसंक्रमण पौधशाला अथवा पौध लगाने के तुरन्त बाद ही दिखाई पड़ता है। इसमें पत्तियां लिपटकर नीचे की ओर झ्ाुक जाती है। उनका रंग पीला या भूरा हो जाता है तथा दौजियां सूख जाती है। रोग की उग्र स्थिति में पौधे मर जाते हैं।

प्रबंधन

  • संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें तथा खेत में ज्यादा समय तक जल न रहने दें तथा उसको निकालते रहें।
  • उपचारित बीज का प्रयोग करें। इसके लिए स्ट्रैप्टोसाइक्लिन (5 ग्रा.) $ काॅपर आॅक्सीक्लोराइड (25 ग्राम) प्रति 10 लिटर पानी के घोल में बीज को 12 घंटे तक डुबोएं।या
  • 10 लिटर पानी में 5 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लिन तथा 2.5 ग्राम ब्लाइटाॅक्स घोलकर बीजो को बुआई से पहले 12 घंटे के भिगो दें।या बीजो को स्थूडोमोनास फ्लोरेसेन्स 10 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित कर लगावें।
  • धान रोपने के समय पौधे के बीज की दूरी 10-15 सेमी. अवश्य रखें।
  • इस बीमारी के लगने की अवस्था में नाइट्रोजन का प्रयोग कम कर दें।
  • जिस खेत में बीमारी लगी हो उसका पानी दूसरे खेत में न जाने दें। इससे बीमारी के फैलने की आशंका होती है। साथ ही उस खेत को भी पानी न दें।
  • खेत में बीमारी को फैलने से रोकने के लिए खेत से समुचित जल निकास की व्यवस्था की जाए तो बीमारी को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
  • रोग के लक्षण प्रकट होने पर 100 ग्राम स्ट्रेप्टोसायक्लिन और 500 ग्राम काॅपर आॅक्सीक्लोराईड का 500 लीटर जल में घोल बनाकर प्रति हैक्टर छिड़काव करें। 10 से 12 दिन के अन्तर पर आवश्यकतानुसार दूसरा एवं तीसरा छिड़काव करें।
  • इम्प्रूवड पूसा बासमती 1 (पूसा 1460) अत्यंत रोग प्रतिरोधी किस्म है, रोग रोधी किस्मों जैसे- आई. आर.-20, मंसूरी, प्रसाद, रामकृष्णा, रत्ना, साकेत-4, राजश्री और सत्यम आदि का चयन करें।

4. आच्छद झुलसा गुतान झुलसा (शीथ ब्लाइट)

यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनी नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है।

लक्षण:

पानी अथवा भूमि की सतह के पास पर्णच्छद पर रोग के प्रमुख लक्षण प्रकट होते है। इसके प्रकोप से पत्ती के शीथ (गुतान) पर 2-3 सें.मी. लम्बे हरे से भूरे रंग के धब्बे बनतेे हैं जो कि बाद में चलकर भूसे के रंग के हो जाते हैं।

धब्बों के चारों तरफ बैंगनी रंग की पतली धारी बन जाती है। अनुकूल वातावरण में क्षतस्थलों पर कवक जाल स्पष्ट दिखते हैं, जिन पर अर्ध अथवा पूर्ण गोलाकार भूरे रंग के स्क्लेरोशिया बनते हैं। पत्तियों पर क्षतस्थल विभिन्न आकृति में होते है। ये क्षत धान के पौधों पर दौजियां बनते समय एवं पुष्पन अवस्था में बनते हैं।

प्रबंधन:

  • सस्य क्रियाओं को उचित समय पर सम्पन्न करना तथा पिछली फसलों के अवशेषों को नष्ट करना।
  • आवश्यकतानुसार नाइट्रोजन उर्वरकों का उपयोग करें और रोग प्रकट होने पर टाॅप ड्रेसिंग को कुछ समय के लिए स्थगित करें।
  • खेतों में घास कुल के खरपतवार एवं निकट जलकुंभी को नष्ट करना।
  • 2 ग्रा प्रतिकिलो ग्राम बीज की दर से कार्बेंडाजिम (बाविस्टीन) 50 डब्ल्यू पी का बीजोपचार उपयोगी है।
  • 5 मिली/ली पानी की दर से वैलिडामासिन (राइजोसिन या शीथमार), 2 ग्रा/ली पानी की दर से या हैक्साकोनेजोल (कोंटाफ या सितारा 5 ई सी) का छिड़काव उपयोगी है।

5. आभासी कंड

यह रोग अस्टीलेजीनोइडिया वायरेंस नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है।

लक्षण:

रोग के लक्षण बालियों के निकलने के बाद ही दृष्टिगोचर होते है। रोगग्रस्त बाली पहले संतरे रंग की, बाद के भूरे काले रंग की हो जाती है जो आकार में धान के सामान्य दाने से दोगुणा बड़ा होता है।

ये दाने बीजायुक्त सतहों से घिरे होते हैं, जिनमें सबसे अंदर का सफेद पीला, बीच का केसरिया पीला तथा सबसे उपर भूरा काला होता है। अधिक संख्या में बीजाणु चूर्ण रुप में होते हैं जो हवा द्वारा वितरित होकर पुष्पों पर पहुंचते हैं और उन्हे संक्रमित करते हैं।

प्रबंधन:

  • अत्याधिक रोग ग्रस्त बालियां सावधानी से निकालकर जलायें।
  • सस्य क्रियाओं को सावधानी पूर्वक सम्पन्न करें।
  • ब्लाइटोक्स (काॅपर आक्सीक्लोराईड) 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर का छिड़काव 50 प्रतिशत बालियां आने पर करें।
  • रोग रोधी किस्में जैसे रत्ना, महसूरी उगाएं।

6. भूरी चित्ती (भूरे धब्बे)

यह रोग हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराइजी नामक कवक से उत्पन्न होता हैै। पौधे के जीवन के सभी अवस्थाओं पर यह कवक संक्रमण करता है।

लक्षण:

यह रोग देश के लगभग सभी हिस्सों मे फैली हुई हैए खासकर पश्चिम बंगालए उड़ीसाए आन्ध्र प्रदेशए तमिलनाडु इत्यादि। भारत मे इस रोग पर पहली बार रिर्पोट चेन्नई के सुन्दरारमण ;1919द्ध द्वारा बनाई गई थी।

उत्तर बिहार का यह प्रमुख रोग है। यह एक बीजजनित रोग है। यह रोग हेल्मिन्थो स्पोरियम औराइजी द्वारा होता है। इस रोग मे धान की फसल को बिचड़ा से लेकर दानों तक को नुकसान पहुँचाता है। इस रोग के कारण पत्तियों पर गोलाकार भूरे रंग के धब्बें बन जाते है। यह रोग फफॅूंद जनित है।

पौधों की बढ़वार कम होती हैए दाने भी प्रभावित हो जाते हैए जिससे उनकी अंकुरण क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। पत्तियों पर तिल के आकार के भूरे रंग के काले धब्बें बन जाते है। ये धब्बें आकार एवं माप मे बहुत छोटी बिंदी से लेकर गोल आकार का होता है।

धब्बों के चारो ओर हल्की पीली आभा बनती है। पत्तियों पर ये पूरी तरह से बिखरे होते है। धब्बों के बीच का हिस्सा उजला या बैंगनी रंग की होती है। बड़े धब्बों के किनारे गहरे भूरे रंग के होते हैए बीच का भाग पीलापन लिए गेंदा सफेद या घूसर रंग का हो जाता है।

उग्रावस्था मे पौधों के नीचे से ऊपर पत्तियों के अधिकांश भाग धब्बों से भर जाते है। ये धब्बें आपस मे मिलकर बड़े हो जाते हैए और पत्तियों को सुखा देते है। आवरण पर काले धब्बे बनते है। इस रोग का प्रकोप उपराऊ धान मे कम उर्वरता वाले क्षेत्रों मे मई से सितम्बर माह के बीच अधिक होता है।

यह रोग ज्यादातर उन क्षेत्रों मे देखने को मिलता हैए जहाँ किसान भाई खेतों मे उचित प्रबंधन की व्यवस्था नही कर पाते है। इस रोग मे दानों के छिलको पर भूरे से काले धब्बें बनते हैए जिससे चावल बदरंग हो जाता है। बाली मे दाने सिकुडे़ हुए बनते है। उग्र संक्रमण में बालियां बाहर नहीं निकल पाती।

प्रबंधन:

  • संतुलित उर्वराकों का प्रयोग करें।
  • कवकग्रसित पौधों के अवशेष एवं वैकल्पिक आश्रयदाता घासों को नष्ट करें।
  • बीज जनित संक्रमण रोकने हेतु 5 ग्राम कवकनाशी (थिरम) से प्रति कि.ग्रा. बीज उपचारित करेें।
  • बाद की अवस्था में डाईथेन एम 45 (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव उपयोगी है।

7. खैरा रोग

यह समस्या जस्ते की कमी के कारण होती है।

लक्षण:

इसके लगने पर निचली पत्तियां पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवां धब्बे उभरने लगते हैं। रोग की तीव्र अवस्था में रोग ग्रसित पत्तियां सूखने लगती हैं। कल्ले कम निकलते हैं और पौधों की वृद्धि रुक जाती है।

प्रबंधन:

  • यह समस्या न हो इसके लिए 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से रोपाई से पहले ही खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए।
  • लक्षण दिखने के बाद इसकी रोकथाम के लिए 5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 5 कि.ग्रा. चूना 600-700 लिटर पानी में घोलकर एक हैक्टेयर र्में िछड़काव करें। अगर रोकथाम न हो तो 10 दिन बाद पुनः 5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 कि.ग्रा. चूना 600-700 लिटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।

Authors:

1बिष्णु माया एवं 2अमित कुमार सिंह

1वैज्ञानिक, पौधा रोग संभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली,

2वरिष्ठ वैज्ञानिक, राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो नई दिल्ली,

1Email id- amisinghbiotech@gmail.com

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