आलू में कवचधारी सूत्रकृमि (पुटी कृमि) का प्रबंधन

आलू में कवचधारी सूत्रकृमि (पुटी कृमि) का प्रबंधन

Management of cyst nematode in Potato

आलू सब्जियों की मुख्य फसल है और भारत में आलू की खेती एक प्रमुख फसल के रूप में की जाती है। आलू के प्रमुख कीटों में कवचधारी सूत्रकृमि का बहुत महत्व है। जिसे पुटी कृमि या सुनहरे सूत्रकृमि या पोटेटो सिस्ट नेमॅाटोड नाम से भी जाना जाता है।  यह भारत सहित दुनिया भर के कई देशों में आलू के उत्पादन निरोधक खतरनाक कीटों में से एक हैं।

एक उपयुक्त परपोषी पौधे के अभाव में यह मिट्टी में लंबे समय तक जीवित रहते हैं । आज के समय में आलू के घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य के लिए यह एक गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है।

वर्ष 1961 में यूके के डा. एफ. जी. डब्ल्यू. जोन्स तमिलनाडू के उदागमंडलम, नीलगिरि जिले में भ्रमण पर आए थे। उस दौरान उन्हें तमिलनाडू के विजयनगरम क्षेत्र में आलू की पीली फसल दिखाई दी तथा पौधे की जड़ो पर गोल सुनहरे रंग की सिस्ट मिले। इस तरह जोन्स को कवचधारी सूत्रकृमि के होने का पता चला।

इसके बाद तमिलनाडू की कोडाईकनाल पहाड़ियों में (1983) तथा तमिलनाडू की सीमा से जुड़े केरल के पश्चिमी घाट के आलू के कई खेतों में कवचधारी सूत्रकृमि के व्यापक प्रसार के बारे में जानकारी मिली। अतः नीलगिरि और कोडाईकनाल की पहाड़ियों से कवचधारी सूत्रकृमि के नए क्षेत्रों में प्रसार को रोकने के लिए 1971 में घरेलू संगरोध लगाया गया था। इस घरेलू संगरोध के कारण तमिलनाडू राज्य के बाहर अन्य दूसरे राज्यों के लिए आलू निर्यात करने पर रोक लगा दी गई थी।

हाल ही में कवचधारी सूत्रकृमि की हिमाचल प्रदेश राज्य के शिमला (खदराला, उमलदवर, सारपानी, खारापानी, टूटूपानी, हंसतारी तीर, पोनिधर देवरीघाट, खड़ा पत्थर, केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र, कुफरी और फागू, रोहड़ू ब्लॉक, चोपाल ब्लॉक, जुब्बल ब्लॉक), सिरमौर (खेडाधर), मंडी (फुलाधर) चंबा (अहला), कुल्लू (छोवाई) एंव कांगड़ा जिले (राजगुंडा) में; जम्मू एवं कश्मीर राज्य के रामबान (नाथ टोप), राजौरी (काण्डी बुड्डाल), शोपिया (सिडयू), जम्मू (आलू बीज फार्म, नाथा टोप एवं काण्डी बुड्डाल) में और उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ (बलाती, मुंशीयारी, तिकसैन), टिहरी (रानी चैरी, घनुलटी), चमोली (रामानी), अलमोरा (पटोरिया), नैनीताल (माला रामगढ फार्म) की पहाड़ियों में आलू उगाने वाले क्षेत्रों से उपस्थिति मिली है।

इसिलिये भारत सरकार ने 2018 में इन क्षेत्रों से आलू के बीज की आवाजाही को प्रतिबंधित कर दिया है।

कवचधारी सूत्रकृमि का प्रसार:

यह कृमि आमतौर पर निम्नलिखित माध्यमों से फैलता है:

  1. मिट्टी के फैलाव से।
  2. कवचधारी सूत्रकृमि प्रभावित क्षेत्रों के आलू के बीज को नये क्षेत्रों में बोने से।
  3. सिंचाई और वर्षा के पानी से।
  4. कवचधारी सूत्रकृमि, प्रभावित क्षेत्र में पहली बार कृषि उपकरणों के प्रयोग के पश्चात् साफ क्षेत्र में उपकरणों के प्रयोग से।
  5. पशुओं के खुरों और मजदूरों के जूतों के माध्यम से।
  6. उपयोग में लिए जा चुके बोरों के माध्यम से जिसमें कवचधारी सूत्रकृमि संक्रमित क्षेत्र से लाए गए आलू पहले से संग्रहीत किए गए थे।

पोटेटो सिस्ट नेमॅाटोड लक्षण:

  • प्रारंभ में, हल्के पीले रंग के संक्रमित पौधे छोटे-छोटे खंडों में खेत में देखे जाते हैं। पौधों में यह लक्षण पोषक तत्वों की कमी से होने वाले लक्षणों के समान दिखाई देते हैं (चित्र 2 अ )।
  • दिन की गर्मी में यह संक्रमित पौधे अस्थाई रूप से कमजोर और सूखे पड़ जाते हैं (चित्र 2 ब )।

चित्र 1अ कवचधारी सूत्रकृमि का क्षेत्र में प्रारंभिक लक्षणचित्र 1ब कवचधारी सूत्रकृमि ग्रसित क्षेत्र

चित्र 1अ कवचधारी सूत्रकृमि का क्षेत्र में प्रारंभिक लक्षण

 चित्र 1ब कवचधारी सूत्रकृमि ग्रसित क्षेत्र 

  • कवचधारी सूत्रकृमि का अधिक प्रकोप होने पर, जमीन के ऊपर पौधे गंभीर रूप से सुस्त और अस्वस्थ दिखाई देते हैं तथा पौधों का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
  • शुरुआत में निचली पत्तियां पीले और भूरे रंग मे बदल जाती हैं और धीरे-धीरे पूरा पौधा सूख जाता है।
  • संक्रमित पौधे छोटे, समय से पूर्व पीले एंव कमजोर जड़ संरचना वाले होते हैं जिन पर कम मात्रा में छोटे कंद लगते हैं।
  • आलू कंद के रोपण के 55-60 दिन बाद संक्रमित पौधे को जमीन से बाहर निकालने पर जड़ों के साथ चिपके सरसों के बीज के आकार के पीले या सफेद रंग की मादा कवचधारी सूत्रकृमि दिखाई देती हैं जो 70 दिन बाद भूरे कवच में परिवर्तित हो जाती है (चित्र 2)।

जड़ों में कवचधारी सूत्रकृमि का संक्रमण

चित्र 2 जड़ों में कवचधारी सूत्रकृमि का संक्रमण

  • जमीन के नीचे, संक्रमित पौधों की जड़-प्रणाली खराब विकसित होती है जिसके कारण कंद के आकार और उपज में काफी कमी आ जाती है।

कवचधारी सूत्रकृमि से उपज में नुकसान:

कवचधारी सूत्रकृमि के 20 अंडे / ग्राम मिट्टी में होने से यह फसल हानि का प्रमुख कारण बनते हैं। भारत में, कवचधारी सूत्रकृमि के द्वारा कंद की उपज का नुकसान 5 से 80 प्रतिशत तक पाया गया है।

 कवचधारी सूत्रकृमि का एकीकृत प्रबंधनः

प्रतिरोधी किस्में:

कवचधारी सूत्रकृमि प्रतिरोधी किस्में जैसे कुफरी स्वर्णा कुफरी नीलिमा और कुफरी सहयाद्री आदि का चयन कवचधारी सूत्रकृमि के प्रबंधन के लिए एक कारगर, किफायती और पर्यावरण हितैषी उपाय है (चित्र 3 अ, ब)। आलू की ‘कुफरी स्वर्णा और कुफरी सहयाद्री, किस्में कवचधारी सूत्रकृमि और झुलसा रोग के लिए संयुक्त प्रतिरोधी हैं।

कवचधारी सूत्रकृमि प्रतिरोधी आलू की किस्म कुफरी स्वर्णाकवचधारी सूत्रकृमि प्रतिरोधी आलू की किस्म कुफरी सहयाद्री

 चित्र 3अ कवचधारी सूत्रकृमि प्रतिरोधी आलू की किस्म कुफरी स्वर्णा

चित्र 3ब. कवचधारी सूत्रकृमि प्रतिरोधी आलू की किस्म कुफरी सहयाद्री

फसल-चक्रः

आलू की तरह कुछ सोलेनेसी परिवार के पौधे जैसे टमाटर, बैंगन आदि कवचधारी सूत्रकृमि के परपोषी पौधे हैं, इसलिए आलू को फसल-चक्र में गैर सोलानेसी फसलों के साथ व्यापक रूप से लेने से कवचधारी सूत्रकृमि की आबादी में कमी आती हैं।

गैर सोलेनेसी फसलें जैसे मूली, बंदगोभी, फूलगोभी, शलजम, लहसुन, गाजर आदि को आलू के साथ तीन-चार साल तक फसल चक्र में लगाने से एवं हरी खाद फसल आदि के उपयोग से कवचधारी सूत्रकृमि की संख्या में 50 प्रतिशत से अधिक कमी आ जाती है तथा उपज में भी वृद्धि होती है।

सहरोपण करके:

आलू को फ्रेंच बीन्स के साथ (3 पंक्तिया आलू की तथा 2 पंक्तिया फ्रेंच बीन्स की) मूली के साथ (2 पंक्तिया आलू की तथा 1 पंक्ति मूली की) के अनुपात में सहरोपण करने से कवचधारी सूत्रकृमि की संख्या में धीरे-धीरे कमी आती है।

ट्रैप फसल:

कवचधारी सूत्रकृमी के लिए अति संवेदनशील आलू की किस्म कुफरी ज्योति को ट्रैप फसल की तरह लगा कर 45 दिन के अन्दर फसल को नष्ट करने से सूत्रकृमि का जीवन चक्र पूरा नहीं हो पाता है तथा कवचधारी सूत्रकृमि की आबादी में कमी होने लगती है।

जैविक नियंत्रणः

जैविक नियंत्रण प्रतिनिधियों, जैसे सुडोमोनास फलूयोरोसेनस या पैसिलोमाइसीस लीलासीनस के 10 कि.ग्रा./हेक्टेयर पर प्रयोग करने पर 8 से 10 प्रतिशत तक कवचधारी सूत्रकृमि की आबादी में कमी आती है। ट्राइकोडर्मा वीरीडी (5 किग्रा/हेक्टेयर) को नीम की खली (5 टन/हेक्टेयर) के साथ मिश्रित कर कवचधारी सूत्रकृमि पीड़ित क्षेत्र में उपयोग करने से कृमि की आबादी में कमी आती है।

कृमिनाशकः

कृमिनाशक कार्बोफ्यूरान 3 जी / 65 किग्रा/हेक्टेयर को पादप रोपण के समय मिट्टी में मिलाने से कृमि की आबादी में कमी आती है।

धुआंरी कीटनाशक, डेजोमेट(90 जी)@ 300-400 किग्रा/हेक्टेयर, कवचधारी सूत्रकृमि की आबादी को नीचे लाने में प्रभावी पाया गया है। लेकिन डेजोमेट को डालने से पहले मिट्टी को पानी डाल कर नम्र बनाना जरूरी होता है तथा डेजोमेट का मिट्टी में मिला कर पॉलिथीन शीट से 1 सप्ताह तक ढक कर रखने की आवश्यकता होती हैं ताकि धुआंरी कीटनाशक की गैस मिट्टी में उपस्थित सूत्रकृमि को नष्ट कर दे

 इसके पश्चात पॉलिथीन शीट को निकाल कर 1 सप्ताह तक खुला छोडने से जितनी भी डेजोमेट की गैस मिट्टी में होती है वह वायु में मिल जाती है (चित्र 4), तथापि, मिट्टी का तापमान 12°C से नीचे है तो डेजोमेट को मिट्टी मे मिलाने के बाद 3 सप्ताह तक पॉलिथीन से ढक कर रख कर 2 सप्ताह खुला छोडने से आलू के बीज की रोपायी करने से आलू के अकुंरण पर विपरीत पर्भाव नही होता है।

हालांकि, कृमिनाशक का दोहरा उपयोग महंगा है, लेकिन यह कृमि की संख्या को कम करने मे सहायक है।

डेजोमेट (90 जी) को मिट्टी में मिलाने की प्रक्रिया

चित्र 4 डेजोमेट (90 जी) को मिट्टी में मिलाने की प्रक्रिया

उपरोक्त प्रबंघन का एकीकरण कर के आलू की फसल में पुटी कृमि की आबादी में कमी लायी जा सकती हैं।

निष्कर्षः

कवचधारी सूत्रक्रमि, आलू का छोटा पर एक शक्तिशाली कीट है। यह, संगरोध महत्व के कारण आज आलू के वैश्विक व्यापार के लिए एक गंभीर खतरा है। भारत में, कवचधारी सूत्रक्रमि के उपस्थिति वाले क्षेत्रो में सख्त नियामक, स्वच्छता उपायों और एकीकृत क्रमि प्रबंधन कार्यो को मजबूति के साथ लेने से भविष्य में कवचधारी सूत्रक्रमि के उन्मूलन की संभावना है।


Authors:

आरती बैरवा*, संजीव शर्मा, ई.पी. वेंकटासलम, प्रियंक हनुमान महात्रे, कैलाश चन्द्र नागा

वैज्ञानिक, पौध संरक्षण विभाग,

भा.कृ.अनु.प.-केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, शिमला-171001 (हिमाचल प्रदेश)

 Email: aarticpri13@gmail.com

Related Posts

Factors influencing seed potato quality in India
भारत में बीज आलू की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले...
Read more
Paired row spacingPaired row spacing
Management practices for Production of Seed Size...
आलू उत्पादन प्रणाली में बीज आकार के कंदों के उत्पादन...
Read more
Field view of different spacing combinationsField view of different spacing combinations
Technological interventions for maximizing Seed Size in...
 आलू में बीज आकार को अधिकतम करने के लिए तकनीकी...
Read more
High yielding new varieties of Potato for...
मध्यप्रदेश के लिए आलू की अधिक उपज देने वाली नई...
Read more
Nitrogen deficiency in PotatoNitrogen deficiency in Potato
Utility and importance of nutrients in potato...
आलू फसल में पोषक तत्वों की उपयोगिता एवं महत्व एक ही...
Read more
Breeder seed production in potato
आलू मे प्रजनक बीज उत्पादन Breeder seed is seed or vegetative propagating material...
Read more
rjwhiteclubs@gmail.com
rjwhiteclubs@gmail.com