Medicinal properties of black cumin and agricultural practices

Medicinal properties of black cumin and agricultural practices

काला जीरा के औषधीय गुण एवं कृषि संबंधित पद्धतियाँ 

काला जीरा जो बुनियम परसियम वनस्पतिक नाम से विख्यात है ऐपीएसी कुल से सम्बन्ध्ति है। यह जीरा काला जीरा या काले बीज, काला केरावे, हिमाली जीरा, काशमीरी जीरा, शाही जीरा, के नाम से भी जाना जाता है तथा इसका धूँऐ जैैैसा व मिट्टी की तरह स्वाद होता है। वस्तुत यह टयूबरस जड़ों वाला शाकीय पौध है जो अधिकतर शीत तथा उपअल्पलाईन जलवायु में उगाया जाता है।

इसका उद्गम स्थान एशिया यानि मध्य एशिया, ईरान, पाकिस्तान, अफगानीस्थान बलूचिस्तान है एवं भारत में पश्चिमी हिमालय के समुद्र तल से 2000-3000 मीटर वाले क्षेत्रों में यह पौध पाया जाता है। सुगंधीनुमा एवं औषधीीय गुणों वाला यह पौध जम्मू एवं कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है। मुख्यतः हिमाचल प्रदेश में लाहौल-स्पीति, पांगी व किन्नौर के वन मण्डलों में पाया जाता है अतः कांगड़ा, मैदानी ईलाके में यह बड़ा भांगल के पास उगाया जाता है।

आकृतितौर पर यह पौध शाकीय है जो ज्यादा से ज्यादा 1 मीटर तक उंचा व शाखाओं वाला होता है जिसके दो पिन्नी वाले पत्ते होते हैं तथा एक से तीन अनुपत्रा यानि बरेक्टस् होते हैं। इसके फूल 3-4 सें. मी. लम्बे, पीले भूरे रंग के प्रायः होते हैं। यह पौध बर्फबारी में अच्छा पन्पता है तथा इसके लिए 21 से 26.5 0 सें. तापमान व 37-62.6 सें. मी. औसत वर्षा अनिवार्य है।

औषधीय गुण

यह पौध औषधीय गुणों से परिपूर्ण है अतः इसका उपयोग प्राचीन काल से भारत की आयुर्वेदिक चिकित्सा प(ती में किया जाता रहा है। इसका उपयोग मसाले के रूप में दन्तपीड़ा में, इसके क्वाथ के कुल्ले व हिक्का में चूर्ण को सिरके के साथ मिलाकर देने से रोगी को आराम मिलता है। इसका प्रयोग जीरक, जीरकालव, अवलेह व जीर्ण जवर तथा अर्क आदि के प्रकार में बच्चों के पेट दर्द आदि में लाभदायक होता है।

इसके बीजाें का उपयोग बुखार, पेट दर्द, डायरिया, गैस, हिचकियाँ व आंत बीमारी को कम करने में प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा पेट की अर्जीणता को दूर करने में यह सक्षम है। इसकी जडे़ कश्मीर में वनस्पति के रूप में खाई जाती हैं।

इसके पक्के हुए फलों में अशेन्शीयल तेल  7 प्रतिशत जो मोनो टरपीन एलडीहाईड में अच्छा पाया गया है। इसके अतिरिक्त कियोमिन एलडीहाईड, टरपीन 38 प्रतिशत और फिनाईल ईथिनोल 26 प्रतिशत व 11 प्रतिशत पी साईमीन होता है जो खाने में मसाले के रूप में प्रयोग आता है।

खेती करने की पद्धतियाँ 

इस अनमोल औषधीय पौधें को प्राकृतिक एवं कृत्रिक दोनों विधियों द्वारा तैयार किया जाता है है। इसे बल्व द्वारा एवं बीजों द्वारा प्रायः अक्तूबर-नवम्बर के माह में तैयार करते हैं जिसे कम से कम तीन वर्ष लग जाते हैं। शीतकालीन मौसम केे बाद लगाए गए बीजों से अंकुरण अपेक्षाकृत कम निकलते है।

इसके लिए रेतीली जलोढ़ मृदा जो प्रचुर मात्रा में कार्बनयुक्त है, उचित पाई गई है। गुणवत्ता वाले अच्छे अंकुरण के लिए सर्व प्रथम बीजों और शालकंदो को प्रशीतन प्रक्रिया द्वारा गुजारा जाता है। खेतों को सही तरीके से तैयार करना चाहिए जिसमें जूताई से लेकर मिट्टी महिन बनान, खाद डालना व मिलना सही मात्रा में एवं क्यारियों से पानी निकासी का अचित प्रबन्ध्न शांमिल है।

बीज बोने का सही समय अक्तूबर है क्योंकि यह पौध बर्फ वाले समय में अच्छी तरह पनपता है। बीजों व बल्वों को कतारों में बीजना लाभदायक रहता है। कतारों का फासला लगभग 45 सें. व बीजों का फासला लगभग 10-15 सें. मी. होना आवश्यक है जिसके लिए इन्हें सितम्बर माह में बीज देना चाहिए

यह बीज बर्फ पिघलने पर निकल जाते हैं व पिघलने पर खेतों में निराई-गुडाई कर देनी चाहिए जिससे पौधें की अच्छी वृ(ि हो जाए। इसके बीज जुलाई-अगस्त तक पक कर तैयार हो जाते है। सिंचाई का उचित प्रबंध् मिट्टी के प्रकार पर भी निर्धरित है।

सप्ताह में कम से कम एक बार सिंचाई करना सर्दियों में उचित रहता है। ऐसा करने से पौध् अच्छी तरह निकलती है अथवा आमतौर से पौधें को क्यारिओं में लगातार पानी देते रहना चाहिए जो पौधें की मृतक संख्या को कम करने में साहयक है।

फसल कटान व बीज इकत्रित करने का समय

फसल पकने पर इसे काटकर गठरियों में बांध्कर रख लें परंतु पूरी तरह बीज पकने से पूर्व इस प्रक्रिया को करें। गठरियों को तत्पश्चात ध्ूप में उपयूक्त स्थान पर उल्टा कर रखें। नीचे तरपाल आदि बिछा कर अवश्य रखें ताकि बीज सूख कर उस पर गिर जाऐ ंतो इक्ट्ठा करने में कोई कठनाई न हो। पूरी तरह जीरा ध्ूप से सूखने के पश्चात झाड़ ले और साफ कर इकत्रित कर बन्द डिब्बों में रख लें ज्यादा खूली हवा में रखने से जीरे की सुगन्ध् कम होने का संदेह रहता है।

किट रोग

इस पौधे में किटों का प्रकोप पाया गया है। नौ प्रकार के किट, जैसे थ्रीप्पस एवं ऐफिड इन पौधें में फूलों एवं बीज बनने के समय में लगते हैं। थाईसेनो प्लूसिया , ओरीकालसिया, थासीगनेटा, हैलिकोवरप आरमीजीरा, पैपिलीयो मैकोन, एमसैक्टा मौरी, सपाईसोमा, ओवलीक्यूआ एवं हाईपूरस सपीसीस् परन्तु सबसे ज्यादा प्रकोप गोभी सेमीलूपर का देखा गया है।

इसके रोग नियंत्राण के लिए कुछ कीटनाशकों का प्रयोग जैसे क्लोरोपाईफोस 0.05ःए 0.05ः मेलाथियोन, 0.075ःए साईपर मिथ्रिन व 0.01 प्रतिशत डाईक्लोरोफोस का छिड़काव 15 दिनों में करते रहें। साथ ही साथ साफ साफई का भी पूर्ण ध्यान रखें।

पौध् रोग

बलब रॉट

यह रोग काला जीरा में फयूजेरयम सोलेनाई द्वारा फैलाया जाता है जो एक प्रकार का फफूंद है। यह रोग हिमाचल प्रदेश में एवं पदर वैली और जम्मू कश्मीर क्षेत्राें में पाया जाता है। जो बंसत ऋतू के आखिरी दिनों में देखा गया है।

इसके लक्षण खेंतो में एक जगह एकत्रित होते हैं जो पौधें की पत्तियाँ एवं ऊपरी भागों को सुखा देते हैं व बलबों को सड़ा देते हैं। इसके 80 से 95 प्रतिशत का प्रकोप अधिक आक्रमण पर देखा गया है।

नियंत्राण के लिए बलबों को कार्बन्डाजिम में आधे घन्टे के लिए डिबोकर रखें और हवा में सुखने के पश्चात रोपित करें अगर बीमारी खेतों में दिखाई दे तो कप्तान 0.2 प्रतिशत या मैन्कोजैन 0.25 प्रतिशत और कार्बन्डाजिम 0.1 के घोल के साथ पौधें की सिंचाई करें। पूर्ण रूप से ग्रसित पौधें को संपूर्ण रूप से निकाल फैंकें । सिंचाई ज्यादा और न ही कम करें।


Authors

डा. सुनीता चंदेल प्राध्यापक एवम् डा. सविता जन्डायक

सहायक प्राध्यापक, पादप रोग विभाग

डा. वाई. एस. परमार औद्यानिकी वानिकी विश्वविद्यालय नौणी, सोलन, हिमाचल प्रदेश

Email: schandelmpp@rediffmail.com

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