Impact of changing environment on agriculture

भारत में खेती का बडा भाग मौसमी बरसात पर ही निर्भर हैं। बदलते मौसम के कारण खेती को नुकसान हो रहा है। देश में फसल उत्पादन में उतार-चढ़ाव का कारण बहुत कम या अत्यधिक वर्षा, अत्यधिक नमी, असामान्‍य तापमान, रोग व कीट प्रकोप, बेमौसम बारिश, बाढ़ सूखा और ओलेे आदि मुख्य हैं।

पिछले कुछ सालों से मौसम चक्र ने हमें चौंकाने का जो सिलसिला शुरू किया है जैसे की अतिवृष्टि और अनावृष्टि, ये तो हमारे लिए और खेती के लिए मुसीबत बन गया हैं।

पिछले वर्ष की अपर्याप्त मानसूनी बारिश से जो दुष्प्रभाव पैदा हुये है, वे बीते दिनों में और बढ़ गये हैं। जलवायु परिवर्तन जैसे तापमान में वृद्धि के परिणामस्वरूप आने वाले बाढ़ सूखा आदि से खेती का नुकसान और बढ़ेगा।

किसान को जहां खरीफ फसल की बुवाई के दौरान सूखे ने परेशानी में डाला था वहीं, इस बेमौसम बरसात से रबी की फसल में उन्हें बुरी तरह तबाह कर दिया। अध्ययनों के आधार पर कृषि वैज्ञानिको ने पाया की प्रत्येकसेल्सियस तापमान बढ़ने पर गेहू का उत्पादन 4-5 करोड़ टन कम हो जाएगा। इसी प्रकारसेल्सियस तापमान बढ़ने से धन का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जाएगा।

कृषि विभाग के अनुसार गेहू की पैदावार का अनुमान 82 मिलियन टन रह जाएगा। जलवायु परिवर्तन से फलों की उत्पादकता ही प्रभावित नहीं होगी वरना उनकी गुणवव्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटीन की कमी पायी जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर मनुष्यों का स्वास्थ्य भी प्रभावित होगा।

इस तेजी से बढ़ते हुई जनसंख्या के कारण भोजन की मांग में वृद्धि हुई हैं। इससे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन का दबाव बनता हैं और जिससे पर्यावरण में परिवर्तन होने लगे है। पर्यावरण में परिवर्तन का सीधा प्रभाव खेती पर पड़ेगा क्योंकि तापमान, वर्षा आदि में बदलाव आने से मिटटी की क्षमता, कीटाणु और फैलने वाली बीमारिया अपने सामान्य तरिके से अलग प्रसारित होगी।

भारत मौसम विज्ञानं विभाग ने भविष्यवाणी कि है कि इस साल मानसून सामान्य यानि  96 से 104  फीसदी बारिश होने की बात कही गई है। बढ़ता प्रदूषण व प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से पर्यावरण में जो बदलाव आ रहा है, उसका कृषि व फसलों पर अधिक असर पड़ रहा है।

बरसात का मौसम जो पहले लंबा चलता था, अब उतनी ही बारिश कम समय में रही है। ऐसे बदलावों से किसानों को भी सचेत होना होगा तथा फसल के अच्छे उत्पादन के लिए उसे मौसम की समय-समय पर जानकारी होना आवश्यक है। इसके लिए सरकार ने निर्णय लिया है कि हर जिला में किसानों को सूचना देने के लिए एक केंद्र खोला जाएगा। इस सूचना का फायदा यह होगा कि फसलों को नुकसान से बचा सकेंगे।

इस प्रकार बदलते पर्यावरण के कई ऐसे कारक हैं जो कृषि को सीधे प्रभावित करते हैं जैसे की -

औसत तापमान में वृद्धि

पिछले कई दशकों में तापमान में काफी वृद्धि हुई है। औद्योगीकरण के प्रारंभ से अर्थात 1780 से लेकर अब तक पृथ्वी के तापमान में 0.7 सेल्सियस वृद्धि हो चुकी है।

कुछ पौधे ऐसे होते हैं जिन्हें एक विशेष तापमान की आवश्यकता होती है, वायुमंडल का तापमान बढ़ने से उनके उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा उत्पादन में भारी कमी आती है। उदाहरण के लिए आज जहां गेहूं, जौ, सरसो और आलू की खेती हो रही है तापमान बढ़ने से इन फसलों की खेती न हो सकेगी, क्योंकि इन फसलों को ठंडक की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन होने से स्थानीय जैव विविधता में परिवर्तन उनके क्षरण का कारण हो सकता है।

अधिक तापमान बढ़ने से मक्का, धान या ज्वार आदि फसलों का क्षरण हो सकता है क्योंकि इन फसलों में अधिक तापमान के कारण दाना नहीं बनता है अथवा कम बनता है। इससे इन फसलों की खेती करना असंभव हो सकता है।

इसके अतिरिक्त तापमान वृद्धि से वर्षा में कमी होती है जिससे मिट्टी में नमी समाप्त हो जाती है। भूमि में निरंतर तापमान में कमी व वृद्धि से अपक्षय की क्रियाएं प्रारंभ हो जाती हैं। इसी के साथ तापमान वृद्धि से गम्भीर सूखे की संभावना में भी वृद्धि हुई है।

वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन

वर्षा की मात्रा व तरीकों में परिवर्तन से मृदाक्षरण और मिट्टी की नमी पर प्रभाव पड़ता है। वर्षा का कृषि पर महत्वपूर्ण रूप से प्रभाव पड़ता है। सभी पौधों को जीवित रहने के लिए कम से कम पानी की आवश्यकता रहती है। इसी कारण वर्षा कृषि क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है और इसके अंतर्गत भी नियमित रूप से हुई वर्षा का महत्व अधिक है। बहुत अधिक या बहुत कम वर्षा भी फसलों के लिए हानिकारक सिद्ध होती है।

कार्बन-डाइ-ऑक्साइड में वृद्धि से वातावरण में नमी

कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से व तापमान में वृद्धि से पेड़-पौधों तथा कृषि पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। यह परिवर्तन कुछ क्षेत्रों के लिए लाभदायक हो सकता है तो कुछ क्षेत्रों के लिए नुकसानदायक।

ओजोन परत में कमी

ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का ओजोन परत पर विनाशकारी प्रभाव पड़ रहा है। ग्रीनहाउस गैसों के कारण ओजोन छतरी छिपती जा रही है। ओजोन परत के मात्र 1 प्रतिशत की छीजन से पराबैंगनी किरणों की मात्रा में 2 प्रतिशत की बढ़ोतरी और उसी अनुपात में इंसानी जीवन तथा खाद्य पदार्थों के उत्पादन पर भी विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।

जलवायु प्रभाव को कम करने के प्रमुख उपाय

खेत में जल प्रबंधन

तापमान वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती हैं। ऐसे में जमीन का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक उपयोगी एवं सहयोगी कदम हो सकता हैं। वाटर शेड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा के पानी को संचित कर सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। इससे जहां एक और हमे सिंचाई की सुविधा मिलेगी वही दूसरी और भू-जल पुनर्भरण में भी मदद मिलेगी।

जैविक एवं समग्रित (मिश्रित) खेती

खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहां एक और मृदा की उत्पादकता घटती हैं वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रंखला के माध्यम से मानव शरीर में पहुंच जाती हैं। जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं।

रासायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी इजाफा होता हैं। अतः हमे जैविक खेती करने की तकनीकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए। एकल कृषि की बजाय हमे समग्रित कृषि में जोखिम कम होता हैं। समग्रित खेती में अनेक फसलों का उत्पादन किया जाता हैं जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त हो जाए तो दूसरी फसल में किसान की रोजी-रोटी चल सकती हैं।

फसल उत्पादन में नयी तकनीकों का विकास

जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों को मध्यनजर रखते हुए ऐसे बीजों की किस्मों का विकास करना पड़ेगा जो नए मौसम के अनुकूल हो। हमे ऐसी किस्मों को विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखे व बाढ़ की विभीषिकाओं को सहन करने में सक्षम हो। हमे लवणता व क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी इजाद करना होगा।

फसल सयोजन में परिवर्तन

जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमे फसलों के प्रारूप एवं उनके बीज बोने के समय में भी परिवर्तन करना होगा। पारंपरिक ज्ञान एवम् नए तकनीको के समन्वयन तथा समावेश द्व्यारा वर्षा जल संरक्षण एवम् कृषि जल का उपयोग मिश्रित खेती व इंटरक्रॉपिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता हैं

कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परिवर्तन के खतरों से निजात पा सकते हैं। फसल बीमा, मौसमी बीना के विकल्पों को मुहैया करना ताकि लघु तथा सीमांत किसान इनका लाभ उठा सके।

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचने के लिए हमे अपने संसाधनों का न्याय संगत इस्तेमाल करना होगा व भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमे अपने पारंपिक ज्ञान को अमल में लाना पड़ेगा।

अब इस बात की सख्त जरूरत हैं की हमे खेती में ऐसे पर्यावरण मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को बरकरार रख सके व अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सके।


Authors:

योगेश कुमार, राज सिंह एवं अनिल कुमार

कृषि मौसम विज्ञान विभाग

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविधालय, हिसार

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