Important diseases of wheat and barley crops and their prevention

Important diseases of wheat and barley crops and their prevention

गेहूँ एवं जौ की फसलों में लगने वाले महत्वपूर्ण रोग एवं उनकी रोकथाम  

कृषि फसलों में लगने वालें रोग अनेक पादप रोगजनकों (जैसे कवक, जीवाणु, विषाणु, सूत्रकृमि, फाइटोप्लाज्मा इत्यादि) एवं वातावरण कारकों के द्वारा उत्पन्न होते हैं। रोगजनकों से होने वाले रोग अनुकूल परिस्थितियों में फसल को भारी क्षति पहुंचा सकते है। अतः इन रोगों का शुरूआत में ही नियंत्रण करना अति आवश्यक है।

गेहूँ एवं जौ प्रमुख रबी फसलों में से एक हैं जो हमारे देश भारतवर्ष में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा में महती योगदान देती हैं। इन फसलों के महत्वपूर्ण रोग एवं उनका प्रबंधन इस प्रकार है –   

गेहूं में लगने वाले प्रमुख रोग:

1. पीली गेरूई (धारीदार रतुआ):

यह रोग दिसम्बर-जनवरी में देश के उत्तर-पश्चिमी मैदानी भागों में अधिक कोहरा एवं ठंड होने पर आता है। इसका रोगकारक पक्सीनिया स्ट्राइफॉर्मिस एफ. स्पे. ट्रिटिसी है। ठंडा तापमान (10-16 °C), बारिश अथवा ओस के साथ पत्ती नम होना रोग विकास के लिए अनुकूल होता है। 

रोग-लक्षण:

सर्वप्रथम यह रोग चमकीले पीले-नारंगी स्फॉट (पस्च्युल्स) दाने या सॉराई के रूप में पत्तियों पर धारियों में प्रकट होता है। रोग के लक्षण पत्ती आवरण, बाली की गर्दन और ग्लूम्स पर भी बन सकते है। फफोले मुख्य रूप से ऊपरी पत्ती की सतहों पर एपिडर्मिस को तोडकर पीले-नारंगी यूरेडोबीजाणु (यूरेडोस्पॉर्स) पैदा करते हैं।

रोग का ज्यादा प्रकोप होने पर खेत दूर से पीला दिखाई पड़ता है। यह फसल उपज को काफी हानि पहुँचाता है।

चित्र 1: गेहूँ का पीला रतुआ रोग

रोग-प्रबंधन:

  • नत्रजन युक्त उर्वरकों की अधिकता पीला रतुआ रोग को बढाती है। अत: संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें।
  • रोगरोधी किस्में: डीबीडब्ल्यू 303, डीबीडब्ल्यू 187, डीबीडब्ल्यू 173, एचडी 3086 आदि की बुवाई करें।
  • रोग के दिखाई देने के तुरंत बाद प्रोपिकॉनाजोल 25% ई.सी. या टेबूकोनाजोल 25% ईसी के1% का छिडकाव अथवा टेबूकोनाजोल 25% + ट्राइफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 50% डब्ल्यूजी का 0.06% का छिडकाव करें। रोग की उग्रता व प्रसार को देखते हुए छिडकाव 15-20 दिन बाद दोहरायें।

2. पत्ती रतुआ अथवा भूरा रतुआ रोग:

यह रोग पक्सीनिया रिकॉन्डिटा एफ. स्पे. ट्रिटिसी  कवक के कारण होता है। गर्म (15-20 °C) नम (बारिश या ओस) मौसम के दौरान रोग का विकास सबसे अनुकूल होता है।

रोग-लक्षण:

प्रारम्भ में छोटे, गोल, नारंगी स्फॉट (पस्च्युल्स) या सोराई बनते हैं, जो पत्तियों पर अनियमित रूप से बिखरे रहते हैं। भूरे रतुआ में पीले रतुआ की अपेक्षाकृत कुछ बडे पस्च्युल्स बनते हैं। सोराई परिपक्वता के साथ भूरे रंग की हो जाती है। संक्रमण ज्यादा होने से उपज में कमी आती है।

चित्र 2: गेहूँ का भूरा रतुआ रोग

रोग-प्रबंधन:

  • नत्रजन युक्त उर्वरकों की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
  • रोगरोधी किस्में: नई प्रतिरोधी किस्में डीबीडब्ल्यू 303, डीबीडब्ल्यू 222, डीबीडब्ल्यू 187 आदि हैं।
  • फसल पर रोग के दिखाई देने के तुरंत बाद प्रोपिकॉनाजोल 25% ई.सी. अथवा टेबूकोनाजोल 25% ईसी के1% का छिडकाव अथवा टेबूकोनाजोल 25% + ट्राइफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 50% डब्ल्यूजी के 0.06% का छिडकाव करें। रोग की उग्रता व प्रसार को देखते हुए छिडकाव 15-20 दिन बाद दोहरायें।

3. चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्डयू) रोग:

यह रोग ब्लूमेरिया ग्रेमिनिस एफ.स्पे. ट्रिटिसी (एरीसाइफी ग्रेमिनिस) कवक द्वारा लगता है। संक्रमण तथा रोग के बढ़ने के लिये अनुकूलतम तापमान 20 °C है।

रोग-लक्षण:

सर्वप्रथम पत्तियों की ऊपरी सतह पर अनेक छोटे-छोटे सफेद धब्बे बनते हैं जो बाद में पत्ती की निचली सतह पर भी दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण में यह धब्बे शीघ्र बढ़ते हैं और पर्णच्छद, तना, बाली के तुषों (ग्लूम्स) एवम् शूकों (ऑन्स) पर भी फैल जाते हैं। रोगग्रस्त पत्तियाँ सिकुड़कर ऐंठने लगती हैं और विकृत हो जाती हैं तथा सूख जाती है। रोगग्रस्त पौधों की बालियों में दानें छोटे एवं सिकुड़े हुए और कम बनते हैं।

चित्र 3: गेहूँ का चूर्णिल आसिता रोग

रोग-प्रबंधन:

  • रोगी पौध-अवशेषों नष्ट करें। संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए।
  • रोग की रोकथाम के लिए 3 वर्षों तक गैर-अनाज फसलों को उगायें।
  • रोगरोधी किस्में: सदैव रोगरोधी या रोग सहिष्णु किस्में जैसे डीबीडब्ल्यू 173 आदि ही उगाना चाहिये।
  • लक्षण दिखने पर प्रोपीकोनाजोल (1 मि.ली. /लीटर पानी) का छिड़काव करें।

4. गेहूं में करनाल बंट (अधूरा बंट):

अनेक देशों की संगरोध सूची में शामिल होने के कारण यह अति महत्वपूर्ण है। रोगजनक टिलेशिया इंडिका कवक है। आपेक्षिक आर्द्रता 70% से अधिक और दिन का तापमान 18–24 °C व मृदा तापमान 17–21 °C होना, एंथेसिस के दौरान बादल छाना या वर्षा करनाल बंट की गंभीरता बढाता है।

रोग-लक्षणः

इस रोग को फसल की कटाई से पहले पहचान करना आसान नही है। फसल की कटाई के पश्चात रोग को आसानी से दृश्टि परीक्षण द्वारा पहचाना जा सकता है। काले रंग के टीलियोबीजाणु बीज के कुछ भाग का स्थान ले लेते है। रोगी दानों को कुचलने पर ये सड़ी हुई मछली की दुर्गन्ध देते हैं।

 चित्र 4: करनाल बंट रोग से ग्रसित बाली व गेहूँ के दानें

रोग-प्रबंधन:

  • पुष्पन या एंथेसिस के समय प्रोपीकोनाज़ोल 25 ईसी @ 0.1% का पर्णीय छिडकाव करें।
  • अंत: फसलीकरण (इंटरक्रॉपिंग) व फसल चक्र को अपनाना चाहिए ।
  • करनाल बंट की रोकथाम के लिए क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।

5. अनावृत कंड या खुला कंडवा (लूज स्मट) रोग:

यह रोग अस्टीलैगो सेगेटम  प्रजाति ट्रिटीसी  कवक से होता है। हवा और मध्यम बारिश व ठंडा तापमान (16-22 °C) रोग के लिए अनुकूल हैं।

रोग-लक्षण: 

इस रोग के लक्षण केवल बालियां निकलने पर दृष्टिगत होते हैं। इस रोग में पूरा पुष्पक्रम (रैचिस को छोडकर) स्मट बीजाणुओं के काले चूर्णी समूह में परिवर्तित हो जाता है। यह चूर्णी समूह प्रारम्भ में पतली कोमल धूसर झिल्ली से ढका होता है जो शीघ्र ही फट जाती है और बडी संख्या में बीजाणु वातावरण में फैल जाते हैं।

यें काले बीजाणु हवा द्वारा दूर स्वस्थ पौंधों तक पहुंच जाते हैं जहाँ ये अपना नया संक्रमण करते हैं।  

चित्र 5: गेहूँ का अनावृत कंड रोग

रोग-प्रबंधन:

  • बीज को कार्बोक्सीन (5%) + थीरम (37.5%) के 2.0-2.5 ग्राम प्रति किग्रा से उपचार करें।
  • मई-जून के माह में बीज को पानी में 4 घंटे (सुबह 6-10 बजे तक) भिगोने के बाद कड़ी धूप में अच्छी तरह सुखाने पर कवकजाल मर जाता है जिससे इस बीज की बुआई करने पर नई फसल में यह रोग नही पनपता है।
  • क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।

ौ (बार्ले) के प्रमुख रोग:

6. जौं का पीला रतुआ:

जौ का पीला रतुआ रोग पक्सीनिया स्ट्राईफॉर्मिस एफ स्पे होर्डाई  नामक कवक से होता है।

रोग-लक्षण:

पीला रतुआ का संक्रमण सर्दी के मौसम में प्रारम्भ होता है जब तापमान 10–20 °C के बीच होता है और नमी प्रचुरता में उपलब्ध होती है। रोग के लक्षण संकरी धारियों के रूप में प्रकट होते हैं जिनमें पीले से संतरी पीले रंग के स्फॉट (पस्च्यूल्स) पत्ती के फलक, पत्ती आवरण, गर्दन और ग्लूम्स पर बनते हैं।

तीव्र संक्रमण में यह पस्च्यूल्स बालियों और ऑन्स पर भी दिखाई दे सकते हैं। इसका अधिक प्रकोप होने से जौ की उपज मारी जाती है।

चित्र 6: जौ का पीला रतुआ रोग

रोग-प्रबंधन:

  • प्रतिरोधी/सहिष्णु किस्मों जैसे डीडब्ल्यूआरयूबी 52, डीडब्ल्यूआरबी 73, डीडब्ल्यूआरयूबी 64, डीडब्ल्यूआरबी 91 और डीडब्ल्यूआरबी 92 आदि की बुवाई करें।
  • रोग के दिखाई देने के तुरंत बाद प्रोपिकोनाज़ोल 25% ईसी @ 0.1% या ट्रायडाइमफ़ोन 50% @ 0.1% या टेबूकोनाज़ोल 9% ईसी @ 0.1% (1 मिली दवा प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करें।

7. जों का अनावृत कंडवा (लूज स्मट):

रोग-लक्षण:

पूरा पुष्पक्रम (रैचिस को छोडकर) काले चूर्ण समूह वाली धूसर बाली में बदल जाता है। रोग अन्त: बीज जनित रोगज़नक़ अस्टिलगो नुडा  के कारण होता है और केवल फूल आने के समय ही प्रकट होता है। संक्रमित बालियों में नुकसान सौ फीसदी रहता है।

चित्र 7: जौ का अनावृत कंडवा (लूज स्मट) रोग

रोग-प्रबंधन:

  • अनावृत कंडवा के के लिए कार्बोक्सिन 75% डब्ल्यू पी या कार्बेंडाजिम 50% डब्ल्यू पी या कार्बोक्सिन 5% + थीरम 37.5% डब्ल्यू एस. @ 2.0-2.5 ग्राम/किग्रा बीज से बीज उपचार करें।
  • बीज को मई-जून के महीने में सौर उपचारित किया जा सकता है। बीज को चार घंटे के लिए पानी में भिगोकर 10-12 घंटे के लिए धूप में रख दें। इसके बाद बीजों को सूखी जगह पर भंडारित करें।
  • खेत में संक्रमित बालियों को एकत्र करके करके खेत के बाहर जला दें।

8. जौंं का  आवृत कंडवा रोग:

जौ का यह रोग अस्टीलैगो होर्डाई  नामक कवक से होता है।

रोग-लक्षण:

गहरे भूरे रंग के स्मट बीजाणु पौधों की पूरी बाली की जगह लेते हैं और बीजाणु पौधे की परिपक्वता तक एक पारदर्शी झिल्ली से घिरे रहते हैं। थ्रेसिंग से बीजाणु अलग होकर स्वस्थ बीज को संक्रमित कर देते हैं।

चित्र 8: जौ का आवृत कंडवा रोग

रोग-प्रबंधन:

  • आवृत कंडवा के लिए कार्बोक्सिन 5% + थीरम 37.5% डब्ल्यूएस @ 2.0-2.5 ग्रा/किग्रा बीज या टेबूकोनाजॉल 2 डीएस (2% डब्ल्यू/डब्ल्यू) से @ 1.5 ग्राम/किलोग्राम बीज से बीज उपचार करें।
  • बीज को मई-जून के महीने में सौर उपचारित किया जा सकता है। बीज को चार घंटे के लिए पानी में भिगोकर 10-12 घंटे के लिए धूप में रख दें। इसके बाद बीजों को सूखी जगह पर भंडारित करें।
  • खेत में संक्रमित बालियों को एकत्र करके करके खेत के बाहर जला दें।

9. पत्ती झुलसा या स्पॉट ब्लॉच:

पत्ती झुलसा मुख्यत: बाइपोलारिस सोरोकिनियाना द्वारा उत्पन्न होता है।

रोग-लक्षण:

स्पॉट ब्लॉच रोगज़नक़ पौधों के सभी भागों यानी इंटरनोड्स, तना, नोड्स, पत्तियों, तुष, ग्लूम्स और बीज में रोग के लक्षण पैदा करने में सक्षम है। पत्तियों पर शुरुआती विक्षत छोटे, गहरे भूरे रंग के 1 से 2 मिमी लंबे विक्षत होते हैं जो बिना हरिमाविहीन परिधि के होते हैं।

रोग सुग्राही किस्मों में यें धब्बें या विक्षत जल्दी बढकर हल्के भूरे से गहरे भूरे रंग के अंडाकार अथवा लम्बें ब्लोच्स में बदल जाते हैं जो पत्ती की झुलसा जैसा प्रतीत होते हैं। अनुकूल वातावरण में बालियां (स्पाइकलेट्स) संक्रमित हो जाती है जिससे दानों का आकार सिकुड़ जाता है।

चित्र 7: जौ का पत्ती झुलसा या स्पॉट ब्लॉच रोग

रोग-प्रबंधन:

  • स्वस्थ रोगमुक्त फसल के लिए बुवाई हेतू स्वस्थ एवं रोगमुक्त बीज का चयन करें।
  • कार्बोक्सिन 5% + थाइरम 37.5% के 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से बीज उपचार करें।
  • सस्य क्रियाएं: फसल चक्र को अपनाना, सही मात्रा में उर्वरक विशेषत: नत्रजनयुक्त उर्वरक का प्रयोग व फसल अवशेषों, खरपतवारों एवं कोलेट्रल पोषक पौधों को नष्ट करें। संस्तुत बीज दर को अपनाए।
  • रोगरोधी किस्मों का प्रयोग: क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत स्पॉट ब्लोच प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें।
  • पर्णीय छिडकाव: प्रोपिकोनाज़ोल या क्रेसोक्सिम-मिथाइल 3% एससी @ 0.1% और मैनकोज़ेब 75% डब्ल्यूपी @ 0.2% के साथ पर्ण छिडकाव करके रोग प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया जा सकता है।

Authors:

रविन्द्र कुमार, चरण सिंह, अंकुश कुमार, ईश्वर सिंह, चंद्र नाथ मिश्र, उमेश आर. काम्बले, विकास गुप्ता एवं संतोष कुमार बिश्नोई  

भाकृअनुप–भारतीय गेहूँ एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल- 132001

Email: ravindrakumarbhu@gmail.com

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